ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ भाग3

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 14:51:20
  ||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १८ || part 3 भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः | ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ||५५|| या ज्ञान भक्ति सहज| भक्तु एकवटला मज| मीचि केवळ हें तुज| श्रुतही आहे ||११३०|| जे उभऊनियां भुजा| ज्ञानिया आत्मा माझा| हे बोलिलों कपिध्वजा| सप्तमाध्यायीं ||११३१|| ते कल्पादीं भक्ति मियां| श्रीभागवतमिषें ब्रह्मया| उत्तम म्हणौनि धनंजया| उपदेशिली ||११३२|| ज्ञानी इयेतें स्वसंवित्ती| शैव म्हणती शक्ती| आम्ही परम भक्ती| आपुली म्हणो ||११३३|| हे मज मिळतिये वेळे| तया क्रमयोगियां फळे| मग समस्तही निखिळें| मियांचि भरे ||११३४|| तेथ वैराग्य विवेकेंसी| आटे बंध मोक्षेंसीं| वृत्ती तिये आवृत्तीसीं| बुडोनि जाय ||११३५|| घेऊनि ऐलपणातें| परत्व हारपें जेथें| गिळूनि चाऱ्ही भूतें| आकाश जैसें ||११३६|| तया परी थडथाद| साध्यसाधनातीत शुद्ध| तें मी होऊनि एकवद| भोगितो मातें ||११३७|| घडोनि सिंधूचिया आंगा| सिंधूवरी तळपे गंगा| तैसा पाडु तया भोगा| अवधारी जो ||११३८|| कां आरिसयासि आरिसा| उटूनि दाविलिया जैसा| देखणा अतिशयो तैसा| भोगणा तिये ||११३९|| हे असो दर्पणु नेलिया| तो मुख बोधुही गेलिया| देखलेंपण एकलेया| आस्वादिजे जेवीं ||११४०|| चेइलिया स्वप्न नाशे| आपलें ऐक्यचि दिसे| ते दुजेनवीण जैसें| भोगिजे का ||११४१|| तोचि जालिया भोगु तयाचा| न घडे हा भावो जयांचा| तिहीं बोलें केवीं बोलाचा| उच्चारु कीजे ||११४२|| तयांच्या नेणों गांवीं| रवी प्रकाशी हन दिवी| कीं व्योमालागीं मांडवी| उभिली तिहीं ||११४३|| हां गा राजन्यत्व नव्हतां आंगीं| रावो रायपण काय भोगी ? | कां आंधारु हन आलिंगी| दिनकरातें ? ||११४४|| आणि आकाश जें नव्हे| तया आकाश काय जाणवे ? | रत्नाच्या रूपीं मिरवे| गुंजांचें लेणें ? ||११४५|| म्हणौनि मी होणें नाहीं| तया मीचि आहें केहीं| मग भजेल हें कायी| बोलों कीर ||११४६|| यालागीं तो क्रमयोगी| मी जालाचि मातें भोगी| तारुण्य कां तरुणांगीं| जियापरी ||११४७|| तरंग सर्वांगीं तोय चुंबी| प्रभा सर्वत्र विलसे बिंबीं| नाना अवकाश नभीं| लुंठतु जैसा ||११४८|| तैसा रूप होऊनि माझें| मातें क्रियावीण तो भजे| अलंकारु का सहजें| सोनयातें जेवीं ||११४९|| का चंदनाची द्रुती जैसी| चंदनीं भजे अपैसी| का अकृत्रिम शशीं| चंद्रिका ते ||११५०|| तैसी क्रिया कीर न साहे| तऱ्ही अद्वैतीं भक्ति आहे| हें अनुभवाचिजोगें नव्हे| बोलाऐसें ||११५१|| तेव्हां पूर्वसंस्कार छंदें| जें कांहीं तो अनुवादे| तेणें आळविलेनि वो दें| बोलतां मीचि ||११५२|| बोलतया बोलताचि भेटे| तेथें बोलिलें हें न घटे| तें मौन तंव गोमटें| स्तवन माझें ||११५३|| म्हणौनि तया बोलतां| बोली बोलतां मी भेटतां| मौन होय तेणें तत्वतां| स्तवितो मातें ||११५४|| तैसेंचि बुद्धी का दिठी| जें तो देखों जाय किरीटी| तें देखणें दृश्य लोटी| देखतेंचि दावी ||११५५|| आरिसया आधीं जैसें| देखतेंचि मुख दिसेअ| तयाचें देखणें तैसें| मेळवी द्रष्टें ||११५६|| दृश्य जाउनियां द्रष्टें| द्रष्टयासीचि जैं भेटे| तैं एकलेपणें न घटे| द्रष्टेपणही ||११५७|| तेथ स्वप्नींचिया प्रिया| चेवोनि झोंबो गेलिया| ठायिजे दोन्ही न होनियां| आपणचि जैसें ||११५८|| का दोहीं काष्ठाचिये घृष्टी- | माजीं वन्हि एक उठी| तो दोन्ही हे भाष आटी| आपणचि होय ||११५९|| नाना प्रतिबिंब हातीं| घेऊं गेलिया गभस्ती| बिंबताही असती| जाय जैसी ||११६०|| तैसा मी होऊनि देखतें| तो घेऊं जाय दृश्यातें| तेथ दृश्य ने थितें| द्रष्टृत्वेंसीं ||११६१|| रवि आंधारु प्रकाशिता| नुरेचि जेवीं प्रकाश्यता| तेंवीं दृश्यीं नाही द्रष्टृता| मी जालिया ||११६२|| मग देखिजे ना न देखिजे| ऐसी जे दशा निपजे| ते तें दर्शन माझें| साचोकारें ||११६३|| तें भलतयाही किरीटी| पदार्थाचिया भेटी| द्रष्टृदृश्यातीता दृष्टी| भोगितो सदा ||११६४|| आणि आकाश हें आकाशें| दाटलें न ढळें जैसें| मियां आत्मेन आपणपें तैसें| जालें तया ||११६५|| कल्पांतीं उदक उदकें| रुंधिलिया वाहों ठाके| तैसा आत्मेनि मियां येकें| कोंदला तो ||११६६|| पावो आपणपयां वोळघे ? | केवीं वन्हि आपणपयां लागे ? | आपणपां पाणी रिघे| स्नाना कैसें ? ||११६७|| म्हणौनि सर्व मी जालेपणें| ठेलें तया येणें जाणें| तेंचि गा यात्रा करणें| अद्वया मज ||११६८|| पैं जळावरील तरंगु| जरी धाविन्नला सवेगु| तरी नाहीं भूमिभागु| क्रमिला तेणें ||११६९|| जें सांडावें कां मांडावें| जें चालणें जेणें चालावें| तें तोयचि एक आघवें| म्हणौनियां ||११७०|| गेलियाही भलतेउता| उदकपणेंं पंडुसुता| तरंगाची एकात्मता| न मोडेचि जेवीं ||११७१|| तैसा मीपणें हा लोटला| तो आघवेंयाचि मजआंतु आला| या यात्रा होय भला| कापडी माझा ||११७२|| आणि शरीर स्वभाववशें| कांहीं येक करूं जरी बैसे| तरी मीचि तो तेणें मिषें| भेटे तया ||११७३|| तेथ कर्म आणि कर्ता| हें जाऊनि पंडुसुता| मियां आत्मेनि मज पाहतां| मीचि होय ||११७४|| पैं दर्पणातेंं दर्पणें| पाहिलिया होय न पाहणें| सोनें झांकिलिया सुवर्णें| ना झांकें जेवीं ||११७५|| दीपातें दीपें प्रकाशिजे| तें न प्रकाशणेंचि निपजे| तैसें कर्म मियां कीजे| तें करणें कैंचें ? ||११७६|| कर्मही करितचि आहे| जैं करावें हें भाष जाये| तैं न करणेंचि होये| तयाचें केलें ||११७७|| क्रियाजात मी जालेपणें| घडे कांहींचि न करणें| तयाचि नांव पूजणें| खुणेचें माझें ||११७८|| म्हणौनि करीतयाही वोजा| तें न करणें हेंचि कपिध्वजा| निफजे तिया महापूजा| पूजी तो मातें ||११७९|| एवं तो बोले तें स्तवन| तो देखे तें दर्शन| अद्वया मज गमन| तो चाले तेंचि ||११८०|| तो करी तेतुली पूजा| तो कल्पी तो जपु माझा| तो असे तेचि कपिध्वजा| समाधी माझी ||११८१|| जैसें कनकेंसी कांकणें| असिजे अनन्यपणें| तो भक्तियोगें येणें| मजसीं तैसा ||११८२|| उदकीं कल्लोळु| कापुरीं परीमळु| रत्नीं उजाळु| अनन्यु जैसा ||११८३|| किंबहुना तंतूंसीं पटु| कां मृत्तिकेसीं घटु| तैसा तो एकवटु| मजसीं माझा ||११८४|| इया अनन्यसिद्धा भक्ती| या आघवाचि दृश्यजातीं| मज आपणपेंया सुमती| द्रष्टयातें जाण ||११८५|| तिन्ही अवस्थांचेनि द्वारें| उपाध्युपहिताकारें| भावाभावरूप स्फुरे| दृश्य जें हें ||११८६|| तें हें आघवेंचि मी द्रष्टा| ऐसिया बोधाचा माजिवटा| अनुभवाचा सुभटा| धेंडा तो नाचे ||११८७|| रज्जु जालिया गोचरु| आभासतां तो व्याळाकारु| रज्जुचि ऐसा निर्धारु| होय जेवीं ||११८८|| भांगारापरतें कांहीं| लेणें गुंजहीभरी नाहीं| हें आटुनियां ठायीं| कीजे जैसे ||११८९|| उदका येकापरतें | तरंग नाहींचि हें निरुतें| जाणोनि तया आकारातें| न घेपे जेवीं ||११९०|| नातरी स्वप्नविकारां समस्तां| चेऊनियां उमाणें घेतां| तो आपणयापरौता| न दिसे जैसा ||११९१|| तैसें जें कांहीं आथी नाथी| येणें होय ज्ञेयस्फुर्ती| तें ज्ञाताचि मी हें प्रतीती| होऊनि भोगी ||११९२|| जाणे अजु मी अजरु| अक्षयो मी अक्षरु| अपूर्वु मी अपारु| आनंदु मी ||११९३|| अचळु मी अच्युतु| अनंतु मी अद्वैतु| आद्यु मी अव्यक्तु| व्यक्तुही मी ||११९४|| ईश्य मी ईश्वरु| अनादि मी अमरु| अभय मी आधारु| आधेय मी ||११९५|| स्वामी मी सदोदितु| सहजु मी सततु| सर्व मी सर्वगतु| सर्वातीतु मी ||११९६|| नवा मी पुराणु| शून्यु मी संपूर्णु| स्थुलु मी अणु| जें कांहीं तें मी ||११९७|| अक्रियु मी येकु| असंगु मी अशोकु| व्यापु मी व्यापकु| पुरुषोत्तमु मी ||११९८|| अशब्दु मी अश्रोत्रु| अरूपु मी अगोत्रु| समु मी स्वतंत्रु| ब्रह्म मी परु ||११९९|| ऐसें आत्मत्वें मज एकातें| इया अद्वयभक्ती जाणोनि निरुतें| आणि याही बोधा जाणतें| तेंही मीचि जाणें ||१२००|| पैं चेइलेयानंतरें| आपुलें एकपण उरे| तेंही तोंवरी स्फुरे| तयाशींचि जैसें ||१२०१|| कां प्रकाशतां अर्कु| तोचि होय प्रकाशकु| तयाही अभेदा द्योतकु| तोचि जैसा ||१२०२|| तैसा वेद्यांच्या विलयीं| केवळ वेएदकु उरे पाहीं| तेणें जाणवें तया तेंही| हेंही जो जाणे ||१२०३|| तया अद्वयपणा आपुलिया| जाणती ज्ञप्ती जे धनंजया| ते ईश्वरचि मी हे तया| बोधासि ये ||१२०४|| मग द्वैताद्वैतातीत| मीचि आत्मा एकु निभ्रांत| हें जाणोनि जाणणें जेथ| अनुभवीं रिघे ||१२०५|| तेथ चेइलियां येकपण| दिसे जे आपुलया आपण| तेंही जातां नेणों कोण| होईजे जेवीं ||१२०६|| कां डोळां देखतिये क्षणीं| सुवर्णपण सुवर्णीं| नाटितां होय आटणी| अळंकाराचीही ||१२०७|| नाना लवण तोय होये| मग क्षारता तोयत्वें राहे| तेही जिरतां जेवीं जाये| जालेपण तें ||१२०८|| तैसा मी तो हें जें असे | तें स्वानंदानुभवसमरसें| कालवूनिया प्रवेशे| मजचिमाजीं ||१२०९|| आणि तो हे भाष जेथ जाये| तेथे मी हें कोण्हासी आहे| ऐसा मी ना तो तिये सामाये| माझ्याचि रूपीं ||१२१०|| जेव्हां कापुर जळों सरे| तयाचि नाम अग्नि पुरेए| मग उभयतातीत उरे| आकाश जेवीं ||१२११|| का धाडलिया एका एकु| वाढे तो शून्य विशेखु| तैसा आहे नाहींचा शेखु| मीचि मग आथी ||१२१२|| तेथ ब्रह्मा आत्मा ईशु| यया बोला मोडे सौरसु| न बोलणें याही पैसु| नाहीं तेथ ||१२१३|| न बोलणेंही न बोलोनी| तें बोलिजे तोंड भरुनी| जाणिव नेणिव नेणोनी| जाणिजे तें ||१२१४|| तेथ बुझिजे बोधु बोधें| आनंंदु घेपे आनंदें| सुखावरी नुसधें| सुखचि भोगिजे ||१२१५|| तेथ लाभु जोडला लाभा| प्रभा आलिंगिली प्रभा| विस्मयो बुडाला उभा| विस्मयामाजीं ||१२१६|| शमु तेथ सामावला| विश्रामु विश्रांति आला| अनुभवु वेडावला| अनुभूतिपणें ||१२१७|| किंबहुना ऐसें निखळ| मीपण जोडे तया फळ| सेवूनि वेली वेल्हाळ| क्रमयोगाची ते ||१२१८|| पैं क्रमयोगिया किरीटी| चक्रवर्तीच्या मुकुटीं| मी चिद्रत्न तें साटोवाटीं| होय तो माझा ||१२१९|| कीं क्रमयोगप्रासादाचा| कळसु जो हा मोक्षाचा| तयावरील अवकाशाचा| उवावो जाला तो ||१२२०|| नाना संसार आडवीं| क्रमयोग वाट बरवी| जोडिली ते मदैक्यगांवीं| पैठी जालीसे ||१२२१|| हें असो क्रमयोगबोधें| तेणें भक्तिचिद्गांगें| मी स्वानंदोदधी वेगें| ठाकिला कीं गा ||१२२२|| हा ठायवरी सुवर्मा| क्रमयोगीं आहे महिमा| म्हणौनि वेळोवेळां तुम्हां| सांगतों आम्ही ||१२२३|| पैं देशें काळें पदार्थें| साधूनि घेइजे मातें| तैसा नव्हे मी आयतें| सर्वांचें सर्वही ||१२२४|| म्हणौनि माझ्या ठायीं| जाचावें न लगे कांहीं| मी लाभें इयें उपायीं| साचचि गा ||१२२५|| एक शिष्य एक गुरु| हा रूढला साच व्यवहारु| तो मत्प्राप्तिप्रकारु| जाणावया ||१२२६|| अगा वसुधेच्या पोटीं| निधान सिद्ध किरीटी| वन्हि सिद्ध काष्ठीं| वोहां दूध ||१२२७|| परी लाभे तें असतें| तया कीजे उपायातें| येर सिद्धचि तैसा तेथें| उपायीं मी ||१२२८|| हा फळहीवरी उपावो| कां पां प्रस्तावीतसे देवो| हे पुसतां परी अभिप्रावो| येथिंचा ऐसा ||१२२९|| जे गीतार्थाचें चांगावें| मोक्षोपायपर आघवें| आन शास्त्रोपाय कीं नव्हे| प्रमाणसिद्ध ||१२३०|| वारा आभाळचि फेडी| वांचूनि सूर्यातें न घडी| कां हातु बाबुळी धाडी| तोय न करी ||१२३१|| तैसा आत्मदर्शनीं आडळु| असे अविद्येचा जो मळु| तो शास्त्र नाशी येरु निर्मळु| मी प्रकाशें स्वयें ||१२३२|| म्हणौनि आघवींचि शास्त्रें| अविद्याविनाशाचीं पात्रें| वांचोनि न होतीं स्वतंत्रें| आत्मबोधीं ||१२३३|| तया अध्यात्मशास्त्रांसीं| जैं साचपणाची ये पुसी| तैं येइजे जया ठायासी| ते हे गीता ||१२३४|| भानुभूषिता प्राचिया| सतेजा दिशा आघविया| तैसी शास्त्रेश्वरा गीता या| सनाथें शास्त्रें ||१२३५|| हें असो येणें शास्त्रेश्वरें| मागां उपाय बहुवे विस्तारें| सांगितला जैसा करें| घेवों ये आत्मा ||१२३६|| परी प्रथमश्रवणासवें| अर्जुना विपायें हें फावे| हा भावो सकणवे| धरूनि श्रीहरी ||१२३७|| तेंचि प्रमेय एक वेळ| शिष्यीं होआवया अढळ| सांगतसे मुकुल| मुद्रा आतां ||१२३८|| आणि प्रसंगें गीता| ठावोही हा संपता| म्हणौनि दावी आद्यंता| एकार्थत्व ||१२३९|| जे ग्रंथाच्या मध्यभागीं| नाना अधिकारप्रसंगीं| निरूपण अनेगीं| सिद्धांतीं केलें ||१२४०|| तरी तेतुलेही सिद्धांत| इयें शास्त्रीं प्रस्तुत| हे पूर्वापर नेणत| कोण्ही जैं मानी ||१२४१|| तैं महासिद्धांताचा आवांका| सिद्धांतकक्षा अनेका| भिडऊनि आरंभु देखा| संपवीतु असे ||१२४२|| एथ अविद्यानाशु हें स्थळ| तेणें मोक्षोपादान फळ| या दोहीं केवळ| साधन ज्ञान ||१२४३|| हें इतुलेंचि नानापरी| निरूपिलें ग्रंथविस्तारीं| तें आतां दोहीं अक्षरीं| अनुवादावें ||१२४४|| म्हणौनि उपेयही हातीं| जालया उपायस्थिती| देव प्रवर्तले तें पुढती| येणेंचि भावें ||१२४५|| सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः | मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ||५६|| मग म्हणे गा सुभटा| तो क्रमयोगिया निष्ठा| मी होउनी होय पैठा| माझ्या रूपीं ||१२४६|| स्वकर्माच्या चोखौळीं| मज पूजा करूनि भलीं| तेणें प्रसादें आकळी| ज्ञाननिष्ठेतें ||१२४७|| ते ज्ञाननिष्ठा जेथ हातवसे| तेथ भक्ति माझी उल्लासे| तिया भजन समरसें| सुखिया होय ||१२४८|| आणि विश्वप्रकाशितया| आत्मया मज आपुलिया| अनुसरे जो करूनियां| सर्वत्रता हे ||१२४९|| सांडूनि आपुला आडळ| लवण आश्रयी जळ| कां हिंडोनि राहे निश्चळ| वायु व्योमीं ||१२५०|| तैसा बुद्धी वाचा कायें| जो मातें आश्रऊनि ठाये| तो निषिद्धेंही विपायें| कर्में करूं ||१२५१|| परी गंगेच्या संबंधीं | बिदी आणि महानदी| येक तेवीं माझ्या बोधीं| शुभाशुभांसी ||१२५२|| कां बावनें आणि धुरें| हा निवाडु तंवचि सरे| जंव न घेपती वैश्वानरें| कवळूनि दोन्ही ||१२५३|| ना पांचिकें आणि सोळें| हें सोनया तंवचि आलें| जंव परिसु आंगमेळें| एकवटीना ||१२५४|| तैसें शुभाशुभ ऐसें| हें तंवचिवरी आभासे| जंव येकु न प्रकाशे| सर्वत्र मी ||१२५५|| अगा रात्री आणि दिवो| हा तंवचि द्वैतभावो| जंव न रिगिजे गांवो| गभस्तीचा ||१२५६|| म्हणौनि माझिया भेटी| तयाचीं सर्व कर्में किरीटी| जाऊनि बैसे तो पाटीं| सायुज्याच्या ||१२५७|| देशें काळें स्वभावें| वेंचु जया न संभवे| तें पद माझें पावे| अविनाश तो ||१२५८|| किंबहुना पंडुसुता| मज आत्मयाची प्रसन्नता| लाहे तेणें न पविजतां| लाभु कवणु असे ||१२५९|| चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः | बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ||५७|| याकारणें गा तुवां इया| सर्व कर्मा आपुलिया| माझ्या स्वरूपीं धनंजया| संन्यासु कीजे ||१२६०|| परी तोचि संन्यासु वीरा| करणीयेचा झणें करा| आत्मविवेकीं धरा| चित्तवृत्ति हे ||१२६१|| मग तेणें विवेकबळें| आपणपें कर्मावेगळें| माझ्या स्वरूपीं निर्मळें| देखिजेल ||१२६२|| आणि कर्माचि जन्मभोये| प्रकृति जे का आहे| ते आपणयाहूनि बहुवे| देखसी दूरी ||१२६३|| तेथ प्रकृति आपणयां| वेगळी नुरे धनंजया| रूपेंवीण का छाया| जियापरी ||१२६४|| ऐसेनि प्रकृतिनाशु| जालया कर्मसंन्यासु| निफजेल अनायासु| सकारणु ||१२६५|| मग कर्मजात गेलया| मी आत्मा उरें आपणपयां| तेथ बुद्धि घापे करूनियां| पतिव्रता ||१२६६|| बुद्धि अनन्य येणें योगें| मजमाजीं जैं रिगे| तैं चित्त चैत्यत्यागें| मातेंचि भजे ||१२६७|| ऐसें चैत्यजातें सांडिलें| चित्त माझ्या ठायीं जडलें| ठाके तैसें वहिलें| सर्वदा करी ||१२६८|| मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि | अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ||५८|| मग अभिन्ना इया सेवा| चित्त मियांचि भरेल जेधवां| माझा प्रसादु जाण तेधवां| संपूर्ण जाहला ||१२६९|| तेथ सकळ दुःखधामें| भुंजीजती जियें मृत्युजन्में| तियें दुर्गमेंचि सुगमें| होती तुज ||१२७०|| सूर्याचेनि सावायें| डोळा सावाइला होये| तैं अंधाराचा आहे| पाडु तया ? ||१२७१|| तैसा माझेनि प्रसादें| जीवकणु जयाचा उपमर्दे| तो संसराचेनी बाधे| बागुलें केवीं ? ||१२७२|| म्हणौनि धनंजया| तूं संसारदुर्गती यया| तरसील माझिया| प्रसादास्तव ||१२७३|| अथवा हन अहंभावें| माझें बोलणें हें आघवें| कानामनाचिये शिंवे| नेदिसी टेंकों ||१२७४|| तरी नित्य मुक्त अव्ययो| तूं आहासि तें होऊनि वावो| देहसंबंधाचा घावो| वाजेल आंगीं ||१२७५|| जया देहसंबंधा आंतु| प्रतिपदीं आत्मघातु| भुंजतां उसंतु| कहींचि नाहीं ||१२७६|| येवढेनि दारुणें| निमणेनवीण निमणें| पडेल जरी बोलणें| नेघसी माझें ||१२७७|| यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे | मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||५९|| पथ्यद्वेषिया पोषी ज्वरु| कां दीपद्वेषिया अंधकारु| विवेकद्वेषें अहंकारु| पोषूनि तैसा ||१२७८|| स्वदेहा नाम अर्जुनु| परदेहा नाम स्वजनु| संग्रामा नाम मलिनु| पापाचारु ||१२७९|| इया मती आपुलिया| तिघां तीन नामें ययां| ठेऊनियां धनंजया| न झुंजें ऐसा ||१२८०|| जीवामाजीं निष्टंकु| करिसी जो आत्यंतिकु| तो वायां धाडील नैसर्गिकु| स्वभावोचि तुझा ||१२८१|| आणि मी अर्जुन हे आत्मिक| ययां वधु करणें हें पातक| हे मायावांचूनि तात्त्विक| कांहीं आहे ? ||१२८२|| आधीं जुंझार तुवां होआवें| मग झुंजावया शस्त्र घेयावें| कां न जुंझावया करावें| देवांगण ||१२८३|| म्हणौनि न झुंजणें| म्हणसी तें वायाणें| ना मानूं लोकपणें| लोकदृष्टीही ||१२८४|| तऱ्ही न झुंजें ऐसें| निष्टंकीसी जें मानसें| तें प्रकृति अनारिसें| करवीलचि ||१२८५|| स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा | कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपि तत् ||६०|| पैं पूर्वे वाहतां पाणी| पव्हिजे पश्चिमेचे वाहणीं| तरी आग्रहोचि उरे तें आणी| आपुलिया लेखा ||१२८६|| कां साळीचा कणु म्हणे| मी नुगवें साळीपणें| तरी आहे आन करणें| स्वभावासी ? ||१२८७|| तैसा क्षात्रंस्कारसिद्धा| प्रकृती घडिलासी प्रबुद्धा| आता नुठी म्हणसी हा धांदा| परी उठवीजसीचि तूं ||१२८८|| पैं शौर्य तेज दक्षता| एवमादिक पंडुसुता | गुण दिधले जन्मतां| प्रकृती तुज ||१२८९|| तरी तयाचिया समवाया- | अनुरूप धनंजया| न करितां उगलियां| नयेल असों ||१२९०|| म्हणौनियां तिहीं गुणीं| बांधिलासि तूं कोदंडपाणी| त्रिशुद्धी निघसी वाहणीं| क्षात्राचिया ||१२९१|| ना हें आपुलें जन्ममूळ| न विचारीतचि केवळ| न झुंजें ऐसें अढळ| व्रत जरी घेसी ||१२९२|| तरी बांधोनि हात पाये| जो रथीं घातला होये| तो न चाले तरी जाये| दिगंता जेवीं ||१२९३|| तैसा तूं आपुलियाकडुनी| मीं कांहींच न करीं म्हणौनि| ठासी परी भरंवसेनि| तूंचि करिसी ||१२९४|| उत्तरु वैराटींचा राजा| पळतां तूं कां निघालासी झुंजा ? | हा क्षात्रस्वभावो तुझा| झुंजवील तुज ||१२९५|| महावीर अकरा अक्षौहिणी| तुवां येकें नागविले रणांगणीं| तो स्वभावो कोदंडपाणी| झुंजवील तूंतें ||१२९६|| हां गा रोगु कायी रोगिया| आवडे दरिद्र दरिद्रिया ? | परी भोगविजे बळिया| अदृष्टें जेणें ||१२९७|| तें अदृष्ट अनारिसें| न करील ईश्वरवशें| तो ईश्वरुही असे | हृदयीं तुझ्या ||१२९८|| ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति | भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||६१|| सर्व भूतांच्या अंतरीं| हृदय महाअंबरीं| चिद्वृत्तीच्या सहस्त्रकरीं| उदयला असे जो ||१२९९|| अवस्थात्रय तिन्हीं लोक| प्रकाशूनि अशेख| अन्यथादृष्टि पांथिक| चेवविले ||१३००|| वेद्योदकाच्या सरोवरीं| फांकतां विषयकल्हारीं| इंद्रियषट्पदा चारी| जीवभ्रमरातें ||१३०१|| असो रूपक हें तो ईश्वरु| सकल भूतांचा अहंकारु| पांघरोनि निरंतरु| उल्हासत असे ||१३०२|| स्वमायेचें आडवस्त्र| लावूनि एकला खेळवी सूत्र| बाहेरी नटी छायाचित्र| चौऱ्याशीं लक्ष ||१३०३|| तया ब्रह्मादिकीटांता| अशेषांही भूतजातां| देहाकार योग्यता| पाहोनि दावी ||१३०४|| तेथ जें देह जयापुढें| अनुरूपपणें मांडे| तें भूत तया आरूढे| हें मी म्हणौनि ||१३०५|| सूत सूतें गुंतलें| तृण तृणचि बांधलें| कां आत्मबिंबा घेतलें| बाळकें जळीं ||१३०६|| तयापरी देहाकारें| आपणपेंचि दुसरें| देखोनि जीव आविष्करें| आत्मबुद्धि ||१३०७|| ऐसेनि शरीराकारीं| यंत्रीं भूतें अवधारीं| वाहूनि हालवी दोरी| प्राचीनाची ||१३०८|| तेथ जया जें कर्मसूत्र| मांडूनि ठेविलें स्वतंत्र| तें तिये गती पात्र| होंचि लागे ||१३०९|| किंबहुना धनुर्धरा| भूतांतें स्वर्गसंसारा | - माजीं भोवंडी तृणें वारा| आकाशीं जैसा ||१३१०|| भ्रामकाचेनि संगें| जैसें लोहो वेढा रिगे| तैसीं ईश्वरसत्तायोगें| चेष्टती भूतें ||१३११|| जैसे चेष्टा आपुलिया| समुद्रादिक धनंजया| चेष्टती चंद्राचिया| सन्निधी येकीं ||१३१२|| तया सिंधू भरितें दाटें| सोमकांता पाझरु फुटे| कुमुदांचकोरांचा फिटे| संकोचु तो ||१३१३|| तैसीं बीजप्रकृतिवशें| अनेकें भूतें येकें ईशें| चेष्टवीजती तो असे | तुझ्या हृदयीं ||१३१४|| अर्जुनपण न घेतां| मी ऐसें जें पंडुसुता| उठतसे तें तत्वता| तयाचें रूप ||१३१५|| यालागीं तो प्रकृतीतें| प्रवर्तवील हें निरुतें| आणि तें झुंजवील तूंतें| न झुंजशी जऱ्ही ||१३१६|| म्हणौनि ईश्वर गोसावी| तेणें प्रकृती हे नेमावी| तिया सुखें राबवावीं| इंद्रियें आपुलीं ||१३१७|| तूं करणें न करणें दोन्हीं| लाऊनि प्रकृतीच्या मानीं| प्रकृतीही कां अधीनी| हृदयस्था जया ||१३१८|| तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत | तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ||६२|| तया अहं वाचा चित्त आंग| देऊनिया शरण रिग| महोदधी कां गांग| रिगालें जैसें ||१३१९|| मग तयाचेनि प्रसादें| सर्वोपशांतिप्रमदे| कांतु होऊनिया स्वानंदें| स्वरूपींचि रमसी ||१३२०|| संभूति जेणें संभवे| विश्रांति जेथें विसंवे| अनुभूतिही अनुभवे| अनुभवा जया ||१३२१|| तिये निजात्मपदींचा रावो| होऊनि ठाकसी अव्यवो| म्हणे लक्ष्मीनाहो| पार्था तूं गा ||१३२२|| इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया | विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ||६३|| हें गीता नाम विख्यात| सर्ववाङ्गमयाचें मथित| आत्मा जेणें हस्तगत| रत्न होय ||१३२३|| ज्ञान ऐसिया रूढी| वेदांतीं जयाची प्रौढी| वानितां कीर्ति चोखडी| पातली जगीं ||१३२४|| बुद्ध्यादिकें डोळसें| हें जयाचें कां कडवसें| मी सर्वद्रष्टाही दिसें| पाहला जया ||१३२५|| तें हें गा आत्मज्ञान| मज गोप्याचेंही गुप्त धन| परी तूं म्हणौनि आन| केवीं करूं ? ||१३२६|| याकारणें गा पांडवा| आम्हीं आपुला हा गुह्य ठेवा| तुज दिधला कणवा| जाकळिलेपणें ||१३२७|| जैसी भुलली वोरसें| माय बोले बाळा दोषें| प्रीति ही परी तैसें| न करूंचि हो ||१३२८|| येथ आकाश आणि गाळिजे| अमृताही साली फेडिजे| कां दिव्याकरवीं करविजे| दिव्य जैसे ||१३२९|| जयाचेनि अंगप्रकाशें| पाताळींचा परमाणु दिसे| तया सूर्याहि का जैसे| अंजन सूदलें ||१३३०|| तैसें सर्वज्ञेंही मियां| सर्वही निर्धारूनियां| निकें होय तें धनंजया| सांगितलें तुज ||१३३१|| आतां तूं ययावरी| निकें हें निर्धारीं| निर्धारूनि करीं| आवडे तैसें ||१३३२|| यया देवाचिया बोला| अर्जुनु उगाचि ठेला| तेथ देवो म्हणती भला| अवंचकु होसी ||१३३३|| वाढतयापुढें भुकेला| उपरोधें म्हणे मी धाला| तैं तोचि पीडे आपुला| आणि दोषुही तया ||१३३४|| तैसा सर्वज्ञु श्रीगुरु| भेटलिया आत्मनिर्धारु| न पुसिजे जैं आभारु| धरूनियां ||१३३५|| तैं आपणपेंचि वंचे| आणि पापही वंचनाचें| आपणयाचि साचें| चुकविलें तेणें ||१३३६|| पैं उगेपणा तुझिया| हा अभिप्रावो कीं धनंजया| जें एकवेळ आवांकुनियां| सांगावें ज्ञान ||१३३७|| तेथ पार्थु म्हणे दातारा| भलें जाणसी माझिया अंतरा| हें म्हणों तरी दुसरा| जाणता असे काई ? ||१३३८|| येर ज्ञेय हें जी आघवें| तूं ज्ञाता एकचि स्वभावें| मा सूर्यु म्हणौनि वानावें| सूर्यातें काई ? ||१३३९|| या बोला श्रीकृष्णें| म्हणितलें काय येणें| हेंचि थोडें गा वानणें| जें बुझतासि तूं ||१३४०|| सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः | इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ||६४|| तरी अवधान पघळ| करूनियाम् आणिक येक वेळ| वाक्य माझें निर्मळ| अवधारीं पां ||१३४१|| हें वाच्य म्हणौनि बोलिजे| कां श्राव्य मग आयिकिजे| तैसें नव्हें परी तुझें| भाग्य बरवें ||१३४२|| कूर्मीचिया पिलियां| दिठी पान्हा ये धनंजया| कां आकाश वाहे बापिया| घरींचें पाणी ||१३४३|| जो व्यवहारु जेथ न घडे| तयाचें फळचि तेथ जोडे| काय दैवें न सांपडे| सानुकूळें ? ||१३४४|| येऱ्हवीं द्वैताची वारी| सारूनि ऐक्याच्या परीवरीं| भोगिजे तें अवधारीं| रहस्य हें ||१३४५|| आणि निरुपचारा प्रेमा| विषय होय जें प्रियोत्तमा| तें दुजें नव्हे कीं आत्मा| ऐसेंचि जाणावें ||१३४६|| आरिसाचिया देखिलया| गोमटें कीजे धनंजया| तें तया नोहे आपणयां| लागीं जैसें ||१३४७|| तैसें पार्था तुझेनि मिषें| मी बोलें आपणयाचि उद्देशें| माझ्या तुझ्या ठाईं असे | मीतूंपण गा ||१३४८|| म्हणौनि जिव्हारींचें गुज| सांगतसे जीवासी तुज| हें अनन्यगतीचें मज| आथी व्यसन ||१३४९|| पैम् जळा आपणपें देतां| लवण भुललें पंडुसुता| कीं आघवें तयाचें होतां| न लजेचि तें ||१३५०|| तैसा तूं माझ्या ठाईं| राखों नेणसीचि कांहीं| तरी आतां तुज काई| गोप्य मी करूं ? ||१३५१|| म्हणौनि आघवींचि गूढें| जें पाऊनि अति उघडें| तें गोप्य माझें चोखडें| वाक्य आइक ||१३५२|| मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||६५|| तरी बाह्य आणि अंतरा| आपुलिया सर्व व्यापारा| मज व्यापकातें वीरा| विषयो करीं ||१३५३|| आघवा आंगीं जैसा| वायु मिळोनि आहे आकाशा| तूं सर्व कर्मीं तैसा| मजसींचि आस ||१३५४|| किंबहुना आपुलें मन| करीं माझें एकायतन| माझेनि श्रवणें कान| भरूनि घालीं ||१३५५|| आत्मज्ञानें चोखडीं| संत जे माझीं रूपडीं| तेथ दृष्टि पडो आवडी| कामिनी जैसी ||१३५६|| मीं सर्व वस्तीचें वसौटें| माझीं नामें जियें चोखटें| तियें जियावया वाटे| वाचेचिये लावीं ||१३५७|| हातांचें करणें| कां पायांचें चालणें| तें होय मजकारणें| तैसें करीं ||१३५८|| आपुला अथवा परावा| ठायीं उपकरसी पांडवा| तेणें यज्ञें होईं बरवा| याज्ञिकु माझा ||१३५९|| हें एकैक शिकऊं काई| पैं सेवकें आपुल्या ठाईं| उरूनि येर सर्वही| मी सेव्यचि करीं ||१३६०|| तेथ जाऊनिया भूतद्वेषु| सर्वत्र नमवैन मीचि एकु| ऐसेनि आश्रयो आत्यंतिकु| लाहसी तूं माझा ||१३६१|| मग भरलेया जगाआंतु| जाऊनि तिजयाची मातु| होऊनि ठायील एकांतु| आम्हां तुम्हां ||१३६२|| तेव्हां भलतिये आवस्थे| मी तूतें तूं मातें| भोगिसी ऐसें आइतें| वाढेल सुख ||१३६३|| आणि तिजें आडळ करितें| निमालें अर्जुना जेथें| तें मीचि म्हणौनि तूं मातें| पावसी शेखीं ||१३६४|| जैसी जळींची प्रतिभा| जळनाशीं बिंबा| येतां गाभागोभा| कांहीं आहे ? ||१३६५|| पैं पवनु अंबरा| कां कल्लोळु सागरा| मिळतां आडवारा| कोणाचा गा ? ||१३६६|| म्हणौनि तूं आणि आम्हीं| हें दिसताहे देहधर्मीं| मग ययाच्या विरामीं| मीचि होसी ||१३६७|| यया बोलामाझारीं| होय नव्हे झणें करीं| येथ आन आथी तरी| तुझीचि आण ||१३६८|| पैं तुझी आण वाहणें| हें आत्मलिंगातें शिवणें| प्रीतीची जाति लाजणें| आठवों नेदी ||१३६९|| येऱ्हवीं वेद्यु निष्प्रपंचु| जेणें विश्वाभासु हा साचु| आज्ञेचा नटनाचु| काळातें जिणें ||१३७०|| तो देवो मी सत्यसंकल्पु| आणि जगाच्या हितीं बापु| मा आणेचा आक्षेपु| कां करावा ? ||१३७१|| परी अर्जुना तुझेनि वेधें| मियां देवपणाचीं बिरुदें| सांडिलीं गा मी हे आधें | सगळेनि तुवां ||१३७२|| पैं काजा आपुलिया| रावो आपुली आपणया| आण वाहे धनंजया| तैसें हें कीं ||१३७३|| तेथ अर्जुनु म्हणे देवें| अचाट हें न बोलावें| जे आमचें काज नांवें| तुझेनि एके ||१३७४|| यावरी सांगों बैससी | कां सांगतां भाषही देसी| या तुझिया विनोदासी| पारु आहे जी ? ||१३७५|| कमळवना विकाशु| करी रवीचा एक अंशु | तेथ आघवाचि प्रकाशु| नित्य दे तो ||१३७६|| पृथ्वी निवऊनि सागर| भरीजती येवढें थोर| वर्षे तेथ मिषांतर| चातकु कीं ||१३७७|| म्हणौनि औदार्या तुझेया| मज निमित्त ना म्हणावया| प्राप्ति असे दानीराया| कृपानिधी ||१३७८|| तंव देवो म्हणती राहें| या बोलाचा प्रस्तावो नोहे| पैं मातें पावसी उपायें | साचचि येणें ||१३७९|| सैंधव सिंधू पडलिया| जो क्षणु धनंजया| तेणें विरेचि कीं उरावया| कारण कायी ? ||१३८०|| तैसें सर्वत्र मातें भजतां| सर्व मी होतां अहंता| निःशेष जाऊनि तत्वता| मीचि होसी ||१३८१|| एवं माझिये प्राप्तीवरी| कर्मालागोनि अवधारीं| दाविली तुज उजरी| उपायांची ||१३८२|| जे आधीं तंव पंडुसुता| सर्व कर्में मज अर्पितां| सर्वत्र प्रसन्नता| लाहिजे माझी ||१३८३|| पाठीं माझ्या इये प्रसादीं| माझें ज्ञान जाय सिद्धी| तेणें मिसळिजे त्रिशुद्धी| स्वरूपीं माझ्या ||१३८४|| मग पार्था तिये ठायीं| साध्य साधन होय नाहीं| किंबहुना तुज कांहीं| उरेचि ना ||१३८५|| तरी सर्व कर्में आपलीं| तुवां सर्वदा मज अर्पिलीं| तेणें प्रसन्नता लाधली| आजि हे माझी ||१३८६|| म्हणौनि येणें प्रसादबळें| नव्हे झुंजाचेनि आडळें| न ठाकेचि येकवेळे| भाळलों तुज ||१३८७|| जेणें सप्रपंच अज्ञान जाये| एकु मी गोचरु होये| तें उपपत्तीचेनि उपायें| गीतारूप हें ||१३८८|| मियां ज्ञान तुज आपुलें| नानापरी उपदेशिलें| येणें अज्ञानजात सांडी वियालें| धर्माधर्म जें ||१३८९|| सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचः ||६६|| आशा जैसी दुःखातें| व्यालीं निंदा दुरितें| हे असो जैसें दैन्यातें| दुर्भगत्व ||१३९०|| तैसें स्वर्गनरकसूचक| अज्ञान व्यालें धर्मादिक| तें सांडूनि घालीं अशेख| ज्ञानें येणें ||१३९१|| हातीं घेऊन तो दोरु| सांडिजे जैसा सर्पाकारु| कां निद्रात्यागें घराचारु| स्वप्नींचा जैसा ||१३९२|| नाना सांडिलेनि कवळें| चंद्रींचें धुये पिंवळें| व्याधित्यागें कडुवाळें- | पण मुखाचें ||१३९३|| अगा दिवसा पाठीं देउनी| मृगजळ घापे त्यजुनी| कां काष्ठत्यागें वन्ही| त्यजिजे जैसा ||१३९४|| तैसें धर्माधर्माचें टवाळ| दावी अज्ञान जें कां मूळ| तें त्यजूनि त्यजीं सकळ| धर्मजात ||१३९५|| मग अज्ञान निमालिया| मीचि येकु असे अपैसया| सनिद्र स्वप्न गेलया| आपणपें जैसें ||१३९६|| तैसा मी एकवांचूनि कांहीं| मग भिन्नाभिन्न आन नाहीं| सोऽहंबोधें तयाच्या ठायीं| अनन्यु होय ||१३९७|| पैंं आपुलेनि भेदेंविण| माझें जाणिजे जें एकपण| तयाचि नांव शरण| मज येएणें गा ||१३९८|| जैसें घटाचेनि नाशें| गगनीं गगन प्रवेशे| मज शरण येणें तैसें| ऐक्य करी ||१३९९|| सुवर्णमणि सोनया| ये कल्लोळु जैसा पाणिया| तैसा मज धनंजया| शरण ये तूं ||१४००|| वांचूनि सागराच्या पोटीं| वडवानळु शरण आला किरीटी| जाळूनि ठाके तया गोठी| वाळूनि दे पां ||१४०१|| मजही शरण रिघिजे| आणि जीवत्वेंचि असिजे| धिग् बोली यिया न लजे| प्रज्ञा केवीं ||१४०२|| अगा प्राकृताही राया| आंगीं पडे जें धनंजया| तें दासिरूंहि कीं तया| समान होय ||१४०३|| मा मी विश्वेश्वरु भेटे| आणि जीवग्रंथी न सुटे| हे बोल नको वोखटें| कानीं ल्ॐ ||१४०४|| म्हणौनि मी होऊनि मातें| सेवणें आहे आयितें| तें करीं हातां येतें| ज्ञानें येणें ||१४०५|| मग ताकौनियां काढिलें| लोणी मागौतें ताकीं घातलें| परी न घेपेचि कांहींं केलें| तेणें जेवीं ||१४०६|| तैसें अद्वयत्वें मज| शरण रिघालिया तुज| धर्माधर्म हे सहज| लागतील ना ||१४०७|| लोह उभें खाय माती| तें परीसाचिये संगतीं| सोनें जालया पुढती| न शिविजे मळें ||१४०८|| हें असो काष्ठापासोनि| मथूनि घेतलिया वन्ही| मग काष्ठेंही कोंडोनी| न ठके जैसा ||१४०९|| अर्जुना काय दिनकरु| देखत आहे अंधारु| कीं प्रबोधीं होय गोचरु| स्वप्नभ्रमु ||१४१०|| तैसें मजसी येकवटलेया| मी सर्वरूप वांचूनियां| आन कांहीं उरावया| कारण असे ? ||१४११|| म्हणौनि तयाचें कांहीं| चिंतीं न आपुल्या ठायीं| तुझें पापपुण्य पाहीं| मीचि होईन ||१४१२|| तेथ सर्वबंधलक्षणें| पापें उरावें दुजेपणें| तें माझ्या बोधीं वायाणें| होऊनि जाईल ||१४१३|| जळीं पडिलिया लवणा| सर्वही जळ होईल विचक्षणा| तुज मी अनन्यशरणा| होईन तैसा ||१४१४|| येतुलेनि आपैसया| सुटलाचि आहसी धनंजया| घेईं मज प्रकाशोनियां| सोडवीन तूंतें ||१४१५|| याकारणें पुढती| हे आधी न वाहे चित्तीं| मज एकासि ये सुमती| जाणोनि शरण ||१४१६|| ऐसें सर्वरूपरूपसें| सर्वदृष्टिडोळसें| सर्वदेशनिवासें| बोलिलें श्रीकृष्णें ||१४१७|| मग सांवळा सकंकणु| बाहु पसरोनि दक्षिणु| आलिंगिला स्वशरणु| भक्तराजु तो ||१४१८|| न पवतां जयातें| काखे सूनि बुद्धीतें| बोंलणें मागौतें| वोसरलें ||१४१९|| ऐसें जें कांहीं येक| बोला बुद्धीसिही अटक| तें द्यावया मिष| खेवाचें केलें ||१४२०|| हृदया हृदय येक जाले| ये हृदयींचें ते हृदयीं घातलें| द्वैत न मोडितां केलें | आपणाऐसें अर्जुना ||१४२१|| दीपें दीप लाविला| तैसा परीष्वंगु तो जाला| द्वैत न मोडितां केला| आपणपें पार्थुं ||१४२२|| तेव्हां सुखाचा मग तया| पूरु आला जो धनंजया| तेथ वाडु तऱ्हीं बुडोनियां| ठेला देवो ||१४२३|| सिंधु सिंधूतें पावों जाये| तें पावणें ठाके दुणा होये| वरी रिगे पुरवणिये| आकाशही ||१४२४|| तैसें तयां दोघांचें मिळणें| दोघां नावरे जाणावें कवणें| किंबहुना श्रीनारायणें| विश्व कोंदलें ||१४२५|| एवं वेदाचें मूळसूत्र| सर्वाधिकारैकपवित्र| श्रीकृष्णें गीताशास्त्र| प्रकट केलें ||१४२६|| येथ गीता मूळ वेदां| ऐसें केवीं पां आलें बोधा| हें म्हणाल तरी प्रसिद्धा| उपपत्ति सांगों ||१४२७|| तरी जयाच्या निःश्वासीं| जन्म झाले वेदराशी| तो सत्यप्रतिज्ञ पैजेसीं| बोलला स्वमुखें ||१४२८|| म्हणौनि वेदां मूळभूत| गीता म्हणों हें होय उचित| आणिकही येकी येथ| उपपत्ति असे ||१४२९|| जें न नशतु स्वरूपें| जयाचा विस्तारु जेथ लपे| तें तयांचें म्हणिपे| बीज जगीं ||१४३०|| तरी कांडत्रयात्मकु| शब्दराशी अशेखु| गीतेमाजीं असे रुखु| बीजीं जैसा ||१४३१|| म्हणौनि वेदांचें बीज| श्रीगीता होय हें मज| गमे आणि सहज| दिसतही आहे ||१४३२|| जे वेदांचे तिन्ही भाग| गीते उमटले असती चांग| भूषणरत्नीं सर्वांग| शोभलें जैसें ||१४३३|| तियेचि कर्मादिकें तिन्ही| कांडें कोणकोणे स्थानीं| गीते आहाति तें नयनीं| दाखऊं आईक ||१४३४|| तरी पहिला जो अध्यावो| तो शास्त्रप्रवृत्तिप्रस्तावो| द्वितीयीं साङ्ख्यसद्भावो| प्रकाशिला ||१४३५|| मोक्षदानीं स्वतंत्र| ज्ञानप्रधान हें शास्त्र| येतुलालें दुजीं सूत्र| उभारिलें ||१४३६|| मग अज्ञानें बांधलेयां| मोक्षपदीं बैसावया| साधनारंभु तो तृतीया- | ध्यायीं बोलिला ||. १४३७|| जे देहाभिमान बंधें| सांडूनि काम्यनिषिद्धें| विहित परी अप्रमादें| अनुष्ठावें ||१४३८|| ऐसेनि सद्भावें कर्म करावें| हा तिजा अध्यावो जो देवें| निर्णय केला तें जाणावें| कर्मकांड येथ ||१४३९|| आणि तेंचि नित्यादिक| अज्ञानाचें आवश्यक| आचरतां मोंचक| केवीं होय पां ||१४४०|| ऐसी अपेक्षा जालिया| बद्ध मुमुक्षुते आलिया| देवें ब्रह्मार्पणत्वें क्रिया| सांगितली ||१४४१|| जे देहवाचामानसें| विहित निपजे जें जैसें| तें एक ईश्वरोद्देशें| कीजे म्हणितलें ||१४४२|| हेंचि ईश्वरीं कर्मयोगें| भजनकथनाचें खागें| आदरिलें शेषभागें | चतुर्थाचेनी ||१४४३|| तें विश्वरूप अकरावा| अध्यावो संपे जंव आघवा. तंव कर्में ईशु भजावा| हें जें बोलिलें ||१४४४|| तें अष्टाध्यायीं उघड| जाण येथें देवताकांड| शास्त्र सांगतसे आड| मोडूनि बोलें ||१४४५|| आणि तेणेंचि ईशप्रसादें| श्रीगुरुसंप्रदायलब्धें| साच ज्ञान उद्बोधे| कोंवळें जें ||१४४६|| तें अद्वेष्टादिप्रभृतिकीं| अथवा अमानित्वादिकीं| वाढविजे म्हणौनि लेखी| बारावा गणूं ||१४४७|| तो बारावा अध्याय आदी| आणि पंधरावा अवधी| ज्ञानफळपाकसिद्धी| निरूपणासीं ||१४४८|| म्हणौनि चहूंही इहीं| ऊर्ध्वमूळांतीं अध्यायीं| ज्ञानकांड ये ठायीं| निरूपिजे ||१४४९|| एवं कांडत्रयनिरूपणी| श्रुतीचि हे कोडिसवाणी| गीतापद्यरत्नांचीं लेणीं| लेयिली आहे ||१४५०|| हें असो कांडत्रयात्मक| श्रुति मोक्षरूप फळ येक| बोभावे जें आवश्यक| ठाकावें म्हणौनि ||१४५१|| तयाचेनि साधन ज्ञानेंसीं| वैर करी जो प्रतिदिवशीं| तो अज्ञानवर्ग षोडशीं| प्रतिपादिजे ||१४५२|| तोचि शास्त्राचा बोळावा| घेवोनि वैरी जिणावा| हा निरोपु तो सतरावा| अध्याय येथ ||१४५३|| ऐसा प्रथमालागोनि| सतरावा लाणी करूनी| आत्मनिश्वास विवरूनी| दाविला देवें ||१४५४|| तया अर्थजातां अशेषां| केला तात्पर्याचा आवांका| तो हा अठरावा देखा| कलशाध्यायो ||१४५५|| एवं सकळसंख्यासिद्धु| श्रीभागवद्गीता प्रबंधु| हा औदार्यें आगळा वेदु| मूर्तु जाण ||१४५६|| वेदु संपन्नु होय ठाईं| परी कृपणु ऐसा आनु नाहीं| जे कानीं लागला तिहीं| वर्णांच्याचि ||१४५७|| येरां भवव्याथा ठेलियां| स्त्रीशूद्रादिकां प्राणियां| अनवसरू मांडूनियां| राहिला आहे ||१४५८|| तरी मज पाहतां तें मागील उणें| फेडावया गीतापणें| वेदु वेठला भलतेणें| सेव्य होआवया ||१४५९|| ना हे अर्थु रिगोनि मनीं| श्रवणें लागोनि कानीं| जपमिषें वदनीं| वसोनियां ||१४६०|| ये गीतेचा पाठु जो जाणे| तयाचेनि सांगातीपणें| गीता लिहोनि वाहाणें| पुस्तकमिषें ||१४६१|| ऐसैसा मिसकटां| संसाराचा चोहटा| गवादी घालीत चोखटा| मोक्षसुखाची ||१४६२|| परी आकाशीं वसावया| पृथ्वीवरी बैसावया| रविदीप्ति राहाटावया| आवारु नभ ||१४६३|| तेवीं उत्तम अधम ऐसें| सेवितां कवणातेंही न पुसे| कैवल्यदानें सरिसें| निववीत जगा ||१४६४|| यालागीं मागिली कुटी| भ्याला वेदु गीतेच्या पोटीं| रिगाला आतां गोमटी| कीर्ति पातला ||१४६५|| म्हणौनि वेदाची सुसेव्यता| ते हे मूर्त जाण श्रीगीता| श्रीकृष्णें पंडुसुता| उपदेशिली ||१४६६|| परी वत्साचेनि वोरसें| दुभतें होय घरोद्देशें| जालें पांडवाचेनि मिषें| जगदुद्धरण ||१४६७|| चातकाचियें कणवें| मेघु पाणियेसिं धांवे| तेथ चराचर आघवें| निवालें जेवीं ||१४६८|| कां अनन्यगतिकमळा- | लागीं सूर्य ये वेळोवेळां| कीं सुखिया होईजे डोळां| त्रिभुवनींचा ||१४६९|| तैसें अर्जुनाचेनि व्याजें| गीता प्रकाशूनि श्रीराजें| संसारायेवढें थोर ओझें| फेडिलें जगाचें ||१४७०|| सर्वशास्त्ररत्नदीप्ती| उजळिता हा त्रिजगतीं| सूर्यु नव्हें लक्ष्मीपती| वक्त्राकाशींचा ||१४७१|| बाप कुळ तें पवित्र| जेथिंचा पार्थु या ज्ञाना पात्र| जेणें गीता केलें शास्त्र| आवारु जगा ||१४७२|| हें असो मग तेणें| सद्गुरु श्रीकृष्णें| पार्थाचें मिसळणें| आणिलें द्वैता ||१४७३|| पाठीं म्हणतसे पांडवा| शास्त्र हें मानलें कीं जीवा| तेथ येरु म्हणे देवा| आपुलिया कृपा ||१४७४|| तरी निधान जोडावया| भाग्य घडे गा धनंजया| परी जोडिलें भोगावया | विपायें होय ||१४७५|| पैं क्षीरसागरायेवढें| अविरजी दुधाचें भांडें| सुरां असुरां केवढें| मथितां जालें ||१४७६|| तें सायासही फळा आलें| जें अमृतही डोळां देखिलें| परी वरिचिली चुकलें| जतनेतें ||१४७७|| तेथ अमरत्वा वोगरिलें| तें मरणाचिलागीं जालें| भोगों नेणतां जोडलें| ऐसें आहे ||१४७८|| नहुषु स्वर्गाधिपति जाहला| परी राहाटीं भांबावला| तो भुजंगत्व पावला| नेणसी कायी ? ||१४७९|| म्हणौनि बहुत पुण्य तुवां| केलें तेणें धनंजया| आजि शास्त्रराजा इया| जालासि विषयो ||१४८०|| तरी ययाचि शास्त्राचेनि| संप्रदायें पांघुरौनि| शास्त्रार्थ हा निकेनि| अनुष्ठीं हो ||१४८१|| येऱ्हवीं अमृतमंथना- | सारिखें होईल अर्जुना| जरी रिघसी अनुष्ठाना| संप्रदायेंवीण ||१४८२|| गाय धड जोडे गोमटी| ते तैंचि पिवों ये किरीटी| जैं जाणिजे हातवटी| सांजवणीची ||१४८३|| तैसा श्रीगुरु प्रसन्न होये| शिष्य विद्याही कीर लाहे| परी ते फळे संप्रदायें| उपासिलिया ||१४८४|| म्हणौनि शास्त्रीं जो इये| उचितु संप्रदायो आहे| तो ऐक आतां बहुवें| आदरेंसीं ||१४८५|| इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन | न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ||६७|| तरी तुवां हें जें पार्था| गीताशास्त्र लाधलें आस्था| तें तपोहीना सर्वथा| सांगावें ना हो ||. १४८६|| अथवा तापसुही जाला | परी गुरूभक्तीं जो ढिला| तो वेदीं अंत्यजु वाळिळा| तैसा वाळीं ||१४८७|| नातरी पुरोडाशु जैसा| न घापे वृद्ध तरी वायसा| गीता नेदी तैसी तापसा| गुरुभक्तिहीना ||१४८८|| कां तपही जोडे देहीं| भजे गुरुदेवांच्या ठायीं| परी आकर्णनीं नाहीं| चाड जरी ||१४८९|| तरी मागील दोन्हीं आंगीं| उत्तम होय कीर जगीं| परी या श्रवणालागीं| योग्यु नोहे ||१४९०|| मुक्ताफळ भलतैसें| हो परी मुख नसे| तंव गुण प्रवेशे| तेथ कायी ? ||१४९१|| सागरु गंभीरु होये| हें कोण ना म्हणत आहे| परी वृष्टि वायां जाये| जाली तेथ ||१४९२|| धालिया दिव्यान्न सुवावें| मग जें वायां धाडावें| तें आर्तीं कां न करावें| उदारपण ||१४९३|| म्हणौनि योग्य भलतैसें| होतु परी चाड नसे| तरी झणें वानिवसें| देसी हें तयां ||१४९४|| रूपाचा सुजाणु डोळा| वोढवूं ये कायि परिमळा ? | जेथ जें माने ते फळा| तेथचि ते गा ||१४९५|| म्हणौनि तपी भक्ति| पाहावे ते सुभद्रापती| परी शास्त्रश्रवणीं अनासक्ती| वाळावेचि ते ||१४९६|| नातरी तपभक्ति| होऊनि श्रवणीं आर्ति| आथी ऐसीही आयती| देखसी जरी ||१४९७|| तरी गीताशास्त्रनिर्मिता| जो मी सकळलोकशास्ता| तया मातें सामान्यता| बोलेल जो ||१४९८|| माझ्या सज्जनेंसिं मातें| पैशुन्याचेनि हातें| येक आहाती तयांतें| योग्य न म्हण ||१४९९|| तयांची येर आघवी| सामग्री ऐसी जाणावी| दीपेंवीण ठाणदिवी| रात्रीची जैसी ||१५००|| अंग गोरें आणि तरुणें| वरी लेईलें आहे लेणें| परी येकलेनि प्राणें| सांडिलें जेवीं ||१५०१|| सोनयाचें सुंदर| निर्वाळिलें होय घर| परी सर्पांगना द्वार| रुंधलें आहे ||१५०२|| निपजे दिव्यान्न चोखट| परी माजीं काळकूट| असो मैत्री कपट- | गर्भिणी जैसी ||१५०३|| तैसी तपभक्तिमेधा| तयाची जाण प्रबुद्धा| जो माझयांची कां निंदा| माझीचि करी ||१५०४|| याकारणें धनंजया| तो भक्तु मेधावीं तपिया| तरी नको बापा इया| शास्त्रा आतळों देवों ||१५०५|| काय बहु बोलों निंदका| योग्य स्रष्टयाहीसारिखा| गीता हे कवतिका- | लागींही नेदीं ||१५०६|| म्हणौनि तपाचा धनुर्धरा| तळीं दाटोनि गाडोरा| वरी गुरुभक्तीचा पुरा| प्रासादु जो जाला ||१५०७|| आणि श्रवणेच्छेचा पुढां| दारवंटा सदा उघडा| वरी कलशु चोखडा| अनिंदारत्नांचा ||१५०८|| य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति | भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ||६८|| ऐशा भक्तालयीं चोखटीं| गीतारत्नेश्वरु हा प्रतिष्ठीं| मग माझिया संवसाटी| तुकसी जगीं ||१५०९|| कां जे एकाक्षरपणेंसीं| त्रिमात्रकेचिये कुशीं| प्रणवु होतां गर्भवासीं| सांकडला ||१५१०|| तो गीतेचिया बाहाळींं| वेदबीज गेलें पाहाळीँ| कीं गायत्री फुलींफळीं| श्लोकांच्या आली ||१५११|| ते हे मंत्ररहय गीता| मेळवी जो माझिया भक्ता| अनन्यजीवना माता| बाळका जैसी ||१५१२|| तैसी भक्तां गीतेसीं| भेटी करी जो आदरेंसीं| तो देहापाठीं मजसीं| येकचि होय ||१५१३|| न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः | भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||६९|| आणि देहाचेंही लेणें| लेऊनि वेगळेपणें| असे तंव जीवेंप्राणें| तोचि पढिये ||१५१४|| ज्ञानियां कर्मठां तापसां| यया खुणेचिया माणुसां- | माजीं तो येकु गा जैसा| पढिये मज ||१५१५|| तैसा भूतळीं आघवा| आन न देखे पांडवा| जो गीता सांगें मेळावा| भक्तजनांचा ||१५१६|| मज ईश्वराचेनि लोभें| हे गीता पढतां अक्षोभें| जो मंडन होय सभे| संतांचिये ||१५१७|| नेत्रपल्लवीं रोमांचितु| मंदानिळें कांपवितु| आमोदजळें वोलवितु| फुलांचे डोळें ||१५१८|| कोकिळा कलरवाचेनि मिषें| सद्गद बोलवीत जैसें| वसंत का प्रवेशे| मद्भक्त आरामीं ||१५१९|| कां जन्माचें फळ चकोरां| होत जैं चंद्र ये अंबरा| नाना नवघन मयूरां| वो देत पावे ||१५२०|| तैसा सज्जनांच्या मेळापीं| गीतापद्यरत्नीं उमपीं| वर्षे जो माझ्या रूपीं| हेतु ठेऊनि ||१५२१|| मग तयाचेनि पाडें| पढियंतें मज फुडें| नाहींचि गा मागेंपुढें| न्याहाळितां ||१५२२|| अर्जुना हा ठायवरी| मी तयातें सूयें जिव्हारीं| जो गीतार्थाचें करी| परगुणें संतां ||१५२३|| अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः | ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ||७०|| पैं माझिया तुझिया मिळणीं| वाढिनली जे हे कहाणी| मोक्षधर्म का जिणीं| आलासे जेथें ||१५२४|| तो हा सकळार्थप्रबोधु| आम्हां दोघांचा संवादु| न करितां पदभेदु| पाठेंचि जो पढे ||१५२५|| तेणें ज्ञानानळीं प्रदीप्तीं| मूळ अविद्येचिया आहुती| तोषविला होय सुमती| परमात्मा मी ||१५२६|| घेऊनि गीतार्थ उगाणा| ज्ञानिये जें विचक्षणा| ठाकती तें गाणावाणा| गीतेचा तो लाहे ||१५२७|| गीता पाठकासि असे | फळ अर्थज्ञाचि सरिसें| गीता माउलियेसि नसे| जाणें तान्हें ||१५२८|| श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः | सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ||७१|| आणि सर्वमार्गीं निंदा| सांडूनि आस्था पैं शुद्धा| गीताश्रवणीं श्रद्धा| उभारी जो ||१५२९|| तयाच्या श्रवणपुटीं| गीतेचीं अक्षरें जंव पैठीं| होतीना तंव उठाउठीं| पळेचि पाप ||१५३०|| अटवियेमाजीं जैसा| वन्हि रिघतां सहसा| लंघिती का दिशा| वनौकें तियें ||१५३१|| कां उदयाचळकुळीं| झळकतां अंशुमाळी| तिमिरें अंतराळीं| हारपती ||१५३२|| तैसा कानाच्या महाद्वारीं| गीता गजर जेथ करी| तेथ सृष्टीचिये आदिवरी| जायचि पाप ||१५३३|| ऐसी जन्मवेली धुवट| होय पुण्यरूप चोखट| याहीवरी अचाट| लाहे फळ ||१५३४|| जें इये गीतेचीं अक्षरें| जेतुलीं कां कर्णद्वारें| रिघती तेतुले होती पुरे| अश्वमेध कीं ||१५३५|| म्हणौनि श्रवणें पापें जाती| आणि धर्म धरी उन्नती| तेणें स्वर्गराज संपत्ती| लाहेचि शेखीं ||१५३६|| तो पैं मज यावयालागीं| पहिलें पेणें करी स्वर्गीं| मग आवडे तंव भोगी| पाठीं मजचि मिळे ||१५३७|| ऐसी गीता धनंजया| ऐकतया आणि पढतया| फळे महानंदें मियां| बहु काय बोलों ||१५३८|| याकारणें हें असो| परी जयालागीं शास्त्रातिसो| केला तें तंव तुज पुसों| काज तुझें ||१५३९|| कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा | कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ||७२|| तरी सांग पां पांडवा| हा शास्त्रसिद्धांतु आघवा| तुज एकचित्तें फावा| गेला आहे ? ||१५४०|| आम्हीं जैसें जया रीतीं| उगाणिलें कानांच्या हातीं| येरीं तैसेंचि तुझ्या चित्तीं | पेठें केलें कीं ? ||१५४१|| अथवा माझारीं| गेलें सांडीविखुरी| किंवा उपेक्षेवरी| वाळूनि सांडिलें ||१५४२|| जैसें आम्हीं सांगितलें| तैसेंचि हृदयीं फावलें| तरी सांग पां वहिलें| पुसेन तें मी ||१५४३|| तरी स्वाज्ञानजनितें| मागिलें मोहें तूतें| भुलविलें तो येथें| असे कीं नाहीं ? ||१५४४|| हें बहु पुसों काई| सांगें तूं आपल्या ठायीं| कर्माकर्म कांहीं| देखतासी ? ||१५४५|| पार्थु स्वानंदैकरसें| विरेल ऐसा भेददशे| आणिला येणें मिषें| प्रश्नाचेनि ||१५४६|| पूर्णब्रह्म जाला पार्थु| तरी पुढील साधावया कार्यार्थु| मर्यादा श्रीकृष्णनाथु| उल्लंघों नेदी ||१५४७|| येऱ्हवीं आपुलें करणें| सर्वज्ञ काय तो नेणें ? | परी केलें पुसणें| याचि लागीं ||१५४८|| एवं करोनियां प्रश्न| नसतेंचि अर्जुनपण| आणूनियां जालें पूर्णपण| तें बोलवी स्वयें ||१५४९|| मग क्षीराब्धीतें सांडितु| गगनीं पुंजु मंडितु| निवडे जैसा न निवडितु| पूर्णचंद्रु ||१५५०|| तैसा ब्रह्म मी हें विसरे| तेथ जगचि ब्रह्मत्वें भरे| हेंही सांडी तरी विरे| ब्रह्मपणही ||१५५१|| ऐसा मोडतु मांडतु ब्रह्में| तो दुःखें देहाचिये सीमे| मी अर्जुन येणें नामें| उभा ठेला ||१५५२|| मग कांपतां करतळीं| दडपूनि रोमावळी| पुलिका स्वेदजळीं| जिरऊनियां ||१५५३|| प्राणक्षोभें डोलतया| आंगा आंगचि टेंकया| सूनि स्तंभु चाळया| भुलौनियां ||१५५४|| नेत्रयुगुळाचेनि वोतें| आनंदामृताचें भरितें| वोसंडत तें मागुतें| काढूनियां ||१५५५|| विविधा औत्सुक्यांची दाटी| चीप दाटत होती कंठीं| ते करूनियां पैठी| हृदयामाजीं ||१५५६|| वाचेचें वितुळणें| सांवरूनि प्राणें| अक्रमाचें श्वसणें| ठेऊनि ठायीं ||१५५७|| अर्जुन उवाच | नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||७३|| मग अर्जुन म्हणे काय देवो| | पुसताति आवडे मोहो| तरी तो सकुटुंब गेला जी ठावो| घेऊनि आपला ||१५५८|| पासीं येऊनि दिनकरें| डोळ्यातें अंधारें| पुसिजे हें कायि सरे| कोणे गांवीं ? ||१५५९|| तैसा तूं श्रीकृष्णराया| आमुचिया डोळयां| गोचर हेंचि कायिसया| न पुरे तंव ||१५६०|| वरी लोभें मायेपासूनी| तें सांगसी तोंड भरूनी| जें कायिसेनिही करूनी| जाणूं नये ||१५६१|| आतां मोह असे कीं नाहीं| हें ऐसें जी पुससी काई| कृतकृत्य जाहलों पाहीं| तुझेपणें ||१५६२|| गुंतलों होतों अर्जुनगुणें| तो मुक्त जालों तुझेपणें| आतां पुसणें सांगणें| दोन्ही नाहीं ||१५६३|| मी तुझेनि प्रसादें| लाधलेनि आत्मबोधें| मोहाचे तया कांदे| नेदीच उरों ||१५६४|| आतां करणें कां न करणें| हें जेणें उठी दुजेपणें| तें तूं वांचूनि नेणें| सर्वत्र गा ||१५६५|| ये विषयीं माझ्या ठायीं| संदेहाचे नुरेचि कांहीं| त्रिशुद्धि कर्म जेथ नाहीं| तें मी जालों ||१५६६|| तुझेनि मज मी पावोनी| कर्तव्य गेलें निपटूनी| परी आज्ञा तुझी वांचोनि| आन नाहीं प्रभो ||१५६७|| कां जें दृश्य दृश्यातें नाशी| जें दुजें द्वैतातें ग्रासी| जें एक परी सर्वदेशीं| वसवी सदा ||१५६८|| जयाचेनि संबंधें बंधु फिटे| जयाचिया आशा आस तुटे| जें भेटलया सर्व भेटे| आपणपांचि ||१५६९|| तें तूं गुरुलिंग जी माझें| जें येकलेपणींचें विरजें| जयालागीं वोलांडिजे| अद्वैतबोधु ||१५७०|| आपणचि होऊनि ब्रह्म| सारिजे कृत्याकृत्यांचें काम| मग कीजे का निःसीम| सेवा जयाची ||१५७१|| गंगा सिंधू सेवूं गेली| पावतांचि समुद्र जाली| तेवीं भक्तां सेल दिधली| निजपदाची ||१५७२|| तो तूं माझा जी निरुपचारु| श्रीकृष्णा सेव्य सद्गुरु| मा ब्रह्मतेचा उपकारु| हाचि मानीं ||१५७३|| जें मज तुम्हां आड| होतें भेदाचें कवाड| तें फेडोनि केलें गोड| सेवासुख ||१५७४|| तरी आतां तुझी आज्ञा| सकळ देवाधिदेवराज्ञा| करीन देईं अनुज्ञा| भलतियेविषयीं ||१५७५|| यया अर्जुनाचिया बोला| देवो नाचे सुखें भुलला| म्हणे विश्वफळा जाला| फळ हा मज ||१५७६|| उणेनि उमचला सुधाकरु| देखुनी आपला कुमरु| मर्यादा क्षीरसागरु| विसरेचिना ? ||१५७७|| ऐसे संवादाचिया बहुलां| लग्न दोघांचियां आंतुला| लागलें देखोनि जाला| निर्भरु संजयो ||१५७८|| तेणें म्हणतसे संजयो | बाप कृपानिधी रावो | तो आपुला मनोभावो | अर्जुनेंसी केला ||१५७९ || तेणें उचंबळलेपणें| संजय धृतराष्ट्रातें म्हणे| जी कैसे बादरायणें| रक्षिलों दोघे ? ||१५८०|| आजि तुमतें अवधारा| नाहीं चर्मचक्षूही संसारा| कीं ज्ञानदृष्टिव्यवहारा आणिलेती ||१५८१|| आणि रथींचिये राहाटी| घेई जो घोडेयासाठीं| तया आम्हां या गोष्टी| गोचरा होती ||१५८२|| वरी जुंझाचें निर्वाण| मांडलें असे दारुण| दोहीं हारीं आपण| हारपिजे जैसें ||१५८३|| येवढा जिये सांकडां| कैसा अनुग्रहो पैं गाढा| जे ब्रह्मानंदु उघडा| भोगवीतसे ||१५८४|| ऐसें संजय बोलिला| परी न द्रवे येरु उगला| चंद्रकिरणीं शिवतला| पाषाणु जैसा ||१५८५|| हे देखोनि तयाची दशा| मग करीचिना सरिसा| परी सुखें जाला पिसा| बोलतसे ||१५८६|| भुलविला हर्षवेगें| म्हणौनि धृतराष्ट्रा सांगे| येऱ्हवीं नव्हे तयाजोगें| हें कीर जाणें ||१५८७|| सञ्जय उवाच | इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः | संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ||७४|| मग म्हणे पैं कुरुराजा| ऐसा बंधुपुत्र तो तुझा| बोलिला तें अधोक्षजा| गोड जालें ||१५८८|| अगा पूर्वापर सागर| ययां नामसीचि सिनार| येर आघवें तें नीर| एक जैसें ||१५८९|| तैसा श्रीकृष्ण पार्थ ऐसें| हें आंगाचिपासीं दिसे| मग संवादीं जी नसे| कांहींचि भेदु ||१५९० || पैं दर्पणाहूनि चोखें| दोन्ही होती सन्मुखें| तेथ येरी येर देखे| आपणपें जैसें ||१५९१|| तैसा देवेसीं पंडुसुतु| आपणपें देवीं देखतु| पांडवेंसीं देखे अनंतु| आपणपें पार्थीं ||१५९२|| देव देवो भक्तालागीं| जिये विवरूनि देखे आंगीं| येरु तियेचेही भागीं| दोन्ही देखे ||१५९३|| आणिक कांहींच नाहीं| म्हणौनि करिती काई| दोघे येकपणें पाहीं| नांदताती ||१५९४|| आतां भेदु जरी मोडे| तरी प्रश्नोत्तर कां घडे ? | ना भेदुचि तरी जोडे| संवादसुख कां ? ||१५९५|| ऐसें बोलतां दुजेपणें| संवादीं द्वैत गिळणें| तें ऐकिलें बोलणें| दोघांचें मियां ||१५९६|| उटूनि दोन्ही आरिसे| वोडविलीया सरिसे| कोण कोणा पाहातसे| कल्पावें पां ? ||१५९७|| कां दीपासन्मुखु| ठेविलया दीपकु| कोण कोणा अर्थिकु| कोण जाणें ||१५९८|| नाना अर्कापुढें अर्कु| उदयलिया आणिकु| कोण म्हणे प्रकाशकु| प्रकाश्य कवण ? ||१५९९|| हें निर्धारूं जातां फुडें| निर्धारासि ठक पडे| ते दोघे जाले एवढे| संवादें सरिसे ||१६००|| जी मिळतां दोन्ही उदकें | माजी लवण वारूं ठाके| कीं तयासींही निमिखें| तेंचि होय ||१६०१|| तैसे श्रीकृष्ण अर्जुन दोन्ही| संवादले तें मनीं| धरितां मजही वानी| तेंचि होतसे ||१६०२|| ऐसें म्हणे ना मोटकें | तंव हिरोनि सात्विकें| आठव नेला नेणों कें| संजयपणाचा ||१६०३|| रोमांच जंव फरके| तंव तंव आंग सुरके| स्तंभ स्वेदांतें जिंके| एकला कंपु ||१६०४|| अद्वयानंदस्पर्शें| दिठी रसमय जाली असे | ते अश्रु नव्हती जैसें| द्रवत्वचि ||१६०५|| नेणों काय न माय पोटीं| नेणों काय गुंफे कंठीं| वागर्था पडत मिठी| उससांचिया ||१६०६|| किंबहुना सात्विकां आठां| चाचरु मांडतां उमेठा| संजयो जालासे चोहटां| संवादसुखाचा ||१६०७|| तया सुखाची ऐसी जाती| जे आपणचि धरी शांती| मग पुढती देहस्मृती| लाधली तेणें ||१६०८|| व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् | योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ||७५|| तेव्हां बैसतेनि आनंदें| म्हणे जी जें उपनिषदें| नेणती तें व्यासप्रसादें| ऐकिलें मियां ||१६०९|| ऐकतांचि ते गोठी| ब्रह्मत्वाची पडिली मिठी| मीतूंपणेंसीं दृष्टी| विरोनि गेली ||१६१०|| हे आघवेचि का योग| जया ठाया येती मार्ग| तयाचें वाक्य सवंग| केलें मज व्यासें ||१६११|| अहो अर्जुनाचेनि मिषें| आपणपेंचि दुजें ऐसें| नटोनि आपणया उद्देशें| बोलिलें जें देव ||१६१२|| तेथ कीं माझें श्रोत्र| पाटाचें जालें जी पात्र| काय वानूं स्वतंत्र| सामर्थ्य श्रीगुरुचें ||१६१३|| राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् | केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ||७६|| राया हें बोलतां विस्मित होये| तेणेंचि मोडावला ठाये| रत्नीं कीं रत्नकिळा ये| झांकोळित जैसी ||१६१४|| हिमवंतींचीं सरोवरें| चंद्रोदयीं होती काश्मीरें| मग सूर्यागमीं माघारें| द्रवत्व ये ||१६१५|| तैसा शरीराचिया स्मृती| तो संवादु संजय चित्तीं| धरी आणि पुढती| तेंचि होय ||१६१६|| तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः | विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ||७७|| मग उठोनि म्हणे नृपा| श्रीहरीचिया विश्वरूपा| देखिलया उगा कां पां| असों लाहसी ? ||१६१७|| न देखणेनि जें दिसे| नाहींपणेंचि जें असे | विसरें आठवे तें कैसें| चुकऊं आतां ||१६१८|| देखोनि चमत्कारु| कीजे तो नाहीं पैसारु| मजहीसकट महापूरु| नेत आहे ||१६१९|| ऐसा श्रीकृष्णार्जुन- | संवाद संगमीं स्नान| करूनि देतसे तिळदान| अहंतेचें ||१६२०|| तेथ असंवरें आनंदें| अलौकिकही कांहीं स्फुंदे| श्रीकृष्ण म्हणे सद्गदें| वेळोवेळां ||१६२१|| या अवस्थांची कांहीं| कौरवांतें परी नाहीं| म्हणौनि रायें तें कांहीं| कल्पावें जंव ||१६२२|| तंव जाला सुखलाभु| आपणया करूनि स्वयंभु| बुझाविला अवष्टंभु| संजयें तेणें ||१६२३|| तेथ कोणी येकी अवसरी| होआवी ते करूनि दुरी| रावो म्हणे संजया परी| कैसी तुझी गा ? ||१६२४|| तेणें तूंतें येथें व्यासें| बैसविलें कासया उद्देशें| अप्रसंगामाजीं ऐसें| बोलसी काई ? ||१६२५|| रानींचें राउळा नेलिया| दाही दिशा मानी सुनिया| कां रात्री होय पाहलया| निशाचरां ||१६२६|| जो जेथिंचें गौरव नेणें| तयासि तें भिंगुळवाणें| म्हणौनि अप्रसंगु तेणें| म्हणावा कीं तो ||१६२७|| मग म्हणे सांगें प्रस्तुत| उदयलेंसे जें उत्कळित| तें कोणासि बा रे जैत| देईल शेखीं ? ||१६२८|| येऱ्हवीं विशेषें बहुतेक| आमुचें ऐसें मानसिक| जे दुर्योधनाचे अधिक| प्रताप सदा ||१६२९|| आणि येरांचेनि पाडें| दळही याचें देव्हडें| म्हणौनि जैत फुडें| आणील ना तें ? ||१६३०|| आम्हां तंव गमे ऐसें| मा तुझें ज्योतिष कैसें| तें नेणों संजया असे | तैसें सांग पां ||१६३१|| यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः | तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||७८|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ||१८अ || यया बोला संजयो म्हणे| जी येरयेरांचें मी नेणें| परी आयुष्य तेथें जिणें| हें फुडें कीं गा ||१६३२|| चंद्रु तेथें चंद्रिका| शंभु तेथें अंबिका| संत तेथें विवेका| असणें कीं जी ||१६३३|| रावो तेथें कटक| सौजन्य तेथें सोयरीक| वन्हि तेथें दाहक| सामर्थ्य कीं ||१६३४|| दया तेथें धर्मु| धर्मु तेथें सुखागमु| सुखीं पुरुषोत्तमु| असे जैसा ||१६३५|| वसंत तेथें वनें| वन तेथें सुमनें| सुमनीं पालिंगनें| सारंगांचीं ||१६३६|| गुरु तेथ ज्ञान| ज्ञानीं आत्मदर्शन| दर्शनीं समाधान| आथी जैसें ||१६३७|| भाग्य तेथ विलासु| सुख तेथ उल्लासु| हें असो तेथ प्रकाशु| सूर्य जेथें ||१६३८|| तैसे सकल पुरुषार्थ| जेणें स्वामी कां सनाथ| तो श्रीकृष्ण रावो जेथ| तेथ लक्ष्मी ||१६३९|| आणि आपुलेनि कांतेंसीं| ते जगदंबा जयापासीं| अणिमादिकीं काय दासी| नव्हती तयातें ? ||१६४०|| कृष्ण विजयस्वरूप निजांगें| तो राहिला असे जेणें भागें| तैं जयो लागवेगें| तेथेंचि आहे ||१६४१|| विजयो नामें अर्जुन विख्यातु| विजयस्वरूप श्रीकृष्णनाथु| श्रियेसीं विजय निश्चितु| तेथेंचि असे ||१६४२|| तयाचिये देशींच्या झाडीं| कल्पतरूतें होडी| न जिणावें कां येवढीं| मायबापें असतां ? ||१६४३|| ते पाषाणही आघवें| चिंतारत्नें कां नोहावे ? | तिये भूमिके कां न यावें| सुवर्णत्व ? ||१६४४|| तयाचिया गांवींचिया| नदी अमृतें वाहाविया| नवल कायि राया| विचारीं पां ||१६४५|| तयाचे बिसाट शब्द| सुखें म्हणों येती वेद| सदेह सच्चिदानंद| कां न व्हावे ते ? ||१६४६|| पैं स्वर्गापवर्ग दोन्ही| इयें पदें जया अधीनीं| तो श्रीकृष्ण बाप जननी| कमळा जया ||१६४७|| म्हणौनि जिया बाहीं उभा| तो लक्ष्मीयेचा वल्लभा| तेथें सर्वसिद्धी स्वयंभा| येर मी नेणें ||१६४८|| आणि समुद्राचा मेघु| उपयोगें तयाहूनि चांगु| तैसा पार्थीं आजि लागु| आहे तये ||१६४९|| कनकत्वदीक्षागुरू| लोहा परिसु होय कीरू| परी जगा पोसिता व्यवहारु| तेंचि जाणें ||१६५०|| येथ गुरुत्वा येतसे उणें| ऐसें झणें कोण्ही म्हणे| वन्हि प्रकाश दीपपणें| प्रकाशी आपुला ||१६५१|| तैसा देवाचिया शक्ती| पार्थु देवासीचि बहुती| परी माने इये स्तुती| गौरव असे ||१६५२|| आणि पुत्रें मी सर्व गुणीं| जिणावा हे बापा शिराणी| तरी ते शारङ्गपाणी| फळा आली ||१६५३|| किंबहुना ऐसा नृपा| पार्थु जालासे कृष्णकृपा| तो जयाकडे साक्षेपा| रीति आहे ||१६५४|| तोचि गा विजयासि ठावो| येथ तुज कोण संदेहो ? | तेथ न ये तरी वावो| विजयोचि होय ||१६५५|| म्हणौनि जेथ श्री तेथें श्रीमंतु| जेथ तो पंडूचा सुतु| तेथ विजय समस्तु| अभ्युदयो तेथ ||१६५६|| जरी व्यासाचेनि साचें| धिरे मन तुमचें| तरी या बोलाचें| ध्रुवचि माना ||१६५७|| जेथ तो श्रीवल्लभु| जेथ भक्तकदंबु| तेथ सुख आणि लाभु| मंगळाचा ||१६५८|| या बोला आन होये| तरी व्यासाचा अंकु न वाहे| ऐसें गाजोनि बाहें| उभिली तेणें ||१६५९|| एवं भारताचा आवांका| आणूनि श्लोका येका| संजयें कुरुनायका| दिधला हातीं ||१६६०|| जैसा नेणों केवढा वन्ही| परी गुणाग्रीं ठेऊनी| आणिजे सूर्याची हानी| निस्तरावया ||१६६१|| तैसें शब्दब्रह्म अनंत| जालें सवालक्ष भारत| भारताचें शतें सात| सर्वस्व गीता ||१६६२|| तयांही सातां शतांचा| इत्यर्थु हा श्लोक शेषींचा| व्यासशिष्य संजयाचा| पूर्णोद्गारु जो ||१६६३|| येणें येकेंचि श्लोकें| राहे तेणें असकें| अविद्याजाताचें निकें| जिंतलें होय ||१६६४|| ऐसें श्लोक शतें सात| गीतेचीं पदें आंगें वाहत| पदें म्हणों कीं परमामृत| गीताकाशींचें ||१६६५|| कीं आत्मराजाचिये सभे| गीते वोडवले हे खांबे| मज श्लोक प्रतिभे| ऐसे येत ||१६६६|| कीं गीता हे सप्तशती| मंत्रप्रतिपाद्य भगवती| मोहमहिषा मुक्ति| आनंदली असे ||१६६७|| म्हणौनि मनें कायें वाचा| जो सेवकु होईल इयेचा| तो स्वानंदासाम्राज्याचा| चक्रवर्ती करी ||१६६८|| कीं अविद्यातिमिररोंखें| श्लोक सूर्यातें पैजा जिंकें| ऐसे प्रकाशिले गीतामिषें| रायें श्रीकृष्णें ||१६६९|| कीं श्लोकाक्षरद्राक्षलता| मांडव जाली आहे गीता| संसारपथश्रांता| विसंवावया ||१६७०|| कीं सभाग्यसंतीं भ्रमरीं| केले ते श्लोककल्हारीं| श्रीकृष्णाख्यसरोवरीं| सासिन्नली हे ||१६७१|| कीं श्लोक नव्हती आन| गमे गीतेचें महिमान| वाखाणिते बंदीजन| उदंड जैसे ||१६७२|| कीं श्लोकांचिया आवारा| सात शतें करूनि सुंदरा| सर्वागम गीतापुरा| वसों आले ||१६७३|| कीं निजकांता आत्मया| आवडी गीता मिळावया| श्लोक नव्हती बाह्या| पसरु का जो ||१६७४|| कीं गीताकमळींचे भृंग| कीं हे गीतासागरतरंग| कीं हरीचे हे तुरंग| गीतारथींचे ||१६७५|| कीं श्लोक सर्वतीर्थ संघातु| आला श्रीगीतेगंगे आंतु| जे अर्जुन नर सिंहस्थु| जाला म्हणौनि ||१६७६|| कीं नोहे हे श्लोकश्रेणी| अचिंत्यचित्तचिंतामणी| कीं निर्विकल्पां लावणी| कल्पतरूंची ||१६७७|| ऐसिया शतें सात श्लोकां| परी आगळा येकयेका| आतां कोण वेगळिका| वानावां पां ||१६७८|| तान्ही आणि पारठी| इया कामधेनूतें दिठी| सूनि जैसिया गोठी| कीजती ना ||१६७९|| दीपा आगिलु मागिलु| सूर्यु धाकुटा वडीलु| अमृतसिंधु खोलु| उथळु कायसा ||१६८०|| तैसे पहिले सरते| श्लोक न म्हणावे गीते| जुनीं नवीं पारिजातें| आहाती काई ? ||१६८१|| आणि श्लोका पाडु नाहीं| हें कीर समर्थु काई| येथ वाच्य वाचकही| भागु न धरी ||१६८२|| जे इये शास्त्रीं येकु| श्रीकृष्णचि वाच्य वाचकु| हें प्रसिद्ध जाणे लोकु| भलताही ||१६८३|| येथें अर्थें तेंचि पाठें| जोडे येवढेनि धटें| वाच्यवाचक येकवटें| साधितें शास्त्र ||१६८४|| म्हणौनि मज कांहीं| समर्थनीं आतां विषय नाहीं| गीता जाणा हे वाङ्ग्मयी| श्रीमूर्ति प्रभूचि ||१६८५|| शास्त्र वाच्यें अर्थें फळे| मग आपण मावळे| तैसें नव्हें हें सगळें| परब्रह्मचि ||१६८६|| कैसा विश्वाचिया कृपा| करूनि महानंद सोपा| अर्जुनव्याजें रूपा| आणिला देवें ||१६८७|| चकोराचेनि निमित्तें| तिन्ही भुवनें संतप्तें| निवविलीं कळांवतें| चंद्रें जेवीं ||१६८८|| कां गौतमाचेनि मिषें| कळिकाळज्वरीतोद्देशें| पाणिढाळु गिरीशें| गंगेंचा केला ||१६८९|| तैसें गीतेचें हें दुभतें| वत्स करूनि पार्थातें| दुभिन्नली जगापुरतें| श्रीकृष्ण गाय ||१६९०|| येथे जीवें जरी नाहाल| तरी हेंचि कीर होआल| नातरी पाठमिषें तिंबाल| जीभचि जरी ||१६९१|| तरी लोह एकें अंशें| झगटलिया परीसें| येरीकडे अपैसें| सुवर्ण होय ||१६९२|| तैसी पाठाची ते वाटी| श्लोकपाद लावा ना जंव वोठीं| तंव ब्रह्मतेची पुष्टी| येईल आंगा ||१६९३|| ना येणेसीं मुख वांकडें| करूनि ठाकाल कानवडें| तरी कानींही घेतां पडे| तेचि लेख ||१६९४|| जे हे श्रवणें पाठें अर्थें| गीता नेदी मोक्षाआरौतें| जैसा समर्थु दाता कोण्हातें| नास्ति न म्हणे ||१६९५|| म्हणौनि जाणतया सवा| गीताचि येकी सेवा| काय कराल आघवां| शास्त्रीं येरीं ||१६९६|| आणि कृष्णार्जुनीं मोकळी| गोठी चावळिली जे निराळी| ते श्रीव्यासें केली करतळीं| घेवों ये ऐसी ||१६९७|| बाळकातें वोरसें| माय जैं जेवऊं बैसे| तैं तया ठाकती तैसे| घांस करी ||१६९८|| कां अफाटा समीरणा| आपैतेंपण शाहाणा| केलें जैसें विंजणा| निर्मूनियां ||१६९९|| तैसें शब्दें जें न लभे| तें घडूनिया अनुष्टुभें| स्त्रीशूद्रादि प्रतिभे| सामाविलें ||१७००|| स्वातीचेनि पाणियें| न होती जरी मोतियें| तरी अंगीं सुंदरांचिये| कां शोभिती तियें ? ||१७०१|| नादु वाद्या न येतां| तरी कां गोचरु होता| | फुलें न होतां घेपता| आमोदु केवीं ? ||१७०२|| गोडीं न होती पक्वान्नें| तरी कां फावती रसनें ? | दर्पणावीण नयनें| नयनु कां दिसे ? ||१७०३|| द्रष्टा श्रीगुरुमूर्ती| न रिगता दृश्यपंथीं| तरी कां ह्या उपास्ती| आकळता तो ? ||१७०४|| तैसें वस्तु जें असंख्यात| तया संख्या शतें सात| न होती तरी कोणा येथ| फावों शकतें ? ||१७०५|| मेघ सिंधूचें पाणी वाहे| तरी जग तयातेंचि पाहे| कां जे उमप ते नोहें| ठाकतें कोण्हा ||१७०६|| आणि वाचा जें न पवे| तें हे श्लोक न होते बरवे| तरी कानें मुखें फावे| ऐसें कां होतें ? ||१७०७|| म्हणौनि श्रीव्यासाचा हा थोरु| विश्वा जाला उपकारु| जे श्रीकृष्ण उक्ती आकारु| ग्रंथाचा केला ||१७०८|| आणि तोचि हा मी आतां| श्रीव्यासाचीं पदें पाहतां पाहतां| आणिला श्रवणपथा| मऱ्हाठिया ||१७०९|| व्यासादिकांचे उन्मेख| राहाटती जेथ साशंक| तेथ मीही रंक येक| चावळी करीं ||१७१०|| परी गीता ईश्वरु भोळा| ले व्यासोक्तिकुसुममाळा| तरी माझिया दुर्वादळा| ना न म्हणे कीं ||१७११|| आणि क्षीरसिंधूचिया तटा| पाणिया येती गजघटा| तेथ काय मुरकुटा| वारिजत असे ? ||१७१२|| पांख फुटे पांखिरूं| नुडे तरी नभींच स्थिरू| गगन आक्रमी सत्वरू| तो गरुडही तेथ ||१७१३|| राजहंसाचें चालणें| भूतळीं जालिया शाहाणें| आणिकें काय कोणें| चालावेचिना ? ||१७१४|| जी आपुलेनि अवकाशें| अगाध जळ घेपे कलशें| चुळीं चूळपण ऐसें| भरूनि न निघे ? ||१७१५|| दिवटीच्या आंगीं थोरी| तरी ते बहु तेज धरी| वाती आपुलिया परी| आणीच कीं ना ? ||१७१६|| जी समुद्राचेनि पैसें| समुद्रीं आकाश आभासे| थिल्लरीं थिल्लराऐसें| बिंबेचि पैं ||१७१७|| तेवीं व्यासादिक महामती| वावरों येती इये ग्रंथीं| मा आम्ही ठाकों हे युक्ति| न मिळे कीर ? ||१७१८|| जिये सागरीं जळचरें| संचरती मंदराकारें| तेथ देखोनि शफरें येरें| पोहों न लाहती ? ||१७१९|| अरुण आंगाजवळिके| म्हणौनि सूर्यातें देखें| मा भूतळींची न देखे| मुंगी काई ? ||१७२०|| यालागीं आम्हां प्राकृतां| देशिकारें बंधें गीता| म्हणणें हें अनुचिता| कारण नोहे ||१७२१|| आणि बापु पुढां जाये| ते घेत पाउलाची सोये| बाळ ये तरी न लाहे| पावों कायी ? ||१७२२|| तैसा व्यासाचा मागोवा घेतु| भाष्यकारातें वाट पुसतु| अयोग्यही मी न पवतु| कें जाईन ? ||१७२३|| आणि पृथ्वी जयाचिया क्षमा| नुबगे स्थावर जंगमा| जयाचेनि अमृतें चंद्रमा| निववी जग ||१७२४|| जयाचें आंगिक असिकें| तेज लाहोनि अर्कें| आंधाराचें सावाइकें| लोटिजत आहे ||१७२५|| समुद्रा जयाचें तोय| तोया जयाचें माधुर्य| माधुर्या सौंदर्य| जयाचेनि ||१७२६|| पवना जयाचें बळ| आकाश जेणें पघळ| ज्ञान जेणें उज्वळ| चक्रवर्ती ||१७२७|| वेद जेणें सुभाष| सुख जेणें सोल्लास| हें असो रूपस| विश्व जेणें ||१७२८|| तो सर्वोपकारी समर्थु| सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथु| राहाटत असे मजही आंतु| रिघोनियां ||१७२९|| आतां आयती गीता जगीं| मी सांगें मऱ्हाठिया भंगीं| येथ कें विस्मयालागीं| ठावो आहे ||१७३०|| श्रीगुरुचेनि नांवें माती| डोंगरीं जयापासीं होती| तेणें कोळियें त्रिजगतीं| येकवद केली ||१७३१|| चंदनें वेधलीं झाडें| जालीं चंदनाचेनि पाडें| वसिष्ठें मांनिली कीं भांडे| भानूसीं शाटी ||१७३२|| मा मी तव चित्ताथिला| आणि श्रीगुरु ऐसा दादुला| जो दिठीवेनि आपुला| बैसवी पदीं ||१७३३|| आधींचि देखणी दिठी| वरी सूर्य पुरवी पाठी| तैं न दिसे ऐसी गोठी| केंही आहे ? ||१७३४|| म्हणौनि माझें नित्य नवे| श्वासोश्वासही प्रबंध होआवे| श्रीगुरुकृपा काय नोहे| ज्ञानदेवो म्हणे ||१७३५|| याकारणें मियां| श्रीगीतार्थु मऱ्हाठिया| केला लोकां यया| दिठीचा विषो ||१७३६|| परी मऱ्हाठे बोलरंगें| कवळितां पैं गीतांगें| तैं गातयाचेनि पांगें| येकाढतां नोहे ||१७३७|| म्हणौनि गीता गावों म्हणे| तें गाणिवें होती लेणें| ना मोकळे तरी उणें| गीताही आणित ||१७३८|| सुंदर आंगीं लेणें न सूये| तैं तो मोकळा शृंगारु होये| ना लेइलें तरी आहे| तैसें कें उचित ? ||१७३९|| कां मोतियांची जैसी जाती| सोनयाही मान देती| नातरी मानविती| अंगेंचि सडीं ||१७४०|| नाना गुंफिलीं कां मोकळीं| उणीं न होती परीमळीं| वसंतागमींचीं वाटोळीं| मोगरीं जैसीं ||१७४१|| तैसा गाणिवेतें मिरवी| गीतेवीणही रंगु दावीं| तो लाभाचा प्रबंधु ओंवी| केला मियां ||१७४२|| तेणें आबालसुबोधें| ओवीयेचेनि प्रबंधें| ब्रह्मरससुस्वादें| अक्षरें गुंथिलीं ||१७४३|| आतां चंदनाच्या तरुवरीं| परीमळालागीं फुलवरीं| पारुखणें जियापरी| लागेना कीं ||१७४४|| तैसा प्रबंधु हा श्रवणीं| लागतखेंवो समाधि आणी| ऐकिलियाही वाखाणी| काय व्यसन न लवी ? ||१७४५|| पाठ करितां व्याजें| पांडित्यें येती वेषजे| तैं अमृतातें नेणिजे| फावलिया ||१७४६|| तैसेंनि आइतेपणें| कवित्व जालें हें उपेणें| मनन निदिध्यास श्रवणें| जिंतिलें आतां ||१७४७|| हे स्वानंदभोगाची सेल| भलतयसीचि देईल| सर्वेंद्रियां पोषवील| श्रवणाकरवीं ||१७४८|| चंद्रातें आंगवणें| भोगूनि चकोर शाहाणे| परी फावे जैसें चांदिणें| भलतयाही ||१७४९|| तैसें अध्यात्मशास्त्रीं यिये| अंतरंगचि अधिकारिये| परी लोकु वाक्चातुर्यें| होईल सुखिया ||१७५०|| ऐसें श्रीनिवृत्तिनाथाचें| गौरव आहे जी साचें| ग्रंथु नोहे हें कृपेचें| वैभव तिये ||१७५१|| क्षीरसिंधु परिसरीं| शक्तीच्या कर्णकुहरीं| नेणों कैं श्रीत्रिपुरारीं| सांगितलें जें ||१७५२|| तें क्षीरकल्लोळाआंतु| मकरोदरीं गुप्तु| होता तयाचा हातु| पैठें जालें ||१७५३|| तो मत्स्येंद्र सप्तशृंगीं| भग्नावयवा चौरंगी| भेटला कीं तो सर्वांगीं| संपूर्ण जाला ||१७५४|| मग समाधि अव्युत्थया| भोगावी वासना यया| ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया| दिधली मीनीं ||१७५५|| तेणें योगाब्जिनीसरोवरु| विषयविध्वंसैकवीरु| तिये पदीं कां सर्वेश्वरु| अभिषेकिला ||१७५६|| मग तिहीं तें शांभव| अद्वयानंदवैभव| संपादिलें सप्रभव| श्रीगहिनीनाथा ||१७५७|| तेणें कळिकळितु भूतां| आला देखोनि निरुता| ते आज्ञा श्रीनिवृत्तिनाथा| दिधली ऐसी ||१७५८|| ना आदिगुरु शंकरा- | लागोनि शिष्यपरंपरा| बोधाचा हा संसरा| जाला जो आमुतें ||१७५९|| तो हा तूं घेऊनि आघवा| कळीं गिळितयां जीवां| सर्व प्रकारीं धांवा| करीं पां वेगीं ||१७६०|| आधींच तंव तो कृपाळु| वरी गुरुआज्ञेचा बोलू| जाला जैसा वर्षाकाळू| खवळणें मेघां ||१७६१|| मग आर्ताचेनि वोरसें| गीतार्थग्रंथनमिसें| वर्षला शांतरसें| तो हा ग्रंथु ||१७६२|| तेथ पुढां मी बापिया| मांडला आर्ती आपुलिया| कीं यासाठीं येवढिया| आणिलों यशा ||१७६३|| एवं गुरुक्रमें लाधलें| समाधिधन जें आपुलें| तें ग्रंथें बोधौनि दिधलें| गोसावी मज ||१७६४|| वांचूनि पढे ना वाची| ना सेवाही जाणें स्वामीची| ऐशिया मज ग्रंथाची| योग्यता कें असे ? ||१७६५|| परी साचचि गुरुनाथें| निमित्त करूनि मातें| प्रबंधव्याजें जगातें| रक्षिलें जाणा ||१७६६|| तऱ्ही पुरोहितगुणें| मी बोलिलों पुरें उणें| तें तुम्हीं माउलीपणें| उपसाहिजो जी ||१७६७|| शब्द कैसा घडिजे| प्रमेयीं कैसें पां चढिजें| अळंकारु म्हणिजे| काय तें नेणें ||१७६८|| सायिखडेयाचें बाहुलें| चालवित्या सूत्राचेनि चाले| तैसा मातें दावीत बोले| स्वामी तो माझा ||१७६९|| यालागीं मी गुणदोष- | विषीं क्षमाविना विशेष| जे मी संजात ग्रंथलों देख| आचार्यें कीं ||१७७०|| आणि तुम्हां संतांचिये सभे| जें उणीवेंसी ठाके उभें| तें पूर्ण नोहे तरी तैं लोभें| तुम्हांसीचि कोपें ||१७७१|| सिवतलियाही परीसें| लोहत्वाचिये अवदसे| न मुकिजे आयसें| तैं कवणा बोलु ||१७७२|| वोहळें हेंचि करावें| जे गंगेचें आंग ठाकावें| मगही गंगा जरी नोहावें| तैं तो काय करी ? ||१७७३|| म्हणौनि भाग्ययोगें बहुवें| तुम्हां संतांचें मी पाये| पातलों आतां कें लाहे| उणें जगीं ||१७७४|| अहो जी माझेनि स्वामी| मज संत जोडुनि तुम्हीं| दिधलेति तेणें सर्वकामीं| परीपूर्ण जालों ||१७७५|| पाहा पां मातें तुम्हां सांगडें| माहेर तेणें सुरवाडें| ग्रंथाचें आळियाडें| सिद्धी गेलें ||१७७६|| जी कनकाचें निखळ| वोतूं येईल भूमंडळ| चिंतारत्नीं कुळाचळ| निर्मूं येती ||१७७७|| सातांही हो सागरांतें| सोपें भरितां अमृतें| दुवाड नोहे तारांतें| चंद्र करितां ||१७७८|| कल्पतरूचे आराम| लावितां नाहीं विषम| परी गीतार्थाचें वर्म| निवडूं न ये ||१७७९|| तो मी येकु सर्व मुका| बोलोनि मऱ्हाठिया भाखा| करी डोळेवरी लोकां| घेवों ये ऐसें जें ||१७८०|| हा ग्रंथसागरु येव्हढा| उतरोनि पैलीकडा| कीर्तिविजयाचा धेंडा| नाचे जो कां ||१७८१|| गीतार्थाचा आवारु| कलशेंसीं महामेरु| रचूनि माजीं श्रीगुरु- | लिंग जें पूजीं ||१७८२|| गीता निष्कपट माय| चुकोनि तान्हें हिंडे जें वाय| तें मायपूता भेटी होय| हा धर्म तुमचा ||१७८३|| तुम्हां सज्जनांचें केलें| आकळुनी जी मी बोलें| ज्ञानदेव म्हणे थेंकुलें| तैसें नोहें ||१७८४|| काय बहु बोलों सकळां| मेळविलों जन्मफळा| ग्रंथसिद्धीचा सोहळा| दाविला जो हा ||१७८५|| मियां जैसजैसिया आशा| केला तुमचा भरंवसा| ते पुरवूनि जी बहुवसा| आणिलों सुखा ||१७८६|| मजलागीं ग्रंथाची स्वामी| दुजीं सृष्टी जे हे केली तुम्ही| तें पाहोनि हांसों आम्हीं| विश्वामित्रातेंही ||१७८७|| जे असोनि त्रिशंकुदोषें| धातयाही आणावें वोसें| तें नासतें कीजे कीं ऐसें| निर्मावें नाहीं ||१७८८|| शंभू उपमन्युचेनि मोहें| क्षीरसागरूही केला आहे| येथ तोही उपमे सरी नोहे| जे विषगर्भ कीं ||१७८९|| अंधकारु निशाचरां| गिळितां सूर्यें चराचरां| धांवा केला तरी खरा| ताउनी कीं तो ||१७९०|| तातलियाही जगाकारणें| चंद्रें वेंचिलें चांदणें| तया सदोषा केवीं म्हणे| सारिखें हें ||१७९१|| म्हणौनि तुम्हीं मज संतीं| ग्रंथरूप जो हा त्रिजगतीं| उपयोग केला तो पुढती| निरुपम जी ||१७९२|| किंबहुना तुमचें केलें| धर्मकीर्तन हें सिद्धी नेलें| येथ माझें जी उरलें| पाईकपण ||१७९३|| आतां विश्वात्मकें देवें| येणें वाग्यज्ञें तोषावें| तोषोनि मज द्यावें| पसायदान हें ||१७९४|| जे खळांची व्यंकटी सांडो| तयां सत्कर्मीं रती वाढो| भूतां परस्परें पडो| मैत्र जीवाचें ||१७९५|| दुरिताचें तिमिर जावो| विश्व स्वधर्मसूर्यें पाहो| जो जें वांछील तो तें लाहो| प्राणिजात ||१७९६|| वर्षत सकळमंगळीं| ईश्वर निष्ठांची मांदियाळी| अनवरत भूमंडळीं| भेटतु या भूतां ||१७९७|| चलां कल्पतरूंचे अरव| चेतना चिंतामणीचें गांव| बोलते जे अर्णव| पीयूषाचे ||१७९८|| चंद्रमे जे अलांछन| मार्तंड जे तापहीन| ते सर्वांही सदा सज्जन| सोयरे होतु ||१७९९|| किंबहुना सर्वसुखीं| पूर्ण होऊनि तिहीं लोकीं| भजिजो आदिपुरुखीं| अखंडित ||१८००|| आणि ग्रंथोपजीविये| विशेषीं लोकीं इयें| दृष्टादृष्ट विजयें| होआवें जी ||१८०१|| तेथ म्हणे श्रीविश्वेशरावो| हा होईल दानपसावो| येणें वरें ज्ञानदेवो| सुखिया झाला ||१८०२|| ऐसें युगीं परी कळीं| आणि महाराष्ट्रमंडळीं| श्रीगोदावरीच्या कूलीं| दक्षिणलिंगीं ||१८०३|| त्रिभुवनैकपवित्र| अनादि पंचक्रोश क्षेत्र| जेथ जगाचें जीवनसूत्र| श्रीमहालया असे ||१८०४|| तेथ यदुवंशविलासु| जो सकळकळानिवासु| न्यायातें पोषी क्षितीशु| श्रीरामचंद्रु ||१८०५|| तेथ महेशान्वयसंभूतें| श्रीनिवृत्तिनाथसुतें| केलें ज्ञानदेवें गीते| देशीकार लेणें ||१८०६|| एवं भारताच्या गांवीं| भीष्मनाम प्रसिद्ध पर्वीं| श्रीकृष्णार्जुनीं बरवी| गोठी जे केली ||१८०७|| जें उपनिषदांचें सार| सर्व शास्त्रांचें माहेर| परमहंसीं सरोवर| सेविजे जें ||१८०८|| तियें गीतेचा कलशु| संपूर्ण हा अष्टादशु| म्हणे निवृत्तिदासु| ज्ञानदेवो ||१८०९|| पुढती पुढती पुढती| इया ग्रंथपुण्यसंपत्ती| सर्वसुखीं सर्वभूतीं| संपूर्ण होईजे ||१८१०|| शके बाराशतें बारोत्तरें| तैं टीका केली ज्ञानेश्वरें| सच्चिदानंदबाबा आदरें| लेखकु जाहला ||१८११|| इति श्री ज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां अष्टादशोध्यायः || श्रीशके पंधराशें साहोत्तरीं| तारणनामसंवत्सरीं| एकाजनार्दनें अत्यादरीं| गीता- ज्ञानेश्वरी प्रतिशुद्ध केली ||१|| ग्रंथ पूर्वींच अतिशुद्ध| परी पाठांतरीं शुद्ध अबद्ध| तो शोधूनियां एवंविध| प्रतिशुद्ध सिद्धज्ञानेश्वरी ||२|| नमो ज्ञानेश्वरा निष्कलंका| जयाची गीतेची वाचितां टीका| ज्ञान होय लोकां| अतिभाविकां ग्रंथार्थियां ||३|| बहुकाळपर्वणी गोमटी| भाद्रपदमास कपिलाषष्ठी| प्रतिष्ठानीं गोदातटीं| लेखनकामाठी संपूर्ण जाली ||४|| ज्ञानेश्वरीपाठीं| जो ओंवी करील मऱ्हाटी| तेणें अमृताचे ताटीं| जाण नरोटी ठेविली ||५|| ||श्रीकृष्णार्पणमस्तु || ||शुभं भवतु || ||श्री परमात्मने नमः || ||तत्सत् ब्रह्मार्पणमस्तु ||

Search

Search here.