दत्तगीता चतुर्थोध्यायः

ग्रंथ - पोथी  > दत्तगीता Posted at 2019-02-15 16:11:10
श्रीदत्तगीता - चतुर्थोध्यायः श्रीगणेशाय नमः ॥ ॐ कार इति खलु गगनसमो नपरापरसा रविसार इति ॥ अविशाल - विशालनिराकरणम् ‍ कथमक्षरबिंदुसमुच्चरणम् ‍ ॥१॥ इह ’ तत्त्वमसि ’ प्रभृतिभिः श्रुतिभिः प्रतिपादितमात्मनि तत्त्वमसि ॥ त्वमुपाधिविवर्जितसर्वसमं किमु रोदसि मानस सर्वासमम ‍ ॥२॥ अधऊर्ध्वविवर्जितसर्वसमं ककुभादिविवर्जितसर्वसमम् ‍ ॥ यदि चैकनिरंतरसर्वसमं किमुरोदसि मानस सर्व० ॥३॥ नहि कल्पितभाव - विभाव - रतिर्नहि राग - विराग - विचार - रतिः ॥ यदिसर्वविर्जित सर्वसमं किमु रोदसि मानस सर्वसमम् ‍ ॥४॥ नहिबोध - विबोधि - समाधिरिति नहि काल - विकालसमाधिरिति ॥ नहि देश - विदेशसमाधिरिति किमु रोदसि० ॥५॥ नहि कुंभनभो नहिकुंभमिति नहि जीव वपुर्नहि जीव इति ॥ नहिकारणकार्यविचार इति किमु० ॥६॥ यदिसर्वनिरंतरमोक्षपदं लघुदीर्घविचारविहीन इति ॥ नहि वर्तुळ - कोणविचारगतिः किमु० ॥७॥ इह शून्य - विशून्यविहीन इति इह शुद्ध - विशुद्धविहीन इति ॥ इह सर्व - विसर्व विहीन इति कि० ॥८॥ नहि भीतिविचित्रविचार इति न निरंतरसंधिमनस्यमिति ॥ सरिमित्रविर्जितसर्वसमं किमु रो० ॥९॥ नहि शेष - विशेषणरूप इति न चराचरभेदविभेद इति ॥ इह मोक्षनिरंतरसर्वमिति किमु० ॥१०॥ न गुणागुणपाशविबंध इति द्रुतजीवनजीवकरोमि कथम् ‍ ॥ इह शुद्ध - निरंजनसर्वसमं किमु रो० ॥११॥ इह भाव - विभावविहीनपरं इह काम - विकामविहीनपरम् ‍ ॥ इह बोधतमं खलु मोक्षसमं किमु रो० ॥१२॥ इह तत्त्वनिरंतरसर्वसमं न हि संधि - विसंधि - समागमनम् ‍ ॥ यदि सर्वविवर्जितमेव समं किमुरो० ॥१३॥ इह रूप - विरूपविहीन इति ननु भिन्न - विभिन्नविहीन इति ॥ ननु सर्व - विसर्वविहीन इति किमु रोदसि० ॥१४॥ अनिकेतकुटीपरिचारसमं इह संग - विसंगविहीनपरम् ‍ ॥ इह बोध - विबोधविहीन इति किमु रो० ॥१५॥ अविकार - विकारमसत्यमिति अविलक्ष - विलक्षमसत्यमिति ॥ इह केवलमात्मनि सत्यमिति किमु रो० ॥१६॥ इह सर्वगतः खलु जीव इति इह सर्वनिरंतरजीव इति ॥ इह केवलमात्मनि जीव इति किमु रो० ॥१७॥ अविवेकविवेकविबोध इति अविकल्प - विकल्पविबोध इति ॥ यदि चैकनिरंतरबोध इति किमु रो० ॥१८॥ यदि वर्णविवर्णविहीनसमं यदि भेद - विभेदविहीनसमम ‍ ॥ यदि कारण - कार्यविहीनसमं किमु रो० ॥१९॥ इह सर्व हि केवलसर्वचिते इह केवलनिर्मलसर्वचिते ॥ वियदादिविवर्जितसर्वचिते किमु० ॥२०॥ इति निर्मलनिश्वलसर्वगतं इति सर्वनिरंतरसर्वगतम् ‍ ॥ दिनरात्रिविवर्जितसर्वगतं किमु रो० ॥२१॥ न च बंधसमाधिसमागमनं न हि योग - वियोगसमागमनम् ‍ ॥ न च तर्क - वितर्कसमागमनं किमु रो० ॥२२॥ इह काल - विकालनिराकरणं अनुपीनकृशैकनिराकरणम् ‍ ॥ नहि केवलतत्त्वनिराकरणं किमु रो० ॥२३॥ इह देह - विदेहविहीनपरम् ‍ नहिजाग्रति - भ्रांतितृतीयपरम् ‍ ॥ अपिधान - पिधानविचारपरं किमु रो० ॥२४॥ गगनोपमशुद्ध - विशुद्धसमं इह सर्वविवर्जितसर्वसमम ‍ ॥ गतसार - विसारविकारसमं किमु रो० ॥२५॥ इइ धर्म - विधर्मविरागपरं इह वस्तु - विवस्तुविहीनपरम् ‍ ॥ इह कामविकामविरागपरं किमु रोद० ॥२६॥ गुण - दोषविवर्णितसर्वमसि सुखदुःखविवर्जिततत्त्वमसि ॥ यदि रे गगनोपमतत्त्वमसि किमु रो० ॥२७॥ बहुधा श्रुतयः प्रवदंति यतो वियदादिगतो यदि तोयसमम ‍ ॥ यदिचेद्नगनोपमतत्त्वमसि किमु रो० ॥२८॥ यदि रूपविवर्जितसर्वमिदं यदि चैकनिरंतरसर्वमिदम् ‍ ॥ यदि सर्वविवर्जितसर्वमिदं किमु रो० ॥२९॥ इह सारसमुच्चयसर्वयति कथितो निजभावविबोधपति ॥ यदि यत्कारणनहि सत्यमिति किमु रो० ॥३०॥ विंदति विंदति नहि नहि यत्र छंदोलक्षणं नहि नहि तत्र ॥ समरसमाज्ञो भावितपूतः प्रभवति तत्त्वं परमवधूतः ॥३१॥ इति श्रीदत्तगीतासूपनिषत्सारमथितार्थेषु निरंजनविद्यायां निर्वाणयोगे श्रीदत्त - गोरक्षकसंवादे समवृद्धिद्दष्टिस्वात्मसंवित्युपदेशोनाम चतुर्थोध्यायः ॥४॥

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