ज्ञानेश्वरी अध्याय १२

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:29:15
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १२ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय बारावा | भक्तियोगः | जय जय वो शुद्धे| उदारे प्रसिद्धे| अनवरत आनंदे| वर्षतिये ||१|| विषयव्याळें मिठी| दिधलिया नुठी ताठी| ते तुझिये गुरुकृपादृष्टी| निर्विष होय ||२|| तरी कवणातें तापु पोळी| कैसेनि वो शोकु जाळी| जरी प्रसादरसकल्लोळीं| पुरें येसि तूं ||३|| योगसुखाचे सोहळे| सेवकां तुझेनि स्नेहाळे| सोऽहंसिद्धीचे लळे| पाळिसी तूं ||४|| आधारशक्तीचिया अंकीं| वाढविसी कौतुकीं| हृदयाकाशपल्लकीं| परीये देसी निजे ||५|| प्रत्यक्ज्योतीची वोवाळणी| करिसी मनपवनाचीं खेळणीं| आत्मसुखाची बाळलेणीं| लेवविसी ||६|| सतरावियेचें स्तन्य देसी| अनुहताचा हल्लरू गासी| समाधिबोधें निजविसी| बुझाऊनि ||७|| म्हणौनि साधकां तूं माउली| पिके सारस्वत तुझिया पाउलीं| या कारणें मी साउली| न संडीं तुझी ||८|| अहो सद्गुरुचिये कृपादृष्टी| तुझें कारुण्य जयातें अधिष्ठी| तो सकलविद्यांचिये सृष्टीं| धात्रा होय ||९|| म्हणौनि अंबे श्रीमंते| निजजनकल्पलते| आज्ञापीं मातें| ग्रंथनिरूपणीं ||१०|| नवरसीं भरवीं सागरु| करवीं उचित रत्नांचे आगरु| भावार्थाचे गिरिवरु| निफजवीं माये ||११|| साहित्यसोनियाचिया खाणी| उघडवीं देशियेचिया क्षोणीं| विवेकवल्लीची लावणी| हों देई सैंघ ||१२|| संवादफळनिधानें| प्रमेयाचीं उद्यानें| लावीं म्हणे गहनें| निरंतर ||१३|| पाखांडाचे दरकुटे| मोडीं वाग्वाद अव्हांटे| कुतर्कांचीं दुष्टें| सावजें फेडीं ||१४|| श्रीकृष्णगुणीं मातें| सर्वत्र करीं वो सरतें| राणिवे बैसवी श्रोते| श्रवणाचिये ||१५|| ये मऱ्हाठियेचिया नगरीं| ब्रह्मविद्येचा सुकाळु करीं| घेणें देणें सुखचिवरी| हों देईं या जगा ||१६|| तूं आपुलेनि स्नेहपल्लवें| मातें पांघुरविशील सदैवें| तरी आतांचि हें आघवें| निर्मीन माये ||१७|| इये विनवणीयेसाठीं| अवलोकिलें गुरु कृपादृष्टी| म्हणे गीतार्थेंसी उठी| न बोलें बहु ||१८|| तेथ जी जी महाप्रसादु| म्हणौनि साविया जाहला आनन्दु| आतां निरोपीन प्रबंधु| अवधान दीजे ||१९|| अर्जुन उवाच | एवं सतत युक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते | ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ||१|| तरी सकलवीराधिराजु| जो सोमवंशीं विजयध्वजु| तो बोलता जाहला आत्मजु| पंडुनृपाचा ||२०|| कृष्णातें म्हणे अवधारिलें| आपण विश्वरूप मज दाविलें| तें नवल म्हणौनि बिहालें| चित्त माझें ||२१|| आणि इये कृष्णमूर्तीची सवे| यालागीं सोय धरिली जीवें| तंव नको म्हणोनि देवें| वारिलें मातें ||२२|| तरी व्यक्त आणि अव्यक्त| हें तूंचि एक निभ्रांत| भक्ती पाविजे व्यक्त| अव्यक्त योगें ||२३|| या दोनी जी वाटा| तूंतें पावावया वैकुंठा| व्यक्ताव्यक्त दारवंठां| रिगिजे येथ ||२४|| पैं जे वानी श्यातुका| तेचि वेगळिये वाला येका| म्हणौनि एकदेशिया व्यापका| सरिसा पाडू ||२५|| अमृताचिया सागरीं| जे लाभे सामर्थ्याची थोरी| तेचि दे अमृतलहरी| चुळीं घेतलेया ||२६|| हे कीर माझ्या चित्तीं| प्रतीति आथि जी निरुती| परि पुसणें योगपती| तें याचिलागीं ||२७|| जें देवा तुम्हीं नावेक| अंगिकारिलें व्यापक| तें साच कीं कवतिक| हें जाणावया ||२८|| तरी तुजलागीं कर्म| तूंचि जयांचें परम| भक्तीसी मनोधर्म| विकोनि घातला ||२९|| इत्यादि सर्वीं परीं| जे भक्त तूंतें श्रीहरी| बांधोनियां जिव्हारीं| उपासिती ||३०|| आणि जें प्रणवापैलीकडे| वैखरीयेसी जें कानडें| कायिसयाहि सांगडें| नव्हेचि जें वस्तु ||३१|| तें अक्षर जी अव्यक्त| निर्देश देशरहित| सोऽहंभावें उपासित| ज्ञानिये जे ||३२|| तयां आणि जी भक्तां| येरयेरांमाजी अनंता| कवणें योगु तत्त्वतां| जाणितला सांगा ||३३|| इया किरीटीचिया बोला| तो जगद्बंधु संतोषला| म्हणे हो प्रश्नु भला| जाणसी करूं ||३४|| श्री भगवानुवाच | मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते | श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ||२|| तरी अस्तुगिरीचियां उपकंठीं| रिगालिया रविबिंबापाठीं| रश्मी जैसे किरीटी| संचरती ||३५|| कां वर्षाकाळीं सरिता| जैसी चढों लागें पांडुसुता| तैसी नीच नवी भजतां| श्रद्धा दिसे ||३६|| परी ठाकिलियाहि सागरु| जैसा मागीलही यावा अनिवारु| तिये गंगेचिये ऐसा पडिभरु| प्रेमभावा ||३७|| तैसें सर्वेंद्रियांसहित| मजमाजीं सूनि चित्त| जे रात्रिदिवस न म्हणत| उपासिती ||३८|| इयापरी जे भक्त| आपणपें मज देत| तेचि मी योगयुक्त| परम मानीं ||३९|| ये त्वक्षर्मनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते | सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवं ||३|| आणि येर तेही पांडवा| जे आरूढोनि सोऽहंभावा| झोंबती निरवयवा| अक्षरासी ||४०|| मनाची नखी न लगे| जेथ बुद्धीची दृष्टी न रिगे| ते इंद्रियां कीर जोगें| कायि होईल ? ||४१|| परी ध्यानाही कुवाडें| म्हणौनि एके ठायीं न संपडे| व्यक्तीसि माजिवडें| कवणेही नोहे ||४२|| जया सर्वत्र सर्वपणें| सर्वांही काळीं असणें| जें पावूनि चिंतवणें| हिंपुटी जाहलें ||४३|| जें होय ना नोहे| जें नाहीं ना आहे| ऐसें म्हणौनि उपाये| उपजतीचि ना ||४४|| जें चळे ना ढळे| सरे ना मैळे| तें आपुलेनीचि बळें| आंगविलें जिहीं ||४५|| सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः | ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ||४|| पैं वैराग्यमहापावकें| जाळूनि विषयांचीं कटकें| अधपलीं तवकें| इंद्रियें धरिलीं ||४६|| मग संयमाची धाटी| सूनि मुरडिलीं उफराटीं| इंद्रियें कोंडिलीं कपाटीं| हृदयाचिया ||४७|| अपानींचिया कवाडा| लावोनि आसनमुद्रा सुहाडा| मूळबंधाचा हुडा| पन्नासिला ||४८|| आशेचे लाग तोडिले| अधैर्याचे कडे झाडिले| निद्रेचें शोधिलें| काळवखें ||४९|| वज्राग्नीचिया ज्वाळीं| करूनि सप्तधातूंची होळी| व्याधींच्या सिसाळीं| पूजिलीं यंत्रें ||५०|| मग कुंडलिनियेचा टेंभा| आधारीं केला उभा| तया चोजवलें प्रभा| निमथावरी ||५१|| नवद्वारांचिया चौचकीं| बाणूनि संयतीची आडवंकी| उघडिली खिडकी| ककारांतींची ||५२|| प्राणशक्तिचामुंडे| प्रहारूनि संकल्पमेंढे| मनोमहिषाचेनि मुंडें| दिधलीं बळी ||५३|| चंद्रसूर्यां बुझावणी| करूनि अनुहताची सुडावणी| सतरावियेचें पाणी| जिंतिलें वेगीं ||५४|| मग मध्यमा मध्य विवरें| तेणें कोरिवें दादरें| ठाकिलें चवरें| ब्रह्मरंध्र ||५५|| वरी मकारांत सोपान| ते सांडोनिया गहन| काखे सूनियां गगन| भरले ब्रह्मीं ||५६|| ऐसे जे समबुद्धी| गिळावया सोऽहंसिद्धी| आंगविताती निरवधी| योगदुर्गें ||५७|| आपुलिया साटोवाटी| शून्य घेती उठाउठीं| तेही मातेंचि किरीटी| पावती गा ||५८|| वांचूनि योगचेनि बळें| अधिक कांहीं मिळे| ऐसें नाहीं आगळें| कष्टचि तया ||५९|| क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् | अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ||५|| जिहीं सकळ भूतांचिया हितीं| निरालंबीं अव्यक्तीं| पसरलिया आसक्ती| भक्तीवीण ||६०|| तयां महेन्द्रादि पदें| करिताति वाटवधें| आणि ऋद्धिसिद्धींचीं द्वंद्वें| पाडोनि ठाती ||६१|| कामक्रोधांचे विलग| उठावती अनेग| आणि शून्येंसीं आंग| झुंजवावें कीं ||६२|| ताहानें ताहानचि पियावी| भुकेलिया भूकचि खावी| अहोरात्र वावीं| मवावा वारा ||६३|| उनी दिहाचें पहुडणें| निरोधाचें वेल्हावणें| झाडासि साजणें| चाळावें गा ||६४|| शीत वेढावें| उष्ण पांघुरावें| वृष्टीचिया असावें| घरांआंतु ||६५|| किंबहुना पांडवा| हा अग्निप्रवेशु नीच नवा| भातारेंवीण करावा| तो हा योगु ||६६|| एथ स्वामीचें काज| ना वापिकें व्याज| परी मरणेंसीं झुंज| नीच नवें ||६७|| ऐसें मृत्यूहूनि तीख| कां घोंटे कढत विख| डोंगर गिळितां मुख| न फाटे काई ? ||६८|| म्हणौनि योगाचियां वाटा| जे निगाले गा सुभटा| तयां दुःखाचाचि शेलवांटा| भागा आला ||६९|| पाहें पां लोहाचे चणे| जैं बोचरिया पडती खाणें| तैं पोट भरणें कीं प्राणें| शुद्धी म्हणों ||७०|| म्हणौनि समुद्र बाहीं| तरणे आथि केंही| कां गगनामाजीं पाईं| खोलिजतु असें ? ||७१|| वळघलिया रणाची थाटी| आंगीं न लागतां कांठी| सूर्याची पाउटी| कां होय गा ||७२|| यालागीं पांगुळा हेवा| नव्हे वायूसि पांडवा| तेवीं देहवंता जीवां| अव्यक्तीं गति ||७३|| ऐसाही जरी धिंवसा| बांधोनियां आकाशा| झोंबती तरी क्लेशा| पात्र होती ||७४|| म्हणौनि येर ते पार्था| नेणतीचि हे व्यथा| जे कां भक्तिपंथा| वोटंगले ||७५|| ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः | अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ||६|| कर्मेंद्रियें सुखें| करिती कर्में अशेखें| जियें कां वर्णविशेखें| भागा आलीं ||७६|| विधीतें पाळित| निषेधातें गाळित| मज देऊनि जाळित| कर्मफळें ||७७|| ययापरी पाहीं| अर्जुना माझें ठाईं| संन्यासूनि नाहीं| करिती कर्में ||७८|| आणीकही जे जे सर्व| कायिक वाचिक मानसिक भाव| तयां मीवांचूनि धांव| आनौती नाहीं ||७९|| ऐसे जे मत्पर| उपासिती निरंतर| ध्यानमिषें घर| माझें झालें ||८०|| जयांचिये आवडी| केली मजशीं कुळवाडी| भोग मोक्ष बापुडीं| त्यजिलीं कुळें ||८१|| ऐसे अनन्ययोगें| विकले जीवें मनें आंगें| तयांचे कायि एक सांगें| जें सर्व मी करीं ||८२|| तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् | भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ||७|| किंबहुना धनुर्धरा| जो मातेचिया ये उदरा| तो मातेचा सोयरा| केतुला पां ||८३|| तेवीं मी तयां| जैसे असती तैसियां| कळिकाळ नोकोनियां| घेतला पट्टा ||८४|| एऱ्हवीं तरी माझियां भक्तां| आणि संसाराची चिंता| काय समर्थाची कांता| कोरान्न मागे ||८५|| तैसे ते माझें| कलत्र हें जाणिजे| कायिसेनिही न लजें| तयांचेनि मी ||८६|| जन्ममृत्यूचिया लाटीं| झळंबती इया सृष्टी| तें देखोनियां पोटीं| ऐसें जाहलें ||८७|| भवसिंधूचेनि माजें| कवणासि धाकु नुपजे| तेथ जरी कीं माझे| बिहिती हन ||८८|| म्हणौनि गा पांडवा| मूर्तीचा मेळावा| करूनि त्यांचिया गांवा| धांवतु आलों ||८९|| नामाचिया सहस्रवरी| नावा इया अवधारीं| सजूनियां संसारीं| तारू जाहलों ||९०|| सडे जे देखिले| ते ध्यानकासे लाविले| परीग्रहीं घातले| तरियावरी ||९१|| प्रेमाची पेटी| बांधली एकाचिया पोटीं| मग आणिले तटीं| सायुज्याचिया ||९२|| परी भक्तांचेनि नांवें| चतुष्पदादि आघवे| वैकुंठींचिये राणिवे| योग्य केले ||९३|| म्हणौनि गा भक्तां| नाहीं एकही चिंता| तयांतें समुद्धर्ता| आथि मी सदा ||९४|| आणि जेव्हांचि कां भक्तीं| दीधली आपुली चित्तवृत्ती| तेव्हांचि मज सूति| त्यांचिये नाटीं ||९५|| याकारणें गा भक्तराया| हा मंत्र तुवां धनंजया| शिकिजे जे यया| मार्गा भजिजे ||९६|| मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय | निवसिष्यसि मय्येव अत उर्ध्वं न संशयः ||८|| अगा मानस हें एक| माझ्या स्वरूपीं वृत्तिक| करूनि घालीं निष्टंक| बुद्धि निश्चयेंसीं ||९७|| इयें दोनीं सरिसीं| मजमाजीं प्रेमेसीं| रिगालीं तरी पावसी| मातें तूं गा ||९८|| जे मन बुद्धि इहीं| घर केलें माझ्यां ठायीं| तरी सांगें मग काइ| मी तू ऐसें उरे ? ||९९|| म्हणौनि दीप पालवे| सवेंचि तेज मालवे| कां रविबिंबासवें| प्रकाशु जाय ||१००|| उचललेया प्राणासरिसीं| इंद्रियेंही निगती जैसीं| तैसा मनोबुद्धिपाशीं| अहंकारु ये ||१०१|| म्हणौनि माझिया स्वरूपीं| मनबुद्धि इयें निक्षेपीं| येतुलेनि सर्वव्यापी| मीचि होसी ||१०२|| यया बोला कांहीं| अनारिसें नाहीं| आपली आण पाहीं| वाहतु असें गा ||१०३|| अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् | अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनन्जय ||९|| अथवा हें चित्त| मनबुद्धिसहित| माझ्यां हातीं अचुंबित| न शकसी देवों ||१०४|| तरी गा ऐसें करीं| यया आठां पाहारांमाझारीं| मोटकें निमिषभरी| देतु जाय ||१०५|| मग जें जें कां निमिख| देखेल माझें सुख| तेतुलें अरोचक| विषयीं घेईल ||१०६|| जैसा शरत्कालु रिगे| आणि सरिता वोहटूं लागे| तैसें चित्त काढेल वेगें| प्रपंचौनि ||१०७|| मग पुनवेहूनि जैसें| शशिबिंब दिसेंदिसें| हारपत अंवसे| नाहींचि होय ||१०८|| तैसें भोगाआंतूनि निगतां| चित्त मजमाजीं रिगतां| हळूहळू पंडुसुता| मीचि होईल ||१०९|| अगा अभ्यासयोगु म्हणिजे| तो हा एकु जाणिजे| येणें कांहीं न निपजे| ऐसें नाहीं ||११०|| पैं अभ्यासाचेनि बळें| एकां गति अंतराळे| व्याघ्र सर्प प्रांजळे| केले एकीं ||१११|| विष कीं आहारीं पडे| समुद्रीं पायवाट जोडे| एकीं वाग्ब्रह्म थोकडें| अभ्यासें केलें ||११२|| म्हणौनि अभ्यासासी कांहीं| सर्वथा दुष्कर नाहीं| यालागी माझ्या ठायीं| अभ्यासें मीळ ||११३|| अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव | मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ||१०|| कां अभ्यासाही लागीं| कसु नाहीं तुझिया अंगीं| तरी आहासी जया भागीं| तैसाचि आस ||११४|| इंद्रियें न कोंडीं| भोगातें न तोडीं| अभिमानु न संडीं| स्वजातीचा ||११५|| कुळधर्मु चाळीं| विधिनिषेध पाळीं| मग सुखें तुज सरळी| दिधली आहे ||११६|| परी मनें वाचा देहें| जैसा जो व्यापारु होये| तो मी करीतु आहें| ऐसें न म्हणें ||११७|| करणें कां न करणें| हें आघवें तोचि जाणे| विश्व चळतसे जेणें| परमात्मेनि ||११८|| उणयापुरेयाचें कांहीं| उरों नेदी आपुलिया ठायीं| स्वजाती करूनि घेईं| जीवित्व हें ||११९|| माळियें जेउतें नेलें| तेउतें निवांतचि गेलें| तया पाणिया ऐसें केलें| होआवें गा ||१२०|| म्हणौनि प्रवृत्ति आणि निवृत्ती| इयें वोझीं नेघे मती| अखंड चित्तवृत्ती| माझ्या ठायीं ||१२१|| एऱ्हवीं तरी सुभटा| उजू कां अव्हाटां| रथु काई खटपटा| करितु असे ? ||१२२|| आणि जें जें कर्म निपजे| तें थोडें बहु न म्हणिजे| निवांतचि अर्पिजे| माझ्यां ठायीं ||१२३|| ऐसिया मद्भावना| तनुत्यागीं अर्जुना| तूं सायुज्य सदना| माझिया येसी ||१२४|| अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः | सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ||११|| ना तरी हेंही तूज| नेदवे कर्म मज| तरी तूं गा बुझ| पंडुकुमरा ||१२५|| बुद्धीचिये पाठीं पोटीं| कर्माआदि कां शेवटीं| मातें बांधणें किरीटी| दुवाड जरी ||१२६|| तरी हेंही असो| सांडीं माझा अतिसो| परि संयतिसीं वसो| बुद्धि तुझी ||१२७|| आणि जेणें जेणें वेळें| घडती कर्में सकळें| तयांचीं तियें फळें| त्यजितु जाय ||१२८|| वृक्ष कां वेली| लोटती फळें आलीं| तैसीं सांडीं निपजलीं| कर्में सिद्धें ||१२९|| परि मातें मनीं धरावें| कां मजौद्देशें करावें| हें कांहीं नको आघवें| ज्ॐ दे शून्यीं ||१३०|| खडकीं जैसें वर्षलें| कां आगीमाजीं पेरिलें| कर्म मानी देखिलें| स्वप्न जैसें ||१३१|| अगा आत्मजेच्या विषीं| जीवु जैसा निरभिलाषी| तैसा कर्मीं अशेषीं| निष्कामु होईं ||१३२|| वन्हीची ज्वाळा जैसी| वायां जाय आकाशीं| क्रिया जिरों दे तैसी| शून्यामाजी ||१३३|| अर्जुना हा फलत्यागु| आवडे कीर असलगु| परी योगामाजीं योगु| धुरेचा हा ||१३४|| येणें फलत्यागें सांडे| तें तें कर्म न विरूढे| एकचि वेळे वेळुझाडें| वांझें जैसीं ||१३५|| तैसें येणेंचि शरीरें| शरीरा येणें सरे| किंबहुना येरझारे| चिरा पडे ||१३६|| पैं अभ्यासाचिया पाउटीं| ठाकिजे ज्ञान किरीटी| ज्ञानें येइजे भेटी| ध्यानाचिये ||१३७|| मग ध्यानासि खेंव| देती आघवेचि भाव| तेव्हां कर्मजात सर्व| दूरी ठाके ||१३८|| कर्म जेथ दुरावे| तेथ फलत्यागु संभवे| त्यागास्तव आंगवे| शांति सगळी ||१३९|| म्हणौनि यावया शांति| हाचि अनुक्रमु सुभद्रापती| म्हणौनि अभ्यासुचि प्रस्तुतीं| करणें एथ ||१४०|| श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते | ध्यानात् कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिनिरन्तरम् ||१२|| अभ्यासाहूनि गहन| पार्था मग ज्ञान| ज्ञानापासोनि ध्यान| विशेषिजे ||१४१|| मग कर्मफलत्यागु| तो ध्यानापासोनि चांगु| त्यागाहूनि भोगु| शांतिसुखाचा ||१४२|| ऐसिया या वाटा| इहींचि पेणा सुभटा| शांतीचा माजिवटा| ठाकिला जेणें ||१४३|| अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च | निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||१३|| जो सर्व भूतांच्या ठायीं| द्वेषांतें नेणेंचि कहीं| आपपरु नाहीं| चैतन्या जैसा ||१४४|| उत्तमातें धरिजे| अधमातें अव्हेरिजे| हें काहींचि नेणिजे| वसुधा जेवीं ||१४५|| कां रायाचें देह चाळूं| रंकातें परौतें गाळूं| हें न म्ह्णेचि कृपाळू| प्राणु पैं गा ||१४६|| गाईची तृषा हरूं| कां व्याघ्रा विष होऊनि मारूं| ऐसें नेणेंचि गा करूं| तोय जैसें ||१४७|| तैसी आघवियांचि भूतमात्रीं| एकपणें जया मैत्री| कृपेशीं धात्री| आपणचि जो ||१४८|| आणि मी हे भाष नेणें| माझें काहींचि न म्हणे| सुख दुःख जाणणें| नाहीं जया ||१४९|| तेवींचि क्षमेलागीं| पृथ्वीसि पवाडु आंगीं| संतोषा उत्संगीं| दिधलें घर ||१५०|| सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः | मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१४|| वार्षियेवीण सागरू| जैसा जळें नित्य निर्भरु| तैसा निरुपचारु| संतोषी जो ||१५१|| वाहूनि आपुली आण| धरी जो अंतःकरण| निश्चया साचपण| जयाचेनि ||१५२|| जीवु परमात्मा दोन्ही| बैसऊनि ऐक्यासनीं| जयाचिया हृदयभुवनीं| विराजती ||१५३|| ऐसा योगसमृद्धि| होऊनि जो निरवधि| अर्पी मनोबुद्धी| माझ्या ठायीं ||१५४|| आंतु बाहेरि योगु| निर्वाळलेयाहि चांगु| तरी माझा अनुरागु| सप्रेम जया ||१५५|| अर्जुना गा तो भक्तु| तोचि योगी तोचि मुक्तु| तो वल्लभा मी कांतु| ऐसा पढिये ||१५६|| हें ना तो आवडे| मज जीवाचेनि पाडें| हेंही एथ थोकडें| रूप करणें ||१५७|| तरी पढियंतयाची काहाणी| हे भुलीची भारणी| इयें तंव न बोलणीं| परी बोलवी श्रद्धा ||१५८|| म्हणौनि गा आम्हां| वेगां आली उपमा| एऱ्हवीं काय प्रेमा| अनुवादु असे ? ||१५९|| आतां असो हें किरीटी| पैं प्रियाचिया गोष्टी| दुणा थांव उठी| आवडी गा ||१६०|| तयाही वरी विपायें| प्रेमळु संवादिया होये| तिये गोडीसी आहे| कांटाळें मग ? ||१६१|| म्हणौनि गा पंडुसुता| तूंचि प्रियु आणि तूंचि श्रोता| वरी प्रियाची वार्ता| प्रसंगें आली ||१६२|| तरी आतां बोलों| भलें या सुखा मीनलों| ऐसें म्हणतखेंवीं डोलों| लागला देवो ||१६३|| मग म्हणे जाण| तया भक्तांचे लक्षण| जया मी अंतःकरण| बैसों घालीं ||१६४|| यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः | हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ||१५|| तरी सिंधूचेनि माजें| जळचरां भय नुपजे| आणि जळचरीं नुबगिजे| समुद्रु जैसा ||१६५|| तेवीं उन्मत्तें जगें| जयासि खंती न लगे| आणि जयाचेनि आंगें| न शिणे लोकु ||१६६|| किंबहुना पांडवा| शरीर जैसें अवयवां| तैसा नुबगे जीवां| जीवपणें जो ||१६७|| जगचि देह जाहलें| म्हणौनि प्रियाप्रिय गेलें| हर्षामर्ष ठेले| दुजेनविण ||१६८|| ऐसा द्वंद्वनिर्मुक्तु| भयोद्वेगरहितु| याहीवरी भक्तु| माझ्यां ठायीं ||१६९|| तरी तयाचा गा मज मोहो| काय सांगों तो पढियावो| हें असे जीवें जीवो| माझेनि तो ||१७०|| जो निजानंदें धाला| परिणामु आयुष्या आला| पूर्णते जाहला| वल्लभु जो ||१७१|| अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः | सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१६|| जयाचिया ठायीं पांडवा| अपेक्षे नाहीं रिगावा| सुखासि चढावा| जयाचें असणें ||१७२|| मोक्ष देऊनि उदार| काशी होय कीर| परी वेचावें लागें शरीर| तिये गांवीं ||१७३|| हिमवंतु दोष खाये| परी जीविताची हानि होये| तैसें शुचित्व नोहे| सज्जनाचें ||१७४|| शुचित्वें शुचि गांग होये| आणि पापतापही जाये| परी तेथें आहे| बुडणें एक ||१७५|| खोलिये पारु नेणिजे| तरी भक्तीं न बुडिजे| रोकडाचि लाहिजे| न मरतां मोक्षु ||१७६|| संताचेनि अंगलगें| पापातें जिणणें गंगे| तेणें संतसंगें| शुचित्व कैसें ||१७७|| म्हणौनि असो जो ऐसा| शुचित्वें तीर्थां कुवासा| जेणें उल्लंघविलें दिशा| मनोमळ ||१७८|| आंतु बाहेरी चोखाळु| सूर्य जैसा निर्मळु| आणि तत्त्वार्थींचा पायाळु| देखणा जो ||१७९|| व्यापक आणि उदास| जैसें कां आकाश| तैसें जयाचें मानस| सर्वत्र गा ||१८०|| संसारव्यथे फिटला| जो नैराश्यें विनटला| व्याधाहातोनि सुटला| विहंगु जैसा ||१८१|| तैसा सतत जो सुखें| कोणीही टवंच न देखे| नेणिजे गतायुषें| लज्जा जेवीं ||१८२|| आणि कर्मारंभालागीं| जया अहंकृती नाही आंगीं| जैसें निरिंधन आगी| विझोनि जाय ||१८३|| तैसा उपशमुचि भागा| जयासि आला पैं गा| जो मोक्षाचिया आंगा| लिहिला असे ||१८४|| अर्जुना हा ठावोवरी| जो सोऽहंभावो सरोभरीं| द्वैताच्या पैलतीरीं| निगों सरला ||१८५|| कीं भक्तिसुखालागीं| आपणपेंचि दोही भागीं| वांटूनियां आंगीं| सेवकै बाणी ||१८६|| येरा नाम मी ठेवी| मग भजती वोज बरवी| न भजतया दावी| योगिया जो ||१८७|| तयाचे आम्हां व्यसन| आमुचें तो निजध्यान| किंबहुना समाधान| तो मिळे तैं ||१८८|| तयालागीं मज रूपा येणें| तयाचेनि मज येथें असणें| तया लोण कीजे जीवें प्राणें| ऐसा पढिये ||१८९|| यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति | शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ||१७|| जो आत्मलाभासारिखें| गोमटें कांहींचि न देखे| म्हणौनि भोगविशेखें| हरिखेजेना ||१९०|| आपणचि विश्व जाहला| तरी भेदभावो सहजचि गेला| म्हणौनि द्वेषु ठेला| जया पुरुषा ||१९१|| पैं आपुलें जें साचें| तें कल्पांतींहीं न वचे| हें जाणोनि गताचें| न शोची जो ||१९२|| आणि जयापरौतें कांहीं नाहीं| तें आपणपेंचि आपुल्या ठायीं| जाहला यालागीं जो कांहीं| आकांक्षी ना ||१९३|| वोखटें कां गोमटें| हें काहींचि तया नुमटे| रात्रिदिवस न घटे| सूर्यासि जेवीं ||१९४|| ऐसा बोधुचि केवळु| जो होवोनि असे निखळु| त्याहीवरी भजनशीळु| माझ्या ठायीं ||१९५|| तरी तया ऐसें दुसरें| आम्हां पढियंतें सोयरें| नाहीं गा साचोकारें| तुझी आण ||१९६|| समः शत्रौ च मित्रे च तथामानापमानयोः | शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ||१८|| पार्था जयाचिया ठायीं| वैषम्याची वार्ता नाहीं| रिपुमित्रां दोहीं| सरिसा पाडु ||१९७|| कां घरींचियां उजियेडु करावा| पारखियां आंधारु पाडावा| हें नेणेचि गा पांडवा| दीपु जैसा ||१९८|| जो खांडावया घावो घाली| कां लावणी जयानें केली| दोघां एकचि साउली| वृक्षु दे जैसा ||१९९|| नातरी इक्षुदंडु| पाळितया गोडु| गाळितया कडु| नोहेंचि जेवीं ||२००|| अरिमित्रीं तैसा| अर्जुना जया भावो ऐसा| मानापमानीं सरिसा| होतु जाये ||२०१|| तिहीं ऋतूं समान| जैसें कां गगन| तैसा एकचि मान| शीतोष्णीं जया ||२०२|| दक्षिण उत्तर मारुता| मेरु जैसा पंडुसुता| तैसा सुखदुःखप्राप्तां| मध्यस्थु जो ||२०३|| माधुर्यें चंद्रिका| सरिसी राया रंका| तैसा जो सकळिकां| भूतां समु ||२०४|| आघवियां जगा एक| सेव्य जैसें उदक| तैसें जयातें तिन्ही लोक| आकांक्षिती ||२०५|| जो सबाह्यसंग| सांडोनिया लाग| एकाकीं असे आंग| आंगीं सूनी ||२०६|| तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् | अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ||१९|| जो निंदेतें नेघे| स्तुति न श्लाघे| आकाशा न लगे| लेपु जैसा ||२०७|| तैसें निंदे आणि स्तुति| मानु करूनि एके पांती| विचरे प्राणवृत्ती| जनीं वनीं ||२०८|| साच लटिकें दोन्ही| बोलोनि न बोले जाहला मौनी| जो भोगितां उन्मनी| आरायेना ||२०९|| जो यथालाभें न तोखे| अलाभें न पारुखे| पाउसेवीण न सुके| समुद्रु जैसा ||२१०|| आणि वायूसि एके ठायीं| बिढार जैसें नाहीं| तैसा न धरीच कहीं| आश्रयो जो ||२११|| आघवाची आकाशस्थिति| जेवीं वायूसि नित्य वसती| तेवीं जगचि विश्रांती- | स्थान जया ||२१२|| हें विश्वचि माझें घर| ऐसी मती जयाची स्थिर| किंबहुना चराचर| आपण जाहला ||२१३|| मग याहीवरी पार्था| माझ्या भजनीं आस्था| तरी तयातें मी माथां| मुकुट करीं ||२१४|| उत्तमासि मस्तक| खालविजे हें काय कौतुक| परी मानु करिती तिन्ही लोक| पायवणियां ||२१५|| तरी श्रद्धावस्तूसी आदरु| करितां जाणिजे प्रकारु| जरी होय श्रीगुरु| सदाशिवु ||२१६|| परी हे असो आतां| महेशातें वानितां| आत्मस्तुति होतां| संचारु असे ||२१७|| ययालागीं हें नोहे| म्हणितलें रमानाहें| अर्जुना मी वाहें| शिरीं तयातें ||२१८|| जे पुरुषार्थसिद्धि चौथी| घेऊनि आपुलिया हातीं| रिगाला भक्तिपंथीं| जगा देतु ||२१९|| कैवल्याचा अधिकारी| मोक्षाची सोडी बांधी करी| कीं जळाचिये परी| तळवटु घे ||२२०|| म्हणौनि गा नमस्कारूं| तयातें आम्ही माथां मुगुट करूं| तयाची टांच धरूं| हृदयीं आम्हीं ||२२१|| तयाचिया गुणांचीं लेणीं| लेववूं अपुलिये वाणी| तयाची कीर्ति श्रवणीं| आम्हीं लेवूं ||२२२|| तो पहावा हे डोहळे| म्हणौनि अचक्षूसी मज डोळे| हातींचेनि लीलाकमळें| पुजूं तयातें ||२२३|| दोंवरी दोनी| भुजा आलों घेउनि| आलिंगावयालागुनी| तयाचें आंग ||२२४|| तया संगाचेनि सुरवाडें| मज विदेहा देह धरणें घडे| किंबहुना आवडे| निरुपमु ||२२५|| तेणेंसीं आम्हां मैत्र| एथ कायसें विचित्र ? | परी तयाचें चरित्र| ऐकती जे ||२२६|| तेही प्राणापरौते| आवडती हें निरुतें| जे भक्तचरित्रातें| प्रशंसिती ||२२७|| जो हा अर्जुना साद्यंत| सांगितला प्रस्तुत| भक्तियोगु समस्त- | योगरूप ||२२८|| तया मी प्रीति करी| कां मनीं शिरसा धरीं| येवढी थोरी| जया स्थितीये ||२२९|| ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते | श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव प्रियाः ||२०|| इति श्रीमद्भग्वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगोनाम द्वादशोऽध्यायः ||१२अ || ते हे गोष्टी रम्य| अमृतधारा धर्म्य| करिती प्रतीतिगम्य| आइकोनि जे ||२३०|| तेसीचि श्रद्धेचेनि आदरें| जयांचे ठायीं विस्तरे| जीवीं जयां थारे| जे अनुष्ठिती ||२३१|| परी निरूपली जैसी| तैसीच स्थिति मानसीं| मग सुक्षेत्रीं जैसी| पेरणी केली ||२३२|| परी मातें परम करूनि| इयें अर्थीं प्रेम धरूनि| हेंचि सर्वस्व मानूनि| घेती जे पैं ||२३३|| पार्था गा जगीं| तेचि भक्त तेचि योगी| उत्कंठा तयांलागीं| अखंड मज ||२३४|| तें तीर्थ तें क्षेत्र| जगीं तेंचि पवित्र| भक्ति कथेसि मैत्र| जयां पुरुषां ||२३५|| आम्हीं तयांचें करूं ध्यान| ते आमुचें देवतार्चन| ते वांचूनि आन| गोमटें नाहीं ||२३६|| तयांचें आम्हां व्यसन| ते आमुचें निधिनिधान| किंबहुना समाधान| ते मिळती तैं ||२३७|| पैं प्रेमळाची वार्ता| जे अनुवादती पंडुसुता| ते मानूं परमदेवता| आपुली आम्ही ||२३८|| ऐसे निजजनानंदें| तेणें जगदादिकंदें| बोलिलें मुकुंदें| संजयो म्हणे ||२३९|| राया जो निर्मळु| निष्कलंक लोककृपाळु| शरणागतां प्रतिपाळु| शरण्यु जो ||२४०|| पैं सुरसहायशीळु| लोकलालनलीळु| प्रणतप्रतिपाळु| हा खेळु जयाचा ||२४१|| जो धर्मकीर्तिधवलु| आगाध दातृत्वें सरळु| अतुळबळें प्रबळु| बळिबंधनु ||२४२|| जो भक्तजनवत्सळु| प्रेमळजन प्रांजळु| सत्यसेतु सकळु| कलानिधी ||२४३|| तो श्रीकृष्ण वैकुंठींचा| चक्रवर्ती निजांचा| सांगे येरु दैवाचा| आइकतु असे ||२४४|| आतां ययावरी| निरूपिती परी| संजयो म्हणे अवधारीं| धृतराष्ट्रातें ||२४५|| तेचि रसाळ कथा| मऱ्हाठिया प्रतिपथा| आणिजेल आतां| आवधारिजो ||२४६|| ज्ञानदेव म्हणे तुम्ही| संत वोळगावेति आम्ही| हें पढविलों जी स्वामी| निवृत्तिदेवीं ||२४७|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां द्वादशोऽध्यायः ||

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