श्रीगणेश चालीसा1

चालीसा संग्रह Posted at 2018-11-18 15:21:23

श्री गणेश चालीसा १

दोहा

जय गणपति सदगुणसदन , कविवर बदन कृपाल । विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल ॥ चौपाई जय जय जय गणपति गणराजू । मंगल भरण करण शुभ काजू ॥१॥ जय गजबदन सदन सुखदाता । विश्व विनायक बुद्घि विधाता ॥२॥ वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन । तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन ॥३॥ राजत मणि मुक्तन उर माला । स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला ॥४॥ पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । मोदक भोग सुगन्धित फूलं ॥५॥ सुन्दर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥६॥ धनि शिवसुवन षडानन भ्राता । गौरी ललन विश्व-विख्याता ॥७॥ ऋद्घि-सिद्घि तव चंवर सुधारे । मूषक वाहन सोहत द्घारे ॥८॥ कहौ जन्म शुभ-कथा तुम्हारी । अति शुचि पावन मंगलकारी ॥९॥ एक समय गिरिराज कुमारी । पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी ॥१०॥ भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा ॥११॥ अतिथि जानि कै गौरि सुखारी । बहुविधि सेवा करी तुम्हारी ॥१२॥ अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा । मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ॥१३॥ मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला । बिना गर्भ धारण, यहि काला ॥१४ गणनायक, गुण ज्ञान निधाना । पूजित प्रथम, रुप भगवाना ॥१५॥ अस कहि अन्तर्धान रुप है । पलना पर बालक स्वरुप है ॥१६॥ बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना । लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना ॥१७॥ सकल मगन, सुखमंगल गावहिं । नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ॥१८॥ शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं । सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं ॥१९॥ लखि अति आनन्द मंगल साजा । देखन भी आये शनि राजा ॥२०॥ निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । बालक, देखन चाहत नाहीं ॥२१॥ गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो । उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो ॥२२॥ कहन लगे शनि, मन सकुचाई । का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई ॥२३॥ नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ । शनि सों बालक देखन कहाऊ ॥२४॥ पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा। बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा॥२५ गिरिजा गिरीं विकल है धरणी । सो दुख दशा गयो नहीं वरणी ॥२६॥ हाहाकार मच्यो कैलाशा । शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा ॥२७॥ तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो । काटि चक्र सो गज शिर लाये ॥२८॥ बालक के धड़ ऊपर धारयो । प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो ॥२९॥ नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे ॥३०॥ बुद्घि परीक्षा जब शिव कीन्हा । पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा ॥३१॥ चले षडानन, भरमि भुलाई । रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई ॥३२॥ धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे । नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे ॥३३॥ चरण मातु-पितु के धर लीन्हें । तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें ॥३४॥ तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई । शेष सहसमुख सके न गाई ॥३५॥ मैं मतिहीन मलीन दुखारी । करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी ॥३६॥ भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । जग प्रयाग, ककरा, दर्वासा ॥३७॥ अब प्रभु दया दीन पर कीजै । अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै ॥३८॥ श्रीगणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान ॥३९॥ नित नव मंगल गृह बसै , लहे जगत सन्मान ॥४०॥ दोहा सम्वत अपन सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश । पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश ॥

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