ज्ञानेश्वरी अध्याय ३

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 16:12:43
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ३ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय तिसरा | कर्मयोगः | ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन | तत् किं कर्मणि घोरे माम् नियोजयसि केशव ||१|| मग आइका अर्जुनें म्हणितलें| देवा तुम्ही जें वाक्य बोलिलें| तें निकें म्यां परिसिलें| कमळापती ||१|| तेथ कर्म आणि कर्ता| उरेचिना पाहतां| ऐसें मत तुझें श्रीअनंता| निश्चित जरी ||२|| तरी मातें केवीं श्रीहरी| म्हणसी पार्था संग्रामु करीं| इये लाजसी ना महाघोरीं| कर्मीं सुतां ||३|| हां गा कर्म तूंचि अशेष| निराकरिसी निःशेष| तरी मजकरवीं हें हिंसक| कां करविसी ||४|| तरी हेंचि विचारीं ऋषीकेशा| तूं मानु देसी कर्मलेशां| आणि येसणी हे हिंसा| करवीतु आहासी ||५|| व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे | तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ||२|| देवा तुवांचि ऐसें बोलावें| तरी आम्हीं नेणती काय करावें| आतां संपले म्हण पां आघवें| विवेकाचें ||६|| हां गा उपदेश जरी ऐसा| तरी अपभ्रंशु तो कैसा| आतां पुरला आम्हां धिंवसा| आत्मबोधाचा ||७|| वैद्यु पथ्य वारूनि जाये| मग जरी आपणचि विष सुये| तरी रोगिया कैसनि जिये| सांगैं मज ||८|| जैसें आंधळें सुईजे आव्हांटा| कां माजवण दीजे मर्कटा| तैसा उपदेशु हा गोमटा| वोढवला आम्हां ||९|| मी आधींचि कांहीं नेणें| वरी कवळिलों मोहें येणें| श्रीकृष्णा विवेकु या कारणें| पुसिला तुज ||१०|| तंव तुझी एकेक नवाई| एथ उपदेशामाजीं गोवाई| तरी अनुसरलिया काई| ऐसें कीजे ? ||११|| आम्हीं तनुमनुजीवें| तुझिया बोला वोटंगावें| आणि तुवांचि ऐसें करावें| तरी सरलें म्हण ||१२|| आतां ऐसियापरी बोधिसी| तरी निकें आम्हां करिसी| एथ ज्ञानाची आस कायसी| अर्जुन म्हणे ||१३|| तरी ये जाणिवेचें तरी सरलें| परी आणिक एक असे जाहलें| जें थितें हें डहुळलें| मानस माझें ||१४|| तेवींचि श्रीकृष्णा हें तुझें| चरित्र कांहीं नेणिजे| जरी चित्त पाहसी माझें| येणे मिषें ||१५|| ना तरी झकवीतु आहासी मातें| कीं तत्त्वचि कथिले ध्वनितें| हें अवगमितां निरुतें| जाणवेना ||१६|| म्हणौनि आइकें देवा| हा भावार्थु आतां न बोलावा| मज विवेकु सांगावा| मऱ्हाटा जी ||१७|| मी अत्यंत जड असें| परी ऐसाही निकें परियेसें| श्रीकृष्णा बोलावें तुवां तैसें| एकनिष्ठ ||१८|| देखैं रोगातें जिणावें| औषध तरी देयावें| परी तें अति रुच्य व्हावें| मधुर जैसें ||१९|| तैसें सकळार्थभरित| तत्त्व सांगावें उचित| परी बोधें माझें चित्त| जयापरी ||२०|| देवा तुज ऐसा निजगुरु| आजि आर्तीधणी कां न करूं| एथ भीड कवणाची धरूं| तूं माय आमुची ||२१|| हां गां कामधेनूचें दुभतें| दैवें जाहलें जरी आपैतें| तरीं कामनेची कां तेथें| वानी कीजे ? ||२२|| जरी चिंतामणी हाता चढे| तरी वांछेचें कवण सांकडें| कां आपुलेनि सुरवाडें| इच्छावें ना ? ||२३|| देखा अमृतसिंधूतें ठाकावें| मग ताहाना जरी फुटावें| तरी सायासु कां करावे| मागील ते ? ||२४|| तैसा जन्मांतरीं बहुतीं| उपासितां श्रीलक्ष्मीपती| तूं दैवें आजि हातीं| जाहलासी जरी ||२५|| तरी आपुलिया सवेशा| कां न मागावासि परेशा ? | देवा सुकाळु हा मानसा| पाहला असे ||२६|| देखैं सकळार्तींचें जियाले| आजि पुण्य यशासि आलें| हें मनोरथ जहाले| विजयी माझे ||२७|| जी जी परममंगळधामा| सकळ देवदेवोत्तमा| तूं स्वाधीन आजि आम्हां| म्हणौनियां ||२८|| जैसें मातेच्या ठायीं| अपत्या अनवसरू नाहीं| स्तन्यालागूनि पाहीं| जियापरी ||२९|| तैसें देवा तूतें| पुसिजतसे आवडे तें| आपुलेनि आर्तें| कृपानिधीं ||३०|| तरीं पारत्रिकीं हित| आणि आचरितां तरी उचित| तें सांगैं एक निश्चित| पार्थु म्हणे ||३१|| श्रीभगवानुवाच | लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ | ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ||३|| या बोला श्रीअच्युतु| म्हणतसे विस्मितु| अर्जुना हा ध्वनितु| अभिप्रावो ||३२|| जे बुद्धियोगु सांगतां| सांख्यमतसंस्था| प्रकटिली स्वभावता| प्रसंगें आम्हीं ||३३|| तो उद्देशु तूं नेणसीचि| म्हणौनि क्षोभलासि वायांचि| तरी आतां जाणें म्यांचि| उक्त दोन्ही ||३४|| अवधारीं वीरश्रेष्ठा| ये लोकीं या दोन्ही निष्ठा| मजचिपासूनि प्रगटा| अनादिसिद्धा ||३५|| एकु ज्ञानयोगु म्हणिजे| जो सांख्यीं अनुष्ठिजे| जेथ ओळखीसवें पाविजें| तद्रूपता ||३६|| एक कर्मयोगु जाण| जेथ साधकजन निपुण| होऊनियां निर्वाण| पावती वेळे ||३७|| हे मार्गु तरी दोनी| परी एकवटतीं निदानीं| जैसी सिद्धसाध्य भोजनीं| तृप्ती एक ||३८|| कां पूर्वापर सरितां| भिन्न दिसती पाहतां| मग सिंधुमिळणीं ऐक्यता| पावती शेखीं ||३९|| तैसीं दोनीही मतें| सूचितीं एका कारणातें| परी उपास्ति ते योग्यते- | आधीन असे ||४०|| देखैं उत्प्लवनासरिसां| पक्षी फळासि झोंबें जैसा| सांगैं नरु केवीं तैसा| पावे वेगा ? ||४१|| तो हळूहळू ढाळेंढाळें| केउतेनि एके वेळे| तया मार्गाचेनि बळें| निश्चित ठाकी ||४२|| तैसे देख पां विहंगममतें| अधिष्ठूनि ज्ञानातें| सांख्य सद्य मोक्षातें| आकळिती ||४३|| येर योगिये कर्माधारें| विहितेंचि निजाचारें| पूर्णता अवसरें| पावते होती ||४४|| न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते | न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ||४|| वांचोनि कर्मारंभ उचित| न करितां सिद्धवत| कर्महीना निश्चित| होईजेना ||४५|| कीं प्राप्तकर्म सांडिजे| येतुलेनि नैष्कर्म्य होईजे| हें अर्जुना वायां बोलिजे| मूर्खपणें ||४६|| सांगैं पैलतीरा जावें| ऐसें व्यसन कां जेथ पावे| तेथ नावेतें त्यजावें| घडे केवीं ? ||४७|| ना तरी तृप्ति इच्छिजे| तरी कैसेनि पाकु न कीजे| कीं सिद्धुही न सेविजे| केवीं सांगैं ? ||४८|| न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् | कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ||५|| जंव निरार्तता नाहीं| तंव व्यापारु असे पाहीं| मग संतुष्टीच्या ठायीं| कुंठें सहजें ||४९|| म्हणौनि आईकें पार्था| जयां नैष्कर्म्यपदीं आस्था| तया उचित कर्म सर्वथा| त्याज्य नोहे ||५०|| आणि आपुलिये चाडे| आपादिलें हें मांडे| कीं त्यजिलें कर्म सांडे| ऐसें आहे ? ||५१|| हें वायांचि सैरा बोलिजे| उकलु तरी देखोनि पाहिजे| परी त्यजिता कर्म न त्यजे| निभ्रांत मानीं ||५२|| जंव प्रकृतीचें अधिष्ठान| तंव सांडी मांडी हें अज्ञान| जे चेष्टा ते गुणाधीन| आपैसी असे ||५३|| देखैं विहित कर्म जेतुलें| तें सळें जरी वोसंडिलें| तरी स्वभाव काय निमाले| इंद्रियांचे ||५४|| सांगै श्रवणीं ऐकावें ठेलें ? | कीं नेत्रींचें तेज गेलें ? | हें नासारंध्र बुझालें| परिमळु नेघे ? ||५५|| ना तरी प्राणापानगति| कीं निर्विकल्प जाहली मती| कीं क्षुधातृषादि आर्ति| खुंटलिया ||५६|| हे स्वप्नावबोधु ठेले| कीं चरण चालों विसरले| हें असो काय निमाले| जन्ममृत्यु ? ||५७|| हें न ठकेचि जरी कांहीं| तरी सांडिलें तें कायी| म्हणौनि कर्मत्यागु नाहीं| प्रकृतिमंता ||५८|| कर्म पराधीनपणें| निपजतसे प्रकृतिगुणें| येरी धरीं मोकलीं अंतःकरणें| वाहिजे वायां ||५९|| देखैं रथीं आरूढिजे| मग जरी निश्चळा बैसिजे| तरी चळु होऊनि हिंडिजे| परतंत्रा ||६०|| कां उचलिलें वायुवशें| चळे शुष्क पत्र जैसें| निचेष्ट आकाशें| परिभ्रमें ||६१|| तैसें प्रकृतिआधारें| कर्मेंद्रियविकारें| नैष्कर्म्यही व्यापारे| निरंतर ||६२|| म्हणौनि संगू जंव प्रकृतीचा| तंव त्यागु न घडे कर्माचा| ऐसियाहि करूं म्हणती तयांचा| आग्रहोचि उरे ||६३|| कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् | इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||६|| जे उचित कर्म सांडिती| मग नैष्कर्म्य होऊं पाहती| परी कर्मेंद्रियप्रवृत्ती| निरोधुनी ||६४|| तयां कर्मत्यागु न घडे| जें कर्तव्य मनीं सांपडे| वरी नटती तें फुडें| दरिद्र जाण ||६५|| ऐसे ते पार्था| विषयासक्त सर्वथा| ओळखावे तत्त्वता| भ्रांति नाहीं ||६६|| आतां देईं अवधान| प्रसंगें तुज सांगेन| या नैराश्याचें चिन्ह| धनुर्धरा ||६७|| यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्याऽऽरभतेऽर्जुन | कर्मैन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ||७|| जो अंतरीं दृढ| परमात्मरूपीं गूढ| बाह्य भागु तरी रूढ| लौकिकु जैसा ||६८|| तो इंद्रियां आज्ञा न करी| विषयांचें भय न धरी| प्राप्त कर्म नाव्हेरी| उचित जें जें ||६९|| तो कर्मेंद्रियें कर्मीं| राहटतां तरी न नियमी| परी तेथिचेनि उर्मीं| झांकोळेना ||७०|| तो कामनामात्रें न घेपे| मोहमळें न लिंपें| जैसें जळीं जळें न शिंपे| पद्मपत्र ||७१|| तैसा संसर्गामाजीं असे| सकळांसारिखा दिसे| जैसें तोयसंगें आभासे| भानुबिंब ||७२|| तैसा सामान्यत्वें पाहिजे| तरी साधारणुचि देखिजे| येरवीं निर्धारितां नेणिजे| सोय जयाची ||७३|| ऐशा चिन्हीं चिन्हितु| देखसी तोचि मुक्तु| आशापाशरहितु| वोळख पां ||७४|| अर्जुना तोचि योगी| विशेषिजे जो जगीं| म्हणौनि ऐसा होय यालागीं| म्हणिपे तूतें ||७५|| तूं मानसा नियमु करीं| निश्चळु होय अंतरीं| मग कर्मेंद्रियें व्यापारीं| वर्ततु सुखें ||७६|| नियतं कुरु कर्म त्वं ज्यायो ह्यकर्मणः | शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ||८|| म्हणौनी नैष्कर्म्य होआवें| तरी एथ तें न संभवे| आणि निषिद्ध केवीं राहाटावें| विचारीं पां ||७७|| म्हणौनि जें जें उचित| आणि अवसरेंकरूनि प्राप्त| तें कर्म हेतुरहित| आचरें तूं ||७८|| पार्था आणीकही एक| नेणसी तूं हें कवतिक| जें ऐसें कर्ममोचक| आपैसें असे ||७९|| देखैं अनुक्रमाधारें| स्वधर्मु जो आचरे| तो मोक्षु तेणें व्यापारें| निश्चित पावे ||८०|| यज्ञाथात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः | तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार ||९|| स्वर्धमु जो बापा| तोचि नित्ययज्ञु जाण पां| म्हणौनि वर्ततां तेथ पापा| संचारु नाहीं ||८१|| हा निजधर्मु जैं सांडे| आणि कुकर्मीं रति घडे| तैंचि बंधु पडे| संसारिक ||८२|| म्हणौनि स्वधर्मानुष्ठान| तें अखंड यज्ञ याजन| जो करी तया बंधन| कहींच न घडे ||८३|| हा लोकु कर्में बांधिला| जो परतंत्रा भूत झाला| तो नित्य यज्ञातें चुकला| म्हणौनियां ||८४|| आतां येचिविशीं पार्था| तुज सांगेन एक मी कथा| जैं सृष्ट्यादि संस्था| ब्रह्मेनें केली ||८५|| सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः | अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ||१०|| तैं नित्ययागसहितें| सृजिलीं भूतें समस्तें| परी नेणतीचि तियें यज्ञातें| सूक्ष्म म्हणौनि ||८६|| ते वेळीं प्रजीं विनविला ब्रह्मा| देवा काय आश्रयो एथ आम्हां| तंव म्हणे तो कमळजन्मा| भूतांप्रति ||८७|| तुम्हां वर्णविशेषवशें| आम्हीं हा स्वधर्मुचि विहिला असे| यातें उपासा मग आपैसे| पुरती काम ||८८|| तुम्हीं व्रतें नियमु न करावे| शरीरातें न पीडावें| दुरी केंही न वचावें| तीर्थासी गा ||८९|| योगादिकें साधनें| साकांक्ष आराधनें| मंत्रयंत्रविधानें| झणीं करा ||९०|| देवतांतरा न भजावें| हें सर्वथा कांहीं न करावें| तुम्हीं स्वधर्मयज्ञीं यजावें| अनायासें ||९१|| अहेतुकें चित्तें| अनुष्ठा पां ययातें| पतिव्रता पतीतें| जियापरी ||९२|| तैसा स्वधर्मरूपमखु| हाचि सेव्यु तुम्हां एकु| ऐसें सत्यलोकनायकु| बोलता जाहला ||९३|| देखा स्वधर्मातें भजाल| तरी कामधेनु हा होईल| मग प्रजाहो न संडील| तुमतें कदा ||९४|| देवांभावयताऽनेन ते देवाभावयन्तु वः | परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ||११|| जैं येणेंकरूनि समस्तां| परितोषु होईल देवतां| मग ते तुम्हां ईप्सिता| अर्थातें देती ||९५|| या स्वधर्मपूजा पूजितां| देवतागणां समस्तां| योगक्षेमु निश्चिता| करिती तुमचा ||९६|| तुम्हीं देवांतें भजाल| देव तुम्हां तुष्टतील| ऐसी परस्परें घडेल| प्रीति जेथ ||९७|| तेथ तुम्हीं जें करूं म्हणाल| तें आपैसें सिद्धि जाईल| वांछितही पुरेल| मानसींचें ||९८|| वाचासिद्धि पावाल| आज्ञापक होआल| म्हणियें तुमतें मागतील| महाऋद्धि ||९९|| जैसें ऋतुपतीचें द्वार| वनश्री निरंतर| वोळगे फळभार| लावण्येसी ||१००|| इष्टांभोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः | तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ||१२|| तैसें सर्व सुखेंसहित| दैवचि मूर्तिमंत| येईल देखा काढत| तुम्हांपाठीं ||१०१|| ऐसें समस्त भोगभरित| होआल तुम्ही अनार्त| जरी स्वधर्मेंनिरत| वर्ताल बापा ||१०२|| कां जालिया सकळ संपदा| जो अनुसरेल इंद्रियमदा| लुब्ध होऊनियां स्वादा| विषयांचिया ||१०३|| तिहीं यज्ञभाविकीं सुरीं| जे हे संपत्ति दिधली पुरी| तयां स्वधर्मीं सर्वेश्वरीं| न भजेल जो ||१०४|| अग्निमुखीं हवन| न करील देवता पूजन| प्राप्तवेळे भोजन| ब्राह्मणाचें ||१०५|| विमुख होईल गुरुभक्ती| आदर न करील अतिथी| संतोष नेदील ज्ञाती| आपुलिये ||१०६|| ऐसा स्वधर्मक्रियारहितु| आथिलेपणें प्रमत्तु| केवळ भोगासक्तु| होईल जो ||१०७|| तया मग अपावो थोर आहे| जेणें तें हातींचें सकळ जाये| देखा प्राप्तही न लाहे| भोग भोगूं ||१०८|| जैसें गतायुषी शरीरीं| चैतन्य वासु न करी| कां निदैवाच्या घरीं| न राहे लक्ष्मी ||१०९|| तैसा स्वधर्मु जरी लोपला| तरी सर्व सुखांचा थारा मोडला| जैसा दीपासवें हरपला| प्रकाशु जाय ||११०|| तैसी निजवृत्ति जेथ सांडे| तेथ स्वतंत्रते वस्ती न घडे| आइका प्रजाहो हे फुडें| विरंचि म्हणे ||१११|| म्हणौनि स्वधर्मु जो सांडील| तयातें काळु दंडील| चोरु म्हणौनि हरील| सर्वस्व तयाचें ||११२|| मग सकळ दोषु भंवते| गिंवसोनि घेति तयातें| रात्रिसमयीं स्मशानातें| भूतें जैसीं ||११३|| तैसीं त्रिभुवनींचीं दुःखें| आणि नानाविधें पातकें| दैन्यजात तितुकें| तेथेंचि वसे ||११४|| ऐसें होय तया उन्मत्ता| मग न सुटे बापा रुदतां| कल्पांतींही सर्वथा| प्राणिगणहो ||११५|| म्हणौनि निजवृत्ती हे न संडावी| इंद्रियें बरळों नेदावीं| ऐसें प्रजांतें शिकवी| चतुराननु ||११६|| जैसे जळचरा जळ सांडे| आणि तत्क्षणीं मरण मांडे| हा स्वधर्मु तेणें पाडें| विसंबों नये ||११७|| म्हणौनि तुम्हीं समस्तीं| आपुलालिया कर्मीं उचितीं| निरत व्हावें पुढत पुढती| म्हणिपत असे ||११८|| यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः | भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ||१३|| देखा विहित क्रियाविधि| निर्हेतुका बुद्धि| जो असतिये समृद्धि| विनियोगु करी ||११९|| गुरु गोत्र अग्नि पूजी| अवसरीं भजे द्विजीं| निमित्तादिकीं यजी| पितरोद्देशें ||१२०|| या यज्ञक्रिया उचिता| यज्ञेशीं हवन करितां| हुतशेष स्वभावतः| उरे जें जें ||१२१|| तें सुखें आपुले घरीं| कुटुंबेंसी भोजन करी| कीं भोग्यचि तें निवारी| कल्मषातें ||१२२|| तें यज्ञावशिष्ट भोगी| म्हणौनि सांडिजे तो अघीं| जयापरीं महारोगी| अमृतसिद्धि ||१२३|| कीं तत्त्वनिष्ठु जैसा| नागवे भ्रांतिलेशा| तो शेषभोगी तैसा| नाकळे दोषा ||१२४|| म्हणौनि स्वधर्में जें अर्जे| तें स्वधर्मेंचि विनियोगिजे| मग उरे तें भोगिजे| संतोषेंसीं ||१२५|| हें वांचूनि पार्था| राहाटों नये अन्यथा| ऐसी आद्य हे कथा| श्रीमुरारी सांगे ||१२६|| जे देहचि आपणपें मानिती| आणि विषयांतें भोग्य म्हणती| यापरतें न स्मरती| आणिक कांहीं ||१२७|| हें यज्ञोपकरण सकळ| नेणतसां ते बरळ| अहंबुद्धि केवळ| भोगूं पाहती ||१२८|| इंद्रियरुचीसारिखें| करविती पाक निके| ते पापिये पातकें| सेविती जाण ||१२९|| संपत्तिजात आघवें| हें हवनद्रव्य मानावें| मग स्वधर्मयज्ञें अर्पावें| आदिपुरुषीं ||१३०|| हें सांडोनियां मूर्ख| आपणपेंयालागीं देख| निपजविती पाक| नानाविध ||१३१|| जिहीं यज्ञु सिद्धी जाये| परेशा तोषु होये| तें हें सामान्य अन्न न होये| म्हणौनियां ||१३२|| हें न म्हणावें साधारण| अन्न ब्रह्मरूप जाण| जें जीवनहेतु कारण| विश्वा यया ||१३३|| अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः | यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ||१४|| कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवं | तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ||१५|| अन्नास्तव भूतें| प्ररोहो पावती समस्तें| मग पर्जन्यु या अन्नातें| सर्वत्र प्रसवे ||१३४|| तया पर्जन्या यज्ञीं जन्म| यज्ञातें प्रगटी कर्म| कर्मासि आदि ब्रह्म| वेदरूप ||१३५|| मग वेदांतें परात्पर| प्रसवतसे अक्षर| म्हणौनि हे चराचर| ब्रह्मबद्ध ||१३६|| परी कर्माचिये मूर्ति| यज्ञीं अधिवासु श्रुति| ऐकें सुभद्रापति| अखंड गा ||१३७|| एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः | अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||१६|| ऐशी हे आदि परंपरा| संक्षेपें तुज धनुर्धरा| सांगितली या अध्वरा| लागूनियां ||१३८|| म्हणौनि समूळ हा उचितु| स्वधर्मरूप क्रतु| नानुष्ठी जो मत्तु| लोकीं इये ||१३९|| तो पातकांची राशी| जाण भार भूमीसी| जो कुकर्में इंद्रियांसी| उपेगा गेला ||१४०|| तें जन्म कर्म सकळ| अर्जुना अति निष्फळ| जैसें कां अभ्रपटल| अकाळींचें ||१४१|| कां गळां स्तन अजेचे| तैसें जियालें देखैं तयाचें| जया अनुष्ठान स्वधर्माचें| घडेचिना ||१४२|| म्हणौनि ऐकें पांडवा| हा स्वधर्मु कवणें न संडावा| सर्वभावें भजावा| हाचि एकु ||१४३|| हां गा शरीर जरी जाहलें| तरी कर्तव्य वोघें आलें| मग उचित कां आपुलें| ओसंडावें ? ||१४४|| परिस पां सव्यसाची| मूर्ति लाहोनि देहाची| खंती करिती कर्माची| ते गांवढे गा ||१४५|| यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः | आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ||१७|| देखैं असतेनि देहधर्में| एथ तोचि एकु न लिंपे कर्में| जो अखंडित रमे| आपणपांचि ||१४६|| जे तो आत्मबोधें तोषला| तरी कृतकार्यु देखैं जाहला| म्हणौनि सहजें सांडवला| कर्मसंगु ||१४७|| नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन | न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदार्थव्यपाश्रयः ||१८|| तृप्ति जालिया जैसीं| साधनें सरती आपैसीं| देखैं आत्मतुष्टीं तैसीं| कर्में नाहीं ||१४८|| जंववरी अर्जुना| तो बोधु भेटेना मना| तंवचि यया साधना| भजावें लागे ||१४९|| तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर | असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ||१९|| म्हणौनि तूं नियतु| सकळ कामरहितु| होऊनियां उचितु| स्वधर्में रहाटें ||१५०|| जे स्वधर्में निष्कामता| अनुसरले पार्था| ते कैवल्यपद तत्त्वतां| पातले जगीं ||१५१|| कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः | लोकसङ्ग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ||२०|| देख पां जनकादिक| कर्मजात अशेख| न सांडितां मोक्षसुख| पावते जाहले ||१५२|| याकारणें पार्था| होआवी कर्मीं आस्था| हे आणिकाहि एका अर्था| उपकारैल ||१५३|| जे आचरतां आपणपयां| देखी लागेल लोका यया| तरी चुकेल अपाया| प्रसंगेंचि ||१५४|| देखैं प्राप्तार्थ जाहले| जे निष्कामता पावले| तयाही कर्तव्य असे उरलें| लोकांलागीं ||१५५|| मार्गीं अंधासरिसा| पुढें देखणाही चाले जैसा| अज्ञाना प्रकटावा धर्मु तैसा| आचरोनी ||१५६|| हां गा ऐसें जरी न कीजे| तरी अज्ञाना काय उमजे ? | तिहीं कवणे परी जाणिजे| मार्गातें या ? ||१५७|| यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः | स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||२१|| एथ वडील जें जें करिती| तया नाम धर्मु ठेविती| तेंचि येर अनुष्ठिती| सामान्य सकळ ||१५८|| हें ऐसें असे स्वभावें| म्हणौनि कर्म न संडावें| विशेषें आचरावें| लागे संतीं ||१५९|| न मे पार्थाऽस्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||२२|| आतां आणिकांचिया गोठी| कायशा सांगों किरीटी| देखैं मीच इये राहाटी| वर्तत असें ||१६०|| काय सांकडें कांहीं मातें| कीं कवणें एकें आर्तें| आचरें मी धर्मातें| म्हणसी जरी ||१६१|| तरी पुरतेपणालागीं| आणिकु दुसरा नाहीं जगीं| ऐसी सामुग्री माझ्या अंगीं| जाणसी तूं ||१६२|| मृत गुरुपुत्र आणिला| तो तुवां पवाडा देखिला| तोही मी उगला| कर्मीं वर्तें ||१६३|| यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः | मम वत्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||२३|| परी स्वधर्मीं वर्तें कैसा| साकांक्षु कां होय जैसा| तयाचि एका उद्देशा- | लागोनियां ||१६४|| जे भूतजात सकळ| असे आम्हांचि आधीन केवळ| तरी न व्हावें बरळ| म्हणौनियां ||१६५|| उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् | सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ||२४|| आम्ही पूर्णकाम होउनी| जरी आत्मस्थिति राहुनी| तरी प्रजा हे कैसेनि| निस्तरेल ? ||१६६|| इहीं आमुची वास पाहावी| मग वर्ततीपरी जाणावी| ते लोकस्थिति आघवी| नासिली होईल ||१६७|| म्हणौनि समर्थु जो येथें| आथिला सर्वज्ञते| तेणें सविशेषें कर्मातें| त्यजावें ना ||१६८|| सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत | कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ||२५|| देखैं फळाचिया आशा| आचरे कामकु जैसा| कर्मीं भरु होआवा तैसा| निराशाही ||१६९|| जे पुढतपुढतीं पार्था| हे सकळ लोकसंस्था| रक्षणीय सर्वथा| म्हणौनियां ||१७०|| मार्गाधारें वर्तावें| विश्व हें मोहरें लावावें| अलौकिक नोहावें| लोकांप्रति ||१७१|| न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् | जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ||२६|| जें सायासें स्तन्य सेवी| तें पक्वान्नें केवीं जेवी| म्हणौनि बाळका जैशीं नेदावीं| धनुर्धरा ||१७२|| तैशी कर्मीं जयां अयोग्यता| तयांप्रति नैष्कर्म्यता| न प्रगटावी खेळतां| आदिकरुनी ||१७३|| तेथें सत्क्रियाचि लावावी| तेचि एकी प्रशंसावी| नैष्कर्मींही दावावी| आचरोनी ||१७४|| तया लोकसंग्रहालागीं| वर्ततां कर्मसंगीं| तो कर्मबंधु आंगीं| वाजैल ना ||१७५|| जैसी बहुरुपियांचीं रावो राणी| स्त्रीपुरुषभावो नाहीं मनीं| परी लोकसंपादणी| तैशीच करिती ||१७६|| प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः | अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ||२७|| देखैं पुढिलाचें वोझें| जरी आपुला माथां घेईजे| तरी सांगैं कां न दटिजे| धनुर्धरा ? ||१७७|| तैसीं शुभाशुभें कर्में| जियें निपजती प्रकृतिधर्में| तियें मूर्ख मतिभ्रमें| मी कर्ता म्हणे ||१७८|| ऐसा अहंकारादिरूढ| एकदेशी मूढ| तया हा परमार्थ गूढ| प्रगटावा ना ||१७९|| हें असो प्रस्तुत| सांगिजैल तुज हित| तें अर्जुना देऊनि चित्त| अवधारीं पां ||१८०|| तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः | गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ||२८|| जें तत्त्वज्ञानियांच्या ठायीं| प्रकृतिभावो नाहीं| जेथ कर्मजात पाहीं| निपजत असे ||१८१|| ते देहाभिमानु सांडुनी| गुणकर्में वोलांडुनि| साक्षीभूत होउनी| वर्तती देहीं ||१८२|| म्हणौनि शरीरी जरी होती| तरी कर्मबंधा नातळती| जैसा कां भूतचेष्टा गभस्ती| घेपवेना ||१८३|| प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु | तानकृत्स्नविदो मन्दांकृत्स्नविन्न विचालयेत् ||२९|| एथ कर्मीं तोचि लिंपे| जो गुणसंभ्रमें घेपे| प्रकृतीचेनि आटोपे| वर्ततु असे ||१८४|| इंद्रियें गुणाधारें| राहाटती निजव्यापारें| तें परकर्म बलात्कारें| आपादी जो ||१८५|| मयि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्याध्यात्मचेतसा | निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||३०|| तरी उचितें कर्में आघवीं| तुवां आचरोनि मज अर्पावीं| परी चित्तवृत्ति न्यासावी| आत्मरूपीं ||१८६|| आणि हें कर्म मी कर्ता| कां आचरैन या अर्था| ऐसा अभिमानु झणें चित्ता| रिगों देसीं ||१८७|| तुवां शरीरपरा नोहावें| कामनाजात सांडावें| मग अवसरोचित भोगावे| भोग सकळ ||१८८|| आतां कोदंड घेऊनि हातीं| आरूढ पां इयें रथीं| देईं आलिंगन वीरवृत्ती| समाधानें ||१८९|| जगीं कीर्ति रूढवीं| स्वधर्माचा मानु वाढवीं| इया भारापासोनि सोडवीं| मेदिनी हे ||१९०|| आतां पार्था निःशंकु होईं| या संग्रामा चित्त देईं| एथ हें वांचूनि कांहीं| बोलों नये ||१९१|| ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः | श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ||३१|| हें अनुपरोध मत माझें| जिहीं परमादरें स्वीकारिजे| श्रद्धापूर्वक अनुष्ठिजे| धनुर्धरा ||१९२|| तेही सकळ कर्मीं वर्ततु| जाण पां कर्मरहितु| म्हणौनि हें निश्चितु| करणीय गा ||१९३|| ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् | सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ||३२|| नातरी प्रकृतिमंतु होउनी| इंद्रियां लळा देउनी| जें हें माझें मत अव्हेरुनी| ओसंडिती ||१९४|| जे सामान्यत्वें लेखिती| अवज्ञा करूनि देखती| कां हा अर्थवादु म्हणती| वाचाळपणें ||१९५|| ते मोहमदिरा भुलले| विषयविखें घारले| अज्ञानपंकीं बुडाले| निभ्रांत मानीं ||१९६|| देखैं शवाच्या हातीं दिधलें| जैसें रत्न कां वायां गेलें| नातरी जात्यंधा पाहलें| प्रमाण नोहे ||१९७|| कां चंद्राचा उदयो जैसा| उपयोगा न वचे वायसा| मूर्खा विवेकु हा तैसा| रुचेल ना ||१९८|| तैसे जे पार्था| विमुख या परमार्था| तयांसी संभाषण सर्वथा| करावेना ||१९९|| म्हणौनि ते न मानिती| आणि निंदाही करूं लागती| सांगैं पतंगु काय साहती| प्रकाशातें ? ||२००|| पतंगा दीपीं आलिंगन| तेथ त्यासी अचुक मरण| तेंवीं विषयाचरण| आत्मघाता ||२०१|| सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि | प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||३३|| म्हणौनि इंद्रियें एकें| जाणतेनि पुरुखें| लाळावीं ना कौतुकें| आदिकरुनी ||२०२|| हां गा सर्पेसीं खेळों येईल ? | कीं व्याघ्रसंसर्ग सिद्धि जाईल ? | सांगैं हाळाहाळ जिरेल| सेविलिया काई ? ||२०३|| देखैं खेळतां अग्नि लागला| मग तो न सांवरे जैसा उधवला| तैसा इंद्रियां लळा दिधला| भला नोहे ||२०४|| एऱ्हवीं तरी अर्जुना| या शरीरा पराधीना| कां नाना भोगरचना| मेळवावी ? ||२०५|| आपण सायासेंकरुनि बहुतें| सकळहि समृद्धिजातें| उदोअस्तु या देहातें| प्रतिपाळावें कां ? ||२०६|| सर्वस्वें शिणोनि एथें| अर्जवावीं संपत्तिजातें| तेणें स्वधर्मु सांडुनि देहातें| पोखावें काई ||२०७|| मग हे तंव पांचमेळावा| शेखीं अनुसरेल पंचत्वा| ते वेळीं केला कें गिंवसावा| शीणु आपुला ||२०८|| म्हणौनि केवळ देहभरण| ते जाणें उघडी नागवण| यालागीं एथ अंतःकरण| देयावेंना ||२०९|| इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ | तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||३४|| एऱ्हवीं इंद्रियांचिया अर्था| सारिखा विषो पोखितां| संतोषु कीर चित्ता| आपजेल ||२१०|| परी तो संवचोराचा सांगातु| जैसा नावेक स्वस्थु| जंव नगराचा प्रांतु| सांडिजेना ||२११|| बापा विषाची मधुरता| झणें आवडी उपजे चित्ता| परी तो परिणामु विचारितां| प्राणु हरी ||२१२|| देखैं इंद्रियीं कामु असे| तो लावी सुखदुराशे| जैसा गळीं मीनु आमिषें| भुलविजे गा ||२१३|| परी तयामाजीं गळु आहे| जो प्राणातें घेऊनि जाये| तोओ जैसा ठाउवा नोहे| झांकलेपणें ||२१४|| तैसें अभिलाषें येणें कीजेल| विषयांची आशा धरिजेल| तरी वरपडा होईजेल| क्रोधानळा ||२१५|| जैसा कवळोनियां पारधी| घातेचिये संधी| आणी मृगातें बुद्धि| साधावया ||२१६|| एथ तैसीची परी आहे| म्हणौनि संगु हा तुज नोहे| पार्था दोन्ही कामक्रोध हे| घातुक जाणें ||२१७|| म्हणौनि हा आश्रोचि न करावा| मनेंहि आठवो न धरावा| एकु निजवृत्तीचा वोलावा| नासों नेदी ||२१८|| श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् | स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ||३५|| अगा स्वधर्मु हा आपुला| जरी कां कठिणु जाहला| तरी हाचि अनुष्ठिला| भला देखैं ||२१९|| येरु आचारु जो परावा| तो देखतां कीर बरवा| परी आचरतेनि आचरावा| आपुलाचि ||२२०|| सांन्नें शूद्र घरीं आघवीं| पक्वान्नें आहाति बरवीं| तीं द्वीजें केंवीं सेवावीं| दुर्बळु जरी जाहला ||२२१|| हें अनुचित कैसेनि कीजे| अग्राह्य केवीं इच्छिजे| अथवा इच्छिलेंही पाविजे| विचारीं पां ||२२२|| तरी लोकांचीं धवळारें| देखोनियां मनोहरें| असतीं आपुलीं तणारें| मोडावीं केवीं ? ||२२३|| हें असो वनिता आपुली| कुरूप जरी जाहली| तऱ्ही भोगितां तेचि भली| जियापरी ||२२४|| तेवीं आवडे तैसा सांकडु| आचरतां जरी दुवाडु| तऱ्ही स्वधर्मुचि सुरवाडु| परत्रींचा ||२२५|| हां गा साकर आणि दूध| हें गौल्य कीर प्रसिद्ध| परी कृमिदोषीं विरुद्ध| घेपे केवीं ? ||२२६|| ऐसेनिही जरी सेविजेल| तरी ते अळुकीची उरेल| जे तें परिणामीं पथ्य नव्हेल| धनुर्धरा ||२२७|| म्हणौनि आणिकांसी जें विहित| आणि आपणपेयां अनुचित| तें नाचरावें जरी हित| विचारिजे ||२२८|| या स्वधर्मातें अनुष्ठितां| वेचु होईल जिविता| तोहि निका वर उभयतां| दिसत असे ||२२९|| ऐसें समस्तसुरशिरोमणी| बोलिले जेथ शारङ्गपाणी| तेथ अर्जुन म्हणे विनवणी| असे देवा ||२३०|| हें जें तुम्हीं सांगितलें| तें सकळ कीर म्यां परिसिलें| परी आतां पुसेन कांहीं आपुलें| अपेक्षित ||२३१|| अर्जुन उवाच | अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||३६|| तरी देवा हें ऐसें कैसें| जे ज्ञानियांही स्थिति भ्रंशे| मार्गु सांडुनी अनारिसे| चालत देखों ||२३२|| सर्वज्ञुही जे होती| हेयोपादेयही जाणती| तेही परधर्में व्यभिचरिति| कवणें गुणें ? ||२३३|| बीजा आणि भूसा| अंधु निवाडू नेणें जैसा| नावेक देखणाही तैसा| बरळे कां पां ? ||२३४|| जे असता संगु सांडिती| तेचि संसर्गु करितां न धाती| वनवासीही सेविती| जनपदातें ||२३५|| आपण तरी लपती| सर्वस्वें पाप चुकविती| परी बळात्कारें सुइजती| तयाचि माजीं ||२३६|| जयाची जीवें घेती विवसी| तेचि जडोनि ठाके जीवेंसीं| चुकवितां ते गिंवसी| तयातेंचि ||२३७|| ऐसा बलात्कारु एकु दिसे| तो कवणाचा एथ आग्रहो असे| हें बोलावें हृषीकेशें| पार्थु म्हणे ||२३८|| श्रीभगवानुवाच | काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः | महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ||३७|| तंव हृदयकमळआरामु| जो योगियांचा निष्कामकामु| तो म्हणतसे पुरुषोत्तमु| सांगेन आइक ||२३९|| तरी हे काम क्रोधु पाहीं| जयांतें कृपेची सांठवण नाहीं| हें कृतांताच्या ठायीं| मानिजती ||२४०|| हे ज्ञाननिधीचे भुजंग| विषयदरीचे वाघ| भजनमार्गींचे मांग| मारक जे ||२४१|| हे देहदुर्गींचे धोंड| इंद्रियग्रामींचें कोंड| यांचें व्यामोहादिक दबड| जगावरी ||२४२|| हे रजोगुण मानसींचे| समूळ आसुरियेचे| धालेपण ययांचें| अविद्या केलें ||२४३|| हे रजाचे कीर जाहले| परी तमासी पढियंते भले| तेणें निजपद यां दिधलें| प्रमादमोहो ||२४४|| हे मृत्युच्या नगरीं| मानिजती निकियापरि| जे जीविताचे वैरी| म्हणौनियां ||२४५|| जयांसि भुकेलिया आमिषा| हें विश्व न पुरेचि घांसा| कुळवाडियांचिया आशा| चाळीत असे ||२४६|| कौतुकें कवळितां मुठीं| जिये चवदा भुवनें थेंकुटी| तिये भ्रांतिही धाकुटी| वाल्हीदुल्ही ||२४७|| जे लोकत्रयाचें भातुकें| खेळतांचि खाय कवतिकें| तिच्या दासीपणाचेनि बिकें| तृष्णा जिये ||२४८|| हें असो मोहें मानिजे| यांतें अहंकारें घेपे दीजे| जेणें जग आपुलेनि भोजें| नाचवीत असे ||२४९|| जेणें सत्याचा भोकसा काढिला| मग अकृत्य तृणकुटा भरिला| तो दंभु रूढविला| जगीं इहीं ||२५०|| साध्वी शांती नागविली| मग माया मांगी श्रृंगारिली| तियेकरवीं विटाळविलीं| साधुवृंदें ||२५१|| इहीं विवेकाची त्र्याय फेडिली| वैराग्याचि खाल काढिली| जितया मान मोडिली| उपशमाची ||२५२|| इहीं संतोषवन खांडिलें| धैर्यदुर्ग पाडिले| आनंदरोप सांडिले| उपडूनियां ||२५३|| इहीं बोधाचीं रोपें लुंचिलीं| सुखाची लिपी पुसिली| जिव्हारीं आगी सूदली| तापत्रयाची ||२५४|| हे आंगा तंव घडले| जीवींची आथी जडले| परी नातुडती गिंवसिले| ब्रह्मादिकां ||२५५|| हे चैतन्याचे शेजारीं| वसती ज्ञानाच्या एका हारीं| म्हणौनि प्रवर्तले महामारी| सांवरती ना ||२५६|| हे जळेंविण बुडविती| आगीवीण जाळिती| न बोलतां कवळिती| प्राणियांतें ||२५७|| हे शस्त्रेंविण साधिती| दोरेंविण बांधिती| ज्ञानियासी तरी वधिती| पैज घेउनि ||२५८|| हे चिखलेंवीण रोवितीं| पाशिकेंवीण गोंविती| हे कवणाजोगें न होती| आंतौटेपणें ||२५९|| धूमेनाऽऽव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च | यथोल्बेनाऽऽवृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||३८|| जैसी चंदनाची मुळी| गिंवसोनि घेपे व्याळीं| नातरी उल्बाची खोळी| गर्भस्थासी ||२६०|| कां प्रभावीण भानु| धूमेवीण हुताशनु| जैसा दर्पण मळहीनु| कहींच नसे ||२६१|| तैसें इहींवीण एकलें| आम्हीं ज्ञान नाहीं देखिलें| जैसें कोंडेनि पां गुंतलें| बीज निपजे ||२६२|| आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञनिनो नित्यवैरिणा | कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||३९|| तैसें ज्ञान तरी शुद्ध| परी इहीं असे प्ररुद्ध| म्हणौनि तें अगाध| होऊनि ठेले ||२६३|| आधीं यांतें जिणावें| मग तें ज्ञान पावावें| तंव पराभवो न संभवे| रागद्वेषां ||२६४|| यांतें साधावयालागीं| जें बळ आणिजे आंगीं| तें इंधनें जैसीं आगी| सावावो होय ||२६५|| इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते | एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ||४०|| तैसे उपाय कीजती जे जे| ते ते यांसीचि होती विरजे| म्हणौनि हटियांतें जिणिजे| इहींचि जगीं ||२६६|| ऐसियांही सांकडां बोला| एक उपायो आहे भला| तो करितां जरी आंगवला| तरी सांगेन तुज ||२६७|| तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ | पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ||४१|| यांचा पहिला कुरुठा इंद्रियें| एथूनि प्रवृत्ति कर्मातें विये| आधीं निर्दळुनि घाली तियें| सर्वथैव ||२६८|| इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः | मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ||४२|| मग मनाची धांव पारुषेल| आणि बुद्धीची सोडवण होईल| इतुकेन थारा मोडेल| या पापियांचा ||२६९|| एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना | जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ||४३|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनाम तॄतीयोऽध्यायः ||३अ || हे अंतरींहूनि जरी फिटले| तरी निभ्रांत जाण निवटले| जैसें रश्मिवीण उरलें| मृगजळ नाहीं ||२७०|| तैसे रागद्वेष जरी निमाले| तरी ब्रह्मींचें स्वराज्य आलें| मग तो भोगी सुख आपुलें| आपणचि ||२७१|| ते गुरुशिष्याचि गोठी| पदपिंडाची गांठी| तेथ स्थिर राहोनि नुठी| कवणे काळीं ||२७२|| ऐसें सकळ सिद्धांचा रावो| देवी लक्ष्मीयेचा नाहो| राया ऐकें देवदेवो| बोलता जाहला ||२७३|| आतां पुनरपि तो अनंतु| आद्य एकी मातु| सांगैल तेथ पंडुसुतु| प्रश्नु करील ||२७४|| तया बोलाचा हन पाडु| कीं रसवृत्तीचा निवाडु| येणें श्रोतयां होईल सुरवाडु| श्रवणसुखाचा ||२७५|| ज्ञानदेवो म्हणे निवृत्तीचा| चांग उठावा करूनि उन्मेषाचा| मग संवादु श्रीहरिपार्थाचा| भोगावा बापा ||२७६|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां तृतीयोऽध्यायः ||

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