ज्ञानेश्वरी अध्याय १०
ग्रंथ - पोथी > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:39:18
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १० ||
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय दहावा |
विभूतियोगः |
नमो विशदबोधविदग्धा| विद्यारविंदप्रबोधा| पराप्रमेयप्रमदा| विलासिया ||१||
नमो संसारतमसूर्या| अपरिमितपरमवीर्या| तरुणतरतूर्या| लालनलीला ||२||
नमो जगदखिलपालना| मंगळमणिनिधाना| सज्जनवनचंदना| आराध्यलिंगा ||३||
नमो चतुरचित्तचकोरचंद्रा| आत्मानुभवनरेंद्रा| श्रुतिसारसमुद्रा| मन्मथमन्मथा ||४||
नमो सुभावभजनभाजना| भवेभकुंभभंजना| विश्वोद्भवभुवना| श्रीगुरुराया ||५||
तुमचा अनुग्रहो गणेशु| जैं दे आपुला सौरसु| तैं सारस्वतीं प्रवेशु| बाळकाही आथी ||६||
जी दैविकीं उदार वाचा| जैं उद्देशु दे नाभिकाराचा| तैं नवरससुधाब्धीचा| थावो लाभे ||७||
जी आपुलिया स्नेहाची वागेश्वरी| जरी मुकेयातें अंगिकारी| तो वाचस्पतीशीं करी| प्रबंधुहोडा ||८||
हें असो दिठी जयावरी झळके| कीं हा पद्मकरु माथां पारुखे| तो जीवचि परि तुके| महेशेंसीं ||९||
एवढें जिये महिमेचें करणें| तें वाचाबळें वानूं मी कवणें| कां सूर्याचिया आंगा उटणें| लागत असे ? ||१०||
केउता कल्पतरुवरी फुलौरा ? | कायसेनि पाहुणेरु क्षीरसागरा ? | कवणें वासीं कापुरा| सुवासु देवों ? ||११||
चंदनातें कायसेनि चर्चावें| अमृतातें केउतें रांधावें| गगनावरी उभवावें| घडे केवीं ? ||१२||
तैसें श्रीगुरूचें महिमान| आकळितें कें असे साधन ? | हें जाणोनि मियां नमन| निवांत केलें ||१३||
जरी प्रज्ञेचेनि आथिलेपणें| श्रीगुरूसामर्थ्या रूप करूं म्हणे| तरि तें मोतियां भिंग देणें| तैसें होईल ||१४||
कां साडेपंधरया रजतवणी| तैशीं स्तुतींचीं बोलणीं| उगियाचि माथा ठेविजे चरणीं| हेंचि भलें ||१५||
मग म्हणितलें जी स्वामी| भलेनि ममत्वें देखिलें तुम्हीं| म्हणौनि कृष्णार्जुनसंगमीं| प्रयागवटु जाहलों ||१६||
मागां दूध दे म्हणतलियासाठीं| आघविया क्षीराब्धीची करूनि वाटी| उपमन्यूपुढें धूर्जटी| ठेविली जैसी ||१७||
ना तरी वैकुंठपीठनायकें| रुसला ध्रुव कवतिकें| बुझाविला देऊनि भातुकें| ध्रुवपदाचें ||१८||
तैसी जे ब्रह्मविद्यारावो| सकळ शास्त्रांचा विसंवता ठावो| ते भगवद्गीता वोंविये गावों| ऐसें केलें ||१९||
जे बोलणियाचे रानीं हिंडतां| नायकिजे फळलिया अक्षराची वार्ता| परि ते वाचाचि केली कल्पलता| विवेकाची ||२०||
होती देहबुद्धी एकसरी| ते आनंदभांडारा केली वोवरी| मन गीतार्थसागरीं| जळशयन जालें ||२१||
ऐसें एकेक देवांचें करणें| तें अपार बोलों केवीं मी जाणें| तऱ्ही अनुवादलों धीटपणें| ते उपसाहिजो जी ||२२||
आतां आपुलेनि कृपाप्रसादें| मियां भगवद्गीता वोंवीप्रबंधें| पूर्वखंड विनोदें| वाखाणिलें ||२३||
प्रथमीं अर्जुनाचा विषादु| दुजीं बोलिला योगु विशदु| परि सांख्यबुद्धीसि भेदु| दाऊनियां ||२४||
तिजीं केवळ कर्म प्रतिष्ठिलें| तेंचि चतुर्थीं ज्ञानेंशीं प्रगटिलें| पंचमीं गव्हरिलें| योगतत्त्व ||२५||
तेचि षष्ठामाजीं प्रगट| आसनालागोनि स्पष्ट| जीवात्मभाव एकवट| होती जेणें ||२६||
तैसी जे योगस्थिती| आणि योगभ्रष्टां जे गती| तें आघवीचि उपपत्ती| सांगितली षष्ठीं ||२७||
तयावरी सप्तमीं| प्रकृतिपरिहार उपक्रमीं| करूनि भजती जे पुरुषोत्तमीं| ते बोलिले चाऱ्ही ||२८||
पाठीं सप्तप्रश्नविधि| बोलोनि प्रयाणसमयसिद्धी | एवं सकळ वाक्यावधि| अष्टमाध्यायीं ||२९||
मग शब्दब्रह्मीं असंख्याकें| जेतुला कांहीं अभिप्राय पिके| तेतुला महाभारतें एकें| लक्षें जोडे ||३०||
तिये आघवांचि जें महाभारतीं| तें लाभे कृष्णार्जुनवाचोक्तीं| आणि जो अभिप्रावो सातेंशतीं| तो एकलाचि नवमीं ||३१||
म्हणौनि नवमींचिया अभिप्राया| सहसा मुद्रा लावावया| बिहाला मग मी वायां| गर्व कां करूं ? ||३२||
अहो गूळासाखरे मालयाचे| हे बांधे तरी एकाचि रसाचे| परि स्वाद गोडियेचे| आनआन जैसे ||३३||
एक जाणोनियां बोलती| एक ठायें ठावो जाणविती| एक जाणों जातां हारपती| जाणते गुणेंशीं ||३४||
हें ऐसें अध्याय गीतेचे| परि अनिर्वाच्यपण नवमाचें| तो अनुवादलों हें तुमचें| सामर्थ्य प्रभू ||३५||
अहो एकाचि शाटी तपिन्नली| एकीं सृष्टीवरी सृष्टी केली| एकीं पाषाणीं वाऊनि उतरलीं| समुद्रीं कटकें ||३६||
एकीं आकाशीं सूर्यातें धरिलें| एकीं चुळींचि सागरातें भरिलें| तैसें मज मुकयाकरवीं बोलविलें| अनिर्वाच्य तुम्हीं ||३७||
परि हें असो एथ ऐसें| राम रावण झुंजिन्नले कैसे| राम रावण जैसे| मीनले समरीं ||३८||
तैसें नवमीं कृष्णाचें बोलणें| तें नवमीचियाचि ऐसें मी म्हणें| या निवाडा तत्त्वज्ञु जाणें| जया गीतार्थु हातीं ||३९||
एवं नवही अध्याय पहिले| मियां मतीसारिखे वाखाणिले| आतां उत्तरखंड उवाइलें| ग्रंथाचें ऐका ||४०||
जेथ विभूति प्रतिविभूती| प्रस्तुत अर्जुना सांगिजेती| ते विदग्धा रसवृत्ती| म्हणिपैल कथा ||४१||
देशियेचेनि नागरपणें| शांतु शृंगारातें जिणें| तरि ओंविया होती लेणें| साहित्यासि ||४२||
मूळ ग्रंथींचिया संस्कृता| वरि मऱ्हाठी नीट पढतां| अभिप्राय मानलिया उचिता| कवण भूमी हें न चोजवे ||४३||
जैसें अंगाचेनि सुंदरपणें| लेणिया आंगचि होय लेणें| तेथ अळंकारिलें कवण कवणें| हें निर्वचेना ||४४||
तैसी देशी आणि संस्कृत वाणी| एका भावार्थाच्या सुखासनीं| शोभती आयणी| चोखट आइका ||४५||
उठावलिया भावा रूप| करितां रसवृत्तीचें लागे वडप| चातुर्य म्हणे पडप| जोडलें आम्हां ||४६||
तैसें देशियेचें लावण्य| हिरोनि आणिलें तारुण्य| मग रचिलें अगण्य| गीतातत्त्व ||४७||
जो चराचर परमगुरु| चतुर चित्तचमत्कारु| तो ऐका यादवेश्वरु| बोलता जाहला ||४८||
ज्ञानदेव निवृत्तीचा म्हणे| ऐसें बोलिलें श्रीहरी तेणें| अर्जुना आघवियाची मातु अंतःकरणें| धडौता आहासि ||४९||
श्रीभगवानुवाच |
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः |
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ||१||
आम्हीं मागील जें निरूपण केलें| तें तुझें अवधानचि पाहिलें| तवं टाचें नव्हें भलें| पुरतें आहे ||५०||
घटीं थोडेसें उदक घालिजे| तेणें न गळे तरी वरिता भरिजे| ऐसा परिसौनि पाहिलासि तवं परिसविजे|
ऐसेंचि होतसे ||५१||
अवचितयावरी सर्वस्व सांडिजे| मग चोख तरी तोचि भांडारी कीजे| तैसा किरीटी तूं आतां माझें| निजधाम कीं ||५२||
ऐसें अर्जुना येउतें सर्वेश्वरें| पाहोनि बोलिलें अत्यादरें| गिरी देखोनि सुभरें| मेघु जैसा ||५३||
तैसा कृपाळुवांचा रावो| म्हणे आइकें गा महाबाहो| सांगितलाचि अभिप्रावो| सांगेन पुढती ||५४||
पैं प्रतिवर्षीं क्षेत्र पेरिजे| पिकाची जंव जंव वाढी देखिजे| यालागीं नुबगिजे| वाहो करितां ||५५||
पुढतपुढती पुटें देतां| जोडे वानियेची अधिकता| म्हणौनि सोनें पंडुसुता| शोधूंचि आवडे ||५६||
तैसें एथ पार्था| तुज आभार नाहीं सर्वथा| आम्ही आपुलियाचि स्वार्था| बोलों पुढती ||५७||
जैसें बाळका लेवविजे लेणें| तया शृंगारा बाळ काइ जाणे ? | परि ते सुखाचे सोहळे भोगणें| माउलिये दिठी ||५८||
तैसें तुझें हित आघवें| जंव जंव कां तुज फावे| तंव तंव आमुचें सुख दुणावे| ऐसें आहे ||५९||
आतां अर्जुना असो हे विकडी| मज उघड तुझी आवडी| म्हणौनि तृप्तीची सवडी| बोलतां न पडे ||६०||
आम्हां येतुलियाचि कारणें| तेंचि, तें तुजशीं बोलणें| परि असो हें अंतःकरणें| अवधान देईं ||६१||
तरी ऐकें गा सुवर्म| वाक्य माझें, परम| जें अक्षरें लेऊनी परब्रह्म| तुज खेंवासि आलें ||६२||
परी किरीटी तूं मातें| नेणसी ना निरुतें| तरि तो गा जो मी एथें| तें विश्वचि हें ||६३||
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः |
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ||२||
एथ वेद मुके जाहाले| मन पवन पांगुळले| रातीविण मावळले| रविशशी जेथ ||६४||
अगा उदरींचा गर्भु जैसा| न देखें आपुलिये मातेची वयसा| मी आघवेया देवां तैसा| नेणवे कांहीं ||६५||
आणि जळचरां उदधीचें मान| मशका नोलांडवेचि गगन| तेवीं महर्षींचें ज्ञान| न देखेचि मातें ||६६||
मी कवण पां केतुला| कवणाचा कैं जाहला| या निरुती करितां बोला| कल्प गेले ||६७||
कां जे महर्षीं आणि या देवां| येरां भूतजातां सर्वां| मी आदि म्हणौनि पांडवा| अवघड जाणतां ||६८||
उतरलें उदक पर्वत वळघे| जरी झाड वाढत मुळीं लागे| तरी मियां जालेनि जगें| जाणिजे मातें ||६९||
कां गाभेवनें वटु गिंवसवे| जरी तरंगीं सागरू सांठवे| कां परमाणूमाजीं सामावे| भूगोलु हा ||७०||
तरी मियां जालिया जीवां| महर्षीं अथवा देवां| मातें जाणावया होआवा| अवकाशु गा ||७१||
ऐसाही जरी विपायें| सांडूनि पुढीले पाये| सर्वेंद्रियांसि होये| पाठिमोरा जो ||७२||
प्रवर्तलाही वेगीं बहुडे| देह सांडूनि मागलीकडे| महाभूतांचिया चढे| माथयावरी ||७३||
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् |
असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ||३||
तेथ राहोनि ठायठिके| स्वप्रकाशें चोखें| अजत्व माझें देखे| आपुलिया डोळां ||७४||
मी आदीसिं परु| सकळलोकमहेश्वरु| ऐसिया मातें जो नरु| यापरी जाणें ||७५||
तो पाषाणांमाजीं परिसु| जैसा रसाआंतु सिद्धरसु| तैसा मनुष्याआंतु तो अंशु| माझाचि जाण ||७६||
तें चालतें ज्ञानाचें बिंब| तयाचे अवयव ते सुखाचे कोंभ| येर माणुसपण तें भांब| लौकिक भागु ||७७||
अगा अवचिता कापुरा- | माजीं सांपडला हिरा| वरी पडिलिया नीरा| न निगे केवीं ||७८||
तैसा मनुष्यलोकाआंतु| तो जरी जाहला प्राकृतु| तऱ्ही प्रकृतिदोषाची मातु| नेणेंचि कीं ||७९||
तो आपसयेंचि सांडिजे पापीं| जैसा जळत चंदनु सर्पीं| तेवीं मातें जाणें तो संकल्पीं| वर्जूनि घापे ||८०||
तेंचि आमुतें कैसें जाणिजे| ऐसें कल्पी जरी चित्त तुझें| तरी मी ऐसा हें माझें| भाव ऐकें ||८१||
जे वेगळालिया भूतीं| सारिखे होऊनि प्रकृती| विखुरले आहेती त्रिजगतीं| आघविये ||८२||
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः |
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ||४||
अहिंसा समता तुइष्टास्तपो दानं यशोऽयशः |
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ||५||
तेथ प्रथम जाण बुद्धी| मग ज्ञान जें निरवधी| असंमोह सहनसिद्धी| क्षमा सत्य ||८३||
मग शम दम दोन्ही| सुखदुःख वर्ते जें जनीं| अर्जुना भावाभाव मानीं| भावाचिमाजीं ||८४||
पैं भय आणि निर्भयता| अहिंसा आणि समता| तुइष्टि तप पंडुसुता| दान जें गा ||८५||
अगा यश अपकीर्ती| हे जे भाव सर्वत्र दिसती| ते मजचि पासूनि होती| भूतांचिया ठायीं ||८६||
जैसीं भूतें आहाति सिनानीं| तैसेचि हेही वेगळाले मानीं| एक उपजती माझ्या ज्ञानीं| एक नेणती मातें ||८७||
प्रकाशु आणि कडवसें| हें सूर्याचिस्तव जैसें| प्रकाश उदयीं दिसे| तम अस्तुसीं ||८८||
आणि माझें जाणणें नेणणें| तें तंव भूतांचिया दैवाचें करणें| म्हणौनि भूतीं भावाचें होणें| विषम पडे ||८९||
यापरी माझिया भावीं| हे जीवसृष्टि आहे आघवी| गुंतली असे जाणावी| पंडुकुमरा ||९०||
आतां इये सृष्टीचे पालक| जयां आधीन वर्तती लोक| ते अकरा भाव आणिक| सांगेन तुज ||९१||
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारी मनवस्तथा |
मद्भवा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ||६||
तरी आघवांचि गुणीं वृद्ध| जे महर्षींमाजीं प्रबुद्ध| कश्यपादि प्रसिद्ध| सप्तऋषी ||९२||
आणिकही सांगिजतील| जे कां चौदाआंतुल मुद्दल| स्वायंभू मुख्य वडील| चारी मनु ||९३||
ऐसें हे अकरा| माझ्या मनीं जाहाले धनुर्धरा| सृष्टीचिया व्यापारा- | लागोनियां ||९४||
जैं लोकांची व्यवस्था न पडे| जैं या त्रिभुवनाचे कांहीं न मांडे| तैं महाभूतांचे दळवाडें| अचुंबित असे ||९५||
तैंचि हे जाहाले| मग इहीं लोक केले| तेथ अध्यक्ष रचूनि ठेविले| इहीं जन ||९६||
म्हणौनि अकराही हे राजा| मग येर जग यांचिया प्रजा| एवं विश्वविस्तारु हा माझा| ऐसेंचि जाण ||९७||
पाहें पां आरंभीं बीज एकलें| मग तेंचि विरूढलिया बूड जाहालें| बुडीं कोंभ निघाले| खांदियांचे ||९८||
खांदियांपासूनि अनेका| फुटलिया नाना शाखा| शाखांस्तव देखा| पल्लव पानें ||९९||
पल्लवीं फूल फळ| एवं वृक्षत्व जाहालें सकळ| तें निर्धारितां केवळ| बीजचि आघवें ||१००||
तैंसे मी एकचि पहिलें| मग मी तेंचि मनातें व्यालें| तेथ सप्तऋषि जाहाले| आणि चारी मनु ||१०१||
इहीं लोकपाळ केले| लोकपाळीं विविध लोक सृजिले| लोकांपासूनि निपजले| प्रजाजात ||१०२||
ऐसेनि हें विश्व येथें| मीचि विस्तारिलोंसें निरुतें| परी भावाचेनि हातें| माने जया ||१०३||
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः |
सोऽविकंपेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ||७||
यालागीं सुभद्रापती| हे भाव इया माझिया विभूती| आणि यांचिया व्याप्ती| व्यापिलें जग ||१०४||
म्हणौनि गा यापरी| ब्रह्मादिपिपीलिकावरी| मीवांचूनि दुसरी| गोठी नाहीं ||१०५||
ऐसें जाणे जो साचें| तया चेइरें जाहालें ज्ञानाचें| म्हणौनि उत्तमाधम भेदाचें| दुःस्वप्न न देखे ||१०६||
मी माझिया विभूती| विभूतीं अधिष्ठिलिया व्यक्ती| हें आघवें योगप्रतीती| एकचि मानी ||१०७||
म्हणौनि निःशंकें येणें महायोगें| मज मीनला मनाचेनि आंगें| एथ संशय करणें न लगे| तो त्रिशुद्धी जाहला ||१०८||
कां जे ऐसें किरीटी| मातें भजे जो अभेदा दिठी| तयाचिये भजनाचे नाटीं| सूती मज ||१०९||
म्हणौनि अभेदें जो भक्तियोगु| तेथ शंका नाहीं नये खंगु| करितां ठेला तरी चांगु| तें सांगितलें षष्ठीं ||११०||
तोचि अभेदु कैसा| हें जाणावया मानसा| साद जाली तरी परियेसा| बोलिजेल ||१११||
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||८||
तरि मीचि एक सर्वां| या जगा जन्म पांडवा| आणि मजचिपासूनि आघवा| निर्वाहो यांचा ||११२||
कल्लोळमाळा अनेगा| जन्म जळींचि पैं गा| आणि तयां जळचि आश्रयो तरंगा| जीवनही जळ ||११३||
ऐसें आघवाचि ठायीं| तया जळचि जेवीं पाहीं| तैसा मीवांचूनि नाहीं| विश्वीं इये ||११४||
ऐसिया व्यापका मातें| मानूनि जे भजती भलतेथें| परि साचोकारें उदितें| प्रेमभावें ||११५||
देश काळ वर्तमान| आघवें मजसीं करूनि अभिन्न| जैसा वायु होऊन गगन| गगनींचि विचरे ||११६||
ऐसेनि जे निजज्ञानी| खेळत सुखें त्रिभुवनीं| जगद्रूपा मनीं| सांठऊनि मातें ||११७||
जें जें भेटे भूत| तें तें मानिजे भगवंत| हा भक्तियोगु निश्चित| जाण माझा ||११८||
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||९||
चित्तें मीचि जाहाले| मियांचि प्राणें धाले| जीवों मरों विसरले| बोधाचिया भुली ||११९||
मग तया बोधाचेनि माजे| नाचती संवादसुखाचीं भोजें| आतां एकमेकां घेपे दीजे| बोधचि वरी ||१२०||
जैशीं जवळकेंचीं सरोवरें| उचंबळलिया कालवती परस्परें| मग तरंगासि धवळारें| तरंगचि होती ||१२१||
तैसी येरयेरांचिये मिळणी| पडत आनंदकल्लोळांची वेणी| तेथ बोध बोधाचीं लेणीं| बोधेंचि मिरवी ||१२२||
जैसें सूर्यें सूर्यातें वोंवाळिलें| कीं चंद्रें चंद्रम्या क्षेम दिधलें| ना तरी सरिसेनि पाडें मीनले| दोनी वोघ ||१२३||
तैसें प्रयाग होत सामरस्याचें| वरी वोसाण तरत सात्त्विकाचें| ते संवादचतुष्पथींचे| गणेश जाहले ||१२४||
तेव्हां तया महासुखाचेनि भरें| धांवोनि देहाचिये गांवाबाहेरें| मियां धाले तेणें उद्गारें| लागती गाजों ||१२५||
पैं गुरुशिष्यांचिया एकांतीं| जे अक्षरा एकाची वदंती| ते मेघाचियापरी त्रिजगतीं| गर्जती सैंघ ||१२६||
जैसी कमळकळिका जालेपणें| हृदयींचिया मकरंदातें राखों नेणें| दे राया रंका पारणें| आमोदाचें ||१२७||
तैसेंचि मातें विश्वीं कथित| कथितेनि तोषें कथूं विसरत| मग तया विसरामाजीं विरत| आंगें जीवें ||१२८||
ऐसें प्रेमाचेनि बहुवसपणें| नाहीं राती दिवो जाणणें| केलें माझें सुख अव्यंगवाणें| आपणपेयां जिहीं ||१२९||
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||१०||
तयां मग जें आम्ही कांहीं| द्यावें अर्जुना पाहीं| ते ठायींचीच तिहीं| घेतली सेल ||१३०||
कां जे ते जिया वाटा| निगाले गा सुभटा| ते सोय पाहोनि अव्हांटा| स्वर्गापवर्ग ||१३१||
म्हणौनि तिहीं जें प्रेम धरिलें| तेंचि आमुचें देणें उपाइलें| परि आम्हीं देयावें हेंहि केलें| तिहींची म्हणिपे ||१३२||
आतां यावरी येतुलें घडे| जें तेंचि सुख आगळें वाढें| आणि काळाची दृष्टि न पडे| हें आम्हां करणें ||१३३||
लळेयाचिया बाळका किरीटी| गवसणी करूनि स्नेहाचिया दिठी| जैसी खेळतां पाठोपाठीं| माउली धांवे ||१३४||
तें जो जो खेळ दावी| तो तो पुढें सोनयाचा करूनि ठेवी| तैसी उपास्तीची पदवी| पोषित मी जायें ||१३५||
जिये पदवीचेनि पोषकें| ते मातें पावती यथासुखें| हे पाळती मज विशेखें| आवडे करूं ||१३६||
पैं गा भक्तासि माझें कोड| मज तयाचे अनन्यगतीची चाड| कां जे प्रेमळांचें सांकड| आमुचिया घरीं ||१३७||
पाहें पां स्वर्ग मोक्ष उपाइले| दोन्ही मार्ग तयाचिये वाहणी केले| आम्हीं आंगही शेखीं वेंचिलें| लक्ष्मियेसीं ||१३८||
परि आपणपेंवीण जें एक| तें तैसेंचि सुख साजुक| सप्रेमळालागीं देख| ठेविलें जतन ||१३९||
हा ठायवरी किरीटी| आम्ही प्रेमळु घेवों आपणयासाठीं| या बोलीं बोलिजत गोष्टी| तैसिया नव्हती गा ||१४०||
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||११||
म्हणौनि मज आत्मयाचा भावो| जिहीं जियावया केला ठावो| एक मीवांचूनि वावो| येर मानिलें जिहीं ||१४१||
तयां तत्त्वज्ञां चोखटां| दिवी पोतासाची सुभटा| मग मीचि होऊनि दिवटा| पुढां पुढां चालें ||१४२||
अज्ञानाचिये राती- | माजीं तमाचि मिळणी दाटती| ते नाशूनि घालीं परौती| तयां करीं नित्योदयो ||१४३||
ऐसें प्रेमळाचेनि प्रियोत्तमें| बोलिलें जेथ पुरुषोत्तमें| तेथ अर्जुन मनोधर्में| निवालों म्हणतसे ||१४४||
हां हो जी अवधारा| भला केरु फेडिला संसारा| जाहलों जननीजठरजोहरा- | वेगळा प्रभू ||१४५||
जी जन्मलेपण आपुलें| हें आजि मियां डोळां देखिलें| जीवित हातां चढलें| आवडतसें ||१४६||
आजि आयुष्या उजवण जाहली| माझिया दैवा दशा उदयली| जे वाक्यकृपा लाधली| दैविकेनि मुखें ||१४७||
आतां येणें वचन तेजाकारें| फिटलें आंतील बाहेरील आंधारें| म्हणौनि देखतसें साचोकारें| स्वरूप तुझें ||१४८||
अर्जुन उवाच |
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||१२||
तरी होसी गा तूं परब्रह्म| जें या महाभूतां विसंवतें धाम| पवित्र तूं परम| जगन्नाथा ||१४९||
तूं परम दैवत तिहीं देवां| तूं पुरुष जी पंचविसावा| दिव्य तूं प्रकृतिभावा- | पैलीकडील ||१५०||
अनादिसिद्ध तूं स्वामी| जो नाकळिजसी जन्मधर्मीं| तो तूं हें आम्ही| जाणितलें आतां ||१५१||
तूं या कालत्रयासि सूत्री| तूं जीवकळेची अधिष्ठात्री| तूं ब्रह्मकटाहधात्री| हें कळलें फुडें ||५२||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिनारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ||१३||
पैं आणिकही एक परी| इये प्रतीतीची येतसे थोरी| जे मागें ऐसेंचि ऋषीश्वरीं| सांगितलें तूंतें ||१५३||
परि तया सांगितलियाचें साचपण| हें आतां माझें देखतसे अंतःकरण| जे कृपा केली आपण| म्हणौनि देवा ||१५४||
एऱ्हवीं नारदु अखंड जवळां ये| तोही ऐसेंचि वचनीं गाये| परि अर्थ न बुजोनि ठाये| गीतसुखचि ऐकों ||१५५||
जी आंधळेयांच्या गांवीं| आपणपें प्रगटलें रवी| तरी तिहीं वोतपलीचि घ्यावी| वांचूनि प्रकाशु कैंचा ? ||१५६||
परि देवर्षि अध्यात्म गातां| आहाच रागांगेंसीं जे मधुरता| तेचि फावे येर चित्ता| नलगेचि कांहीं ||१५७||
पैं असिता देवलाचेनि मुखें| मी एवंविधा तूंतें आइकें| परी तैं बुद्धि विषयविखें| घारिली होती ||१५८||
विषयविषाचा पडिपाडू| गोड परमार्थु लागे कडू| कडू विषय तो गोडू| जीवासी जाहला ||१५९||
आणि हें आणिकांचें काय सांगावें| राउळा आपणचि येऊनि व्यासदेवें| तुझें स्वरूप आघवें| सर्वदा सांगिजे ||१६० ||
परि तो अंधारीं चिंतामणि देखिला| जेवीं नव्हे या बुद्धी उपेक्षिला| पाठीं दिनोदयीं वोळखिला| होय म्हणौनि ||१६१||
तैसीं व्यासादिकांचीं बोलणीं| तिया मजपाशीं चिद्रत्नांचिया खाणी| परि उपेक्षिल्या जात होतीया तरणी|
तुजवीण कृष्णा ||१६२||
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव |
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ||१४||
ते आतां वाक्यसूर्यकर तुझे फांकले| आणि ऋषीं मार्ग होते जे कथिले| तयां आघवियांचेंचि फिटलें| अनोळखपण ||१६३||
जी ज्ञानाचें बीज तयांचे बोल| माजीं हृदयभूमिके पडिले सखोल| वरि इये कृपेची जाहाली वोल|
म्हणौनि संवाद फळेंशीं उठलें ||१६४||
अहो नारदादिकां संतां| त्यांचिया उक्तिरूप सरितां| महोदधीं जाहलों अनंता| संवादसुखाचा ||१६५||
प्रभु आघवेनि येणें जन्में| जियें पुण्यें केलीं मियां उत्तमें| तयांचीं न ठकतीचि अंगीं कामें| सद्गुरु तुवां ||१६६||
एऱ्हवीं वडिलवडिलांचेनि मुखें| मी सदां तूंतें कानीं आइकें| परि कृपा न कीजेचि तुवां एकें| तंव नेणवेचि कांहीं ||१६७||
म्हणौनि भाग्य जैं सानुकूळ| जालिया केले उद्यम सदां सफळ| तैसें श्रुताधीत सकळ| गुरुकृपा साच ||१६८||
जी बनकरु झाडें सिंपी जीवेंसाटीं| पाडूनि जन्में काढी आटी| परि फळेंसी तैंचि भेटी| जैं वसंतु पावे ||१६९||
अहो विषमा जैं वोहट पडे| तैं मधुर तें मधुर आवडे| पैं रसायनें तैं गोडें| जैं आरोग्य देहीं ||१७०||
कां इंद्रियें वाचा प्राण| यां जालियांचे तैंचि सार्थकपण| जैं चैतन्य येऊनि आपण| संचरे माजीं ||१७१||
तैसें शब्दजात आलोडिलें| अथवा योगादिक जें अभ्यासिलें| तें तैंचि म्हणों ये आपुलें| जैं सानुकूल श्रीगुरु ||१७२||
ऐसिये जालिये प्रतीतीचेनि माजें| अर्जुन निश्चयाचि नाचतुसें भोजें| तेवींचि म्हणे देवा तुझें| वाक्य मज मानलें ||१७३||
तरि साचचि हें कैवल्यपती| मज त्रिशुद्धी आली प्रतीती| जे तूं देवदानवांचिये मती- | जोगा नव्हसी ||१७४||
तुझें वाक्य व्यक्ती न येतां देवा| जो आपुलिया जाणे जाणिवा| तो कहींचि नोहे हें मद्भावा| भरंवसेनि आलें ||१७५||
स्वयमेवाऽऽत्मनाऽऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम |
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ||१५||
एथ आपुलें वाढपण जैसें| आपणचि जाणिजे आकाशें| कां मी येतुली घनवट ऐसें| पृथ्वीचि जाणे ||१७६||
तैसा आपुलिये सर्वशक्ती| तुज तूंचि जाणसी लक्ष्मीपती| येर वेदादिक मती| मिरवती वायां ||१७७||
हां गा मनातें मागां सांडावें| पवनातें वावीं मवावें| आदिशून्य तरोनि जावें| केउतें बाहीं ||१७८||
तैसें हें तुझें जाणणें आहे| म्हणौनि कोणाही ठाउकें नोहे| आतां तुझें ज्ञान होये| तुजचिजोगें ||१७९||
जी आपणयातें तूंचि जाणसी| आणिकातें सांगावयाही समर्थ होसी| तरी आतां एक वेळ घाम पुसीं|
आर्तीचिये निडळींचा ||१८०||
हें आइकिलें कीं भूतभावना| त्रिभुवनगजपंचानना| सकळदेवदेवतार्चना| जगन्नायका ||१८१||
जरी थोरी तुझी पाहात आहों| तरी पासीं उभे ठाकावयाही योग्य नोहों| या शोच्यता जरी विनवूं बिहों|
तरी आन उपायो नाहीं ||१८२||
भरले समुद्र सरिता चहूंकडे| परि ते बापियासि कोरडे| कां जैं मेघौनि थेंबुटा पडे| तैं पाणी कीं तया ||८३||
तैसे श्रीगुरु सर्वत्र आथी| परि कृष्णा आम्हां तूंचि गती| हें असो मजप्रती| विभूती सांगें ||१८४||
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
याभिर्विभूतिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ||१६||
जी तुझिया विभूती आघविया| परि व्यापिती शक्ति दिव्या जिया| तिया आपुलिया दावाविया| आपण मज ||१८५||
जिहीं विभूतीं ययां समस्तां| लोकांतें व्यापूनि आहासी अनंता| तिया प्रधाना नामांकिता| प्रगटा करीं ||१८६||
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् |
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ||१७||
जी कैसें मियां जाणावें| काय जाणोनि सदा चिंतावें| जरी तूंचि म्हणों आघवें| तरि चिंतनचि न घडे ||१८७||
म्हणौनि मागां भाव जैसे| आपुले सांगितले तुवां उद्देशें| आतां विस्तारोनि तैसे| एक वेळ बोलें ||१८८||
जया जया भावाचिया ठायीं| तूंतें चिंतितां मज सायासु नाहीं| तो विवळ करूनि देईं| योगु आपुला ||१८९||
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन |
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ||१८||
आणि पुसलिया जिया विभूती| त्याही बोलाविया भूतपती| येथ म्हणसी जरी पुढती| काय सांगों ? ||१९०||
तरी हा भाव मना| झणें जाय हो जनार्दना| पैं प्राकृताही अमृतपाना| ना न म्हणवे जेवीं ||१९१||
जे काळकूटाचें सहोदर| जें मृत्यूभेणें प्याले अमर| तरि दिहाचे पुरंदर| चौदा जाती ||१९२||
ऐसा कवण एक क्षीराब्धीचा रसु| जया वायांचि अमृतपणाचा आभासु| तयाचाही मीठांशु| जे पुरे म्हणों नेदी ||१९३||
तया पाबळेयाही येतुलेवरी| गोडियेचि आथि थोरी| मग हें तंव अवधारीं| परमामृत साचें ||१९४||
जें मंदराचळु न ढाळितां| क्षीरसागरु न डहुळितां| अनादि स्वभावता| आइतें आहे ||१९५||
जें द्रव ना नव्हे बद्ध| जेथ नेणिजती रस गंध| जें भलतयांही सिद्ध| आठवलेंचि फावे ||१९६||
जयाची गोठीचि ऐकतखेंवो| आघवा संसारु होय वावो| बळिया नित्यता लागे येवों| आपणपेंया ||१९७||
जन्ममृत्यूची भाख| हारपोनि जाय निःशेख| आंत बाहेरी महासुख| वाढोंचि लागे ||१९८||
मग दैवगत्या जरी सेविजे| तरी तें आपणचि होऊनि ठाकिजे| तें तुज देतां चित्त माझें| पुरें म्हणों न शके ||२९९||
तुझें नामचि आम्हां आवडे| वरि भेटी होय आणि जवळिक जोडे| पाठीं गोठी सांगसी सुरवाडें| आनंदाचेनी ||२००||
आतां हें सुख कायिसयासारिखें| कांहीं निर्वचेना मज परितोखें| तरि येतुलें जाणें जे येणें मुखें| पुनरुक्तही हो ||२०१||
हां गा सूर्य काय शिळा ? | अग्नि म्हणों येत आहे वोंविळा ? | कां नित्य वाहातया गंगाजळा| पारसेपण असे ? ||२०२||
तुंवा स्वमुखें जें बोलिलें| हें आम्हीं नादासि रूप देखिलें| आजि चंदनतरूचीं फुलें| तुरंबीत आहों मां ||२०३||
तया पार्थाचिया बोला| सर्वांगें श्रीकृष्ण डोलला| म्हणे भक्तिज्ञानासि जाहला| आगरु हा ||२०४||
ऐसा पतिकराचिया तोषा आंतु| प्रेमाचा वेगु उचंबळतु| सायासें सांवरूनि अनंतु| काय बोले ||२०५||
श्रीभगवानुवाच |
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ||१९||
या चित्राचे निरुपण ऐका
मी पितामहाचा पिता| हें आठवितांही नाठवे चित्ता| कीं म्हणतसे बा पंडुसुता| भलें केलें ||२०६||
अर्जुनातें बा म्हणे एथ कांहीं| आम्हां विस्मो करावया कारण नाहीं| आंगें तो लेंकरूं काई| नव्हेचि नंदाचें ? ||२०७||
परि प्रस्तुत ऐसें असो| हें करवी आवडीचा अतिसो| मग म्हणे आइकें सांगतसों| धनुर्धरा ||२०८||
तरी तुवां पुसलिया विभूती| तयांचें अपारपण सुभद्रापती| ज्या माझियाचि परि माझिये मती| आकळती ना ||२०९||
आंगींचिया रोमा किती| जयाचिया तयासि न गणवती| तैसिया माझिया विभूती| असंख्य मज ||२१०||
एऱ्हवीं तरी मी कैसा केवढा| म्हणौनि आपणपयांही नव्हेचि फुडा| यालागीं प्रधाना जिया रूढा| तिया आइकें ||२११||
जिया जाणतलियासाठीं| आघवीया जाणवतील किरीटी| जैसें बीज आलिया मुठीं| तरूचि आला होय ||२१२||
कां उद्यान हाता चढिन्नलें| तरी आपैसीं सांपडलीं फळें फुलें| तेवीं देखिलिया जिया देखवलें| विश्व सकळ ||२१३||
एऱ्हवीं साचचि गा धनुर्धरा| नाहीं शेवटु माझिया विस्तारा| पैं गगना ऐशिया अपारा| मजमाजीं लपणें ||२१४||
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||२०||
आइकें कुटिलालकमस्तका| धनुर्वेदत्र्यंबका| मी आत्मा असें एकैका| भूतमात्राच्या ठायीं ||२१५||
आंतुलीकडे मीचि यांचे अंतःकरणीं| भूतांबाहेरी माझीच गंवसणी| आदि मी निर्वाणीं| मध्यही मीचि ||२१६||
जैसें मेघां या तळीं वरी| एक आकाशचि आंत बाहेरी| आणि आकाशींचि जाले अवधारीं| असणेंही आकाशीं ||२१७||
पाठीं लया जे वेळीं जाती| ते वेळीं आकाशचि होऊनि ठाती| तेवीं आदि स्थिती गती| भूतांसि मी ||२१८||
ऐसें बहुवस आणि व्यापकपण| माझें विभूतियोगें जाण| तरी जीवचि करूनि श्रवण| आइकोनि आइक ||२१९||
याहीवरी त्या विभूती| सांगणें ठेलें सुभद्रापती| सांगेन म्हणितलें तुजप्रती| त्या प्रधाना आइकें ||२२०||
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् |
मरीचिर्मरूतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ||२१||
हें बोलोनि तो कृपावंतु| म्हणे विष्णु मी आदित्यांआंतु| रवी मी रश्मिवंतु| सुप्रभांमाजीं ||२२१||
मरूद्गणांच्या वर्गीं| मरीचि म्हणे मी शारङ्गी| चंद्रु मी गगनरंगीं| तारांमाजीं ||२२२||
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः |
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ||२२||
वेदांआंतु सामवेदु| तो मी म्हणे गोविंदु| देवांमाजी मरुद्बंधु| महेंद्रु तो मी ||२२३||
इंद्रियांमाजीं अकरावें| मन तें मी हें जाणावें| भूतांमाजी स्वभावें| चेतना ते मी ||२२४||
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् |
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ||२३||
अशेषांही रुद्रांमाझारीं| शंकर जो मदनारी| तो मी येथ न धरीं| भ्रांति कांहीं ||२२५||
यक्षरक्षोगणांआंतु| शंभूचा सखा जो धनवंतु| तो कुबेरु मी हें अनंतु| म्हणता जाहला ||२२६||
मग आठांही वसूंमाझारीं| पावकु तो मी अवधारीं| शिखराथिलियां सर्वोपरी| मेरु तो मी ||२२७||
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् |
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ||२४||
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ||२५||
जो स्वर्गसिंहासना सावावो| सर्वज्ञते आदीचा ठावो| तो पुरोहितांमाजीं रावो| बृहस्पती मी ||२२८||
त्रिभुवनींचिया सेनापतीं- | आंत स्कंदु तो मी महामती| जो हरवीर्यें अग्निसंगती| कृत्तिकाआंतु जाहला ||२२९||
सकळिकां सरोवरांसी| माजीं समुद्र तो मी जळराशी| महर्षींआंतु तपोराशी| भृगु तो मी ||२३०||
अशेषांही वाचा- | माजीं नटनाच सत्याचा| तें अक्षर एक मी वैकुंठींचा| वेल्हाळु म्हणे ||२३१||
समस्तांही यज्ञांच्या पैकीं| जपयज्ञु तो मी ये लोकीं| जो कर्मत्यागें प्रणवादिकीं| निफजविजे ||२३२||
नामजपयज्ञु तो परम| बाधूं न शके स्नानादि कर्म| नामें पावन धर्माधर्म| नाम परब्रह्म वेदार्थें ||२३३||
स्थावरां गिरीआंतु| पुण्यपुंज जो हिमवंतु| तो मी म्हणे कांतु| लक्ष्मियेचा ||२३४||
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः |
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ||२६||
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् |
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ||२७||
कल्पद्रुम हन पारिजातु| गुणें चंदनुही वाड विख्यातु| तरि ययां वृक्षजातांआंतु| अश्वत्थु तो मी ||२३५||
देवऋषींआंतु पांडवा| नारदु तो मी जाणावा| चित्ररथु मी गंधर्वां| सकळिकांमाजीं ||२३६||
ययां अशेषांही सिद्धां- | माजीं कपिलाचार्यु मी प्रबुद्धा| तुरंगजातां प्रसिद्धां- | आंत उचैःश्रवा मी ||२३७||
राजभूषण गजांआंतु| अर्जुना मी गा ऐरावतु| पयोराशी सुरमथितु| अमृतांशु तो मी ||२३८||
ययां नरांमाजीं राजा| तो विभूतिविशेष माझा| जयातें सकळ लोक प्रजा| होऊनि सेविती ||२३९||
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् |
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ||२८||
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् |
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ||२९||
पैं आघवेयां हातियेरां- | आंत वज्र तें मी धनुर्धरा| जें शतमखोत्तीर्णकरा| आरूढोनि असे ||२४०||
धेनूंमध्यें कामधेनु| तें मी म्हणे विष्वक्सेनु| जन्मवितयाआंत मदनु| तो मी जाणें ||२४१||
सर्पकुळाआंत अधिष्ठाता| वासुकी गा मी कुंतीसुता| नागांमाजीं समस्तां| अनंतु तो मी ||२४२||
अगा यादसांआंतु| जो पश्चिम प्रमदेचा कांतु| तो वरुण मी हें अनंतु| सांगत असे ||२४३||
आणि पितृगणां समस्तां- | माजीं अर्यमा जो पितृदेवता| तो मी हें तत्त्वता| बोलत आहें ||२४४||
जगाचीं शुभाशुभें लिहिती| प्राणियांच्या मानसांचा झाडा घेती| मग केलियानुरूप होती| भोगनियम जे ||२४५||
तयां नियमितयांमाजीं यमु| जो कर्मसाक्षी धर्मु| तो मी म्हणे आत्मारामु| रमापती ||२४६||
प्रल्हादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् |
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ||३०||
अगा दैत्यांचिया कुळीं| प्रऱ्हादु तो मी न्याहाळीं| म्हणौनि दैत्यभावादि मेळीं| लिंपेचि ना ||२४७||
पैं कळितयांमाजीं महाकाळु| तो मी म्हणे गोपाळु| श्वापदांमाजीं शार्दूळु| तो मी जाण ||२४८||
पक्षिजातिमाझारीं| गरुड तो मी अवधारीं| यालागीं जो पाठीवरी| वाहों शके मातें ||२४९||
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् |
झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जान्हवी ||३१||
पृथ्वीचिया पैसारा- | माजीं घडीं न लगतां धनुर्धरा| एकेचि उड्डाणें सातांहि सागरां| प्रदक्षिणा कीजे ||२५०||
तयां वहिलियां गतिमंतां- | आंत पवनु तो मी पंडुसुता| शस्त्रधरां समस्तां- | माजीं श्रीराम तो मी ||२५१||
जेणें सांकडलिया धर्माचें कैवारें| आपणपयां धनुष्य करूनि दुसरें| विजयलक्ष्मिये एक मोहरें| केलें त्रेतीं ||२५२||
पाठीं उभे ठाकूनि सुवेळीं| प्रतापलंकेश्वराचीं सिसाळीं| गगनीं उदो म्हणतया हस्तबळीं| दिधली भूतां ||२५३||
जेणें देवांचा मानु गिंवसिला| धर्मासि जीर्णोद्धारु केला| सूर्यवंशीं उदेला| सूर्य जो कां ||२५४||
तो हातियेरुपरजितया आंतु| रामचंद्र मी जानकीकांतु| मकर मी पुच्छवंतु| जळचरांमाजीं ||२५५||
पैं समस्तांही वोघां- | मध्यें जे भगीरथें आणितां गंगा| जन्हूनें गिळिली मग जंघा| फाडूनि दिधली ||२५६||
ते त्रिभूवनैकसरिता| जान्हवी मी पंडुसुता| जळप्रवाहां समस्तां- | माझारीं जाणें ||२५७||
ऐसेनि वेगळालां सृष्टीपैकीं| विभूती नाम सूतां एकेकीं| सगळेन जन्मसहस्रें अवलोकीं| अर्ध्या नव्हती ||२५८||
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन |
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ||३२||
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च |
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ||३३||
जैसीं अवघींचि नक्षत्रें वेंचावीं| ऐसी चाड उपजेल जैं जीवीं| तैं गगनाची बांधावी| लोथ जेवीं ||२५९||
कां पृथ्वीये परमाणूंचा उगाणा घ्यावा| तरि भूगोलुचि काखे सुवावा| तैसा विस्तारु माझा पहावा| तरि जाणावें मातें ||२६०||
जैसें शाखांसी फूल फळ| एकिहेळां वेटाळूं म्हणिजे सकळ| तरी उपडूनियां मूळ| जेवीं हातीं घेपे ||२६१||
तेवीं माझें विभूतिविशेष| जरी जाणों पाहिजेती अशेष| तरी स्वरूप एक निर्दोष| जाणिजे माझें ||२६२||
एऱ्हवीं वेगळालिया विभूती| कायिएक परिससी किती| म्हणौनि एकिहेळां महामती| सर्व मी जाण ||२६३||
मी आघवियेचि सृष्टी| आदिमध्यांतीं किरीटी| ओतप्रोत पटीं| तंतु जेवीं ||२६४||
ऐसिया व्यापका मातें जैं जाणावें| तैं विभूतिभेदें काय करावें| परि हे तुझी योग्यता नव्हे| म्हणौनि असो ||२६५||
कां जे तुवां पुसिलिया विभूती| म्हणौनि तिया आईक सुभद्रापती| तरी विद्यांमाजीं प्रस्तुतीं| अध्यात्मविद्या ते मी ||२६६||
अगा बोलतयांचिया ठायीं| वादु तो मी पाहीं| जो सकलशास्त्रसंमतें कहीं| सरेचिना ||२६७||
जो निर्वचूं जातां वाढे| आइकतयां उत्प्रेक्षे सळु चढे| जयावरी बोलतयांचीं गोडें| बोलणीं होतीं ||२६८||
ऐसा प्रतिपादनामाजीं वादु| तो मी म्हणे गोविंदु| अक्षरांमाजीं विशदु| अकारु तो मी ||२६९||
पैं गा समासांमाझारीं| द्वंद्व तो मी अवधारीं| मशकालागोनि ब्रह्मावेरीं| ग्रासिता तो मी ||२७०||
मेरुमंदरादिकीं सर्वीं| सहित पृथ्वीतें विरवी| जो एकार्णवातेंही जिरवी| जेथिंचा तेथ ||२७१||
जो प्रळयतेजा देत मिठी| सगळिया पवनातें गिळी किरीटी| आकाश जयाचिया पोटीं| सामावलें ||२७२||
ऐसा अपार जो काळु| तो मी म्हणे लक्ष्मीलीळु| मग पुढती सृष्टीचा मेळु| सृजिता तो मी ||२७३||
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् |
कीर्तिः श्रीर्वाक् च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ||३४||
आणि सृजिलिया भूतांतें मीचि धरीं| सकळां जीवनही मीचि अवधारीं| शेखीं सर्वांतें या संहारीं|
तेव्हां मृत्युही मीचि ||२७४||
आतां स्त्रीगणांच्या पैकीं| माझिया विभूती सात आणिकी| तिया ऐक कवतिकीं| सांगिजतील ||२७५||
तरी नित्य नवी जे कीर्ति| अर्जुना ते माझी मूर्ती| आणि औदार्येंसी जे संपत्ती| तेही मीचि जाणें ||२७६||
आणि ते गा मी वाचा| जे सुखासनीं न्यायाचा| आरूढोनि विवेकाचा| मार्गीं चाले ||२७७||
देखिलेनि पदार्थें| जे आठवूनि दे मातें| ते स्मृतिही एथें| त्रिशुद्धी मी ||२७८||
पैं स्वहिता अनुयायिनी| मेधा ते गा मी इये जनीं| धृती मी त्रिभुवनीं| क्षमा ते मी ||२७९||
एवं नारींमाझारीं| या सातही शक्ति मी अवधारीं| ऐसें संसारगजकेसरी| म्हणता जाहला ||२८०||
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||३५||
वेदराशीचिया सामा- | आंत बृहत्साम जें प्रियोत्तमा| तें मी म्हणे रमा- | प्राणेश्वरु ||२८१||
गायत्रीछंद जें म्हणिजे| तें सकळां छंदांमाजीं माझें| स्वरूप हें जाणिजे| निभ्रांत तुवां ||२८२||
मासांआंत मार्गशीरु| तो मी म्हणे शारङ्गधरु| ऋतूंमाजीं कुसुमाकरु| वसंतु तो मी ||२८३||
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् |
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ||३६||
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः |
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ||३७||
छळितयां विंदाणा- | माजीं जूं तें मी विचक्षणा| म्हणौनि चोहटां चोरी परी कवणा| निवारूं न ये ||२८४||
अगा अशेषांही तेजसां- | आंत तेज तें मी भरंवसा| विजयो मी कार्योद्देशां| सकळांमाजीं ||२८५||
जेणें चोखाळत दिसे न्याय| तो व्यवसायांत व्यवसाय| माझें स्वरूप हें राय| सुरांचा म्हणे ||२८६||
सत्त्वाथिलियांआंतु| सत्त्व मी म्हणे अनंतु| यादवांमाजीं श्रीमंतु| तोचि तो मी ||२८७||
जो देवकी- वसुदेवास्तव जाहला| कुमारीसाठीं गोकुळीं गेला| तो मी प्राणासकट पियाला| पूतनेतें ||२८८||
नुघडतां बाळपणाची फुली| जेणें मियां अदानवीं सृष्टि केली| करीं गिरि धरूनि उमाणिली| महेंद्रमहिमा ||२८९||
कालिंदीचें हृदयशल्य फेडिलें| जेणें मियां जळत गोकुळ राखिलें| वासरुवांसाठीं लाविलें| विरंचीस पिसें ||२९०||
प्रथमदशेचिये पहांटे- | माजीं कंसा ऐशीं अचाटें| महाधेंडीं अवचटें| लीळाचि नासिलीं ||२९१||
हें काय कितीएक सांगावें| तुवांही देखिलें ऐकिलें असे आघवें| तरि यादवांमाजीं जाणावें| हेंचि स्वरूप माझें ||२९२||
आणि सोमवंशीं तुम्हां पांडवां- | माजीं अर्जुन तो मी जाणावा| म्हणौनि एकमेकांचिया प्रेमभावा|
विघडु न पडे ||२९३||
संन्यासी तुवां होऊनि जनीं| चोरूनि नेली माझी भगिनी| तऱ्ही विकल्पु नुपजे मनीं| मी तूं दोन्ही स्वरूप एक ||२९४||
मुनीआंत व्यासदेवो| तो मी म्हणे यादवरावो| कवीश्वरांमाजीं धैर्या ठावो| उशनाचार्य तो मी ||२९५||
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् |
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ||३८||
अगा दमितयांमाझारीं| अनिवार दंडु तो मी अवधारीं| जो मुंगियेलागोनि ब्रह्मावेरीं| नियमित पावे ||२९६||
पैं सारासार निर्धारितयां| धर्मज्ञानाचा पक्षु धरितयां| सकळ शास्त्रांमाजीं ययां| नीतिशास्त्र तें मी ||२९७||
आघवियाचि गूढां- | माजीं मौन तें मी सुहाडा| म्हणौनि न बोलतयां पुढां| स्त्रष्टाही नेण होय ||२९८||
अगा ज्ञानियांचिया ठायीं| ज्ञान तें मी पाहीं| आतां असो हें ययां कांहीं| पार न देखों ||२९९||
यच्चाऽपि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन |
न तदसेति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ||३९||
नान्तोऽस्ति मम दिव्यांना विभूतीनां परंतप |
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ||४०||
पैं पर्जन्याचिया धारां| वरी लेख करवेल धनुर्धरा| कां पृथ्वीचिया तृणांकुरां| होईल ठी ||३००||
पैं महोदधीचिया तरंगां| व्यवस्था धरूं नये जेवीं गा| तेवीं माझिया विशेषलिंगां| नाहीं मिती ||३०१||
ऐशियाही सातपांच प्रधाना| विभूती सांगितलिया तुज अर्जुना| तो हा उद्देशु जो गा मना| आहाच गमला ||३०२||
येरां विभूतिविस्तारांसि कांहीं| एथ सर्वथा लेख नाहीं| म्हणौनि परिससीं तूं काई| आम्हीं सांगों किती ||३०३||
यालागीं एकिहेळां तुज| द्ॐ आतां वर्म निज| तरी सर्व भूतांकुरें बीज| विरूढत असे तें मी ||३०४||
म्हणौनि सानें थोर न म्हणावें| उंच नीच भाव सांडावे| एक मीचि ऐसें मानावें| वस्तुजातातें ||३०५||
तरी यावरी साधारण| आईक पां आणिकही खूण| तरी अर्जुना तें तूं जाण| विभूति माझी ||३०६||
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा |
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ||४१||
जेथ जेथ संपत्ति आणि दया| दोन्ही वसती आलिया ठाया| ते ते जाण धनंजया| विभूति माझी ||३०७||
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन |
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ||४२||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भ्गवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ||१०अ ||
अथवा एकलें एक बिंब गगनीं| प्रभा फांके त्रिभुवनीं| तेवीं एकाकियाची सकळ जनीं| आज्ञा पाळिजे ||३०८||
तयांतें एकलें झणीं म्हण| तो निर्धन या भाषा नेण| काय कामधेनूसवें सर्वस्व हन| चालत असे ? ||३०९||
तियेतें जें जेधवां जो मागे| तें ते एकसरेंचि प्रसवों लागे| तेवीं विश्वविभव तया आंगें| होऊनि असती ||३१०||
तयातें वोळखावया हेचि संज्ञा| जे जगें नमस्कारिजे आज्ञा| ऐसें आथि तें जाण प्राज्ञा| अवतार माझे ||३११||
आणि सामान्य विशेष| हें जाणणें एथ महादोष| कां जे मीचि एक अशेष| विश्व हें म्हणौनि ||३१२||
तरी आतां साधारण आणि चांगु| ऐसा कैसेनि पां कल्पावा विभागु| वायां आपुलिये मती वंगु| भेदाचा लावावा ||३१३||
एऱ्हवीं तूप कासया घुसळावें| अमृत कां रांधूनि अर्धें करावें| हां गा वायूसि काय पां डावें| उजवें आंग आहे ? ||३१४||
पैं सूर्यबिंबासि पोट पाठीं| पाहतां नासेल आपुली दिठी| तेवीं माझ्या स्वरूपीं गोठी| सामान्यविशेषाची नाहीं ||३१५||
आणि सिनाना इहीं विभूतीं| मज अपारातें मविसील किती| म्हणौनि किंबहुना सुभद्रापती| असो हें जाणणें ||३१६||
आतां पैं माझेनि एकें अंशें| हें जग व्यापिलें असे| यालागीं भेदू सांडूनि सरिसें| साम्यें भज ||३१७||
ऐसें विबुधवनवसंतें| तेणें विरक्तांचेनि एकांतें| बोलिलें जेथ श्रीमंतें| श्रीकृष्णदेवें ||३१८||
तेथ अर्जुन म्हणे स्वामी| येतुलें हें राभस्य बोलिलें तुम्हीं| जे भेदु एक आणि आम्ही| सांडावा एकीं ||३१९||
हां हो सूर्य म्हणे काय जगातें| अंधारें दवडा कां परौतें| तेवीं धसाळ म्हणों देवा तूंतें| तरी अधिक हा बोलु ||३२०||
तुझें नामचि एक कोण्ही वेळे| जयांचिये मुखासि कां कानां मिळे| तयांचिया हृदयातें सांडूनि पळे| भेदु जी साच ||३२१||
तो तूं परब्रह्मचि असकें| मज दैवें दिधलासि हस्तोदकें| तरी आतां भेदु कायसा कें| देखावा कवणें ? ||३२२||
जी चंद्रबिंबाचा गाभारां| रिगालियावरीही उबारा| परी राणेपणें शारङ्गधरा| बोला हें तुम्हीं ||३२३||
तेथ सावियाचि परितोषोनि देवें| अर्जुनातें आलिंगिलें जीवें| मग म्हणे तुवां न कोपावें| आमुचिया बोला ||३२४||
आम्हीं तुज भेदाचिया वाहाणीं| सांगितली जे विभूतींची कहाणी| ते अभेदें काय अंतःकरणीं| मानिली कीं न मनें ||३२५||
हेंचि पाहावयालागीं| नावेक बोलिलों बाहेरिसवडिया भंगीं| तंव विभूती तुज चांगी| आलिया बोधा ||३२६||
तेथ अर्जुन म्हणे देवें| हें आपुलें आपण जाणावें| परी देखतसें विश्व आघवें| तुवां भरलें ||३२७||
पैं राया तो पंडुसुतु| ऐसिये प्रतीतीसि जाहला वरितु| या संजयाचिया बोला निवांतु| धृतराष्ट्र राहे ||३२८||
कीं संजयो दुखवलेनि अंतःकरणें| म्हणतसे नवल नव्हे दैव दवडणें| हा जीवें धाडसा आहे मी म्हणें |
तंव आंतुही आंधळा ||३२९||
परी असो हें तो अर्जुनु| स्वहिताचा वाढवितसे मानु| कीं याहीवरी तया आनु| धिंवसा उपनला ||३३०||
म्हणे हेचि हृदया आंतुली प्रतीती| बाहेरी अवतरो कां डोळ्यांप्रती| इये आर्तीचिया पाउलीं मती| उठती जाहली ||३३१||
मियां इहींच दोहीं डोळां| झोंबावें विश्वरूपा सकळा| एवढी हांव तो देवा आगळा| म्हणौनि करी ||३३२||
आजि तो कल्पतरूची शाखा| म्हणौनि वांझोळें न लगती देखा| जें जें येईल तयाचि मुखा |
तें तें साचचि करितसे येरु ||३३३||
जो प्रऱ्हादाचिया बोला| विषाहीसकट आपणचि जाहला| तो सद्गुरु असे जोडला| किरीटीसी ||३३४||
म्हणौनि विश्वरूप पुसावयालागीं| पार्थ रिगता होईल कवणें भंगीं| तें सांगेन पुढिलिये प्रसंगीं|
ज्ञानदेव म्हणे निवृत्तीचा ||३३५||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां दशमोऽध्यायः ||
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