ज्ञानेश्वरी अध्याय ११

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:34:40
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ११ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय अकरावा | विश्वरूपदर्शनयोगः | आतां यावरी एकादशीं| कथा आहे दोहीं रसीं| येथ पार्था विश्वरूपेंसीं| होईल भेटी ||१|| जेथ शांताचिया घरा| अद्भुत आला आहे पाहुणेरा| आणि येरांही रसां पांतिकरां| जाहला मानु ||२|| अहो वधुवरांचिये मिळणीं| जैशी वराडियां लुगडीं लेणीं| तैसे देशियेच्या सुखासनीं| मिरविले रस ||३|| परी शांताद्भुत बरवे| जे डोळियांच्या अंजुळीं घ्यावें| जैसे हरिहर प्रेमभावें| आले खेंवा ||४|| ना तरी अंवसेच्या दिवशीं| भेटलीं बिंबें दोनी जैशीं| तेवीं एकवळा रसीं| केला एथ ||५|| मीनले गंगेयमुनेचे ओघ| तैसें रसां जाहलें प्रयाग| म्हणौनि सुस्नात होत जग| आघवें एथ ||६|| माजीं गीता सरस्वती गुप्त| आणि दोनी रस ते ओघ मूर्त| यालागीं त्रिवेणी हे उचित| फावली बापा ||७|| एथ श्रवणाचेनि द्वारें| तीर्थीं रिघतां सोपारें| ज्ञानदेवो म्हणे दातारें| माझेनि केलें ||८|| तीरें संस्कृताचीं गहनें| तोडोनि मऱ्हाठियां शब्दसोपानें| रचिली धर्मनिधानें| श्रीनिवृत्तिदेवें ||९|| म्हणौनि भलतेणें एथ सद्भावें नाहावें| प्रयागमाधव विश्वरूप पहावें| येतुलेनि संसारासि द्यावें| तिळोदक ||१०|| हें असो ऐसें सावयव| एथ सासिन्नले आथी रसभाव| तेथ श्रवणसुखाची राणीव| जोडली जगा ||११|| जेथ शांताद्भुत रोकडे| आणि येरां रसां पडप जोडे| हें अल्पचि परी उघडें| कैवल्य एथ ||१२|| तो हा अकरावा अध्यायो| जो देवाचा आपणपें विसंवता ठावो| परी अर्जुन सदैवांचा रावो| जो एथही पातला ||१३|| एथ अर्जुनचि काय म्हणों पातला| आजि आवडतयाही सुकाळु जाहला| जे गीतार्थु हा आला| मऱ्हाठिये ||१४|| याचिलागीं माझें| विनविलें आइकिजे| तरी अवधान दीजे| सज्जनीं तुम्ही ||१५|| तेवींचि तुम्हां संतांचिये सभे| ऐसी सलगी कीर करूं न लभे| परी मानावें जी तुम्ही लोभें| अपत्या मज ||१६|| अहो पुंसा आपणचि पढविजे| मग पढे तरी माथा तुकिजे| कां करविलेनि चोजें न रिझे| बाळका माय ||१७|| तेवीं मी जें जें बोलें| तें प्रभु तुमचेंचि शिकविलें| म्हणौनि अवधारिजो आपुलें| आपण देवा ||१८|| हें सारस्वताचें गोड| तुम्हींचि लाविलें जी झाड| तरी आतां अवधानामृतें वाड| सिंपोनि कीजे ||१९|| मग हें रसभाव फुलीं फुलेल| नानार्थ फळभारें फळा येईल| तुमचेनि धर्में होईल| सुरवाडु जगा ||२०|| या बोला संत रिझले| म्हणती तोषलों गा भलें केलें| आतां सांगैं जें बोलिलें| अर्जुनें तेथ ||२१|| तंव निवृत्तिदास म्हणे| जी कृष्णार्जुनांचें बोलणें| मी प्राकृत काय सांगों जाणें| परी सांगवा तुम्ही ||२२|| अहो रानींचिया पालेखाइरा| नेवाणें करविले लंकेश्वरा| एकला अर्जुन परी अक्षौहिणी अकरा| न जिणेचि काई ? ||२३|| म्हणौनि समर्थ जें जें करी| तें न हो न ये चराचरीं| तुम्ही संत तयापरी| बोलवा मातें ||२४|| आतां बोलिजतसें आइका| हा गीताभाव निका| जो वैकुंठनायका- | मुखौनि निघाला ||२५|| बाप बाप ग्रंथ गीता| जो वेदीं प्रतिपाद्य देवता| तो श्रीकृष्ण वक्ता| जिये ग्रंथीं ||२६|| तेथिंचे गौरव कैसें वानावें| जें श्रीशंभूचिये मती नागवे| तें आतां नमस्कारिजे जीवेंभावें| हेंचि भलें ||२७|| मग आइका तो किरीटी| घालूनि विश्वरूपीं दिठी| पहिली कैसी गोठी| करिता जाहला ||२८|| हें सर्वही सर्वेश्वरु| ऐसा प्रतीतिगत जो पतिकरु| तो बाहेरी होआवा गोचरु| लोचनांसी ||२९|| हे जिवाआंतुली चाड| परी देवासि सांगतां सांकड| कां जें विश्वरूप गूढ| कैसेनि पुसावें ? ||३०|| म्हणे मागां कवणीं कहीं| जें पढियंतेनें पुसिलें नाहीं| ते सहसा कैसें काई| सांगा म्हणों ? ||३१|| मी जरी सलगीचा चांगु| तरी काय आइसीहूनी अंतरंगु| परी तेही हा प्रसंगु| बिहाली पुसों ||३२|| माझी आवडे तैसी सेवा जाहली| तरी काय होईल गरुडाचिया येतुली ? | परी तोही हें बोली| करीचिना ||३३|| मी काय सनकादिकांहूनि जवळां| परी तयांही नागवेचि हा चाळा| मी आवडेन काय प्रेमळां| गोकुळींचिया ऐसा ? ||३४|| तयांतेंही लेकुरपणें झकविलें| एकाचे गर्भवासही साहिले| परी विश्वरूप हें राहविलें| न दावीच कवणा ||३५|| हा ठायवरी गुज| याचिये अंतरीचें हें निज| केवीं उराउरी मज| पुसों ये पां ? ||३६|| आणि न पुसेंचि जरी म्हणे| तरी विश्वरूप देखिलियाविणें| सुख नोहेचि परी जिणें| तेंही विपायें ||३७|| म्हणौनि आतां पुसों अळुमाळसें| मग करूं देवा आवडे तैसें| येणें प्रवर्तला साध्वसें| पार्थु बोलों ||३८|| परी तेंचि ऐसेनि भावें| जें एका दों उत्तरांसवें| दावी विश्वरूप आघवें| झाडा देउनी ||३९|| अहो वांसरूं देखिलियाचिसाठीं| धेनु खडबडोनि मोहें उठी| मग स्तनामुखाचिये भेटी| काय पान्हा धरे ? ||४०|| पाहा पां तया पांडवाचेनि नांवें| जो कृष्ण रानींही प्रतिपाळूं धावे| तयांतें अर्जुनें जंव पुसावें| तंव साहील काई ? ||४१|| तो सहजेंचि स्नेहाचें अवतरण| आणि येरु स्नेहा घातलें आहे माजवण| ऐसिये मिळवणी वेगळेपण| उरे हेंचि बहु ||४२|| म्हणौनि अर्जुनाचिया बोलासरिसा| देव विश्वरूप होईल आपैसा| तोचि पहिला प्रसंगु ऐसा| ऐकिजे तरी ||४३|| अर्जुन उवाच | मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् | यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ||१|| मग पार्थु देवातें म्हणे| जी तुम्ही मजकारणें| वाच्य केलें जें न बोलणें| कृपानिधे ||४४|| जैं महाभूतें ब्रह्मीं आटती| जीव महदादींचे ठाव फिटती| तैं जें देव होऊनि ठाकती| तें विसवणें शेषींचें ||४५|| होतें हृदयाचिये परिवरीं| रोंविलें कृपणाचिये परी| शब्दब्रह्मासही चोरी| जयाची केली ||४६|| तें तुम्हीं आजि आपुलें| मजपुढां हियें फोडिलें| जया अध्यात्मा वोवाळिलें| ऐश्वर्य हरें ||४७|| ते वस्तु मज स्वामी| एकिहेळां दिधली तुम्ही| हें बोलों तरी आम्ही| तुज पावोनि कैंचे ||४८|| परी साचचि महामोहाचिये पुरीं| बुडालेया देखोनि सीसवरी| तुवां आपणपें घालोनि श्रीहरी| मग काढिलें मातें ||४९|| एक तूंवांचूनि कांहीं| विश्वीं दुजियाची भाष नाहीं| कीं आमुचें कर्म पाहीं| जे आम्हीं आथी म्हणों ||५०|| मी जगीं एक अर्जुनु| ऐसा देहीं वाहे अभिमानु| आणि कौरवांतें इयां स्वजनु| आपुलें म्हणें ||५१|| याहीवरी यांतें मी मारीन| म्हणें तेणें पापें कें रिगेन| ऐसें देखत होतों दुःस्वप्न| तों चेवविला प्रभु ||५२|| देवा गंधर्वनगरीची वस्ती| सोडूनि निघालों लक्ष्मीपती| होतों उदकाचिया आर्ती| रोहिणी पीत ||५३|| जी किरडूं तरी कापडाचें| परी लहरी येत होतिया साचें| ऐसें वायां मरतया जीवाचें| श्रेय तुवां घेतलें ||५४|| आपुलें प्रतिबिंब नेणता| सिंह कुहां घालील देखोनि आतां| ऐसा धरिजे तेवीं अनंता| राखिलें मातें ||५५|| एऱ्हवीं माझा तरी येतुलेवरी| एथ निश्चय होता अवधारीं| जें आतांचि सातांही सागरीं| एकत्र मिळिजे ||५६|| हें जगचि आघवें बुडावें| वरी आकाशहि तुटोनि पडावें| परी झुंजणें न घडावें| गोत्रजेशीं मज ||५७|| ऐसिया अहंकाराचिये वाढी| मियां आग्रहजळीं दिधली होती बुडी| चांगचि तूं जवळां एऱ्हवीं काढी| कवणु मातें ||५८|| नाथिलें आपण पां एक मानिलें| आणि नव्हतया नाम गोत्र ठेविलें| थोर पिसें होतें लागलें| परि राखिलें तुम्ही ||५९|| मागां जळत काढिलें जोहरीं| तैं तें देहासीच भय अवधारीं| आतां हे जोहरवाहर दुसरी| चैतन्यासकट ||६०|| दुराग्रह हिरण्याक्षें| माझी बुद्धि वसुंधरा सूदली काखे| मग माहार्णव गवाक्षें| रिघोनि ठेला ||६१|| तेथ तुझेनि गोसावीपणें| एकवेळ बुद्धीचिया ठाया येणें| हें दुसरें वराह होणें| पडिलें तुज ||६२|| ऐसें अपार तुझें केलें| एकी वाचा काय मी बोलें| परी पांचही पालव मोकलिले| मजप्रती ||६३|| तें कांहीं न वचेचि वायां| भलें यश फावलें देवराया| जे साद्यंत माया| निरसिली माझी ||६४|| आजीं आनंदसरोवरींचीं कमळें| तैसे हे तुझे डोळे| आपुलिया प्रसादाचीं राउळें| जयालागीं करिती ||६५|| हां हो तयाही आणि मोहाची भेटी| हे कायसी पाबळी गोठी ? | केउती मृगजळाची वृष्टी| वडवानळेंसीं ? ||६६|| आणि मी तंव दातारा| ये कृपेचिये रिघोनि गाभारां| घेत आहें चारा| ब्रह्मरसाचा ||६७|| तेणें माझा जी मोह जाये| एथ विस्मो कांहीं आहे ? | तरी उद्धरलों कीं तुझे पाये| शिवतले आहाती ||६८|| भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया | त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ||२|| पैं कमलायतडोळसा| सूर्यकोटितेजसा| मियां तुजपासोनि महेशा| परिसिलें आजीं ||६९|| इयें भूतें जयापरी होती| अथवा लया हन जैसेनि जाती| ते मजपुढां प्रकृती| विवंचिली देवें ||७०|| आणि प्रकृती कीर उगाणा दिधला| वरि पुरुषाचाही ठावो दाविला| जयाचा महिमा पांघरोनि जाहला| धडौता वेदु ||७१|| जी शब्दराशी वाढे जिये| कां धर्माऐशिया रत्नांतें विये| ते एथिंचे प्रभेचे पाये| वोळगे म्हणौनि ||७२|| ऐसें अगाध माहात्म्य| जें सकळमार्गैकगम्य| जें स्वात्मानुभवरम्य| तें इयापरी दाविलें ||७३|| जैसा केरु फिटलिया आभाळीं| दिठी रिगे सूर्यमंडळीं| कां हातें सारूनि बाबुळीं| जळ देखिजे ||७४|| नातरी उकलतया सापाचे वेढे| जैसें चंदना खेंव देणें घडे| अथवा विवसी पळे मग चढे| निधान हातां ||७५|| तैसी प्रकृती हे आड होती| ते देवेंचि सारोनि परौती| मग परतत्त्व माझिये मती| शेजार केलें ||७६|| म्हणौनि इयेविषयींचा मज देवा| भरंवसा कीर जाहला जीवा| परी आणीक एक हेवा| उपनला असे ||७७|| तो भिडां जरी म्हणों राहों| तरी आना कवणा पुसों जावों| काय तुजवांचोनि ठावो| जाणत आहों आम्ही ? ||७८|| जळचरु जळाचा आभारु धरी| बाळक स्तनपानीं उपरोधु करी| तरी तया जिणया श्रीहरी| आन उपायो असे ? ||७९|| म्हणौनि भीड सांकडी न धरवे| जीवा आवडे तेंही तुजपुढां बोलावें| तंव राहें म्हणितलें देवें| चाड सांगैं ||८०|| एवमेतद्यथाऽऽत्थ त्वमात्मानं परमेश्वर | द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ||३|| मग बोलिला तो किरीटी| म्हणे तुम्हीं केली जे गोठी| तिया प्रतीतीची दिठी| निवाली माझी ||८१|| आतां जयाचेनि संकल्पें| हे लोकपरंपरा होय हारपे| जया ठायातें आपणपें| मी ऐसें म्हणसी ||८२|| तें मुद्दल रूप तुझें| जेथूनि इयें द्विभुजें हन चतुर्भुजें| सुरकार्याचेनि व्याजें| घेवों घेवों येसी ||८३|| पैं जळशयनाचिया अवगणिया| कां मत्स्य कूर्म इया मिरवणिया| खेळु सरलिया तूं गुणिया| सांठविसी जेथ ||८४|| उपनिषदें जें गाती| योगिये हृदयीं रिगोनि पाहाती| जयातें सनकादिक आहाती| पोटाळुनियां ||८५|| ऐसें अगाध जें तुझें| विश्वरूप कानीं ऐकिजे| तें देखावया चित्त माझें| उतावीळ देवा ||८६|| देवें फेडूनियां सांकड| लोभें पुसिली जरी चाड| तरी हेंचि एकीं वाड| आर्तीं जी मज ||८७|| तुझें विश्वरूपपण आघवें| माझिये दिठीसि गोचर होआवें| ऐसी थोर आस जीवें| बांधोनि आहें ||८८|| मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो | योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम् ||४|| परी आणीक एक एथ शारङ्गी| तुज विश्वरूपातें देखावयालागीं| पैं योग्यता माझिया आंगीं| असे कीं नाहीं ||८९|| हें आपलें आपण मी नेणें| तें कां नेणसी जरी देव म्हणे| तरी सरोगु काय जाणे| निदान रोगाचें ? ||९०|| आणि जी आर्तीचेनि पडिभरें| आर्तु आपुली ठाकी पैं विसरे| जैसा तान्हेला म्हणे न पुरे| समुद्र मज ||९१|| ऐशा सचाडपणाचिये भुली| न सांभाळवे समस्या आपुली| यालागीं योग्यता जेवीं माउली| बालकाची जाणे ||९२|| तयापरी श्रीजनार्दना| विचारिजो माझी संभावना| मग विश्वरूपदर्शना| उपक्रम कीजे ||९३|| तरी ऐसी ते कृपा करा| एऱ्हवीं नव्हे हें म्हणा अवधारा| वायां पंचमालापें बधिरा| सुख केउतें देणें ? ||९४|| एऱ्हवीं येकले बापियाचे तृषे| मेघ जगापुरतें काय न वर्षे ? | परी जहालीही वृष्टि उपखे| जऱ्ही खडकीं होय ||९५|| चकोरा चंद्रामृत फावलें| येरा आण वाहूनि काय वारिलें ? | परी डोळ्यांवीण पाहलें| वायां जाय ||९६|| म्हणौनि विश्वरूप तूं सहसा| दाविसी कीर हा भरवंसा| कां जे कडाडां आणि गहिंसा- | माजी नीत्य नवा तूं कीं ||९७|| तुझें औदार्य जाणों स्वतंत्र| देतां न म्हणसी पात्रापात्र| पैं कैवल्या ऐसें पवित्र| जें वैरियांही दिधलें ||९८|| मोक्षु दुराराध्यु कीर होय| परी तोही आराधी तुझे पाय| म्हणौनि धाडिसी तेथ जाय| पाइकु जैसा ||९९|| तुवां सनकादिकांचेनि मानें| सायुज्यीं सौरसु दिधला पूतने| जे विषाचेनि स्तनपानें| मारूं आली ||१००|| हां गा राजसूय यागाचिया सभासदीं| देखतां त्रिभुवनाची मांदी| कैसा शतधा दुर्वाक्य शब्दीं| निस्तेजिलासी ||१०१|| ऐशिया अपराधिया शिशुपाळा| आपणपें ठावो दिधला गोपाळा| आणि उत्तानचरणाचिया बाळा | काय ध्रुवपदीं चाड ? ||१०२|| तो वना आला याचिलागीं| जे बैसावें पितयाचिया उत्संगीं| कीं तो चंद्रसूर्यादिकांपरिस जगीं| श्लाघ्यु केला ||१०३|| ऐसा वनवासिया सकळां| देतां एकचि तूं धसाळा| पुत्रा आळवितां अजामिळा| आपणपें देसी ||१०४|| जेणें उरीं हाणितलासि पांपरा| तयाचा चरणु वाहासी दातारा| अझुनी वैरियांचिया कलेवरा| विसंबसीना ||१०५|| ऐसा अपकारियां तुझा उपकारु| तूं अपात्रींही परी उदारु| दान म्हणौनि दारवंठेकरु| जाहलासी बळीचा ||१०६|| तूंतें आराधी ना आयकें| होती पुंसा बोलावित कौतुकें| तिये वैकुंठीं तुवां गणिके| सुरवाडु केला ||१०७|| ऐसीं पाहूनि वायाणीं मिषें| आपणपें देवों लागसी वानिवसें| तो तूं कां अनारिसें| मजलागीं करिसी ||१०८|| हां गा दुभतयाचेनि पवाडें| जे जगाचें फेडी सांकडें| तिये कामधेनूचे पाडे| काय भुकेले ठाती ? ||१०९|| म्हणौनि मियां जें विनविलें कांहीं| तें देव न दाखविती हें कीर नाहीं| परी देखावयालागीं देईं| पात्रता मज ||११०|| तुझें विश्वरूप आकळे| ऐसे जरी जाणसी माझे डोळे| तरी आर्तीचे डोहळे| पुरवीं देवा ||१११|| ऐसी ठायेंठावो विनंती| जंव करूं सरला सुभद्रापती| तंव तया षड्गुणचक्रवर्ती| साहवेचिना ||११२|| तो कृपापीयूषसजळु| आणि येरु जवळां आला वर्षाकाळु| नाना कृष्ण कोकिळु| अर्जुन वसंतु ||११३|| नातरी चंद्रबिंब वाटोळें| देखोनि क्षीरसागर उचंबळे| तैसा दुणेंही वरी प्रेमबळें| उल्लसितु जाहला ||११४|| मग तिये प्रसन्नतेचेनि आटोपें| गाजोनि म्हणितलें सकृपें| पार्था देख देख अमुपें| स्वरूपें माझीं ||११५|| एक विश्वरूप देखावें| ऐसा मनोरथु केला पांडवें| कीं विश्वरूपमय आघवें| करूनि घातलें ||११६|| बाप उदार देवो अपरिमितु| याचक स्वेच्छा सदोदितु| असे सहस्रवरी देतु| सर्वस्व आपुलें ||११७|| अहो शेषाचेहि डोळे चोरिले| वेद जयालागीं झकविले| लक्ष्मीयेही राहविलें| जिव्हार जें ||११८|| तें आतां प्रकटुनी अनेकधा| करीत विश्वरूपदर्शनाचा धांदा| बाप भाग्या अगाधा| पार्थाचिया ||११९|| जो जागता स्वप्नावस्थे जाये| तो जेवीं स्वप्नींचें आघवें होये| तेवीं अनंत ब्रह्मकटाह आहे| आपणचि जाहला ||१२०|| ते सहसा मुद्रा सोडिली| आणि स्थूळदृष्टीची जवनिका फेडिली| किंबहुना उघडिली| योगऋद्धी ||१२१|| परी हा हें देखेल कीं नाहीं| ऐसी सेचि न करी कांहीं| एकसरां म्हणतसे पाहीं| स्नेहातुर ||१२२|| श्रीभगवानुवाच | पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः | नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ||५|| अर्जुना तुवां एक दावा म्हणितलें| आणि तेंचि दावूं तरी काय दाविलें| आतां देखें आघवें भरिलें| माझ्याचि रूपीं ||१२३|| एकें कृशें एकें स्थूळें| एकें ऱ्हस्वें एकें विशाळें| पृथुतरें सरळें| अप्रांतें एकें ||१२४|| एकें अनावरें प्रांजळें| सव्यापारें एकें निश्चळें| उदासीनें स्नेहाळें| तीव्रें एकें ||१२५|| एके घूर्णितें सावधें| असलगें एकें अगाधें| एकें उदारें अतिबद्धें| क्रुद्धें एकें ||१२६|| एकें शांतें सन्मदें| स्तब्धें एकें सानंदें| गर्जितें निःशब्दें| सौम्यें एकें ||१२७|| एकें साभिलाषें विरक्तें| उन्निद्रितें एकें निद्रितें| परितुष्टें एकें आर्तें| प्रसन्नें एकें ||१२८|| एकें अशस्त्रें सशस्त्रें| एकें रौद्रें अतिमित्रें| भयानकें एकें पवित्रें| लयस्थें एकें ||१२९|| एकें जनलीलाविलासें| एकें पालनशीलें लालसें| एकें संहारकें सावेशें| साक्षिभूतें एकें ||१३०|| एवं नानाविधें परी बहुवसें| आणि दिव्यतेजप्रकाशें| तेवींचि एकएका ऐसें| वर्णेंही नव्हे ||१३१|| एकें तातलें साडेपंधरें| तैसीं कपिलवर्णें अपारें| एकें सर्वांगीं जैसें सेंदुरें| डवरलें नभ ||१३२|| एकें सावियाचि चुळुकीं| जैसें ब्रह्मकटाह खचिलें माणिकीं| एकें अरुणोदयासारिखीं| कुंकुमवर्णें ||१३३|| एकें शुद्धस्फटिकसोज्वळें| एकें इंद्रनीळसुनीळें| एकें अंजनवर्णें सकाळें| रक्तवर्णें एकें ||१३४|| एकें लसत्कांचनसम पिंवळीं| एकें नवजलदश्यामळीं| एकें चांपेगौरीं केवळीं| हरितें एकें ||१३५|| एकें तप्तताम्रतांबडीं| एकें श्वेतचंद्र चोखडीं| ऐसीं नानावर्णें रूपडीं| देखें माझीं ||१३६|| हे जैसे कां आनान वर्ण| तैसें आकृतींही अनारिसेपण| लाजा कंदर्प रिघाला शरण| तैसीं सुंदरें एकें ||१३७|| एकें अतिलावण्यसाकारें| एकें स्निग्धवपु मनोहरें| शृंगारश्रियेचीं भांडारें| उघडिली जैसीं ||१३८|| एकें पीनावयवमांसाळें| एकें शुष्कें अति विक्राळें| एकें दीर्घकंठें विताळें| विकटें एकें ||१३९|| एवं नानाविधाकृती| इयां पाहतां पारु नाहीं सुभद्रापती| ययांच्या एकेकीं अंगप्रांतीं| देख पां जग ||१४०|| पश्यादित्यान्वसून्रुद्रान् अश्विनौ मरुतस्तथा | बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ||६|| जेथ उन्मीलन होत आहे दिठी| तेथ पसरती आदित्यांचिया सृष्टी| पुढती निमीलनीं मिठीं| देत आहाती ||१४१|| वदनींचिया वाफेसवें| होत ज्वाळामय आघवें| जेथ पावकादिक पावे| समूह वसूंचा ||१४२|| आणि भ्रूलतांचे शेवट| कोपें मिळों पाहतीं एकवट| तेथ रुद्रगणांचे संघाट| अवतरत देखें ||१४३|| पैं सौम्यतेचा बोलावा| मिती नेणिजे अश्विनौदेवां| श्रोत्रीं होती पांडवा| अनेक वायु ||१४४|| यापरी एकेकाचिये लीळे| जन्मती सुरसिद्धांचीं कुळें| ऐसीं अपारें आणि विशाळें| रूपें इयें पाहीं ||१४५|| जयांतें सांगावया वेद बोबडे| पहावया काळाचेंही आयुष्य थोकडें| धातयाही परी न सांपडे| ठाव जयांचा ||१४६|| जयांतें देवत्रयी कधीं नायके| तियें इयें प्रत्यक्ष देख अनेकें| भोगीं आश्चर्याची कवतिकें| महासिद्धी ||१४७|| इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् | मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्दृष्टुमिच्छसि ||७|| इया मूर्तीचिया किरीटी| रोममूळीं देखें पां सृष्टी| सुरतरुतळवटीं| तृणांकुर जैसे ||१४८|| चंडवाताचेनि प्रकाशें| उडत परमाणु दिसती जैसे| भ्रमत ब्रह्मकटाह तैसें| अवयवसंधीं ||१४९|| एथ एकैकाचिया प्रदेशीं| विश्व देख विस्तारेंशी| आणि विश्वाही परौतें मानसीं| जरी देखावें वर्ते ||१५०|| तरी इयेही विषयींचें कांहीं| एथ सर्वथा सांकडें नाहीं| सुखें आवडे तें माझिया देहीं| देखसी तूं ||१५१|| ऐसें विश्वमूर्ती तेणें| बोलिलें कारुण्यपूर्णें| तंव देखत आहे कीं नाहीं न म्हणे| निवांतुचि येरु ||१५२|| एथ कां पां हा उगला ? | म्हणौनि श्रीकृष्णें जंव पाहिला| तंव आर्तीचें लेणें लेइला| तैसाचि आहे ||१५३|| न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा | दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ||८|| मग म्हणें उत्कंठे वोहट न पडे| अझुनी सुखाची सोय न सांपडे| परी दाविलें तें फुडें| नाकळेचि यया ||१५४|| हे बोलोनि देवो हांसिले| हांसोनि देखणियातें म्हणितलें| आम्हीं विश्वरूप तरी दाविलें| परी न देखसीच तूं ||१५५|| यया बोला येरें विचक्षणें| म्हणितलें हां जी कवणासी तें उणें ? | तुम्ही बकाकरवीं चांदिणें| चरऊं पहा मा ||१५६|| हां हो उटोनियां आरिसा| आंधळिया द्ॐ बैसा| बहिरियापुढें हृषीकेशा| गाणीव करा ||१५७|| मकरंदकणाचा चारा| जाणतां घालूनि दर्दुरा| वायां धाडा शारङ्गधरा| कोपा कवणा ||१५८|| जें अतींद्रिय म्हणौनि व्यवस्थिलें| केवळ ज्ञानदृष्टीचिया भागा फिटलें| तें तुम्हीं चर्मचक्षूंपुढें सूदलें| मी कैसेनि देखें ||१५९|| परी हें तुमचें उणें न बोलावें| मीचि साहें तेंचि बरवें| एथ आथि म्हणितलें देवें| मानूं बापा ||१६०|| साच विश्वरूप जरी आम्ही दावावें| तरी आधीं देखावया सामर्थ्य कीं द्यावें| परी बोलत बोलत प्रेमभावें | धसाळ गेलों ||१६१|| काय जाहलें न वाहतां भुई पेरिजे| तरी तो वेलु विलया जाइजे| तरी आतां माझें निजरूप देखिजे | तें दृष्टी देवों तुज ||१६२|| मग तिया दृष्टी पांडवा| आमुचा ऐश्वर्ययोगु आघवा| देखोनियां अनुभवा| माजिवडा करीं ||१६३|| ऐसें तेणें वेदांतवेद्यें| सकळ लोक आद्यें| बोलिलें आराध्यें| जगाचेनि ||१६४|| संजय उवाच | एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः | दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ||९|| पैं कौरवकुलचक्रवर्ती| मज हाचि विस्मयो पुढतपुढती| जे श्रियेहूनि त्रिजगतीं| सदैव असे कवणी ? ||१६५|| ना तरी खुणेचें वानावयालागीं| श्रुतीवांचूनि दावा पां जगीं| ना सेवकपण तरी आंगीं| शेषाच्याचि आथी ||१६६|| हां हो जयाचेनि सोसें| शिणत आठही पहार योगी जैसे| अनुसरलें गरुडाऐसें| कवण आहे ? ||१६७|| परी तें आघवेंचि एकीकडे ठेलें| सापें कृष्णसुख एकंदरें जाहलें| जिये दिवूनि जन्मले| पांडव हे ||१६८|| परी पांचांही आंतु अर्जुना| श्रीकृष्ण सावियाचि जाहला अधीना| कामुक कां जैसा अंगना| आपैता कीजे ||१६९|| पढविलें पाखरूं ऐसें न बोले| यापरी क्रीडामृगही तैसा न चले| कैसें दैव एथें सुरवाडलें| तें जाणों न ये ||१७०|| आजि हें परब्रह्म सगळें| भोगावया सदैव याचेचि डोळे| कैसे वाचेनि हन लळे| पाळीत असे ||१७१|| हा कोपे कीं निवांतु साहे| हा रुसे तरी बुझावीत जाये| नवल पिसें लागलें आहे| पार्थाचें देवा ||१७२|| एऱ्हवीं विषय जिणोनि जन्मले| जे शुकादिक दादुले| ते विषयोचि वानितां जाहले| भाट ययाचें ||१७३|| हा योगियांचें समाधिधन| कीं होऊनि ठेले पार्थाआधीन| यालागीं विस्मयो माझें मन| करीतसे राया ||१७४|| तेवींचि संजय म्हणे कायसा| विस्मयो एथें कौरवेशा| श्रीकृष्णें स्वीकारिजे तया ऐसा| भाग्योदय होय ||१७५|| म्हणौनि तो देवांचा रावो| म्हणे पार्थाते तुज दृष्टि देवों| जया विश्वरूपाचा ठावो| देखसी तूं ||१७६|| ऐसी श्रीमुखौनि अक्षरें| निघती ना जंव एकसरें| तंव अविद्येचे आंधारें| जावोंचि लागे ||१७७|| तीं अक्षरें नव्हती देखा| ब्रह्मसाम्राज्यदीपिका| अर्जुनालागीं चित्कळिका| उजळलिया श्रीकृष्णें ||१७८|| मग दिव्यचक्षुप्रकाशु प्रगटला| तया ज्ञानदृष्टी फांटा फुटला| ययापरी दाविता जाहला| ऐश्वर्य आपुलें ||१७९|| हे अवतार जे सकळ| ते जिये समुद्रींचे कां कल्लोळ| विश्व हें मृगजळ| जया रश्मीस्तव दिसे ||१८०|| जिये अनादिभूमिके निटे| चराचर हें चित्र उमटे| आपणपें श्रीवैकुंठें| दाविलें तया ||१८१|| मागां बाळपणीं येणें श्रीपती| जैं एक वेळ खादली होती माती| तैं कोपोनियां हातीं| यशोदां धरिला ||१८२|| मग भेणें भेणें जैसें| मुखीं झाडा द्यावयाचेनि मिसें| चवदाही भुवनें सावकाशें| दाविलीं तिये ||१८३|| ना तरी मधुवनीं ध्रुवासि केलें| जैसें कपोल शंखें शिवतलें| आणि वेदांचियेही मतीं ठेलें| तें लागला बोलों ||१८४|| तैसा अनुग्रहो पैं राया| श्रीहरी केला धनंजया| आतां कवणेकडेही माया| ऐसी भाष नेणेंचि तो ||१८५|| एकसरें ऐश्वर्यतेजें पाहलें| तया चमत्काराचें एकार्णव जाहलें| चित्त समाजीं बुडोनि ठेलें| विस्मयाचिया ||१८६|| जैसा आब्रह्म पूर्णोदकीं| पव्हे मार्कंडेय एकाकीं| तैसा विश्वरूप कौतुकीं| पार्थु लोळे ||१८७|| म्हणे केवढें गगन एथ होतें| तें कवणें नेलें पां केउतें| तीं चराचर महाभूतें| काय जाहलीं ? ||१८८|| दिशांचे ठावही हारपले| आधोर्ध्व काय नेणों जाहले| चेइलिया स्वप्न तैसे गेले| लोकाकार ||१८९|| नाना सूर्यतेजप्रतापें| सचंद्र तारांगण जैसें लोपे| तैसीं गिळिलीं विश्वरूपें| प्रपंचरचना ||१९०|| तेव्हां मनासी मनपण न स्फुरे| बुद्धि आपणपें न सांवरें| इंद्रियांचे रश्मी माघारे| हृदयवरी भरले ||१९१|| तेथ ताटस्थ्या ताटस्थ्य पडिलें| टकासी टक लागले| जैसें मोहनास्त्र घातलें| विचारजातां ||१९२|| तैसा विस्मितु पाहे कोडें| तंव पुढां होतें चतुर्भुज रूपडें| तेंचि नानारूप चहूंकडे| मांडोनि ठेलें ||१९३|| जैसें वर्षाकाळींचे मेघौडे| कां महाप्रळयींचें तेज वाढे| तैसें आपणावीण कवणीकडे| नेदीचि उरों ||१९४|| प्रथम स्वरूपसमाधान| पावोनि ठेला अर्जुन| सवेचि उघडी लोचन| तंव विश्वरूप देखें ||१९५|| इहींचि दोहीं डोळां| पाहावें विश्वरूपा सकळा| तो श्रीकृष्णें सोहळा| पुरविला ऐसा ||१९६|| अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् | अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||१०|| मग तेथ सैंघ देखे वदनें| जैसी रमानायकाचीं राजभुवनें| नाना प्रगटलीं निधानें| लावण्यश्रियेचीं ||१९७|| कीं आनंदाची वनें सासिन्नलीं| जैसी सौंदर्या राणीव जोडली| तैसीं मनोहरें देखिलीं| हरीचीं वक्त्रें ||१९८|| तयांही माजीं एकैकें| सावियाचि भयानकें| काळरात्रीचीं कटकें| उठवलीं जैसीं ||१९९|| कीं मृत्यूसीचि मुखें जाहलीं| हो कां जें भयाचीं दुर्गें पन्नासिलीं| कीं महाकुंडें उघडलीं| प्रळयानळाचीं ||२००|| तैसीं अद्भुतें भयासुरें| तेथ वदनें देखिलीं वीरें| आणिकें असाधारणें साळंकारें| सौम्यें बहुतें ||२०१|| पैं ज्ञानदृष्टीचेनि अवलोकें| परी वदनांचा शेवटु न टके| मग लोचन तें कवतिकें| लागला पाहों ||२०२|| तंव नानावर्णें कमळवनें| विकासिलीं तैसे अर्जुनें| डोळे देखिले पालिंगनें| आदित्यांचीं ||२०३|| तेथेंचि कृष्णमेघांचिया दाटी- | माजीं कल्पांत विजूंचिया स्फुटी| तैसिया वन्हि पिंगळा दिठी| भ्रूभंगातळीं ||२०४|| हें एकैक आश्चर्य पाहतां| तिये एकेचि रूपीं पंडुसुता| दर्शनाची अनेकता| प्रतिफळली ||२०५|| मग म्हणे चरण ते कवणेकडे| केउते मुकुट कें दोर्दंडें| ऐसी वाढविताहे कोडें| चाड देखावयाची ||२०६|| तेथ भाग्यनिधि पार्था| कां विफलत्व होईल मनोरथा| काय पिनाकपाणीचिया भातां| वायकांडीं आहाती ? ||२०७|| ना तरी चतुराननाचिये वाचे| काय आहाती लटिकिया अक्षरांचे साचे ? | म्हणौनि साद्यंतपण अपारांचे| देखिलें तेणें ||२०८|| जयाची सोय वेदां नाकळे| तयाचे सकळावयव एकेचि वेळे| अर्जुनाचे दोन्ही डोळे| भोगिते जाहले ||२०९|| चरणौनि मुकुटवरी| देखत विश्वरूपाची थोरी| जे नाना रत्न अळंकारीं| मिरवत असे ||२१०|| परब्रह्म आपुलेनि आंगें| ल्यावया आपणचि जाहला अनेगें| तियें लेणीं मी सांगें| काइसयासारिखीं ||२११|| जिये प्रभेचिये झळाळा| उजाळु चंद्रादित्यमंडळा| जे महातेजाचा जिव्हाळा| जेणें विश्व प्रगटे ||२१२|| तो दिव्यतेज शृंगारु| कोणाचिये मतीसी होय गोचरु| देव आपणपेंचि लेइले ऐसें वीरु| देखत असे ||२१३|| मग तेथेंचि ज्ञानाचिया डोळां| पहात करपल्लवां जंव सरळा| तंव तोडित कल्पांतींचिया ज्वाळा | तैसीं शस्त्रें झळकत देखे ||२१४|| आपण आंग आपण अलंकार| आपण हात आपण हतियार| आपण जीव आपण शरीर| देखें चराचर कोंदलें देवें ||२१५|| जयाचिया किरणांचे निखरपणें| नक्षत्रांचे होत फुटाणे| तेजें खिरडला वन्हि म्हणे| समुद्रीं रिघों ||२१६|| मग कालकूटकल्लोळीं कवळिलें| नाना महाविजूंचें दांग उमटलें| तैसे अपार कर देखिले| उदितायुधीं ||२१७|| दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् | सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||११|| कीं भेणें तेथूनि काढिली दिठी| मग कंठमुगुट पहातसे किरीटी| तंव सुरतरूची सृष्टी| जयांपासोनि कां जाहली ||२१८|| जिये महासिद्धींचीं मूळपीठें| शिणली कमळा जेथ वावटे| तैसीं कुसुमें अति चोखटें| तुरंबिलीं देखिलीं ||२१९|| मुगुटावरी स्तबक| ठायीं ठायीं पूजाबंध अनेक| कंठीं रुळताति अलौकिक| माळादंड ||२२०|| स्वर्गें सूर्यतेज वेढिलें| जैसें पंधरेनें मेरूतें मढिलें| तैसें नितंबावरी गाढिलें| पीतांबरु झळके ||२२१|| श्रीमहादेवो कापुरें उटिला| कां कैलासु पारजें डवरिला| नाना क्षीरोदकें पांघरविला| क्षीरार्णवो जैसा ||२२२|| जैसी चंद्रमयाची घडी उपलविली| मग गगनाकरवीं बुंथी घेवविली| तैसीं चंदनपिंजरी देखिली| सर्वांगीं तेणें ||२२३|| जेणें स्वप्रकाशा कांतीं चढे| ब्रह्मानंदाचा निदाघु मोडे| जयाचेनि सौरभ्यें जीवित जोडे| वेदवतीये ||२२४|| जयाचे निर्लेप अनुलेपु करी| जे अनंगुही सर्वांगीं धरी| तया सुगंधाची थोरी| कवण वानी ? ||२२५|| ऐसी एकैक शृंगारशोभा| पाहतां अर्जुन जातसें क्षोभा| तेवींचि देवो बैसला कीं उभा| का शयालु हें नेणवें ||२२६|| बाहेर दिठी उघडोनि पाहे| तंव आघवें मूर्तिमय देखत आहे| मग आतां न पाहें म्हणौनि उगा राहे | तरी आंतुही तैसेंचि ||२२७|| अनावरें मुखें समोर देखे| तयाभेणें पाठीमोरा जंव ठाके| तंव तयाहीकडे श्रीमुखें| करचरण तैसेचि ||२२८|| अहो पाहतां कीर प्रतिभासे| एथ नवलावो काय असे ? | परि न पाहतांही दिसे| चोज आइका ||२२९|| कैसें अनुग्रहाचें करणें| पार्थाचें पाहणें आणि न पाहणें| तयाही सकट नारायणें| व्यापूनि घेतलें ||२३०|| म्हणौनि आश्चर्याच्या पुरीं एकीं| पडिला ठायेठाव थडीं ठाकी| तंव चमत्काराचिया आणिकीं| महार्णवीं पडे ||२३१|| तैसा अर्जुनु असाधारणें| आपुलिया दर्शनाचेनि विंदाणें| कवळूनि घेतला तेणें| अनंतरूपें ||२३२|| तो विश्वतोमुख स्वभावें| आणि तेचि दावावयालागीं पांडवें| प्रार्थिला आतां आघवें| होऊनि ठेला ||२३३|| आणि दीपें कां सूर्यें प्रगटे| अथवा निमुटलिया देखावेंचि खुंटे| तैसी दिठी नव्हे जे वैकुंठें| दिधली आहे ||२३४|| म्हणौनि किरीटीसि दोहीं परी| तें देखणें देखें अंधारी| हें संजयो हस्तिनापुरीं| सांगतसे राया ||२३५|| म्हणे किंबहुना अवधारिलें| पार्थें विश्वरूप देखिलें| नाना आभरणीं भरलें| विश्वतोमुख ||२३६|| दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता | यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ||१२|| तिये अंगप्रभेचा देवा| नवलावो काइसया ऐसा सांगावा| कल्पांतीं एकुचि मेळावा| द्वादशादित्यांचा होय ||२३७|| तैसे ते दिव्यसूर्य सहस्रवरी| जरी उदयजती कां एकेचि अवसरीं| तऱ्ही तया तेजाची थोरी| उपमूं नये ||२३८|| आघवयाचि विजूंचा मेळावा कीजे| आणि प्रळयाग्नीची सर्व सामग्री आणिजे| तेवींचि दशकुही मेळविजे | महातेजांचा ||२३९|| तऱ्ही तिये अंगप्रभेचेनि पाडें| हें तेज कांहीं कांहीं होईल थोडें| आणि तया ऐसें कीर चोखडें| त्रिशुद्धी नोहे ||२४०|| ऐसें महात्म्य या श्रीहरीचें सहज| फांकतसे सर्वांगीचें तेज| तें मुनिकृपा जी मज| दृष्ट जाहलें ||२४१|| तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नम् प्रविभक्तमनेकधा | अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पांडवस्तदा ||१३|| आणि तिये विश्वरूपीं एकीकडे| जग आघवें आपुलेनि पवाडें| जैसे महोदधीमाजीं बुडबुडे| सिनानें दिसती ||२४२|| कां आकाशीं गंधर्वनगर| भूतळीं पिपीलिका बांधे घर| नाना मेरुवरी सपूर| परमाणु बैसले ||२४३|| विश्व आघवेंचि तयापरी| तया देवचक्रवर्तीचिया शरीरीं| अर्जुन तिये अवसरीं| देखता जाहला ||२४४|| ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः | प्रणम्य शिरसा देवं कृताज़्जलिरभाषत ||१४|| तेथ एक विश्व एक आपण| ऐसें अळुमाळ होतें जें दुजेपण| तेंही आटोनि गेलें अंतःकरण| विरालें सहसा ||२४५|| आंतु आनंदा चेइरें जाहलें| बाहेरि गात्रांचें बळ हारपोनि गेलें| आपाद पां गुंतलें| पुलकांचलें ||२४६|| वार्षिये प्रथमदशे| वोहळलया शैलांचें सर्वांग जैसें| विरूढे कोमलांकुरीं तैसे| रोमांच जाहले ||२४७|| शिवतला चंद्रकरीं| सोमकांतु द्रावो धरी| तैसिया स्वेदकणिका शरीरीं| दाटलिया ||२४८|| माजीं सापडलेनि अलिकुळें| जळावरी कमळकळिका जेवीं आंदोळे| तेवीं आंतुलिया सुखोर्मीचेनि बळें| बाहेरि कांपे ||२४९|| कर्पूरकर्दळीचीं गर्भपुटें| उकलतां कापुराचेनि कोंदाटें| पुलिका गळती तेवीं थेंबुटें| नेत्रौनि पडती ||२५०|| उदयलेनि सुधाकरें| जैसा भरलाचि समुद्र भरे| तैसा वेळोवेळां उर्मिभरें| उचंबळत असे ||२५१|| ऐसा सात्त्विकांही आठां भावां| परस्परें वर्ततसे हेवा| तेथ ब्रह्मानंदाची जीवा| राणीव फावली ||२५२|| तैसाचि तया सुखानुभवापाठीं| केला द्वैताचा सांभाळु दिठी| मग उसासौनि किरीटी| वास पाहिली ||२५३|| तेथ बैसला होता जिया सवा| तियाचिया कडे मस्तक खालविला देवा| जोडूनि करसंपुट बरवा| बोलतु असे ||२५४|| अर्जुन उवाच | पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् | ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ मृषींश्चसर्वानुरगांश्च दिव्यान् ||१५|| म्हणे जयजयाजी स्वामी| नवल कृपा केली तुम्हीं| जें हें विश्वरूप कीं आम्हीं| प्राकृत देखों ||२५५|| परि साचचि भलें केलें गोसाविया| मज परितोषु जाहला साविया| जी देखलासि जो इया| सृष्टीसी तूं आश्रयो ||२५६|| देवा मंदराचेनि अंगलगें| ठायीं ठायीं श्वापदांचीं दांगें| तैसीं इयें तुझ्या देहीं अनेगें| देखतसें भुवनें ||२५७|| अहो आकाशचिये खोळे| दिसती ग्रहगणांचीं कुळें| कां महावृक्षीं अविसाळें| पक्षिजातीचीं ||२५८|| तयापरी श्रीहरी| तुझिया विश्वात्मकीं इये शरीरीं| स्वर्गु देखतसें अवधारीं| सुरगणेंसीं ||२५९|| प्रभु महाभूतांचें पंचक| येथ देखत आहे अनेक| आणि भूतग्राम एकेक| भूतसृष्टीचें ||२६०|| जी सत्यलोकु तुजमाजीं आहे| देखिला चतुराननु हा नोहे ? | आणि येरीकडे जंव पाहें| तंव कैलासुही दिसे ||२६१|| श्रीमहादेव भवानियेशीं| तुझ्या दिसतसे एके अंशीं| आणि तूंतेंही गा हृषीकेशी| तुजमाजीं देखे ||२६२|| पैं कश्यपादि ऋषिकुळें| इयें तुझिया स्वरूपीं सकळें| देखतसें पाताळें| पन्नगेंशीं ||२६३|| किंबहुना त्रैलोक्यपती| तुझिया एकेकाचि अवयवाचिये भिंती| इयें चतुर्दशभुवनें चित्राकृती| अंकुरलीं जाणों ||२६४|| आणि तेथिंचे जे जे लोक| ते चित्ररचना जी अनेक| ऐसें देखतसे अलोकिक| गांभीर्य तुझें ||२६५|| अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनंतरूपम् | नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूपम् ||१६|| त्या दिव्यचक्षूंचेनि पैसें| चहुंकडे जंव पाहात असें| तंव दोर्दंडीं कां जैसें| आकाश कोंभैलें ||२६६|| तैसे एकचि निरंतर| देवा देखत असें तुझे कर| करीत आघवेचि व्यापार| एकेचि काळीं ||२६७|| मग महाशून्याचेनि पैसारें| उघडलीं ब्रह्मकटाहाचीं भांडारें| तैसीं देखतसें अपारें| उदरें तुझीं ||२६८|| जी सहस्रशीर्षयाचें देखिलें| कोडीवरी होताति एकीवेळें| कीं परब्रह्मचि वदनफळें| मोडोनि आलें ||२६९|| तैसीं वक्त्रें जी जेउतीं तेउतीं| तुझीं देखितसे विश्वमूर्ती| आणि तयाचिपरी नेत्रपंक्ती| अनेका सैंघ ||२७०|| हें असो स्वर्ग पाताळ| कीं भूमी दिशा अंतराळ| हे विवक्षा ठेली सकळ| मूर्तिमय देखतसें ||२७१|| हें तुजवीण एकादियाकडे| परमाणूहि एतुला कोडें| अवकाशु पाहतसें परि न सांपडे| ऐसें व्यापिलें तुवां ||२७२|| इये नानापरी अपरिमितें| जेतुलीं साठविलीं होतीं महाभूतें| तेतुलाहि पवाडु तुवां अनंतें| कोंदला देखतसें ||२७३|| ऐसा कवणें ठायाहूनि तूं आलासी| एथ बैसलासि कीं उभा आहासि| आणि कवणिये मायेचिये पोटीं होतासी | तुझें ठाण केवढें ||२७४|| तुझें रूप वय कैसें| तुजपैलीकडे काय असे| तूं काइसयावरी आहासि ऐसें| पाहिलें मियां ||२७५|| तंव देखिलें जी आघवेंचि| तरि आतां तुज ठावो तूंचि| तूं कवणाचा नव्हेसि ऐसाचि| अनादि आयता ||२७६|| तूं उभा ना बैठा| दिघडु ना खुजटा| तुज तळीं वरी वैकुंठा| तूंचि आहासी ||२७७|| तूं रूपें आपणयांचि ऐसा| देवा तुझी तूंचि वयसा| पाठीं पोट परेशा| तुझें तूं गा ||२७८|| किंबहुना आतां| तुझें तूंचि आघवें अनंता| हें पुढत पुढती पाहतां| देखिलें मियां ||२७९|| परि या तुझिया रूपाआंतु| जी उणीव एक असे देखतु| जे आदि मध्य अंतु| तिन्हीं नाहीं ||२८०|| एऱ्हवीं गिंवसिलें आघवां ठायीं| परि सोय न लाहेचि कहीं| म्हणौनि त्रिशुद्धी हे नाहीं| तिन्ही एथ ||२८१|| एवं आदिमध्यांतरहिता| तूं विश्वेश्वरा अपरिमिता| देखिलासि जी तत्त्वतां| विश्वरूपा ||२८२|| तुज महामूर्तीचिया आंगी| उमटलिया पृथक् मूर्ती अनेगी| लेइलासी वानेपरींची आंगीं| ऐसा आवडतु आहासी ||२८३|| नाना पृथक् मूर्ती तिया द्रुमवल्ली| तुझिया स्वरूपमहाचळीं| दिव्यालंकार फुलीं फळीं| सासिन्नलिया ||२८४|| हो कां जे महोदधीं तूं देवा| जाहलासि तरंगमूर्ती हेलावा| कीं तूं एक वृक्षु बरवा| मूर्तिफळीं फळलासी ||२८५|| जी भूतीं भूतळ मांडिलें| जैसें नक्षत्रीं गगन गुढलें| तैसें मूर्तिमय भरलें| देखतसें तुझें रूप ||२८६|| जी एकेकीच्या अंगप्रांतीं| होय जाय हें त्रिजगती| एवढियाही तुझ्या आंगीं मूर्ती| कीं रोमा जालिया ||२८७|| ऐसा पवाडु मांडूनि विश्वाचा| तूं कवण पां एथ कोणाचा| हें पाहिलें तंव आमुचा| सारथी तोचि तूं ||२८८|| तरी मज पाहतां मुकुंदा| तूं ऐसाचि व्यापकु सर्वदा| मग भक्तानुग्रहें तया मुग्धा| रूपातें धरिसी ||२८९|| कैसें चहूं भुजांचें सांवळें| पाहतां वोल्हावती मन डोळे| खेंव देऊं जाइजे तरी आकळे| दोहींचि बाहीं ||२९०|| ऐसी मूर्ति कोडिसवाणी कृपा| करूनि होसी ना विश्वरूपा| कीं अमुचियाचि दिठी सलेपा| जें सामान्यत्वें देखिती ||२९१|| तरी आतां दिठीचा विटाळु गेला| तुवां सहजें दिव्यचक्षू केला| म्हणौनि यथारूपें देखवला| महिमा तुझा ||२९२|| परी मकरतुंडामागिलेकडे| तोचि होतासि तूं एवढें| रूप जाहलासि हें फुडें| वोळखिलें मियां ||२९३|| किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् | पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ||१७|| नोहे तोचि हा शिरीं ? | मुकुट लेइलासि श्रीहरी| परी आतांचें तेज आणि थोरी| नवल कीं बहु हें ||२९४|| तेंचि हें वरिलियेचि हातीं| चक्र परिजितया आयती| सांवरितासि विश्वमूर्ती| ते न मोडे खूण ||२९५|| येरीकडे तेचि हे नोहे गदा| आणि तळिलिया दोनी भुजा निरायुधा| वागोरे सांवरावया गोविंदा| संसरिलिया ||२९६|| आणि तेणेंचि वेगें सहसा| माझिया मनोरथासरिसा| जाहलासि विश्वरूपा विश्वेशा| म्हणौनि जाणें ||२९७|| परी कायसें बा हें चोज| विस्मयो करावयाहि पाडू नाहीं मज| चित्त होऊनि जातसें निर्बुज| आश्चर्यें येणें ||२९८|| हें एथ आथि कां येथ नाहीं| ऐसें श्वसोंही नये कांहीं| नवल अंगप्रभेची नवाई| कैसी कोंदलीं सैंघ ||२९९|| एथ अग्नीचीही दिठी करपत| सूर्य खद्योतु तैसा हारपत| ऐसें तीव्रपण अद्भुत| तेजाचें यया ||३००|| हो कां महातेजाचिया महार्णवीं| बुडोनि गेली सृष्टी आघवी| कीं युगांतविजूंच्या पालवीं| झांकलें गगन ||३०१|| नातरी संहारतेजाचिया ज्वाळा| तोडोनि माचू बांधला अंतराळां| आतां दिव्य ज्ञानाचिया डोळां| पाहवेना ||३०२|| उजाळु अधिकाधिक बहुवसु| धडाडीत आहे अतिदाहसु| पडत दिव्यचक्षुंसही त्रासु| न्याहाळितां ||३०३|| हो कां जे महाप्रळयींचा भडाडु| होता काळाग्निरुद्राचिया ठायीं गूढु| तो तृतीयनयनाचा मढू| फुटला जैसा ||३०४|| तैसें पसरलेनि प्रकाशें| सैंघ पांचवनिया ज्वाळांचे वळसे| पडतां ब्रह्मकटाह कोळिसे| होत आहाती ||३०५|| ऐसा अद्भुत तेजोराशी| जन्मा नवल म्यां देखिलासी| नाहीं व्याप्ती आणि कांतीसी| पारु जी तुझिये ||३०६|| त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् | त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||१८|| देवा तूं अक्षर| औटाविये मात्रेसि पर| श्रुती जयाचें घर| गिंवसीत आहाती ||३०७|| जें आकाराचें आयतन| जें विश्वनिक्षेपैकनिधान| तें अव्यय तूं गहन| अविनाश जी ||३०८|| तूं धर्माचा वोलावा| अनादिसिद्ध तूं नित्य नवा| जाणें मी सदतिसावा| पुरुष विशेष तूं ||३०९|| अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यं अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् | पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ||१९|| तूं आदिमध्यांतरहितु| स्वसामर्थ्यें तूं अनंतु| विश्वबाहु अपरिमितु| विश्वचरण तूं ||३१०|| पैं चंद्र चंडांशु डोळां| दावितासि कोपप्रसाद लीळा| एकां रुससी तमाचिया डोळां| एकां पाळितोसि कृपादृष्टी ||३११|| जी एवंविधा तूंतें| मी देखतसें हें निरुतें| पेटलें प्रळयाग्नीचें उजितें| तैसें वक्त्र हें तुझें ||३१२|| वणिवेनि पेटले पर्वत| कवळूनि ज्वाळांचे उभड उठत| तैसी चाटीत दाढा दांत| जीभ लोळे ||३१३|| इये वदनींचिया उबा| आणि जी सर्वांगकांतीचिया प्रभा| विश्व तातलें अति क्षोभा| जात आहे ||३१४|| द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः | दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||२०|| कां जे द्यौर्लोक आणि पाताळ| पृथिवी आणि अंतराळ| अथवा दशदिशा समाकुळ| दिशाचक्र ||३१५|| हें आघवेंचि तुंवा एकें| भरलें देखत आहे कौतुकें| परि गगनाहीसकट भयानकें| आप्लविजे जेवीं ||३१६|| नातरी अद्भुतरसाचिया कल्लोळीं| जाहली चवदाही भुवनांसि कडियाळीं| तैसें आश्चर्यचि मग मी आकळीं | काय एक ? ||३१७|| नावरे व्याप्ती हे असाधारण| न साहवे रूपाचें उग्रपण| सुख दूरी गेलें परि प्राण| विपायें धरीजे ||३१८|| देवा ऐसें देखोनि तूंतें| नेणों कैसें आलें भयाचें भरितें| आतां दुःखकल्लोळीं झळंबतें| तिन्हीं भुवनें ||३१९|| एऱ्हवीं तुज महात्मयाचें देखणें| तरि भयदुःखासि कां मेळवणें ? | परि हें सुख नव्हेचि जेणें गुणें| तें जाणवत आहे मज ||३२०|| जंव तुझें रूप नोहे दिठें| तंव जगासि संसारिक गोमटें| आतां देखिलासि तरी विषयविटें| उपनला त्रासु ||३२१|| तेवींचि तुज देखिलियासाठीं| काय सहसा तुज देवों येईल मिठी| आणि नेदीं तरी शोकसंकटीं| राहों केवीं ? ||३२२|| म्हणौनि मागां सरों तंव संसारु| आडवीत येतसे अनिवारु| आणि पुढां तूं तंव अनावरु| न येसि घेवों ||३२३|| ऐसा माझारलिया सांकडां| बापुड्या त्रैलोक्याचा होतसे हुरडा| हा ध्वनि जी फुडा| चोजवला मज ||३२४|| जैसा आरंबळला आगीं| तो समुद्रा ये निवावयालागीं| तंव कल्लोळपाणियाचिया तरंगीं| आगळा बिहे ||३२५|| तैसें या जगासि जाहलें| तूंतें देखोनि तळमळित ठेलें| यामाजीं पैल भले| ज्ञानशूरांचे मेळावे ||३२६|| अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति | स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां सुतिभिः पुष्कलाभिः ||२१|| हे तुझेनि आंगिकें तेजें| जाळूनि सर्व कर्मांचीं बीजें| मिळत तुज आंतु सहजें| सद्भावेसीं ||३२७|| आणिक एक सावियाचि भयभीरु| सर्वस्वें धरूनि तुझी मोहरु| तुज प्रार्थिताति करु| जोडोनियां ||३२८|| देवा अविद्यार्णवीं पडिलों| जी विषयवागुरें आंतुडलों| स्वर्गसंसाराचिया सांकडलों| दोहीं भागीं ||३२९|| ऐसें आमुचें सोडवणें| तुजवांचोनि कीजेल कवणें ? | तुज शरण गा सर्वप्राणें| म्हणत देवा ||३३०|| आणि महर्षी अथवा सिद्ध| कां विद्याधरसमूह विविध| हे बोलत तुज स्वस्तिवाद| करिती स्तवन ||३३१|| रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोश्मपाश्च | गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ||२२|| हे रुद्रादित्यांचे मेळावे| वसु हन साध्य आघवे| अश्विनौ देव विश्वेदेव विभवें| वायुही हे जी ||३३२|| अवधारा पितर हन गंधर्व| पैल यक्षरक्षोगण सर्व| जी महेंद्रमुख्य देव| कां सिद्धादिक ||३३३|| हे आघवेचि आपुलालिया लोकीं| सोत्कंठित अवलोकीं| हे महामूर्ती दैविकी| पाहात आहाती ||३३४|| मग पाहात पाहात प्रतिक्षणीं| विस्मित होऊनि अंतःकरणीं| करित निजमुकटीं वोवाळणी| प्रभुजी तुज ||३३५|| ते जय जय घोष कलरवें| स्वर्ग गाजविताती आघवे| ठेवित ललाटावरी बरवे| करसंपुट ||३३६|| तिये विनयद्रुमाचिये आरवीं| सुरवाडली सात्त्विकांची माधवी| म्हणौनि करसंपुटपल्लवीं| तूं होतासि फळ ||३३७|| रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् | बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाऽहम् ||२३|| जी लोचनां भाग्य उदेलें| मना सुखाचें सुयाणें पाहलें| जे अगाध तुझें देखिलें| विश्वरूप इहीं ||३३८|| हें लोकत्रयव्यापक रूपडें| पाहतां देवांही वचक पडे| याचें सन्मुखपण जोडें| भलतयाकडुनी ||३३९|| ऐसें एकचि परी विचित्रें| आणि भयानकें वक्त्रें| बहुलोचन हे सशस्त्रें| अनंतभुजा ||३४०|| अनंत चारु बाहु चरण| बहूदर आणि नानावर्ण| कैसें प्रतिवदनीं मातलेपण| आवेशाचें ||३४१|| हो कां महाकल्पाचिया अंतीं| तवकलेनि यमें जेउततेउतीं| प्रळयाग्नीचीं उजितीं| आंबुखिलीं जैसीं ||३४२|| नातरी संहारत्रिपुरारीचीं यंत्रें| कीं प्रळयभैरवाचीं क्षेत्रें| नाना युगांतशक्तीचीं पात्रें| भूतखिचा वोढविलीं ||३४३|| तैसीं जियेतियेकडे| तुझीं वक्त्रें जीं प्रचंडें| न समाती दरीमाजीं सिंव्हाडे| तैसे दशन दिसती रागीट ||३४४|| जैसें काळरात्रीचेनि अंधारें| उल्हासत निघतीं संहारखेंचरें| तैसिया वदनीं प्रळयरुधिरें| काटलिया दाढा ||३४५|| हें असो काळें अवंतिलें रण| कां सर्व संहारें मातलें मरण| तैसें अतिभिंगुळवाणेंपण| वदनीं तुझिये ||३४६|| हे बापुडी लोकसृष्टी| मोटकीये विपाइली दिठी| आणि दुःखकालिंदीचिया तटीं| झाड होऊनि ठेली ||३४७|| तुज महामृत्यूचिया सागरीं| आतां हे त्रैलोक्य जीविताची तरी| शोकदुर्वातलहरी| आंदोळत असे ||३४८|| एथ कोपोनि जरी वैकुंठें| ऐसें हन म्हणिपैल अवचटें| जें तुज लोकांचें काई वाटे ? | तूं ध्यानसुख हें भोगीं ||३४९|| तरी जी लोकांचें कीर साधारण| वायां आड सूतसे वोडण| केवीं सहसा म्हणे प्राण| माझेचि कांपती ||३५०|| ज्या मज संहाररुद्र वासिपे| ज्या मजभेणें मृत्यु लपे| तो मी एथें अहाळबाहळीं कांपें| ऐसें तुवां केलें ||३५१|| परि नवल बापा हे महामारी| इया नाम विश्वरूप जरी| हे भ्यासुरपणें हारी| भयासि आणी ||३५२|| नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् | दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ||२४|| ठेलीं महाकाळेंसि हटेंतटें| तैसी कितीएकें मुखें रागिटें| इहीं वाढोनियां धाकुटें| आकाश केलें ||३५३|| गगनाचेंनि वाडपणें नाकळे| त्रिभुवनींचियाही वारिया न वेंटाळे| ययाचेनि वाफा आगी जळे| कैसें धडाडीत असे ||३५४|| तेवींचि एकसारिखें एक नोहे| एथ वर्णावर्णाचा भेदु आहे| हो कां जें प्रळयीं सावावो लाहे| वन्ह्ं ययाचा ||३५५|| जयाचिये आंगींची दीप्ती येवढी| जे त्रैलोक्य कीजे राखोंडी| कीं तयाही तोंडें आणि तोंडीं| दांत दाढा ||३५६|| कैसा वारया धनुर्वात चढला| समुद्र कीं महापुरीं पडिला| विषाग्नि मारा प्रवर्तला| वडवानळासी ||३५७|| हळाहळ आगी पियालें| नवल मरण मारा प्रवर्तलें| तैसें संहारतेजा या जाहलें| वदन देखा ||३५८|| परी कोणें मानें विशाळ| जैसें तुटलिया अंतराळ| आकाशासि कव्हळ| पडोनि ठेलें ||३५९|| नातरी काखे सूनि वसुंधरी| जैं हिरण्याक्षु रिगाला विवरीं| तैं उघडले हाटकेश्वरीं| जेवीं पाताळकुहर ||३६०|| तैसा वक्त्रांचा विकाशु| माजीं जिव्हांचा आगळाचि आवेशु| विश्व न पुरे म्हणौनि घांसु| न भरीचि कोंडें ||३६१|| आणि पाताळव्याळांचिया फूत्कारीं| गरळज्वाळा लागती अंबरीं| तैसी पसरलिये वदनदरी- | माजीं हे जिव्हा ||३६२|| काढूनि प्रळयविजूंचीं जुंबाडें| जैसें पन्नासिलें गगनाचे हुडे| तैसे आवाळुवांवरी आंकडे| धगधगीत दाढांचे ||३६३|| आणि ललाटपटाचिये खोळे| कैसें भयातें भेडविताती डोळे| हो कां जे महामृत्यूचे उमाळे| कडवसां राहिले ||३६४|| ऐसें वाऊनि भयाचें भोज| एथ काय निपजवूं पाहातोसि काज| तें नेणों परी मज| मरणभय आलें ||३६५|| देवा विश्वरूप पहावयाचे डोहळे| केले तिये पावलों प्रतिफळें| बापा देखिलासि आतां डोळे| निवावे तैसे निवाले ||३६६|| अहो देहो पार्थिव कीर जाये| ययाची काकुळती कवणा आहे| परि आतां चैतन्य माझें विपायें| वांचे कीं न वांचे ||३६७|| एऱ्हवीं भयास्तव आंग कांपे| नावेक आगळें तरी मन तापे| अथवा बुद्धिही वासिपे| अभिमानु विसरिजे ||३६८|| परी येतुलियाही वेगळा| जो केवळ आनंदैककळा| तया अंतरात्मयाही निश्चळा| शियारी आली ||३६९|| बाप साक्षात्काराचा वेधु| कैसा देशधडी केला बोधु| हा गुरुशिष्यसंबंधु| विपायें नांदे ||३७०|| देवा तुझ्या ये दर्शनीं| जें वैकल्य उपजलें आहे अंतःकरणीं| तें सावरावयालागीं गंवसणी| धैर्याची करितसें ||३७१|| तंव माझेनि नामें धैर्य हारपलें| कीं तयाहीवरी विश्वरूपदर्शन जाहलें| हें असो परि मज भलें आतुडविलें | उपदेशा इया ||३७२|| जीव विसंवावयाचिया चाडा| सैंघ धांवाधांवी करितसे बापुडा| परि सोयही कवणेंकडां| न लभे एथ ||३७३|| ऐसें विश्वरूपाचिया महामारी| जीवित्व गेलें आहें चराचरीं| जी न बोलें तरि काय करीं| कैसेनि राहें ? ||३७४|| दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि | दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ||२५|| पैं अखंड डोळ्यांपुढें| फुटलें जैसें महाभयाचें भांडें| तैशीं तुझीं मुखें वितंडें| पसरलीं देखें ||३७५|| असो दांत दाढांची दाटी| न झांकवे मा दों दों वोठीं| सैंघ प्रळयशस्त्रांचिया दाट कांटी| लागलिया जैशा ||३७६|| जैसें तक्षका विष भरलें| हो कां जे काळरात्रीं भूत संचरलें| कीं आग्नेयास्त्र परजिलें| वज्राग्नि जैसें ||३७७|| तैशीं तुझीं वक्त्रें प्रचंडें| वरि आवेश हा बाहेरी वोसंडे| आले मरणरसाचे लोंढे| आम्हांवरी ||३७८|| संहारसमयींचा चंडानिळु| आणि महाकल्पांत प्रळयानळु| या दोहीं जैं होय मेळु| तैं काय एक न जळे ? ||३७९|| तैसीं संहारकें तुझीं मुखें| देखोनि धीरु कां आम्हां पारुखे ? | आतां भुललों मी दिशा न देखें| आपणपें नेणें ||३८०|| मोटकें विश्वरूप डोळां देखिलें| आणि सुखाचें अवर्षण पडिलें| आतां जापाणीं जापाणीं आपुलें| अस्ताव्यस्त हें ||३८१|| ऐसें करिसी म्हणौनि जरी जाणें| तरी हे गोष्टी सांगावीं कां मी म्हणें| आतां एक वेळ वांचवी जी प्राणें | या स्वरूपप्रळयापासोनि ||३८२|| जरी तूं गोसावी आमुचा अनंता| तरी सुईं वोडण माझिया जीविता| सांटवीं पसारा हा मागुता| महामारीचा ||३८३|| आइकें सकळ देवांचिया परदेवते| तुवां चैतन्यें गा विश्व वसतें| तें विसरलासी हें उपरतें| संहारूं आदरिलें ||३८४|| म्हणौनि वेगीं प्रसन्न होईं देवराया| संहरीं संहरीं आपुली माया| काढीं मातें महाभया- | पासोनियां ||३८५|| हा ठायवरी पुढतपुढतीं| तूंतें म्हणिजे बहुवा काकुळती| ऐसा मी विश्वमूर्ती| भेडका जाहलों ||३८६|| जैं अमरावतीये आला धाडा| तैं म्यां एकलेनि केला उवेडा| जो मी काळाचियाही तोंडा| वासिपु न धरीं ||३८७|| परी तया आंतुल नव्हे हें देवा| एथ मृत्यूसही करूनि चढावा| तुवां आमुचाचि घोटू भरावा| या सकळ विश्वेंसीं ||३८८|| कैसा नव्हता प्रळयाचा वेळु| गोखा तूंचि मिनलासि काळु| बापुडा हा त्रिभुवनगोळु| अल्पायु जाहला ||३८९|| अहा भाग्या विपरीता| विघ्न उठिलें शांत करितां| कटाकटा विश्व गेलें आतां| तूं लागलासि ग्रासूं ||३९०|| हें नव्हे मा रोकडें| सैंघ पसरूनियां तोंडें| कवळितासि चहूंकडे| सैन्यें इयें ||३९१|| अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः | भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथाऽसौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ||२६|| नोहेति ? हे कौरवकुळींचे वीर| आंधळिया धृतराष्ट्राचे कुमर| हे गेले गेले सहपरिवार| तुझिया वदनीं ||३९२|| आणि जे जे यांचेनि सावायें| आले देशोदेशींचे राये| तयांचें सांगावया जावों न लाहे| ऐसें सरकटित आहासी ||३९३|| मदमुखाचिया संघटा| घेत आहासि घटघटां| आरणीं हन थाटा| देतासि मिठी ||३९४|| जंत्रावरिचील मार| पदातींचे मोगर| मुखाआंत भार| हारपताति मा ||३९५|| कृतांताचिया जावळी| जें एकचि विश्वातें गिळी| तियें कोटीवरी सगळीं| गिळितासि शस्त्रें ||३९६|| चतुरंगा परिवारा| संजोडियां रहंवरां| दांत न लाविसी मा परमेश्वरा| कसा तुष्टलासि बरवा ||३९७|| हां गा भीष्माऐसा कवणु| सत्यशौर्यनिपुणु| तोही आणि ब्राह्मण द्रोणु| ग्रासिलासि कटकटा ||३९८|| अहा सहस्रकराचा कुमरु| एथ गेला गेला कर्णवीरु| आणि आमुचिया आघवयांचा केरु| फेडिला देखें ||३९९|| कटकटा धातया| कैसें जाहलें अनुग्रहा यया| मियां प्रार्थूनि जगा बापुडिया| आणिलें मरण ||४००|| मागां थोडिया बहुवा उपपत्ती| येणें सांगितलिया विभूती| तैसा नसेचि मा पुढती| बैसलों पुसों ||४०१|| म्हणौनि भोग्य तें त्रिशुद्धी न चुके| आणि बुद्धिही होणारासारिखी ठाके| माझ्या कपाळीं पिटावें लोकें | तें लोटेल कांह्यां ||४०२|| पूर्वीं अमृतही हातां आलें| परी देव नसतीचि उगले| मग काळकूट उठविलें| शेवटीं जैसें ||४०३|| परी तें एकबगीं थोडें| केलिया प्रतिकारामाजिवडें| आणि तिये अवसरीचें तें सांकडें| निस्तरविलें शंभू ||४०४|| आतां हा जळतां वारा कें वेंटाळे ? | कोणा हे विषा भरलें गगन गिळे ? | महाकाळेंसि कें खेळें ? | आंगवत असे ||४०५|| ऐसा अर्जुन दुःखें शिणतु| शोचित असे जिवाआंतु| परी न देखें तो प्रस्तुतु| अभिप्राय देवाचा ||४०६|| जे मी मारिता हे कौरव मरते| ऐसेनि वेंटाळिला होता मोहें बहुतें| तो फेडावयालागीं अनंतें| हें दाखविलें निज ||४०७|| अरे कोण्ही कोणातें न मारी| एथ मीचि हो सर्व संहारीं| हें विश्वरूपव्याजें हरी| प्रकटित असे ||४०८|| परी वायांचि व्याकुलता| ते न चोजवेचि पंडुसुता| मग अहा कंपु नव्हता| वाढवित असे ||४०९|| वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि | केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ||२७|| तेथ म्हणे पाहा हो एके वेळे| सासिकवचेंसि दोन्ही दळें| वदनीं गेलीं आभाळें| गगनीं कां जैसीं ||४१०|| कां महाकल्पाचिया शेवटीं| जैं कृतांतु कोपला होय सृष्टी| तैं एकविसांही स्वर्गां मिठी| पाताळासकट दे ||४११|| नातरी उदासीनें दैवें| संचकाचीं वैभवें| जेथींचीं तेथ स्वभावें| विलया जाती ||४१२|| तैसीं सासिन्नलीं सैन्यें एकवटें| इये मुखीं जाहलीं प्रविष्टें| परी एकही तोंडौनि न सुटे| कैसें कर्म देखा ||४१३|| अशोकाचे अंगवसे| चघळिले कऱ्हेनि जैसे| लोक वक्त्रामाजीं तैसे| वायां गेले ||४१४|| परि सिसाळें मुकुटेंसीं| पडिली दाढांचे सांडसीं| पीठ होत कैसीं| दिसत आहाती ||४१५|| तियें रत्नें दांतांचिये सवडीं| कूट लागलें जिभेच्या बुडीं| कांहीं कांहीं आगरडीं| द्रंष्ट्रांचीं माखलीं ||४१६|| हो कां जे विश्वरूपें काळें| ग्रासिलीं लोकांचीं शरीरें बळें| परि जीवित्व देहींचीं सिसाळें| अवश्य कीं राखिलीं ||४१७|| तैसीं शरीरामाजीं चोखडीं| इयें उत्तमांगें होतीं फुडीं| म्हणौनि महाकाळाचियाही तोंडीं| परि उरलीं शेखीं ||४१८|| मग म्हणे हें काई| जन्मलयां आन मोहरचि नाहीं| जग आपैसेंचि वदनडोहीं| संचारताहे ||४१९|| यया आपेंआप आघविया सृष्टी| लागलिया आहाति वदनाच्या वाटीं| आणि हा जेथिंचिया तेथ मिठी| देतसे उगला ||४२०|| ब्रह्मादिक समस्त| उंचा मुखामाजीं धांवत| येर सामान्य हे भरत| ऐलीच वदनीं ||४२१|| आणीकही भूतजात| तें उपजलेचि ठायीं ग्रासित| परि याचिया मुखा निभ्रांत| न सुटेचि कांहीं ||४२२|| यथा नदीनाम् बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति | तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ||२८|| जैसे महानदीचे वोघ| वहिले ठाकिती समुद्राचें आंग| तैसें आघवाचिकडूनि जग| प्रवेशत मुखीं ||४२३|| आयुष्यपंथें प्राणिगणी| करोनि अहोरात्रांची मोवणी| वेगें वक्त्रामिळणीं| साधिजत आहाती ||४२४|| यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः | तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ||२९|| जळतया गिरीच्या गवखा- | माजीं घापती पतंगाचिया झाका| तैसे समग्र लोक देखा| इये वदनीं पडती ||४२५|| परि जेतुलें येथ प्रवेशलें| तें तातलिया लोहें पाणीचि पां गिळिलें| वहवटींहि पुसिलें| नामरूप तयांचें ||४२६|| लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वद्भिः | तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ||३०|| आणि येतुलाही आरोगण| करितां भुके नाहीं उणेपण| कैसें दीपन असाधारण| उदयलें यया ||४२७|| जैसा रोगिया ज्वराहूनि उठिला| का भणगा दुकाळु पाहला| तैसा जिभांचा लळलळाटु देखिला| आवाळुवें चाटितां ||४२८|| तैसें आहाराचे नांवें कांहीं| तोंडापासूनि उरलेंचि नाहीं| कैसी समसमीत नवाई| भुकेलेपणाची ||४२९|| काय सागराचा घोंटु भरावा ? | कीं पर्वताचा घांसु करावा ? | ब्रह्मकटाहो घालावा| आघवाचि दाढे ||४३०|| दिशा सगळियाचि गिळाविया| चांदिणिया चाटूनि घ्याविया| ऐसें वर्तत आहे साविया| लोलुप्य बा तुझें ||४३१|| जैसा भोगीं कामु वाढे| कां इंधनें आगीसि हाकाक चढे| तैसी खातखातांचि तोंडें| खाखांतें ठेलीं ||४३२|| कैसें एकचि केवढें पसरलें| त्रिभुवन जिव्हाग्रीं आहे टेकलें| जैसें कां कवीठ घातलें| वडवानळीं ||४३३|| ऐसीं अपार वदनें| आतां येतुलीं कैंचीं त्रिभुवनें| कां आहारु न मिळतां येणें मानें| वाढविलीं सैंघ ||४३४|| अगा हा लोकु बापुडा| जाहला वदनज्वाळां वरपडा| जैसी वणवेयाचिया वेढां| सांपडती मृगें ||४३५|| आतां तैसें यां विश्वा जाहालें| देव नव्हे हें कर्म आलें| कां जग चळचळां पांगिलें| काळजाळें ||४३६|| आतां इये अंगप्रभेचिये वागुरे| कोणीकडूनि निगिजैल चराचरें| हीं वक्त्रें नोहेती जोहारें| वोडवलीं जगा ||४३७|| आगी आपुलेनि दाहकपणें| कैसेनि पोळिजे तें नेणे| परी जया लागे तया प्राणें| सुटिकाची नाहीं ||४३८|| नातरी माझेनि तिखटपणें| कैसें निवटे हें शस्त्र कायि जाणें| कां आपुलियां मारा नेणें| विष जैसें ||४३९|| तैसी तुज कांहीं| आपुलिया उग्रपणाची सेचि नाहीं| परी ऐलीकडिले मुखीं खाई| हो सरली जगाची ||४४०|| अगा आत्मा तूं एकु| सकळ विश्वव्यापकु| तरी कां आम्हां अंतकु| तैसा वोडवलासी ? ||४४१|| तरी मियां सांडिली जीवित्वाची चाड| आणि तुवांही न धरावी भीड| मनीं आहे तें उघड| बोल पां सुखें ||४४२|| किती वाढविसी या उग्ररूपा| आंगींचें भगवंतपण आठवीं बापा| नाहीं तरी कृपा| मजपुरती पाही ||४४३|| आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद | विज्ञातुमिच्छामिभवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ||३१|| तरी एक वेळ वेदवेद्या| जी त्रिभुवनैक आद्या| विनवणी विश्ववंद्या| आइकें माझी ||४४४|| ऐसें बोलोनि वीरें| चरण नमस्कारिलें शिरें| मग म्हणें तरी सर्वेश्वरें| अवधारिजो ||४४५|| मियां होआवया समाधान| जी पुसिलें विश्वरूपध्यान| आणि एकेंचि काळें त्रिभुवन| गिळितुचि उठिलासी ||४४६|| तरी तूं कोण कां येतुलीं| इयें भ्यासुरें मुखें कां मेळविलीं| आघवियाचि करीं परिजिलीं| शस्त्रें कांह्या ||४४७|| जी जंव तंव रागीटपणें| वाढोनि गगना आणितोसि उणें| कां डोळे करूनि भिंगुळवाणे| भेडसावीत आहासी ||४४८|| एथ कृतांतेंसि देवा| कासया किजतसे हेवा| हा आपुला तुवां सांगावा| अभिप्राय मज ||४४९|| या बोला म्हणे अनंतु| मी कोण हें आहासी पुसतु| आणि कायिसयालागीं असे वाढतु| उग्रतेसी ||४५०|| श्रीभगवानुवाच | कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः | ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ||३२|| तरी मी काळु गा हें फुडें| लोक संहारावयालागीं वाढें| सैंघ पसरिलीं आहातीं तोंडें| आतां ग्रासीन हें आघवें ||४५१|| एथ अर्जुन म्हणे कटकटा| उबगिलों मागिल्या संकटा| म्हणौनि आळविला तंव वोखटा| उवाइला हा ||४५२|| तेवींचि कठिण बोलें आसतुटी| अर्जुन होईल हिंपुटी| म्हणौनि सवेंचि म्हणे किरीटी| परि आन एक असे ||४५३|| तरी आतांचिये संहारवाहरे| तुम्हीं पांडव असा बाहिरे| तेथ जातजातां धनुर्धरें| सांवरिले प्राण ||४५४|| होता मरणमहामारीं गेला| तो मागुता सावधु जाहला| मग लागला बोला| चित्त देऊं ||४५५|| ऐसें म्हणिजत आहे देवें| अर्जुना तुम्ही माझें हें जाणावें| येर जाण मी आघवें| सरलों ग्रासूं ||४५६|| वज्रानळीं प्रचंडीं| जैसी घापे लोणियाची उंडी| तैसें जग हें माझिया तोंडीं| तुवां देखिलें जें ||४५७|| तरी तयामाझारीं कांहीं| भरंवसेनि उणें नाहीं| इये वायांचि सैन्यें पाहीं| बरवतें आहाती ||४५८|| ऐसा चतुरंगाचिया संपदा| करित महाकाळेंसीं स्पर्धा| वांटिवेचिया मदा| वघळले जे ||४५९|| हे जे मिळोनियां मेळे| कुंथती वीरवृत्तीचेनि बळें| यमावरी गजदळें| वाखाणिजताती ||४६०|| म्हणती सृष्टीवरी सृष्टी करूं| आण वाहूनि मृत्यूतें मारूं| आणि जगाचा भरूं| घोंटु यया ||४६१|| पृथ्वी सगळीचि गिळूं| आकाश वरिच्यावरी जाळूं| कां बाणवरी खिळूं| वारयातें ||४६२|| बोल हतियेराहूनि तिखट| दिसती अग्निपरिस दासट| मारकपणें काळकूट| महुर म्हणत ||४६३|| तरी हे गंधर्वनगरींचे उमाळे| जाण पोकळीचे पेंडवळें| अगा चित्रीव फळें| वीर हे देखें ||४६४|| हां गा मृगजळाचा पूर आला| दळ नव्हे कापडाचा साप केला| इया शृंगारूनियां खाला| मांडिलिया पैं ||४६५|| तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् | मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||३३|| येर चेष्टवितें जें बळ| तें मागांचि मियां ग्रासिलें सकळ| आतां कोल्हारिचे वेताळ| तैसे निर्जीव हे आहाती ||४६६|| हालविती दोरी तुटली| तरी तियें खांबावरील बाहुलीं| भलतेणें लोटिलीं| उलथोनि पडती ||४६७|| तैसा सैन्याचा यया बगा| मोडतां वेळू न लगेल पैं गा| म्हणौनि उठीं उठीं वेगां| शाहाणा होईं ||४६८|| तुवां गोग्रहणाचेनि अवसरें| घातलें मोहनास्त्र एकसरें| मग विराटाचेनि महाभेडें उत्तरें| आसडूनि नागाविलें ||४६९|| आतां हें त्याहूनि निपटारें जहालें| निवटीं आयितें रण पडिलें| घेईं यश रिपु जिंतिले| एकलेनि अर्जुनें ||४७०|| आणि कोरडें यशचि नोहे| समग्र राज्यही आलें आहे| तूं निमित्तमात्रचि होयें| सव्यसाची ||४७१|| द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णां तथान्यानपि योधवीरान् | मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ||३४|| द्रोणाचा पाडु न करीं| भीष्माचें भय न धरीं| कैसेनि कर्णावरी| परजूं हें न म्हण ||४७२|| कोण उपायो जयद्रथा कीजे| हें न चिंतूं चित्त तुझें| आणिकही आथि जे जे| नावाणिगे वीर ||४७३|| तेही एक एक आघवें| चित्रींचे सिंहाडे मानावे| जैसे वोलेनि हातें घ्यावें| पुसोनियां ||४७४|| यावरी पांडवा| काइसा युद्धाचा मेळावा ? | हा आभासु गा आघवा| येर ग्रासिलें मियां ||४७५|| जेव्हां तुवां देखिले| हे माझिया वदनीं पडिले| तेव्हांचि यांचें आयुष्य सरलें| आतां रितीं सोपें ||४७६|| म्हणौनि वहिला उठीं| मियां मारिले तूं निवटीं| न रिगे शोकसंकटीं| नाथिलिया ||४७७|| आपणचि आडखिळा कीजे| तो कौतुकें जैसा विंधोनि पाडिजे| तैसें देखें गा तुझें| निमित्त आहे ||४७८|| बापा विरुद्ध जें जाहलें| तें उपजतांचि वाघें नेलें| आतां राज्येंशीं संचलें| यश तूं भोगीं ||४७९|| सावियाचि उतत होते दायाद| आणि बळिये जगीं दुर्मद| ते वधिले विशद| सायासु न लागतां ||४८०|| ऐसिया इया गोष्टी| विश्वाच्या वाक्पटीं| लिहूनि घाली किरीटी| जगामाजीं ||४८१|| संजय उवाच | एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी | नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ||३५|| ऐसी आघवीचि हे कथा| तया अपूर्ण मनोरथा| संजयो सांगे कुरुनाथा| ज्ञानदेवो म्हणे ||४८२|| मग सत्यलोकौनि गंगाजळ| सुटलिया वाजत खळाळ| तैशी वाचा विशाळ| बोलतां तया ||४८३|| नातरी महामेघांचे उमाळे| घडघडीत एके वेळे| कां घुमघुमिला मंदराचळें| क्षीराब्धी जैसा ||४८४|| तैसें गंभीरें महानादें| हें वाक्य विश्वकंदें| बोलिलें अगाधें| अनंतरूपें ||४८५|| तें अर्जुनें मोटकें ऐकिलें| आणि सुख कीं भय दुणावलें| हें नेणों परि कांपिन्नलें| सर्वांग तयाचें ||४८६|| सखोलपणें वळली मोट| आणि तैसेचि जोडले करसंपुट| वेळोवेळां ललाट| चरणीं ठेवी ||४८७|| तेवींचि कांहीं बोलों जाये| तंव गळा बुजालाचि ठाये| हें सुख कीं भय होये| हें विचारा तुम्हीं ||४८८|| परि तेव्हां देवाचेनि बोलें| अर्जुना हें ऐसें जाहलें| मियां पदांवरूनि देखिलें| श्लोकींचिया ||४८९|| मग तैसाचि भेणभेण| पुढती जोहारूनि चरण| मग म्हणे जी आपण| ऐसें बोलिलेती ||४९०|| अर्जुन उवाच | स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च | रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ||३६|| ना तरी अर्जुना मी काळु| आणि ग्रासिजे तो माझा खेळु| हा बोलु तुझा कीर अढळु| मानूं आम्ही ||४९१|| परि तुवां जी काळें| आजि स्थितीचिये वेळे| ग्रासिजे हें न मिळे| विचारासी ||४९२|| कैसेनि आंगींचें तारुण्य काढावें ? | कैचें नव्हे तें वार्धक्य आणावें ? | म्हणौनि करूं म्हणसी तें नव्हे| बहुतकरुनी ||४९३|| हां जी चौपाहारी न भरतां| कोणेही वेळे श्रीअनंता| काय माध्यान्हीं सविता| मावळतु आहे ? ||४९४|| पैं तुज अखंडिता काळा| तिन्ही आहाती जी वेळा| त्या तिन्ही परी सबळा| आपुलालिया समयीं ||४९५|| जे वेळीं हों लागे उत्पत्ती| ते वेळीं स्थिति प्रळयो हारपती| आणि स्थितिकाळीं न मिरविती| उत्पत्ति प्रळयो ||४९६|| पाठीं प्रळयाचिये वेळे| उत्पत्ति स्थिति मावळे| हें कायसेनही न ढळे| अनादि ऐसें ||४९७|| म्हणौनि आजि तंव भरें भोगें| स्थिति वर्तिजत आहे जगें| एथ ग्रसिसी तूं हें न लगे| माझ्या जीवीं ||४९८|| तंव संकेतें देव बोले| अगा या दोन्ही सैन्यांसीचि मरण पुरलें| तें प्रत्यक्षचि तुज दाविलें| येर यथाकाळें जाण ||४९९|| हा संकेतु जंव अनंता| वेळु लागला बोलतां| तंव अर्जुनें लोकु मागुता| देखिला यथास्थिति ||५००|| मग म्हणतसे देवा| तूं सूत्रीं विश्वलाघवा| जग आला मा आघवा| पूर्वस्थिति पुढती ||५०१|| परी पडिलिया दुःखसागरीं| तूं काढिसी कां जयापरी| ते कीर्ति तुझी श्रीहरी| आठवित असे ||५०२|| कीर्ति आठवितां वेळोवेळां| भोगितसें महासुखाचा सोहळा| तेथ हर्षामृतकल्लोळा| वरी लोळत आहें ||५०३|| देवा जियालेपणें जग| धरी तुझ्या ठायीं अनुराग| आणि दुष्टां तयां भंग| अधिकाधिक ||५०४|| पैं त्रिभुवनींचिया राक्षसां| महाभय तूं हृषीकेशा| म्हणौनि पळताती दाही दिशां| पैलीकडे ||५०५|| येथ सुर नर सिद्ध किन्नर| किंबहुना चराचर| ते तुज देखोनि हर्षनिर्भर| नमस्कारित असती ||५०६|| कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे | अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ||३७|| एथ गा कवणा कारणा| राक्षस हे नारायणा| न लगतीचि चरणा| पळते जाहले ||५०७|| आणि हें काय तूंतें पुसावें| येतुलें आम्हांसिही जाणवे| तरी सूर्योदयीं राहावें| कैसेनि तमें ? ||५०८|| जी तूं प्रकाशाचा आगरु| आणि जाहला आम्हासि गोचरू| म्हणौनिया निशाचरां केरु| फिटला सहजें ||५०९|| हें येतुले दिवस आम्हां| कांहीं नेणवेचि श्रीरामा| आतां देखतसों महिमा| गंभीर तुझा ||५१०|| जेथूनि नाना सृष्टींचिया वोळी| पसरती भूतग्रामाचिया वेली| तया महद्ब्रह्मातें व्याली| दैविकी इच्छा ||५११|| देवो निःसीम तत्त्व सदोदितु| देवो निःसीम गुण अनंतु| देवो निःसीम साम्य सततु| नरेंद्र देवांचा ||५१२|| जी तूं त्रिजगतिये वोलावा| अक्षर तूं सदाशिवा| तूंचि सदसत् देवा| तयाही अतीत तें तूं ||५१३|| त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् | वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||३८|| तूं प्रकृतिपुरुषांचिया आदी| जी महत्तत्वां तूंचि अवधी| स्वयें तूं अनादि| पुरातनु ||५१४|| तूं सकळ विश्वजीवन| जीवांसि तूंचि निधान| भूतभविष्याचें ज्ञान| तुझ्याचि हातीं ||५१५|| जी श्रुतीचियां लोचनां| स्वरूपसुख तूंचि अभिन्ना| त्रिभुवनाचिया आयतना| आयतन तूं ||५१६|| म्हणौनि जी परम| तूंतें म्हणिजे महाधाम| कल्पांतीं महद्ब्रह्म| तुजमाजीं रिगे ||५१७|| किंबहुना तुवां देवें| विश्व विस्तारिलें आहे आघवें| तरि अनंतरूपा वानावें| कवणें तूंतें ||५१८|| वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च | नमो नमस्तेऽस्तुसहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||३९|| नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व | अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||४०|| जी काय एक तूं नव्हसी| कवणे ठायीं नससी| हें असो जैसा आहासी| तैसिया नमो ||५१९|| वायु तूं अनंता| यम तूं नियमिता| प्राणिगणीं वसता| अग्नि तो तूं ||५२०|| वरुण तूं सोम| स्रष्टा तूं ब्रह्म| पितामहाचाही परम| आदि जनक तूं ||५२१|| आणिकही जें जें कांहीं| रूप आथि अथवा नाहीं| तया नमो तुज तैसयाही| जगन्नाथा ||५२२|| ऐसें सानुरागें चित्तें| नमन केलें पंडुसुतें| मग पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२३|| पाठीं तिये साद्यंते| न्याहाळी श्रीमूर्तीतें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२४|| पाहतां पाहतां प्रांतें| समाधान पावे चित्तें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२५|| इये चराचरीं जीं भूतें| सर्वत्र देखे तयांतें| आणि पुढती म्हणे नमस्ते| नमस्ते प्रभो ||५२६|| ऐसीं रूपें तियें अद्भुतें| आश्चर्यें स्फुरती अनंतें| तंव तंव नमस्ते| नमस्तेचि म्हणे ||५२७|| आणिक स्तुतिही नाठवे| आणि निवांतुही न बैसवे| नेणें कैसा प्रेमभावें| गाजोंचि लागे ||५२८|| किंबहुना इयापरी| नमन केलें सहस्रवरी| कीं पुढती म्हणे श्रीहरी| तुज सन्मुखा नमो ||५२९|| देवासि पाठी पोट आथि कीं नाहीं| येणें उपयोगु आम्हां काई| तरि तुज पाठिमोरेयाही| नमो स्वामी ||५३०|| उभा माझिये पाठीसीं| म्हणौनि पाठीमोरें म्हणावें तुम्हांसी| सन्मुख विन्मुख जगेंसीं| न घडें तुज ||५३१|| आतां वेगळालिया अवयवां| नेणें रूप करूं देवा| म्हणौनि नमो तुज सर्वा| सर्वात्मका ||५३२|| जी अनंतबळसंभ्रमा| तुज नमो अमित विक्रमा| सकळकाळीं समा| सर्वरूपा ||५३३|| आघविया आकाशीं जैसें| अवकाशचि होऊनि आकाश असे| तूं सर्वपणें तैसें| पातलासि सर्व ||५३४|| किंबहुना केवळ| सर्व हें तूंचि निखिळ| परी क्षीरार्णवीं कल्लोळ| पयाचे जैसे ||५३५|| म्हणौनिया देवा| तूं वेगळा नव्हसी सर्वां| हें आलें मज सद्भावा| आतां तूंचि सर्व ||५३६|| सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति | अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ||४१|| परि ऐसिया तूतें स्वामी| कहींच नेणों जी आम्ही| म्हणौनि सोयरे संबंधधर्मीं| राहाटलों तुजसीं ||५३७|| अहा थोर वाउर जाहलें| अमृतें संमार्जन म्यां केलें| वारिकें घेऊनि दिधलें| कामधेनूतें ||५३८|| परिसाचा खडवाचि जोडला| कीं फोडोनि आम्ही गाडोरा घातला| कल्पतरू तोडोनि केला| कूंप शेता ||५३९|| चिंतामणीची खाणी लागली| तेणें करें वोढाळें वोल्हांडिली| तैसी तुझी जवळिक धाडिली| सांगातीपणें ||५४०|| हें आजिचेंचि पाहें पां रोकडें| कवण झुंज हें केवढें| एथ परब्रह्म तूं उघडें| सारथी केलासी ||५४१|| यया कौरवांचिया घरा| शिष्टाई धाडिलासि दातारा| ऐसा वणिजेसाठीं जागेश्वरा| विकलासि आम्हीं ||५४२|| तूं योगियांचें समाधिसुख| कैसा जाणेचिना मी मूर्ख| उपरोधु जी सन्मुख| तुजसीं करूं ||५४३|| यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु | एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ||४२|| तूं या विश्वाची अनादि आदी| बैससी जिये सभासदीं| तेथें सोयरीकीचिया संबंधीं| रळीं बोलों ||५४४|| विपायें राउळा येवों| तरि तुझेनि अंगें मानु पावों| न मानिसी तरी जावों| रुसोनि सलगी ||५४५|| पायां लागोनि बुझावणी| तुझ्या ठायीं शारङ्गपाणी| पाहिजे ऐशी करणी| बहु केली आम्हीं ||५४६|| सजणपणाचिया वाटा| तुजपुढें बैसें उफराटा| हा पाडु काय वैकुंठा ? | परि चुकलों आम्हीं ||५४७|| देवेंसि कोलकाठी धरूं| आखाडा झोंबीलोंबी करूं| सारी खेळतां आविष्करूं| निकरेंही भांडों ||५४८|| चांग तें उराउरीं मागों| देवासि कीं बुद्धि सांगों| तेवींचि म्हणों काय लागों| तुझें आम्ही ||५४९|| ऐसा अपराधु हा आहे| जो त्रिभुवनीं न समाये| जी नेणतांचि कीं पाये| शिवतिले तुझे ||५५०|| देवो बोनयाच्या अवसरीं| लोभें कीर आठवण करी| परी माझा निसुग गर्व अवधारीं| जे फुगूनचि बैसें ||५५१|| देवाचिया भोगायतनीं| खेळतां आशंकेना मनीं| जी रिगोनियां शयनीं| सरिसा पहुडें ||५५२|| ' कृष्ण म्हणौनि हाकारिजे| यादवपणें तूंतें लेखिजे| आपली आण घालिजे| जातां तुज ||५५३|| मज एकासनीं बैसणें| कां तुझा बोलु न मानणें| हें वोतटीचेनि दाटपणें| बहुत घडलें ||५५४|| म्हणौनि काय काय आतां| निवेदिजेल अनंता| मी राशि आहें समस्तां| अपराधांचि ||५५५|| यालागीं पुढां अथवा पाठीं| जियें राहटलों बहुवें वोखटीं| तियें मायेचिया परी पोटीं| सामावीं प्रभो ||५५६|| जी कोण्ही एके वेळे| सरिता घेऊन येती खडुळें| तियें सामाविजेति सिंधुजळें| आन उपायो नाहीं ||५५७|| तैसी प्रीती कां प्रमादें| देवेंसीं मज विरुद्धें| बोलविलीं तियें मुकुंदें| उपसाहावीं जी ||५५८|| आणि देवाचेनि क्षमत्वें क्षमा| आधारु जाली आहे या भूतग्रामा| म्हणौनि जी पुरुषोत्तमा| विनवूं तें थोडें ||५५९|| तरी आतां अप्रमेया| मज शरणागता आपुलिया| क्षमा कीजो जी यया| अपराधांसि ||५६०|| पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् | न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभावः ||४३|| जी जाणितलें मियां साचें| महिमान आतां देवाचें| जे देवो होय चराचराचें| जन्मस्थान ||५६१|| हरिहरादि समस्तां| देवा तूं परम देवता| वेदांतेंही पढविता| आदिगुरु तूं ||५६२|| गंभीर तूं श्रीरामा| नाना भूतैकसमा| सकळगुणीं अप्रतिमा| अद्वितीया ||५६३|| तुजसी नाहीं सरिसें| हें प्रतिपादनचि कायसें ? | तुवां जालेनि आकाशें| सामाविलें जग ||५६४|| तया तुझेनि पाडें दुजें| ऐसें बोलतांचि लाजिजे| तेथ अधिकाची कीजे| गोठी केवीं ||५६५|| म्हणौनि त्रिभुवनीं तूं एकु| तुजसरिखा ना अधिकु| तुझा महिमा अलौकिकु| नेणिजे वानूं ||५६६|| तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् | पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ||४४|| ऐसें अर्जुनें म्हणितलें| मग पुढती दंडवत घातलें| तेथें सात्त्विकाचें आलें| भरतें तया ||५६७|| मग म्हणतसे प्रसीद प्रसीद| वाचा होतसे सद्गद| काढी जी अपराध- | समुद्रौनि मातें ||५६८|| तुज विश्वसुहृदातें कहीं| सोयरेपणें न मनूंचि पाहीं| तुज विईश्वेश्वराचिया ठायीं| ऐश्वर्य केलें ||५६९|| तूं वर्णनीय परी लोभें| मातें वर्णिसी पां सभे| तरि मियां वल्गिजे क्षोभें| अधिकाधिक ||५७०|| आतां ऐसिया अपराधां| मर्यादा नाहीं मुकुंदा| म्हणौनि रक्ष रक्ष प्रमादा| पासोनियां ||५७१|| जी हेंचि विनवावयालागीं| कैंची योग्यता माझिया आंगीं| परी अपत्य जैसें सलगी| बापेंसीं बोले ||५७२|| पुत्राचे अपराध| जरी जाहले अगाध| तरी पिता साहे निर्द्वंद्व| तैसें साहिजो जी ||५७३|| सख्याचें उद्धत| सखा साहे निवांत| तैसें तुवां समस्त| साहिजो जी ||५७४|| प्रियाचिया ठायीं सन्मान| प्रिय न पाहें सर्वथा जाण| तेवीं उच्छिष्ट काढिलें आपण| ते क्षमा कीजो जी ||५७५|| नातरी प्राणाचें सोयरें भेटे| मग जीवें भूतलीं जियें संकटें| तियें निवेदितां न वाटे| संकोचु कांहीं ||५७६|| कां उखितें आंगें जीवें| आपणपें दिधलें जिया मनोभावें| तिया कांतु मिनलिया न राहवें| हृदय जेवीं ||५७७|| तयापरी जी मियां| हें विनविलें तुमतें गोसाविया| आणि कांहीं एक म्हणावया| कारण असे ||५७८|| अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे | तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ||४५|| तरी देवेंसीं सलगी केली| जे विश्वरूपाची आळी घेतली| ते मायबापें पुरविली| स्नेहाळाचेनि ||५७९|| सुरतरूंची झाडें| आंगणीं लावावीं कोडें| देयावें कामधेनुचें पाडें| खेळावया ||५८०|| मियां नक्षत्रीं डाव पाडावा| चंद्र चेंडुवालागीं आणावा| हा छंदु सिद्धी नेला आघवा| माउलिये तुवां ||५८१|| जिया अमृतलेशालागीं सायास| तयाचा पाऊस केला चारी मास| पृथ्वी वाहून चासेचास| चिंतामणी पेरिले ||५८२|| ऐसा कृतकृत्य केला स्वामी| बहुवे लळा पाळिला तुम्हीं| दाविलें जें हरब्रह्मीं| नायकिजे कानीं ||५८३|| मा देखावयाची केउती गोठी| जयाची उपनिषदां नाहीं भेटी| ते जिव्हारींची गांठी| मजलागीं सोडिली ||५८४|| जी कल्पादीलागोनि| आजिची घडी धरुनी| माझीं जेतुलीं होउनी| गेलीं जन्में ||५८५|| तयां आघवियांचि आंतु| घरडोळी घेऊनि असें पाहतु| परि ही देखिली ऐकिली मातु| आतुडेचिना ||५८६|| बुद्धीचें जाणणें| कहीं न वचेचि याचेनि आंगणें| हे सादही अंतःकरणें| करवेचिना ||५८७|| तेथा डोळ्यां देखी होआवी| ही गोठीचि कायसया करावी| किंबहुना पूर्वीं| दृष्ट ना श्रुत ||५८८|| तें हें विश्वरूप आपुलें| तुम्हीं मज डोळां दाविलें| तरी माझें मन झालें| हृष्ट देवा ||५८९|| परि आतां ऐसी चाड जीवीं| जे तुजसीं गोठी करावी| जवळीक हे भोगावी| आलिंगावासी ||५९०|| ते याचि रूपीं करूं म्हणिजे| तरि कोणे एके मुखेंसी चावळिजे| आणि कवणा खेंव देईजे| तुज लेख नाहीं ||५९१|| म्हणौनि वारियासवें धावणें| न ठके गगना खेंव देणें| जळकेली खेळणें| समुद्रीं केउतें ? ||५९२|| यालागीं जी देवा| एथिंचें भय उपजतसे जीवा| म्हणौनि येतुला लळा पाळावा| जे पुरे हें आतां ||५९३|| पैं चराचर विनोदें पाहिजे| मग तेणें सुखें घरीं राहिजे| तैसें चतुर्भुज रूप तुझें| तो विसांवा आम्हां ||५९४|| आम्हीं योगजात अभ्यासावें| तेणें याचि अनुभवा यावें| शास्त्रांतें आलोडावें| परि सिद्धांतु तो हाचि ||५९५|| आम्हीं यजनें किजती सकळें| परि तियें फळावीं येणेंचि फळें| तीर्थें होतु सकळें| याचिलागीं ||५९६|| आणीकही कांहीं जें जें| दान पुण्य आम्हीं कीजे| तया फळीं फळ तुझें| चतुर्भुज रूप ||५९७|| ऐसी तेथिंची जीवा आवडी| म्हणौनि तेंचि देखावया लवडसवडी| वर्तत असे ते सांकडी| फेडीजे वेगीं ||५९८|| अगा जीवींचें जाणतेया| सकळ विश्ववसवितेया| प्रसन्न होईं पूजितया| देवांचिया देवा ||५९९|| किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव | तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ||४६|| कैसें नीलोत्पलातें रांवित| आकाशाही रंगु लावित| तेजाची वोज दावित| इंद्रनीळा ||६००|| जैसा परिमळ जाहला मरगजा| कां आनंदासि निघालिया भुजा| ज्याचे जानुवरी मकरध्वजा| जोडली बरव ||६०१|| मस्तकीं मुकुटातें ठेविलें| कीं मुकुटा मुकुट मस्तक झालें| शृंगारा लेणें लाधलें| आंगाचेनि जया ||६०२|| इंद्रधनुष्याचिये आडणी| माजीं मेघ गगनरंगणीं| तैसें आवरिलें शारङ्गपाणी| वैजयंतिया ||६०३|| आतां कवणी ते उदार गदा| असुरां देत कैवल्य पदा| कैसें चक्र हन गोविंदा| सौम्यतेजें मिरवे ||६०४|| किंबहुना स्वामी| तें देखावया उत्कंठित पां मी| म्हणौनि आतां तुम्हीं| तैसया होआवें ||६०५|| हे विश्वरूपाचे सोहळे| भोगूनि निवाले जी डोळे| आतां होताति आंधले| कृष्णमूर्तीलागीं ||६०६|| तें साकार कृष्णरूपडें| वांचूनि पाहों नावडे| तें न देखतां थोडें| मानिताती हे ||६०७|| आम्हां भोगमोक्षाचिया ठायीं| श्रीमूर्तीवांचूनि नाहीं| म्हणौनि तैसाचि साकारु होईं| हें सांवरीं आतां ||६०८|| श्रीभगवानुवाच | मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् | तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ||४७|| या अर्जुनाचिया बोला| विश्वरूपा विस्मयो जाहला| म्हणे ऐसा नाहीं देखिला| धसाळ कोणी ||६०९|| कोण हे वस्तु पावला आहासी| तया लाभाचा तोषु न घेसी| मा भेणें काय नेणों बोलसी| हेकाडु ऐसा ||६१०|| आम्हीं सावियाचि जैं प्रसन्न होणें| तैं आंगचिवरी म्हणें देणें| वांचोनि जीव असे वेंचणें| कवणासि गा ||६११|| तें हें तुझिये चाडे| आजि जिवाचेंचि दळवाडें| कामऊनियां येवढें| रचिलें ध्यान ||६१२|| ऐसी काय नेणों तुझिये आवडी| जाहली प्रसन्नता आमुची वेडी| म्हणौनि गौप्याचीही गुढी| उभविली जगीं ||६१३|| तें हें अपारां अपार| स्वरूप माझें परात्पर| एथूनि ते अवतार| कृष्णादिक ||६१४|| हें ज्ञानतेजाचें निखिळ| विश्वात्मक केवळ| अनंत हे अढळ| आद्य सकळां ||६१५|| हें तुजवांचोनि अर्जुना| पूर्वीं श्रुत दृष्ट नाहीं आना| जे जोगें नव्हे साधना| म्हणौनियां ||६१६|| न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः | एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ||४८|| याची सोय पातले| आणि वेदीं मौनचि घेतलें| याज्ञिकी माघौते आले| स्वर्गौनियां ||६१७|| साधकीं देखिला आयासु| म्हणौनि वाळिला योगाभ्यासु| आणि अध्ययनें सौरसु| नाहीं एथ ||६१८|| सीगेचीं सत्कर्मे| धाविन्नलीं संभ्रमें| तिहीं बहुतेकीं श्रमें| सत्यलोकु ठाकिला ||६१९|| तपीं ऐश्वर्य देखिलें| आणि उग्रपण उभयांचि सांडिलें| एक तपसाधन जें ठेलें| अपारांतरें ||६२०|| तें हें तुवां अनायासें| विश्वरूप देखिलें जैसें| इये मनुष्यलोकीं तैसें| न फवेचि कवणा ||६२१|| आजि ध्यानसंपत्तीलागीं| तूंचि एकु आथिला जगीं| हें परम भाग्य आंगीं| विरंचीही नाहीं ||६२२|| मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् | व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ||४९|| म्हणौनि विश्वरूपलाभें श्लाघ| एथिचें भय नेघ नेघ| हें वांचूनि अन्य चांग| न मनीं कांहीं ||६२३|| हां गा समुद्र अमृताचा भरला| आणि अवसांत वरपडा जाहला| मग कोणीही आथि वोसंडिला| बुडिजैल म्हणौनि ? ||६२४|| नातरी सोनयाचा डोंगरु| येसणा न चले हा थोरु| ऐसें म्हणौनि अव्हेरु| करणें घडे ? ||६२५|| दैवें चिंतामणी लेईजे| कीं हें ओझें म्हणौनि सांडिजे ? | कामधेनु दवडिजे| न पोसवे म्हणौनि ? ||६२६|| चंद्रमा आलिया घरा| म्हणिजे निगे करितोसि उबारा| पडिसायि पाडितोसि दिनकरा| परता सर ||६२७|| तैसें ऐश्वर्य हें महातेज| आजि हातां आलें आहे सहज| कीं एथ तुज गजबज| होआवी कां ? ||६२८|| परि नेणसीच गांवढिया| काय कोपों आतां धनंजया| आंग सांडोनि छाया| आलिंगितोसि मा ? ||६२९|| हें नव्हे जो मी साचें| एथ मन करूनियां काचें| प्रेम धरिसी अवगणियेचें| चतुर्भुज जें ||६३०|| तरि अझुनिवरी पार्था| सांडीं सांडीं हे व्यवस्था| इयेविषयीं आस्था| करिसी झणें ||६३१|| हें रूप जरी घोर| विकृति आणि थोर| तरी कृतनिश्चयाचें घर| हेंचि करीं ||६३२|| कृपण चित्तवृत्ति जैसी| रोंवोनि घालीं ठेवयापासीं| मग नुसधेनि देहेंसीं| आपण असे ||६३३|| कां अजातपक्षिया जवळा| जीव बैसवूनि अविसाळां| पक्षिणी अंतराळा- | माजीं जाय ||६३४|| नाना गाय चरे डोंगरीं| परि चित्त बांधिलें वत्सें घरीं| प्रेम एथिंचें करीं| स्थानपती ||६३५|| येरें वरिचिलेनि चित्तें| बाह्य सख्य सुखापुरतें| भोगिजो कां श्रीमूर्तींतें| चतुर्भुज ||६३६|| परि पुढतपुढती पांडवा| हा एक बोलु न विसरावा| जे इये रूपींहूनि सद्भावा| नेदावें निघों ||६३७|| हें कहीं नव्हतेंचि देखिलें| म्हणौनि भय जें तुज उपजलें| तें सांडीं एथ संचलें| असों दे प्रेम ||६३८|| आतां करूं तुजयासारखें| ऐसें म्हणितलें विश्वतोमुखें| तरि मागील रूप सुखें| न्याहाळीं पां तूं ||६३९|| संजय उवाच | इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः | आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ||५०|| ऐसें वाक्य बोलतखेंवो| मागुता मनुष्य जाहला देवो| हें ना परि नवलावो| आवडीचा तिये ||६४०|| श्रीकृष्णचि कैवल्य उघडें| वरि सर्वस्व विश्वरूपायेवढें| हातीं दिधलें कीं नावडे| अर्जुनासि ||६४१|| वस्तु घेऊनि वाळिजे| जैसें रत्नासि दूषण ठेविजे| नातरी कन्या पाहूनियां म्हणिजे| मना न ये हे ||६४२|| तया विश्वरूपायेवढी दशा| करितां प्रीतीचा वाढू कैसा| सेल दीधलीसे उपदेशा| किरीटीसिं देवें ||६४३|| मोडोनि भांगाराचा रवा| लेणें घडिलें आपलिया सवा| मग नावडे जरी जीवा| तरी आटिजे पुढती ||६४४|| तैसें शिष्याचिये प्रीती जाहलें| कृष्णत्व होतें तें विश्वरूप केलें| तें मना नयेचि मग आणिलें| कृष्णपण मागुतें ||६४५|| हा ठाववरी शिष्याची निकसी| सहातें गुरु आहाती कवणे देशीं ? | परि नेणिजे आवडी कैशी| संजयो म्हणे ||६४६|| मग विश्वरूप व्यापुनि भोंवतें| जें दिव्य तेज प्रगटलें होतें| तेंचि सामावलें मागुतें| कृष्णरूपीं तये ||६४७|| जैसें त्वंपद हें आघवें| तत्पदीं सामावे| अथवा द्रुमाकारु सांठवे| बीजकणिके जेवीं ||६४८|| नातरी स्वप्नसंभ्रमु जैसा| गिळी चेइली जीवदशा| श्रीकृष्णें योगु हा तैसा| संहारिला तो ||६४९|| जैसी प्रभा हारपली बिंबीं| कीं जळदसंपत्ती नभीं| नाना भरतें सिंधुगर्भीं| रिगालें राया ||६५०|| हो कां जे कृष्णाकृतीचिये मोडी| होती विश्वरूपपटाची घडी| ते अर्जुनाचिये आवडी| उकलूनि दाविली ||६५१|| तंव परिमाणा रंगु| तेणें देखिलें साविया चांगु| तेथ ग्राहकीये नव्हेचि लागु| म्हणौनि घडी केली पुढती ||६५२|| तैसें वाढीचेनि बहुवसपणें| रूपें विश्व जिंतिलें जेणें| तें सौम्य कोडिसवाणें| साकार जाहलें ||६५३|| किंबहुना अनंतें| धरिलें धाकुटपण मागुतें| परि आश्वासिलें पार्थातें| बिहालियासी ||६५४|| जो स्वप्नीं स्वर्गा गेला| तो अवसांत जैसा चेइला| तैसा विस्मयो जाहला| किरीटीसी ||६५५|| नातरी गुरुकृपेसवें| वोसरलेया प्रपंचज्ञान आघवें| स्फुरे तत्त्व तेवीं पांडवें| श्रीमूर्ति देखिली ||६५६|| तया पांडवा ऐसें चित्तीं| आड विश्वरूपाची जवनिका होती| ते फिटोनि गेली परौती| हें भलें जाहलें ||६५७|| काय काळातें जिणोनि आला| कीं महावातु मागां सांडिला| आपुलिया बाही उतरला| सातही सिंधु ||६५८|| ऐसा संतोष बहु चित्तें| घेइजत असे पंडुसुतें| विश्वरूपापाठीं कृष्णातें| देखोनियां ||६५९|| मग सूर्याचिया अस्तमानीं| मागुती तारा उगवती गगनीं| तैसी देखों लागला अवनीं| लोकांसहित ||६६०|| पाहे तंव तेंचि कुरुक्षेत्र| तैसेंचि देखे दोहीं भागीं गोत्र| वीर वर्षताती शस्त्रास्त्र| संघाटवरी ||६६१|| तया बाणांचिया मांडवाआंतु| तैसाचि रथु देखे निवांतु| धुरे बैसला लक्ष्मीकांतु| आपण तळीं ||६६२|| अर्जुन उवाच | दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन | इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृउतिं गतः ||५१|| एवं मागील जैसें तैसें| तेणें देखिलें वीरविलासें| मग म्हणे जियालों ऐसें| जाहलें आतां ||६६३|| बुद्धीतें सांडोनि ज्ञान| भेणें वळघलें रान| अहंकारेंसी मन| देशोधडी जाहलें ||६६४|| इंद्रियें प्रवृत्ती भुललीं| वाचा प्राणा चुकली| ऐसें आपांपरी होती जाली| शरीरग्रामीं ||६६५|| तियें आघवींचि मागुतीं| जिवंत भेटलीं प्रकृती| आतां जिताणें श्रीमूर्ती| जाहलें मियां ||६६६|| ऐसें सुख जीवीं घेतलें| मग श्रीकृष्णातें म्हणितलें| मियां तुमचें रूप देखिलें| मानुष हें ||६६७|| हें रूप दाखवणें देवराया| कीं मज अपत्या चुकलिया| बुझावोनि तुवां माया| स्तनपान दिधलें ||६६८|| जी विश्वरूपाचिया सागरीं| होतों तरंग मवित वांवेवरी| तो इये निजमूर्तीच्या तीरीं| निगालों आतां ||६६९|| आइकें द्वारकापुरसुहाडा| मज सुकतिया जी झाडा| हे भेटी नव्हे बहुडा| मेघाचा केला ||६७०|| जी सावियाची तृषा फुटला| तया मज अमृतसिंधु हा भेटला| आतां जिणयाचा जाहला| भरंवसा मज ||६७१|| माझिया हृदयरंगणीं| होताहे हरिखलतांची लावणी| सुखेंसीं बुझावणी| जाहली मज ||६७२|| श्रीभगवानुवाच | सुदुदर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम | देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शकाङ्क्षिणः ||५२|| यया पार्थाचिया बोलासवें| हें काय म्हणितलें देवें| तुवां प्रेम ठेवूनि यावें| विश्वरूपीं कीं ||६७३|| मग इये श्रीमूर्ती| भेटावें सडिया आयती| ते शिकवण सुभद्रापती| विसरलासि मा ||६७४|| अगा आंधळिया अर्जुना| हाता आलिया मेरूही होय साना| ऐसा आथी मना| चुकीचा भावो ||६७५|| तरी विश्वात्मक रूपडें| जें दाविलें आम्ही तुजपुढें| तें शंभूही परि न जोडे| तपें करितां ||६७६|| आणि अष्टांगादिसंकटीं| योगी शिणताति किरीटी| परि अवसरु नाहीं भेटी| जयाचिये ||६७७|| तें विश्वरूप एकादे वेळ| कैसेनि देखों अळुमाळ| ऐसें स्मरतां काळ| जातसे देवां ||६७८|| आशेचिये अंजुळी| ठेऊनि हृदयाचिया निडळीं| चातक निराळीं| लागले जैसे ||६७९|| तैसे उत्कंठा निर्भर| होऊनियां सुरवर| घोकीत आठही पाहार| भेटी जयाची ||६८०|| परि विश्वरूपासारिखें| स्वप्नींही कोण्ही न देखे| तें प्रत्यक्ष तुवां सुखें| देखिलें हें ||६८१|| नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया | शक्यं एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ||५३|| पैं उपायांसि वाटा| न वाहती एथ सुभटा| साहीसहित वोहटा| वाहिला वेदीं ||६८२|| मज विश्वरूपाचिया मोहरा| चालावया धनुर्धरा| तपांचियाही संभारा| नव्हेचि लागु ||६८३|| आणि दानादि कीर कानडें| मी यज्ञींही तैसा न सांपडें| जैसेनि कां सुरवाडें| देखिला तुवां ||६८४|| तैसा मी एकीचि परि| आंतुडें गा अवधारीं| जरी भक्ति येऊनि वरी| चित्तातें गा ||६८५|| भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन | ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||५४|| परि तेचि भक्ति ऐसी| पर्जन्याची सुटिका जैसी| धरावांचूनि अनारिसी| गतीचि नेणें ||६८६|| कां सकळ जळसंपत्ती| घेऊनि समुद्रातें गिंवसिती| गंगा जैसी अनन्यगती| मिळालीचि मिळे ||६८७|| तैसें सर्वभावसंभारें| न धरत प्रेम एकसरें| मजमाजीं संचरे| मीचि होऊनि ||६८८|| आणि तेवींचि मी ऐसा| थडिये माझारीं सरिसा| क्षीराब्धि कां जैसा| क्षीराचाचि ||६८९|| तैसें मजलागुनि मुंगीवरी| किंबहुना चराचरीं| भजनासि कां दुसरी| परीचि नाहीं ||६९०|| तयाचि क्षणासवें| एवंविध मी जाणवें| जाणितला तरी स्वभावें| दृष्टही होय ||६९१|| मग इंधनीं अग्नि उद्दीपें| आणि इंधन हें भाष हारपे| तें अग्निचि होऊनि आरोपें| मूर्त जेवीं ||६९२|| कां उदय न कीजे तेजाकारें| तंव गगनचि होऊनि असे आंधारें| मग उदईलिया एकसरें| प्रकाशु होय ||६९३|| तैसें माझिये साक्षात्कारीं| सरे अहंकाराची वारी| अहंकारलोपीं अवधारीं| द्वैत जाय ||६९४|| मग मी तो हें आघवें| एक मीचि आथी स्वभावें| किंबहुना सामावे| समरसें तो ||६९५|| मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः | निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ||५५|| ॐ इति श्रीमद्भग्वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगोनाम एकादशोऽध्यायः ||११अ || जो मजचि एकालागीं| कर्में वाहातसे आंगीं| जया मीवांचोनि जगीं| गोमटें नाहीं ||६९६|| दृष्टादृष्ट सकळ| जयाचें मीचि केवळ| जेणें जिणयाचें फळ| मजचि नाम ठेविलें ||६९७|| मग भूतें हे भाष विसरला| जे दिठी मीचि आहें सूदला| म्हणौनि निर्वैर जाहला| सर्वत्र भजे ||६९८|| ऐसा जो भक्तु होये| तयाचें त्रिधातुक हें जैं जाये| तैं मीचि होउनि ठायें| पांडवा गा ||६९९|| ऐसें जगदुदरदोंदिलें| तेणें करुणारसरसाळें| संजयो म्हणे बोलिलें| श्रीकृष्णदेवें ||७००|| ययावरी तो पंडुकुमरु| जाहला आनंदसंपदा थोरु| आणि कृष्णचरणचतुरु| एक तो जगीं ||७०१|| तेणें देवाचिया दोनही मूर्ती| निकिया न्याहाळिलिया चित्तीं| तंव विश्वरूपाहूनि कृष्णाकृतीं| देखिला लाभु ||७०२|| परि तयाचिये जाणिवे| मानु न कीजेचि देवें| जें व्यापकाहूनि नव्हे| एकदेशी ||७०३|| हेंचि समर्थावयालागीं| एक दोन चांगी| उपपत्ती शारङ्गी| दाविता जाहला ||७०४|| तिया ऐकोनि सुभद्राकांतु| चित्तीं आहे म्हणतु| तरि होय बरवें दोन्हीं आंतु| तें पुढती पुसों ||७०५|| ऐसा आलोचु करूनि जीवीं| आतां पुसती वोज बरवी| आदरील ते परिसावी| पुढें कथा ||७०६|| प्रांजळ ओंवीप्रबंधें| गोष्टी सांगिजेल विनोदें| तें परिसा आनंदें| ज्ञानदेवो म्हणे ||७०७|| भरोनि सद्भावाची अंजुळी| मियां वोंवियाफुलें मोकळीं| अर्पिलीं अंघ्रियुगुलीं| विश्वरूपाच्या ||७०८|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां एकादशोऽध्यायः ||

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