ज्ञानेश्वरी अध्याय १३

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:16:06
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १३ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय तेरावा | क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः | आत्मरूप गणेशु केलिया स्मरण| सकळ विद्यांचें अधिकरण| तेचि वंदूं श्रीचरण| श्रीगुरूंचे ||१|| जयांचेनि आठवें| शब्दसृष्टि आंगवे| सारस्वत आघवें| जिव्हेसि ये ||२|| वक्तृत्वा गोडपणें| अमृतातें पारुखें म्हणे| रस होती वोळंगणें| अक्षरांसी ||३|| भावाचें अवतरण| अवतरविती खूण| हाता चढे संपूर्ण| तत्त्वभेद ||४|| श्रीगुरूंचे पाय| जैं हृदय गिंवसूनि ठाय| तैं येवढें भाग्य होय| उन्मेखासी ||५|| ते नमस्कारूनि आतां| जो पितामहाचा पिता| लक्ष्मीयेचा भर्ता| ऐसें म्हणे ||६|| श्रीभगवानुवाच | इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते | एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ||१|| तरी पार्था परिसिजे| देह हें क्षेत्र म्हणिजे| जो हें जाणे तो बोलिजे| क्षेत्रज्ञु एथें ||७|| क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत | क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ञानं मतं मम ||२|| तरि क्षेत्रज्ञु जो एथें| तो मीचि जाण निरुतें| जो सर्व क्षेत्रांतें| संगोपोनि असे ||८|| क्षेत्र आणि क्षेत्रज्ञातें| जाणणें जें निरुतें| ज्ञान ऐसें तयातें| मानूं आम्ही ||९|| तत् क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् | स च यो यत्प्रभावश्च तत् समासेन मे श्रुणु ||३|| तरि क्षेत्र येणें नावें| हें शरीर जेणें भावें| म्हणितलें तें आघवें| सांगों अतां ||१०|| हें क्षेत्र का म्हणिजे| कैसें कें उपजे| कवणाकवणीं वाढविजे| विकारीं एथ ||११|| हें औट हात मोटकें| कीं केवढें पां केतुकें| बरड कीं पिके| कोणाचें हें ||१२|| इत्यादि सर्व| जे जे याचे भाव| ते बोलिजती सावेव| अवधान देईं ||१३|| पैं याचि स्थळाकारणें| श्रुति सदा बोबाणे| तर्कु येणेंचि ठिकाणें| तोंडाळु केला ||१४|| चाळिता हेचि बोली| दर्शनें शेवटा आलीं| तेवींचि नाहीं बुझविली| अझुनि द्वंद्वें ||१५|| शास्त्रांचिये सोयरिके| विचळिजे येणेंचि एकें| याचेनि एकवंकें| जगासि वादु ||१६/| तोंडेसीं तोंडा न पडे| बोलेंसीं बोला न घडे| इया युक्ती बडबडे| त्राय जाहली ||१७|| नेणों कोणाचें हें स्थळ| परि कैसें अभिलाषाचें बळ| जेघरोघरीं कपाळ| पिटवीत असे ||१८|| नास्तिका द्यावया तोंड| वेदांचें गाढें बंड| दे देखोनि पाखांड| आनचि वाजे ||१९|| म्हणे तुम्ही निर्मूळ| लटिकें हें वाग्जाळ| ना म्हणसी तरी पोफळ| घातलें आहे ||२०|| पाखांडाचे कडे| नागवीं लुंचिती मुंडे| नियोजिली वितंडें| ताळासि येती ||२१|| मृत्युबळाचेनि माजें| हें जाईल वीण काजें| तें देखोनियां व्याजें| निघाले योगी ||२२|| मृत्यूनि आधाधिले| तिहीं निरंजन सेविलें| यमदमांचे केले| मेळावे पुरे ||२३|| येणेंचि क्षेत्राभिमानें| राज्य त्यजिलें ईशानें| गुंति जाणोनि स्मशानें| वासु केला ||२४|| ऐसिया पैजा महेशा| पांघुरणें दाही दिशा| लांचकरू म्हणोनि कोळसा| कामु केला ||२५|| पैं सत्यलोकनाथा| वदनें आलीं बळार्था| तरी तो सर्वथा| जाणेचिना ||२६|| ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् | ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ||४|| एक म्हणती हें स्थळ| जीवाचेंचि समूळ| मग प्राण हें कूळ| तयाचें एथ ||२७|| जे प्राणाचे घरीं| अंगें राबती भाऊ चारी| आणि मना ऐसा आवरी| कुळवाडीकरु ||२८|| तयातें इंद्रियबैलांची पेटी| न म्हणे अंवसीं पाहाटीं| विषयक्षेत्रीं आटी| काढी भली ||२९|| मग विधीची वाफ चुकवी| आणि अन्यायाचें बीज वाफवी| कुकर्माचा करवी| राबु जरी ||३०|| तरी तयाचिसारिखें| असंभड पाप पिके| मग जन्मकोटी दुःखें| भोगी जीवु ||३१|| नातरी विधीचिये वाफे| सत्क्रिया बीज आरोपे| तरी जन्मशताचीं मापें| सुखचि मवीजे ||३२|| तंव आणिक म्हणती हें नव्हे| हें जिवाचेंचि न म्हणावें| आमुतें पुसा आघवें| क्षेत्राचें या ||३३|| अहो जीवु एथ उखिता| वस्तीकरु वाटे जातां| आणि प्राणु हा बलौता| म्हणौनि जागे ||३४|| अनादि जे प्रकृती| सांख्य जियेतें गाती| क्षेत्र हे वृत्ती| तियेची जाणा ||३५|| आणि इयेतेंचि आघवा| आथी घरमेळावा| म्हणौनि ते वाहिवा| घरीं वाहे ||३६|| वाह्याचिये रहाटी| जे कां मुद्दल तिघे इये सृष्टीं| ते इयेच्याचि पोटीं| जहाले गुण ||३७|| रजोगुण पेरी| तेतुलें सत्त्व सोंकरी| मग एकलें तम करी| संवगणी ||३८|| रचूनि महत्तत्त्वाचें खळें| मळी एके काळुगेनि पोळें| तेथ अव्यक्ताची मिळे| सांज भली ||३९|| तंव एकीं मतिवंतीं| या बोलाचिया खंतीं| म्हणितलें या ज्ञप्ती| अर्वाचीना ||४०|| हां हो परतत्त्वाआंतु| कें प्रकृतीची मातु| हा क्षेत्र वृत्तांतु| उगेंचि आइका ||४१|| शून्यसेजेशालिये| सुलीनतेचिये तुळिये| निद्रा केली होती बळियें| संकल्पें येणें ||४२|| तो अवसांत चेइला| उद्यमीं सदैव भला| म्हणौनि ठेवा जोडला| इच्छावशें ||४३|| निरालंबींची वाडी| होती त्रिभुवनायेवढी| हे तयाचिये जोडी| रूपा आली ||४४|| मग महाभूतांचें एकवाट| सैरा वेंटाळूनि भाट| भूतग्रामांचे आघाट| चिरिले चारी ||४५|| यावरी आदी| पांचभूतिकांची मांदी| बांधली प्रभेदीं| पंचभूतिकीं ||४६|| कर्माकर्माचे गुंडे| बांध घातले दोहींकडे| नपुंसकें बरडें| रानें केलीं ||४७|| तेथ येरझारेलागीं| जन्ममृत्यूची सुरंगी| सुहाविली निलागी| संकल्पें येणें ||४८|| मग अहंकारासि एकलाधी| करूनि जीवितावधी| वहाविलें बुद्धि| चराचर ||४९|| यापरी निराळीं| वाढे संकल्पाची डाहाळी| म्हणौनि तो मुळीं| प्रपंचा यया ||५०|| यापरी मत्तमुगुतकीं| तेथ पडिघायिलें आणिकीं| म्हणती हां हो विवेकीं| कैसें तुम्ही ||५१|| परतत्त्वाचिया गांवीं| संकल्पसेज देखावी| तरी कां पां न मनावी| प्रकृति तयाची ? ||५२|| परि असो हें नव्हे| तुम्ही या न लगावें| आतांचि हें आघवें| सांगिजैल ||५३|| तरी आकाशीं कवणें| केलीं मेघाचीं भरणें| अंतरिक्ष तारांगणें| धरी कवण ? ||५४|| गगनाचा तडावा| कोणें वेढिला केधवां| पवनु हिंडतु असावा| हें कवणाचें मत ? ||५५|| रोमां कवण पेरी| सिंधू कवण भरी| पर्जन्याचिया करी| धारा कवण ? ||५६|| तैसें क्षेत्र हें स्वभावें| हे वृत्ती कवणाची नव्हे| हें वाहे तया फावे| येरां तुटे ||५७|| तंव आणिकें एकें| क्षोभें म्हणितलें निकें| तरी भोगिजे एकें| काळें केवीं हें ? ||५८|| तरी ययाचा मारु| देखताति अनिवारु| परी स्वमतीं भरु| अभिमानियां ||५९|| हें जाणों मृत्यु रागिटा| सिंहाडयाचा दरकुटा| परी काय वांजटा| पूरिजत असे ? ||६०|| महाकल्पापरौतीं| कव घालूनि अवचितीं| सत्यलोकभद्रजाती| आंगीं वाजे ||६१|| लोकपाळ नित्य नवे| दिग्गजांचे मेळावे| स्वर्गींचिये आडवे| रिगोनि मोडी ||६२|| येर ययाचेनि अंगवातें| जन्ममृत्यूचिये गर्तें| निर्जिवें होऊनि भ्रमतें| जीवमृगें ||६३|| न्याहाळीं पां केव्हडा| पसरलासे चवडा| जो करूनियां माजिवडा| आकारगजु ||६४|| म्हणौनि काळाची सत्ता| हाचि बोलु निरुता| ऐसे वाद पंडुसुता| क्षेत्रालागीं ||६५|| हे बहु उखिविखी| ऋषीं केली नैमिषीं| पुराणें इयेविषीं| मतपत्रिका ||६६|| अनुष्टुभादि छंदें| प्रबंधीं जें विविधें| ते पत्रावलंबन मदें| करिती अझुनी ||६७|| वेदींचें बृहत्सामसूत्र| जें देखणेपणें पवित्र| परी तयाही हें क्षेत्र| नेणवेचि ||६८|| आणीक आणीकींही बहुतीं| महाकवीं हेतुमंतीं| ययालागीं मती| वेंचिलिया ||६९|| परी ऐसें हें एवढें| कीं अमुकेयाचेंचि फुडें| हें कोणाही वरपडें| होयचिना ||७०|| आतां यावरी जैसें| क्षेत्र हें असे| तुज सांगों तैसें| साद्यंतु गा ||७१|| महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च | इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ||५|| इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः | एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ||६|| तरि महाभूतपंचकु| आणि अहंकारु एकु| बुद्धि अव्यक्त दशकु| इंद्रियांचा ||७२|| मन आणीकही एकु| विषयांचा दशकु| सुख दुःख द्वेषु| संघात इच्छा ||७३|| आणि चेतना धृती| एवं क्षेत्रव्यक्ती| सांगितली तुजप्रती| आघवीची ||७४|| आतां महाभूतें कवणें| कवण विषयो कैसीं करणे| हें वेगळालेपणें| एकैक सांगों ||७५|| तरी पृथ्वी आप तेज| वायु व्योम इयें तुज| सांगितलीं बुझ| महाभूतें पांचें ||७६|| आणि जागतिये दशे| स्वप्न लपालें असे| नातरी अंवसे| चंद्र गूढु ||७७|| नाना अप्रौढबाळकीं| तारुण्य राहे थोकीं| कां न फुलतां कळिकीं| आमोदु जैसा ||७८|| किंबहुना काष्ठीं| वन्हि जेवीं किरीटी| तेवीं प्रकृतिचिया पोटीं| गोप्यु जो असे ||७९|| जैसा ज्वरु धातुगतु| अपथ्याचें मिष पहातु| मग जालिया आंतु| बाहेरी व्यापी ||८०|| तैसी पांचांही गांठीं पडे| जैं देहाकारु उघडे| तैं नाचवी चहूंकडे| तो अहंकारु गा ||८१|| नवल अहंकाराची गोठी| विशेषें न लगे अज्ञानापाठीं| सज्ञानाचे झोंबे कंठीं| नाना संकटीं नाचवी ||८२|| आतां बुद्धि जे म्हणिजे| ते ऐशियां चिन्हीं जाणिजे| बोलिलें यदुराजें| तें आइकें सांगों ||८३|| तरी कंदर्पाचेनि बळें| इंद्रियवृत्तीचेनि मेळें| विभांडूनि येती पाळे| विषयांचे ||८४|| तो सुखदुःखांचा नागोवा| जेथ उगाणों लागे जीवा| तेथ दोहींसी बरवा| पाडु जे धरी ||८५|| हें सुख हें दुःख| हें पुण्य हें दोष| कां हें मैळ हें चोख| ऐसें जे निवडी ||८६|| जिथे अधमोत्तम सुझे| जिये सानें थोर बुझे| जिया दिठी पारखिजे| विषो जीवें ||८७|| जे तेजतत्त्वांची आदी| जे सत्त्वगुणाची वृद्धी| जे आत्मया जीवाची संधी| वसवीत असे जे ||८८|| अर्जुना ते गा जाण| बुद्धि तूं संपूर्ण| आतां आइकें वोळखण| अव्यक्ताची ||८९|| पैं सांख्यांचिया सिद्धांतीं| प्रकृती जे महामती| तेचि एथें प्रस्तुतीं| अव्यक्त गा ||९०|| आणि सांख्ययोगमतें| प्रकृती परिसविली तूंतें| ऐसी दोहीं परीं जेथें| विवंचिली ||९१|| तेथ दुजी जे जीवदशा| तिये नांव वीरेशा| येथ अव्यक्त ऐसा| पर्यावो हा ||९२|| तऱ्ही पाहालया रजनी| तारा लोपती गगनीं| कां हारपें अस्तमानीं| भूतक्रिया ||९३|| नातरी देहो गेलिया पाठीं| देहादिक किरीटी| उपाधि लपे पोटीं| कृतकर्माच्या ||९४|| कां बीजमुद्रेआंतु| थोके तरु समस्तु| कां वस्त्रपणे तंतु- | दशे राहे ||९५|| तैसे सांडोनियां स्थूळधर्म| महाभूतें भूतग्राम| लया जाती सूक्ष्म| होऊनि जेथे ||९६|| अर्जुना तया नांवें| अव्यक्त हें जाणावें| आतां आइकें आघवें| इंद्रियभेद ||९७|| तरी श्रवण नयन| त्वचा घ्राण रसन| इयें जाणें ज्ञान- | करणें पांचें ||९८|| इये तत्त्वमेळापंकीं| सुखदुःखांची उखिविखी| बुद्धि करिते मुखीं| पांचें इहीं ||९९|| मग वाचा आणि कर| चरण आणि अधोद्वार| पायु हे प्रकार| पांच आणिक ||१००|| कर्मेंद्रियें म्हणिपती| तीं इयें जाणिजती| आइकें कैवल्यपती| सांगतसे ||१०१|| पैं प्राणाची अंतौरी| क्रियाशक्ति जे शरीरीं| तियेचि रिगिनिगी द्वारीं| पांचे इहीं ||१०२|| एवं दाहाही करणें| सांगितलीं देवो म्हणे| परिस आतां फुडेपणें| मन तें ऐसें ||१०३|| जें इंद्रियां आणि बुद्धि| माझारिलिये संधीं| रजोगुणाच्या खांदीं| तरळत असे ||१०४|| नीळिमा अंबरीं| कां मृगतृष्णालहरी| तैसें वायांचि फरारी| वावो जाहलें ||१०५|| आणि शुक्रशोणिताचा सांधा| मिळतां पांचांचा बांधा| वायुतत्त्व दशधा| एकचि जाहलें ||१०६|| मग तिहीं दाहे भागीं| देहधर्माच्या खैवंगीं| अधिष्ठिलें आंगीं| आपुलाल्या ||१०७|| तेथ चांचल्य निखळ| एकलें ठेलें निढाळ| म्हणौनि रजाचें बळ| धरिलें तेणें ||१०८|| तें बुद्धीसि बाहेरी| अहंकाराच्या उरावरी| ऐसां ठायीं माझारीं| बळियावलें ||१०९|| वायां मन हें नांव| एऱ्हवीं कल्पनाचि सावेव| जयाचेनि संगें जीव- | दशा वस्तु ||११०|| जें प्रवृत्तीसि मूळ| कामा जयाचे बळ| जें अखंड सूये छळ| अहंकारासी ||१११|| जें इच्छेतें वाढवी| आशेतें चढवी| जें पाठी पुरवी| भयासि गा ||११२|| द्वैत जेथें उठी| अविद्या जेणें लाठी| जें इंद्रियांतें लोटी| विषयांमजी ||११३|| संकल्पें सृष्टी घडी| सवेंचि विकल्पूनि मोडी| मनोरथांच्या उतरंडी| उतरी रची ||११४|| जें भुलीचें कुहर| वायुतत्त्वाचें अंतर| बुद्धीचें द्वार| झाकविलें जेणें ||११५|| तें गा किरीटी मन| या बोला नाहीं आन| आतां विषयाभिधान| भेदू आइकें ||११६|| तरी स्पर्शु आणि शब्दु| रूप रसु गंधु| हा विषयो पंचविधु| ज्ञानेंद्रियांचा ||११७|| इहीं पांचैं द्वारीं| ज्ञानासि धांव बाहेरी| जैसा कां हिरवे चारीं| भांबावे पशु ||११८|| मग स्वर वर्ण विसर्गु| अथवा स्वीकार त्यागु| संक्रमण उत्सर्गु| विण्मूत्राचा ||११९|| हे कर्मेंद्रियांचे पांच| विषय गा साच| जे बांधोनियां माच| क्रिया धांवे ||१२०|| ऐसे हे दाही| विषय गा इये देहीं| आतां इच्छा तेही| सांगिजैल ||१२१|| तरि भूतलें आठवे| कां बोलें कान झांकवे| ऐसियावरि चेतवे| जे गा वृत्ती ||१२२|| इंद्रियाविषयांचिये भेटी- | सरसीच जे गा उठी| कामाची बाहुटी| धरूनियां ||१२३|| जियेचेनि उठिलेपणें| मना सैंघ धावणें| न रिगावें तेथ करणें| तोंडें सुती ||१२४|| जिये वृत्तीचिया आवडी| बुद्धी होय वेडी| विषयां जिया गोडी| ते गा इच्छा ||१२५|| आणी इच्छिलिया सांगडें| इंद्रियां आमिष न जोडे| तेथ जोडे ऐसा जो डावो पडे| तोचि द्वेषु ||१२६|| आतां यावरी सुख| तें एवंविध देख| जेणें एकेंचि अशेख| विसरे जीवु ||१२७|| मना वाचे काये| जें आपुली आण वाये| देहस्मृतीची त्राये| मोडित जें ये ||१२८|| जयाचेनि जालेपणें| पांगुळा होईजे प्राणें| सात्त्विकासी दुणें| वरीही लाभु ||१२९|| कां आघवियाचि इंद्रियवृत्ती| हृदयाचिया एकांतीं| थापटूनि सुषुप्ती| आणी जें गा ||१३०|| किंबहुना सोये| जीव आत्मयाची लाहे| तेथ जें होये| तया नाम सुख ||१३१|| आणि ऐसी हे अवस्था| न जोडतां पार्था| जें जीजे तेंचि सर्वथा| दुःख जाणे ||१३२|| तें मनोरथसंगें नव्हे| एऱ्हवीं सिद्धी गेलेंचि आहे| हे दोनीचि उपाये| सुखदुःखासी ||१३३|| आतां असंगा साक्षिभूता| देहीं चैतन्याची जे सत्ता| तिये नाम पंडुसुता| चेतना येथें ||१३४|| जे नखौनि केशवरी| उभी जागे शरीरीं| जे तिहीं अवस्थांतरी| पालटेना ||१३५|| मनबुद्ध्यादि आघवीं| जियेचेनि टवटवीं| प्रकृतिवनमाधवीं| सदांचि जे ||१३६|| जडाजडीं अंशीं| राहाटे जे सरिसी| ते चेतना गा तुजसी| लटिकें नाहीं ||१३७|| पैं रावो परिवारु नेणे| आज्ञाचि परचक्र जिणे| कां चंद्राचेनि पूर्णपणें| सिंधू भरती ||१३८|| नाना भ्रामकाचें सन्निधान| लोहो करी सचेतन| कां सूर्यसंगु जन| चेष्टवी गा ||१३९|| अगा मुख मेळेंवीण| पिलियाचें पोषण| करी निरीक्षण| कूर्मी जेवीं ||१४०|| पार्था तियापरी| आत्मसंगती इये शरीरीं| सजीवत्वाचा करी| उपेगु जडा ||४१|| मग तियेतें चेतना| म्हणिपे पैं अर्जुना| आतां धृतिविवंचना| भेदु आइक ||१४२|| तरी भूतां परस्परें| उघड जाति स्वभाववैरें| नव्हे पृथ्वीतें नीरें| न नाशिजे ? ||१४३|| नीरातें आटी तेज| तेजा वायूसि झुंज| आणि गगन तंव सहज| वायू भक्षी ||१४४|| तेवींचि कोणेही वेळे| आपण कायिसयाही न मिळे| आंतु रिगोनि वेगळें| आकाश हें ||१४५|| ऐसीं पांचही भूतें| न साहती एकमेकांतें| कीं तियेंही ऐक्यातें| देहासी येती ||१४६|| द्वंद्वाची उखिविखी| सोडूनि वसती एकीं| एकेकातें पोखी| निजगुणें गा ||१४७|| ऐसें न मिळे तयां साजणें| चळे धैर्यें जेणें| तयां नांव म्हणें| धृती मी गा ||१४८|| आणि जीवेंसी पांडवा| या छत्तिसांचा मेळावा| तो हा एथ जाणावा| संघातु पैं गा ||१४९|| एवं छत्तीसही भेद| सांगितले तुज विशद| यया येतुलियातें प्रसिद्ध| क्षेत्र म्हणिजे ||१५०|| रथांगांचा मेळावा| जेवीं रथु म्हणिजे पांडवा| कां अधोर्ध्व अवेवां| नांव देहो ||१५१|| करीतुरंगसमाजें| सेना नाम निफजे| कां वाक्यें म्हणिपती पुंजे| अक्षरांचे ||१५२|| कां जळधरांचा मेळा| वाच्य होय आभाळा| नाना लोकां सकळां| नाम जग ||१५३|| कां स्नेहसूत्रवन्ही| मेळु एकिचि स्थानीं| धरिजे तो जनीं| दीपु होय ||१५४|| तैसीं छत्तीसही इयें तत्त्वें| मिळती जेणें एकत्वें| तेणें समूह परत्वें| क्षेत्र म्हणिपे ||१५५|| आणि वाहतेनि भौतिकें| पाप पुण्य येथें पिके| म्हणौनि आम्ही कौतुकें| क्षेत्र म्हणों ||१५६|| आणि एकाचेनि मतें| देह म्हणती ययातें| परी असो हें अनंतें| नामें यया ||१५७|| पैं परतत्त्वाआरौतें| स्थावराआंतौतें| जें कांहीं होतें जातें| क्षेत्रचि हें ||१५८|| परि सुर नर उरगीं| घडत आहे योनिविभागीं| तें गुणकर्मसंगीं| पडिलें सातें ||१५९|| हेचि गुणविवंचना| पुढां म्हणिपैल अर्जुना| प्रस्तुत आतां तुज ज्ञाना| रूप दावूं ||१६०|| क्षेत्र तंव सविस्तर| सांगितलें सविकार| म्हणौनि आतां उदार| ज्ञान आइकें ||१६१|| जया ज्ञानालागीं| गगन गिळिताती योगी| स्वर्गाची आडवंगी| उमरडोनि ||१६२|| न करिती सिद्धीची चाड| न धरिती ऋद्धीची भीड| योगाऐसें दुवाड| हेळसिती ||१६३|| तपोदुर्गें वोलांडित| क्रतुकोटि वोवांडित| उलथूनि सांडित| कर्मवल्ली ||१६४|| नाना भजनमार्गी| धांवत उघडिया आंगीं| एक रिगताति सुरंगीं| सुषुम्नेचिये ||१६५|| ऐसी जिये ज्ञानीं| मुनीश्वरांची उतान्ही| वेदतरूच्या पानोवानीं| हिंडताती ||१६६|| देईल गुरुसेवा| इया बुद्धि पांडवा| जन्मशतांचा सांडोवा| टाकित जे ||१६७|| जया ज्ञानाची रिगवणी| अविद्ये उणें आणी| जीवा आत्मया बुझावणी| मांडूनि दे ||१६८|| जें इंद्रियांचीं द्वारें आडी| प्रवृत्तीचे पाय मोडी| जें दैन्यचि फेडी| मानसाचें ||१६९|| द्वैताचा दुकाळु पाहे| साम्याचें सुयाणें होये| जया ज्ञानाची सोये| ऐसें करी ||१७०|| मदाचा ठावोचि पुसी| जें महामोहातें ग्रासी| नेदी आपपरु ऐसी| भाष उरों ||१७१|| जें संसारातें उन्मूळी| संकल्पपंकु पाखाळी| अनावरातें वेंटाळी| ज्ञेयातें जें ||१७२|| जयाचेनि जालेपणें| पांगुळा होईजे प्राणें| जयाचेनि विंदाणें| जग हें चेष्टें ||१७३|| जयाचेनि उजाळें| उघडती बुद्धीचे डोळे| जीवु दोंदावरी लोळे| आनंदाचिया ||१७४|| ऐसें जें ज्ञान| पवित्रैकनिधान| जेथ विटाळलें मन| चोख कीजे ||१७५|| आत्मया जीवबुद्धी| जे लागली होती क्षयव्याधी| ते जयाचिये सन्निधी| निरुजा कीजे ||१७६|| तें अनिरूप्य कीं निरूपिजे| ऐकतां बुद्धी आणिजे| वांचूनि डोळां देखिजे| ऐसें नाहीं ||१७७|| मग तेचि इये शरीरीं| जैं आपुला प्रभावो करी| तैं इंद्रियांचिया व्यापारीं| डोळांहि दिसे ||१७८|| पैं वसंताचें रिगवणें| झाडांचेनि साजेपणें| जाणिजे तेवीं करणें| सांगती ज्ञान ||१७९|| अगा वृक्षासि पाताळीं| जळ सांपडे मुळीं| तें शाखांचिये बाहाळीं| बाहेर दिसे ||१८०|| कां भूमीचें मार्दव| सांगे कोंभाची लवलव| नाना आचारगौरव| सुकुलीनाचें ||१८१|| अथवा संभ्रमाचिया आयती| स्नेहो जैसा ये व्यक्ती| कां दर्शनाचिये प्रशस्तीं| पुण्यपुरुष ||१८२|| नातरी केळीं कापूर जाहला| जेवीं परिमळें जाणों आला| कां भिंगारीं दीपु ठेविला| बाहेरी फांके ||१८३|| तैसें हृदयींचेनि ज्ञानें| जियें देहीं उमटती चिन्हें| तियें सांगों आतां अवधानें| चागें आइक ||१८४|| अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् | आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||७|| तरी कवणेही विषयींचें| साम्य होणें न रुचे| संभावितपणाचें| वोझे जया ||१८५|| आथिलेचि गुण वानितां| मान्यपणें मानितां| योग्यतेचें येतां| रूप आंगा ||१८६|| तैं गजबजों लागे कैसा| व्याधें रुंधला मृगु जैसा| कां बाहीं तरतां वळसा| दाटला जेवीं ||१८७|| पार्था तेणें पाडें| सन्मानें जो सांकडे| गरिमेतें आंगाकडे| येवोंचि नेदी ||१८८|| पूज्यता डोळां न देखावी| स्वकीर्ती कानीं नायकावी| हा अमुका ऐसी नोहावी| सेचि लोकां ||१८९|| तेथ सत्काराची कें गोठी| कें आदरा देईल भेटी| मरणेंसीं साटी| नमस्कारितां ||१९०|| वाचस्पतीचेनि पाडें| सर्वज्ञता तरी जोडे| परी वेडिवेमाजीं दडे| महमेभेणें ||१९१|| चातुर्य लपवी| महत्त्व हारवी| पिसेपण मिरवी| आवडोनि ||१९२|| लौकिकाचा उद्वेगु| शास्त्रांवरी उबगु| उगेपणीं चांगु| आथी भरु ||१९३|| जगें अवज्ञाचि करावी| संबंधीं सोयचि न धरावी| ऐसी ऐसी जीवीं| चाड बहु ||१९४|| तळौटेपण बाणे| आंगीं हिणावो खेवणें| तें तेंचि करणें| बहुतकरुनी ||१९५|| हा जीतु ना नोहे| लोक कल्पी येणें भावें| तैसें जिणें होआवें| ऐसी आशा ||१९६|| पै चालतु कां नोहे| कीं वारेनि जातु आहे| जना ऐसा भ्रमु जाये| तैसें होईजे ||१९७|| माझें असतेपण लोपो| नामरूप हारपो| मज झणें वासिपो| भूतजात ||१९८|| ऐसीं जयाचीं नवसियें| जो नित्य एकांता जातु जाये| नामेंचि जो जिये| विजनाचेनि ||१९९|| वायू आणि तया पडे| गगनेंसीं बोलों आवडे| जीवें प्राणें झाडें| पढियंतीं जया ||२००|| किंबहुना ऐसीं| चिन्हें जया देखसी| जाण तया ज्ञानेंसीं| शेज जाहली ||२०१|| पैं अमानित्व पुरुषीं| तें जाणावें इहीं मिषीं| आतां अदंभाचिया वोळखीसी| सौरसु देवों ||२०२|| तरी अदंभित्व ऐसें| लोभियाचें मन जैसें| जीवु जावो परी नुमसे| ठेविला ठावो ||२०३|| तयापरी किरीटी| पडिलाही प्राणसंकटीं| तरी सुकृत न प्रकटी| आंगें बोलें ||२०४|| खडाणें आला पान्हा| पळवी जेवीं अर्जुना| कां लपवी पण्यांगना| वडिलपण ||२०५|| आढ्यु आतुडे आडवीं| मग आढ्यता जेवीं हारवी| नातरी कुळवधू लपवी| अवेवांतें ||२०६|| नाना कृषीवळु आपुलें| पांघुरवी पेरिलें| तैसें झांकी निपजलें| दानपुण्य ||२०७|| वरिवरी देहो न पूजी| लोकांतें न रंजी| स्वधर्मु वाग्ध्वजीं| बांधों नेणे ||२०८|| परोपकारु न बोले| न मिरवी अभ्यासिलें| न शके विकूं जोडलें| स्फीतीसाठीं ||२०९|| शरीर भोगाकडे| पाहतां कृपणु आवडे| एऱ्हवीं धर्मविषयीं थोडें| बहु न म्हणे ||२१०|| घरीं दिसे सांकड| देहींची आयती रोड| परी दानीं जया होड| सुरतरूसीं ||२११|| किंबहुना स्वधर्मीं थोरु| अवसरीं उदारु| आत्मचर्चे चतुरु| एऱ्हवी वेडा ||२१२|| केळीचें दळवाडें| हळू पोकळ आवडे| परी फळोनियां गाढें| रसाळ जैसें ||२१३|| कां मेघांचें आंग झील| दिसे वारेनि जैसें जाईल| परी वर्षती नवल| घनवट तें ||२१४|| तैसा जो पूर्णपणीं| पाहतां धाती आयणी| एऱ्हवीं तरी वाणी| तोचि ठावो ||२१५|| हें असो या चिन्हांचा| नटनाचु ठायीं जयाच्या| जाण ज्ञान तयाच्या| हातां चढें ||२१६|| पैं गा अदंभपण| म्हणितलें तें हें जाण| आतां आईक खूण| अहिंसेची ||२१७|| तरी अहिंसा बहुतीं परीं| बोलिली असे अवधारीं| आपुलालिया मतांतरीं| निरूपिली ||२१८|| परी ते ऐसी देखा| जैशा खांडूनियां शाखा| मग तयाचिया बुडुखा| कूंप कीजे ||२१९|| कां बाहु तोडोनि पचविजे| मग भूकेची पीडा राखिजे| नाना देऊळ मोडोनि कीजे| पौळी देवा ||२२०|| तैसी हिंसाचि करूनि अहिंसा| निफजविजे हा ऐसा| पैं पूर्वमीमांसा| निर्णो केला ||२२१|| जे अवृष्टीचेनि उपद्रवें| गादलें विश्व आघवें| म्हणौनि पर्जन्येष्टी करावे| नाना याग ||२२२|| तंव तिये इष्टीचिया बुडीं| पशुहिंसा रोकडी| मग अहिंसेची थडी| कैंची दिसे ? ||२२३|| पेरिजे नुसधी हिंसा| तेथ उगवैल काय अहिंसा ? | परी नवल बापा धिंवसा| या याज्ञिकांचा ||२२४|| आणि आयुर्वेदु आघवा| तो याच मोहोरा पांडवा| जे जीवाकारणें करावा| जीवघातु ||२२५|| नाना रोगें आहाळलीं| लोळतीं भूतें देखिलीं| ते हिंसा निवारावया केली| चिकित्सा कां ||२२६|| तंव ते चिकित्से पहिलें| एकाचे कंद खणविले| एका उपडविलें| समूळीं सपत्रीं ||२२७|| एकें आड मोडविली| अजंगमाची खाल काढविली| एकें गर्भिणी उकडविली| पुटामाजीं ||२२८|| अजातशत्रु तरुवरां| सर्वांगीं देवविल्या शिरा| ऐसे जीव घेऊनि धनुर्धरा| कोरडे केले ||२२९|| आणि जंगमाही हात| लाऊनि काढिलें पित्त| मग राखिले शिणत| आणिक जीव ||२३०|| अहो वसतीं धवळारें| मोडूनि केलीं देव्हारें| नागवूनि वेव्हारें| गवांदी घातली ||२३१|| मस्तक पांघुरविलें| तंव तळवटीं उघडें पडलें| घर मोडोनि केले| मांडव पुढें ||२३२|| नाना पांघुरणें| जाळूनि जैसें तापणें| जालें आंगधुणें| कुंजराचें ||२३३|| नातरी बैल विकूनि गोठा| पुंसा लावोनि बांधिजे गांठा| इया करणी कीं चेष्टा ? | काइ हसों ||२३४|| एकीं धर्माचिया वाहणी| गाळूं आदरिलें पाणी| तंव गाळितया आहाळणीं| जीव मेले ||२३५|| एक न पचवितीचि कण| इये हिंसेचे भेण| तेथ कदर्थले प्राण| तेचि हिंसा ||२३६|| एवं हिंसाचि अहिंसा| कर्मकांडीं हा ऐसा| सिद्धांतु सुमनसा| वोळखें तूं ||२३७|| पहिलें अहिंसेचें नांव| आम्हीं केलें जंव| तंव स्फूर्ति बांधली हांव| इये मती ||२३८|| तरि कैसेनि इयेतें गाळावें| म्हणौनि पडिलें बोलावें| तेवींचि तुवांही जाणावें| ऐसा भावो ||२३९|| बहुतकरूनि किरीटी| हाचि विषो इये गोठी| एऱ्हवी कां आडवाटीं| धाविजैल गा ? ||२४०|| आणि स्वमताचिया निर्धारा- | लागोनियां धनुर्धरा| प्राप्तां मतांतरां| निर्वेचु कीजे ||२४१|| ऐसी हे अवधारीं| निरूपिती परी| आतां ययावरी| मुख्य जें गा ||२४२|| तें स्वमत बोलिजैल| अहिंसे रूप किजैल| जेणें उठलिया आंतुल| ज्ञान दिसे ||२४३|| परी तें अधिष्ठिलेनि आंगें| जाणिजे आचरतेनि बगें| जैसी कसवटी सांगे| वानियातें ||२४४|| तैसें ज्ञानामनाचिये भेटी| सरिसेंचि अहिंसेचें बिंब उठी| तेंचि ऐसें किरीटी| परिस आतां ||२४४|| तरी तरंगु नोलांडितु| लहरी पायें न फोडितु| सांचलु न मोडितु| पाणियाचा ||२४६|| वेगें आणि लेसा| दिठी घालूनि आंविसा| जळीं बकु जैसा| पाउल सुये ||२४७|| कां कमळावरी भ्रमर| पाय ठेविती हळुवार| कुचुंबैल केसर| इया शंका ||२४८|| तैसे परमाणु पां गुंतले| जाणूनि जीव सानुले| कारुण्यामाजीं पाउलें| लपवूनि चाले ||२४९|| ते वाट कृपेची करितु| ते दिशाचि स्नेह भरितु| जीवातळीं आंथरितु| आपुला जीवु ||२५०|| ऐसिया जतना| चालणें जया अर्जुना| हें अनिर्वाच्य परिमाणा| पुरिजेना ||२५१|| पैं मोहाचेनि सांगडें| लासी पिलीं धरी तोंडें| तेथ दांतांचे आगरडे| लागती जैसे ||२५२|| कां स्नेहाळु माये| तान्हयाची वास पाहे| तिये दिठी आहे| हळुवार जें ||२५३|| नाना कमळदळें| डोलविजती ढाळें| तो जेणें पाडें बुबुळें| वारा घेपे ||२५४|| तैसेनि मार्दवें पाय| भूमीवरी न्यसीतु जाय| लागती तेथ होय| जीवां सुख ||२५५|| ऐसिया लघिमा चालतां| कृमि कीटक पंडुसुता| देखे तरी माघौता| हळूचि निघे ||२५६|| म्हणे पावो धडफडील| तरी स्वामीची निद्रा मोडैल| रचलेपणा पडैल| झोती हन ||२५७|| इया काकुळती| वाहणी घे माघौती| कोणेही व्यक्ती| न वचे वरी ||२५८|| जीवाचेनि नांवें| तृणातेंही नोलांडवे| मग न लेखितां जावें| हे कें गोठी ? ||२५९|| मुंगिये मेरु नोलांडवे| मशका सिंधु न तरवे| तैसा भेटलियां न करवे| अतिक्रमु ||२६०|| ऐसी जयाची चाली| कृपाफळी फळा आली| देखसी जियाली| दया वाचे ||२६१|| स्वयें श्वसणेंचि सुकुमार| मुख मोहाचें माहेर| माधुर्या जाहले अंकुर| दशन तैसे ||२६२|| पुढां स्नेह पाझरे| माघां चालती अक्षरें| शब्द पाठीं अवतरे| कृपा आधीं ||२६३|| तंव बोलणेंचि नाहीं| बोलों म्हणे जरी कांहीं| तरी बोल कोणाही| खुपेल कां ||२६४|| बोलतां अधिकुही निघे| तरी कोण्हाही वर्मीं न लगे| आणि कोण्हासि न रिघे| शंका मनीं ||२६५|| मांडिली गोठी हन मोडैल| वासिपैल कोणी उडैल| आइकोनिचि वोवांडिल| कोण्ही जरी ||२६६|| तरी दुवाळी कोणा नोहावी| भुंवई कवणाची नुचलावी| ऐसा भावो जीवीं| म्हणौनि उगा ||२६७|| मग प्रार्थिला विपायें| जरी लोभें बोलों जाये| तरी परिसतया होये| मायबापु ||२६८|| कां नादब्रह्मचि मुसे आलें| कीं गंगापय असललें| पतिव्रते आलें| वार्धक्य जैसे ||२६९|| तैसें साच आणि मवाळ| मितले आणि रसाळ| शब्द जैसे कल्लोळ| अमृताचे ||२७०|| विरोधुवादुबळु| प्राणितापढाळु| उपहासु छळु| वर्मस्पर्शु ||२७१|| आटु वेगु विंदाणु| आशा शंका प्रतारणु| हे संन्यासिले अवगुणु| जया वाचा ||२७२|| आणि तयाचि परी किरीटी| थाउ जयाचिये दिठी| सांडिलिया भ्रुकुटी| मोकळिया ||२७३|| कां जे भूतीं वस्तु आहे| तियें रुपों शके विपायें| म्हणौनि वासु न पाहे| बहुतकरूनी ||२७४|| ऐसाही कोणे एके वेळे| भीतरले कृपेचेनि बळें| उघडोनियां डोळे| दृष्टी घाली ||२७५|| तरी चंद्रबिंबौनि धारा| निघतां नव्हती गोचरा| परि एकसरें चकोरां| निघती दोंदें ||२७६|| तैसें प्राणियांसि होये| जरी तो कहींवासु पाहे| तया अवलोकनाची सोये| कूर्मींही नेणे ||२७७|| किंबहुना ऐसी| दिठी जयाची भूतांसी| करही देखसी| तैसेचि ते ||२७८|| तरी होऊनियां कृतार्थ| राहिले सिद्धांचे मनोरथ| तैसे जयाचे हात| निर्व्यापार ||२७९|| अक्षमें आणि संन्यासिलें| कीं निरिंधन आणि विझालें| मुकेनि घेतलें| मौन जैसें ||२८०|| तयापरी कांहीं| जयां करां करणें नाहीं| जे अकर्तयाच्या ठायीं| बैसों येती ||२८१|| आसुडैल वारा| नख लागेल अंबरा| इया बुद्धी करां| चळों नेदी ||२८२|| तेथ आंगावरिलीं उडवावीं| कां डोळां रिगतें झाडावीं| पशुपक्ष्यां दावावीं| त्रासमुद्रा ||२८३|| इया केउतिया गोठी| नावडे दंडु काठी| मग शस्त्राचें किरीटी| बोलणें कें ? ||२८४|| लीलाकमळें खेळणें| कांपुष्पमाळा झेलणें| न करी म्हणे गोफणें| ऐसें होईल ||२८५|| हालवतील रोमावळी| यालागीं आंग न कुरवाळी| नखांची गुंडाळी| बोटांवरी ||२८६|| तंव करणेयाचाचि अभावो| परी ऐसाही पडे प्रस्तावो| तरी हातां हाचि सरावो| जे जोडिजती ||२८७|| कां नाभिकारा उचलिजे| हातु पडिलियां देइजे| नातरी आर्तातें स्पर्शिजे| अळुमाळु ||२८८|| हेंही उपरोधें करणें| तरी आर्तभय हरणें| नेणती चंद्रकिरणें| जिव्हाळा तो ||२८९|| पावोनि तो स्पर्शु| मलयानिळु खरपुसु| तेणें मानें पशु| कुरवाळणें ||२९०|| जे सदा रिते मोकळे| जैशी चंदनांगें निसळें| न फळतांही निर्फळें| होतीचिना ||२९१|| आतां असो हें वाग्जाळ| जाणें तें करतळ| सज्जनांचे शीळ| स्वभाव जैसे ||२९२|| आतां मन तयाचें| सांगों म्हणों जरी साचें| तरी सांगितले कोणाचे| विलास हे ? ||२९३|| काइ शाखा नव्हे तरु ? | जळेंवीण असे सागरु ? | तेज आणि तेजाकारु| आन काई ? ||२९४|| अवयव आणि शरीर| हे वेगळाले कीर ? | कीं रसु आणि नीर| सिनानीं आथी ? ||२९५|| म्हणौनि हे जे सर्व| सांगितले बाह्य भाव| ते मनचि गा सावयव| ऐसें जाणें ||२९६|| जें बीज भुईं खोंविलें| तेंचि वरी रुख जाहलें| तैसें इंद्रियाद्वारीं फांकलें| अंतरचि कीं ||२९७|| पैं मानसींचि जरी| अहिंसेची अवसरी| तरी कैंची बाहेरी| वोसंडेल ? ||२९८|| आवडे ते वृत्ती किरीटी| आधीं मनौनीचि उठी| मग ते वाचे दिठी| करांसि ये ||२९९|| वांचूनि मनींचि नाहीं| तें वाचेसि उमटेल काई ? | बींवीण भुईं| अंकुर असे ? ||३००|| म्हणौनि मनपण जैं मोडे| तैं इंद्रिय आधींचि उबडें| सूत्रधारेंवीण साइखडें| वावो जैसें ||३०१|| उगमींचि वाळूनि जाये| तें वोघीं कैचें वाहे| जीवु गेलिया आहे| चेष्टा देहीं ? ||३०२|| तैसें मन हें पांडवा| मूळ या इंद्रियभावा| हेंचि राहटे आघवां| द्वारीं इहीं ||३०३|| परी जिये वेळीं जैसें| जें होऊनि आंतु असे| बाहेरी ये तैसें| व्यापाररूपें ||३०४|| यालागी साचोकारें| मनीं अहिंसा थांवे थोरें| पिकली द्रुती आदरें| बोभात निघे ||३०५|| म्हणौनि इंद्रियें तेचि संपदा| वेचितां हीं उदावादा| अहिंसेचा धंदा| करितें आहाती ||३०६|| समुद्रीं दाटे भरितें| तैं समुद्रचि भरी तरियांते| तैसें स्वसंपत्ती चित्तें| इंद्रियां केलें ||३०७|| हें बहु असो पंडितु| धरुनि बाळकाचा हातु| वोळी लिही व्यक्तु| आपणचि ||३०८|| तैसें दयाळुत्व आपुलें| मनें हातापायां आणिलें| मग तेथ उपजविलें| अहिंसेतें ||३०९|| याकारणें किरीटी| इंद्रियांचिया गोठी| मनाचिये राहाटी| रूप केलें ||३१०|| ऐसा मनें देहें वाचा| सर्व संन्यासु दंडाचा| जाहला ठायीं जयाचा| देखशील ||३११|| तो जाण वेल्हाळ| ज्ञानाचें वेळाउळ| हें असो निखळ| ज्ञानचि तो ||३१२|| जे अहिंसा कानें ऐकिजे| ग्रंथाधारें निरूपिजे| ते पाहावी हें उपजे| तैं तोचि पाहावा ||३१३|| ऐसें म्हणितलें देवें| तें बोलें एकें सांगावें| परी फांकला हें उपसाहावें| तुम्हीं मज ||३१४|| म्हणाल हिरवें चारीं गुरूं| विसरे मागील मोहर धरूं| कां वारेलगें पांखिरूं| गगनीं भरे ||३१५|| तैसिया प्रेमाचिया स्फूर्ती| फावलिया रसवृत्तीं| वाहविला मती| आकळेना ||३१६|| तरि तैसें नोहे अवधारा| कारण असें विस्तारा| एऱ्हवीं पद तरी अक्षरां| तिहींचेंचि ||३१७|| अहिंसा म्हणतां थोडी| परी ते तैंचि होय उघडी| जैं लोटिजती कोडी| मतांचिया ||३१८|| एऱ्हवीं प्राप्तें मतांतरें| थातंबूनि आंगभरें| बोलिजैल ते न सरे| तुम्हांपाशीं ||३१९|| रत्नपारखियांच्या गांवीं| जाईल गंडकी तरी सोडावी| काश्मीरीं न करावी| मिडगण जेवीं ||३२०|| काइसा वासु कापुरा| मंद जेथ अवधारा| पिठाचा विकरा| तिये सातें ? ||३२१|| म्हणौनि इये सभे| बोलकेपणाचेनि क्षोभें| लाग सरूं न लभे| बोला प्रभु ||३२२|| सामान्या आणि विशेषा| सकळै कीजेल देखा| तरी कानाचेया मुखा- | कडे न्याल ना तुम्ही ||३२३|| शंकेचेनि गदळें| जैं शुद्ध प्रमेय मैळे| तैं मागुतिया पाउलीं पळे| अवधान येतें ||३२४|| कां करूनि बाबुळियेची बुंथी| जळें जियें ठाती| तयांची वास पाहाती| हंसु काई ? ||३२५|| कां अभ्रापैलीकडे| जैं येत चांदिणें कोडें| तैं चकोरें चांचुवडें| उचलितीना ||३२६|| तैसें तुम्ही वास न पाहाल| ग्रंथु नेघा वरी कोपाल| जरी निर्विवाद नव्हैल| निरूपण ||३२७|| न बुझावितां मतें| न फिटे आक्षेपाचें लागतें| तें व्याख्यान जी तुमतें| जोडूनि नेदी ||३२८|| आणि माझें तंव आघवें| ग्रथन येणेचि भावें| जे तुम्हीं संतीं होआवें| सन्मुख सदां ||३२९|| एऱ्हवीं तरी साचोकारें| तुम्ही गीतार्थाचे सोइरे| जाणोनि गीता एकसरें| धरिली मियां ||३३०|| जें आपुलें सर्वस्व द्याल| मग इयेतें सोडवूनि न्याल| म्हणौनि ग्रंथु नव्हे वोल| साचचि हे ||३३१|| कां सर्स्वाचा लोभु धरा| वोलीचा अव्हेरु करा| तरी गीते मज अवधारा| एकचि गती ||३३२|| किंबहुना मज| तुमचिया कृपा काज| तियेलागीं व्याज| ग्रंथाचें केलें ||३३३|| तरी तुम्हां रसिकांजोगें| व्याख्यान शोधावें लागे| म्हणौनि जी मतांगें| बोलों गेलों ||३३४|| तंव कथेसि पसरु जाहला| श्लोकार्थु दूरी गेला| कीजो क्षमा यया बोला| अपत्या मज ||३३५|| आणि घांसाआंतिल हरळु| फेडितां लागे वेळु| ते दूषण नव्हें खडळु| सांडावा कीं ||३३६|| कां संवचोरा चुकवितां| दिवस लागलिया माता| कोपावें कीं जीविता| जिताणें कीजे ? ||३३७|| परी यावरील हें नव्हे| तुम्हीं उपसाहिलें तेंचि बरवें| आतां अवधारिजो देवें| बोलिलें ऐसें ||३३८|| म्हणे उन्मेखसुलोचना| सावध होईं अर्जुना| करूं तुज ज्ञाना| वोळखी आतां ||३३९|| तरी ज्ञान गा तें एथें| वोळख तूं निरुतें| आक्रोशेंवीण जेथें| क्षमा असे ||३४०|| अगाध सरोवरीं| कमळिणी जियापरी| कां सदैवाचिया घरीं| संपत्ति जैसी ||३४१|| पार्था तेणें पाडें| क्षमा जयातें वाढे| तेही लक्षे तें फुडें| लक्षण सांगों ||३४२|| तरी पढियंते लेणें| आंगीं भावें जेणें| धरिजे तेवीं साहणें| सर्वचि जया ||३४३|| त्रिविध मुख्य आघवे| उपद्रवांचे मेळावे| वरी पडिलिया नव्हे| वांकुडा जो ||३४४|| अपेक्षित पावे| तें जेणें तोषें मानवें| अनपेक्षिताही करवे| तोचि मानु ||३४५|| जो मानापमानातें साहे| सुखदुःख जेथ सामाये| निंदास्तुती नोहे| दुखंडु जो ||३४६|| उन्हाळेनि जो न तपे| हिमवंती न कांपे| कयसेनिही न वासिपे| पातलेया ||३४७|| स्वशिखरांचा भारु| नेणें जैसा मेरु| कीं धरा यज्ञसूकरु| वोझें न म्हणे ||३४८|| नाना चराचरीं भूतीं| दाटणी नव्हे क्षिती| तैसा नाना द्वंद्वीं प्राप्तीं| घामेजेना ||३४९|| घेऊनी जळाचे लोट| आलिया नदीनदांचे संघाट| करी वाड पोट| समुद्र जेवीं ||३५०|| तैसें जयाचिया ठायीं| न साहणें काहींचि नाहीं| आणि साहतु असे ऐसेंही| स्मरण नुरे ||३५१|| आंगा जें पातलें| तें करूनि घाली आपुलें| येथ साहतेनि नवलें| घेपिजेना ||३५२|| हे अनाक्रोश क्षमा| जयापाशीं प्रियोत्तमा| जाण तेणें महिमा| ज्ञानासि गा ||३५३|| तो पुरुषु पांडवा| ज्ञानाचा वोलावा| आतां परिस आर्जवा| रूप करूं ||३५४|| तरी आर्जव तें ऐसें| प्राणाचें सौजन्य जैसें| आवडे तयाही दोषें| एकचि गा ||३५५|| कां तोंड पाहूनि प्रकाशु| न करी जेवीं चंडांशु| जगा एकचि अवकाशु| आकाश जैसें ||३५६|| तैसें जयाचें मन| माणुसाप्रति आन आन| नव्हे आणि वर्तन| ऐसें पैं तें ||३५७|| जे जगेंचि सनोळख| जगेंसीं जुनाट सोयरिक| आपपर हें भाख| जाणणें नाहीं ||३५८|| भलतेणेंसीं मेळु| पाणिया ऐसा ढाळु| कवणेविखीं आडळु| नेघे चित्त ||३५९|| वारियाची धांव| तैसे सरळ भाव| शंका आणि हांव| नाहीं जया ||३६०|| मायेपुढें बाळका| रिगतां न पडे शंका| तैसें मन देतां लोकां| नालोची जो ||३६१|| फांकलिया इंदीवरा| परिवारु नाहीं धनुर्धरा| तैसा कोनकोंपरा| नेणेचि जो ||३६२|| चोखाळपण रत्नाचें| रत्नावरी किरणाचें| तैसें पुढां मन जयाचें| करणें पाठीं ||३६३|| आलोचूं जो नेणे| अनुभवचि जोगावणें| धरी मोकळी अंतःकरणें| नव्हेचि जया ||३६४|| दिठी नोहे मिणधी| बोलणें नाहीं संदिग्धी| कवणेंसीं हीनबुद्धी| राहाटीजे ना ||३६५|| दाही इंद्रियें प्रांजळें| निष्प्रपंचें निर्मळें| पांचही पालव मोकळे| आठही पाहर ||३६६|| अमृताची धार| तैसें उजूं अंतर| किंबहुना जो माहेर| या चिन्हांचें ||३६७|| तो पुरुष सुभटा| आर्जवाचा आंगवटा| जाण तेथेंचि घरटा| ज्ञानें केला ||३६८|| आतां ययावरी| गुरुभक्तीची परी| सांगों गा अवधारीं| चतुरनाथा ||३६९|| आघवियाचि दैवां| जन्मभूमि हे सेवा| जे ब्रह्म करी जीवा| शोच्यातेंहि ||३७०|| हें आचार्योपास्ती| प्रकटिजैल तुजप्रती| बैसों दे एकपांती| अवधानाची ||३७१|| तरी सकळ जळसमृद्धी| घेऊनि गंगा निघाली उदधी| कीं श्रुति हे महापदीं| पैठी जाहाली ||३७२|| नाना वेंटाळूनि जीवितें| गुणागुण उखितें| प्राणनाथा उचितें| दिधलें प्रिया ||३७३|| तैसें सबाह्य आपुलें| जेणें गुरुकुळीं वोपिलें| आपणपें केलें| भक्तीचें घर ||३७४|| गुरुगृह जये देशीं| तो देशुचि वसे मानसीं| विरहिणी कां जैसी| वल्लभातें ||३७५|| तियेकडोनि येतसे वारा| देखोनि धांवे सामोरा| आड पडे म्हणे घरा| बीजें कीजो ||३७६|| साचा प्रेमाचिया भुली| तया दिशेसीचि आवडे बोली| जीवु थानपती करूनि घाली| गुरुगृहीं जो ||३७७|| परी गुरुआज्ञा धरिलें| देह गांवीं असे एकलें| वांसरुवा लाविलें| दावें जैसें ||३७८|| म्हणे कैं हें बिरडें फिटेल| कैं तो स्वामी भेटेल| युगाहूनि वडील| निमिष मानी ||३७९|| ऐसेया गुरुग्रामींचें आलें| कां स्वयें गुरूंनींचि धाडिलें| तरी गतायुष्या जोडलें| आयुष्य जैसें ||३८०|| कां सुकतया अंकुरा- | वरी पडलिया पीयूषधारा| नाना अल्पोदकींचा सागरा| आला मासा ||३८१|| नातरी रंकें निधान देखिलें| कां आंधळिया डोळे उघडले| भणंगाचिया आंगा आलें| इंद्रपद ||३८२|| तैसें गुरुकुळाचेनि नांवें| महासुखें अति थोरावे| जें कोडेंही पोटाळवें| आकाश कां ||३८३|| पैं गुरुकुळीं ऐसी| आवडी जया देखसी| जाण ज्ञान तयापासीं| पाइकी करी ||३८४|| आणि अभ्यंतरीलियेकडे| प्रेमाचेनि पवाडे| श्रीगुरूंचें रूपडें| उपासी ध्यानीं ||३८५|| हृदयशुद्धीचिया आवारीं| आराध्यु तो निश्चल ध्रुव करी| मग सर्व भावेंसी परिवारीं| आपण होय ||३८६|| कां चैतन्यांचिये पोवळी- | माजीं आनंदाचिया राउळीं| श्रीगुरुलिंगा ढाळी| ध्यानामृत ||३८७|| उदयिजतां बोधार्का| बुद्धीची डाळ सात्त्विका| भरोनियां त्र्यंबका| लाखोली वाहे ||३८८|| काळशुद्धी त्रिकाळीं| जीवदशा धूप जाळीं| न्यानदीपें वोंवाळी| निरंतर ||३८९|| सामरस्याची रससोय| अखंड अर्पितु जाय| आपण भराडा होय| गुरु तो लिंग ||३९०|| नातरी जीवाचिये सेजे| गुरु कांतु करूनि भुंजे| ऐसीं प्रेमाचेनि भोजें| बुद्धी वाहे ||३९१|| कोणेएके अवसरीं| अनुरागु भरे अंतरीं| कीं तया नाम करी| क्षीराब्धी ||३९२|| तेथ ध्येयध्यान बहु सुख| तेंचि शेषतुका निर्दोख| वरी जलशयन देख| भावी गुरु ||३९३|| मग वोळगती पाय| ते लक्ष्मी आपण होय| गरुड होऊनि उभा राहे| आपणचि ||३९४|| नाभीं आपणचि जन्मे| ऐसें गुरुमूर्तिप्रेमें| अनुभवी मनोधर्में| ध्यानसुख ||३९५|| एकाधिये वेळें| गुरु माय करी भावबळें| मग स्तन्यसुखें लोळे| अंकावरी ||३९६|| नातरी गा किरीटी| चैतन्यतरुतळवटीं| गुरु धेनु आपण पाठीं| वत्स होय ||३९७|| गुरुकृपास्नेहसलिलीं| आपण होय मासोळी| कोणे एके वेळीं| हेंचि भावीं ||३९८|| गुरुकृपामृताचे वडप| आपण सेवावृत्तीचें होय रोप| ऐसेसे संकल्प| विये मन ||३९९|| चक्षुपक्षेवीण| पिलूं होय आपण| कैसें पैं अपारपण| आवडीचें ||४००|| गुरूतें पक्षिणी करी| चारा घे चांचूवरी| गुरु तारू धरी| आपण कांस ||४०१|| ऐसें प्रेमाचेनि थावें| ध्यानचि ध्यानातें प्रसवे| पूर्णसिंधु हेलावे| फुटती जैसे ||४०२|| किंबहुना यापरी| श्रीगुरुमूर्ती अंतरीं| भोगी आतां अवधारीं| बाह्यसेवा ||४०३|| तरी जिवीं ऐसे आवांके| म्हणे दास्य करीन निकें| जैसें गुरु कौतुकें| माग म्हणती ||४०४|| तैसिया साचा उपास्ती| गोसावी प्रसन्न होती| तेथ मी विनंती| ऐसी करीन ||४०५|| म्हणेन तुमचा देवा| परिवारु जो आघवा| तेतुलें रूपें होआवा| मीचि एकु ||४०६|| आणि उपकरतीं आपुलीं| उपकरणें आथि जेतुलीं| माझीं रूपें तेतुलीं| होआवीं स्वामी ||४०७|| ऐसा मागेन वरु| तेथ हो म्हणती श्रीगुरु| मग तो परिवारु| मीचि होईन ||४०८|| उपकरणजात सकळिक| तें मीचि होईन एकैक| तेव्हां उपास्तीचें कवतिक| देखिजैल ||४०९|| गुरु बहुतांची माये| परी एकलौती होऊनि ठाये| तैसें करूनि आण वायें| कृपे तिये ||४१०|| तया अनुरागा वेधु लावीं| एकपत्नीव्रत घेववीं| क्षेत्रसंन्यासु करवीं| लोभाकरवीं ||४११|| चतुर्दिक्षु वारा| न लाहे निघों बाहिरा| तैसा गुरुकृपें पांजिरा| मीचि होईन ||४१२|| आपुलिया गुणांचीं लेणीं| करीन गुरुसेवे स्वामिणी| हें असो होईन गंवसणी| मीचि भक्तीसी ||४१३|| गुरुस्नेहाचिये वृष्टी| मी पृथ्वी होईन तळवटीं| ऐसिया मनोरथांचिया सृष्टी| अनंता रची ||४१४|| म्हणे श्रीगुरूंचें भुवन| आपण मी होईन| आणि दास होऊनि करीन| दास्य तेथिंचें ||४१५|| निर्गमागमीं दातारें| जे वोलांडिजती उंबरे| ते मी होईन आणि द्वारें| द्वारपाळु ||४१६|| पाउवा मी होईन| तियां मीचि लेववीन| छत्र मी आणि करीन| बारीपण ||४१७|| मी तळ उपरु जाणविता| चंवरु धरु हातु देता| स्वामीपुढें खोलता| होईन मी ||४१८|| मीचि होईन सागळा| करूं सुईन गुरुळां| सांडिती तो नेपाळा| पडिघा मीचि ||४१९|| हडप मी वोळगेन| मीचि उगाळु घेईन| उळिग मी करीन| आंघोळीचें ||४२०|| होईन गुरूंचें आसन| अलंकार परिधान| चंदनादि होईन| उपचार ते ||४२१|| मीचि होईन सुआरु| वोगरीन उपहारु| आपणपें श्रीगुरु| वोंवाळीन ||४२२|| जे वेळीं देवो आरोगिती| तेव्हां पांतीकरु मीचि पांतीं| मीचि होईन पुढती| देईन विडा ||४२३|| ताट मी काढीन| सेज मी झाडीन| चरणसंवाहन| मीचि करीन ||४२४|| सिंहासन होईन आपण| वरी श्रीगुरु करिती आरोहण| होईन पुरेपण| वोळगेचें ||४२५|| श्रीगुरूंचें मन| जया देईल अवधान| तें मी पुढां होईन| चमत्कारु ||४२६|| तया श्रवणाचे आंगणीं| होईन शब्दांचिया आक्षौहिणी| स्पर्श होईन घसणी| आंगाचिया ||४२७|| श्रीगुरूंचे डोळे| अवलोकनें स्नेहाळें| पाहाती तियें सकळें| होईन रूपें ||४२८|| तिये रसने जो जो रुचेल| तो तो रसु म्यां होईजैल| गंधरूपें कीजेल| घ्राणसेवा ||४२९|| एवं बाह्यमनोगत| श्रीगुरुसेवा समस्त| वेंटाळीन वस्तुजात| होऊनियां ||४३०|| जंव देह हें असेल| तंव वोळगी ऐसी कीजेल| मग देहांतीं नवल| बुद्धि आहे ||४३१|| इये शरीरींची माती| मेळवीन तिये क्षिती| जेथ श्रीचरण उभे ठाती| श्रीगुरूंचे ||४३२|| माझा स्वामी कवतिकें| स्पर्शीजति जियें उदकें| तेथ लया नेईन निकें| आपीं आप ||४३३|| श्रीगुरु वोंवाळिजती| कां भुवनीं जे उजळिजती| तयां दीपांचिया दीप्तीं| ठेवीन तेज ||४३४|| चवरी हन विंजणा| तेथ लयो करीन प्राणा| मग आंगाचा वोळंगणा| होईन मी ||४३५|| जिये जिये अवकाशीं| श्रीगुरु असती परिवारेंसीं| आकाश लया आकाशीं| नेईन तिये ||४३६|| परी जीतु मेला न संडीं| निमेषु लोकां न धाडीं| ऐसेनि गणावया कोडी| कल्पांचिया ||४३७|| येतुलेंवरी धिंवसा| जयाचिया मानसा| आणि करूनियांहि तैसा| अपारु जो ||४३८|| रात्र दिवस नेणे| थोडें बहु न म्हणें| म्हणियाचेनि दाटपणें| साजा होय ||४३९|| तो व्यापारु येणें नांवें| गगनाहूनि थोरावे| एकला करी आघवें| एकेचि काळीं ||४४०|| हृदयवृत्ती पुढां| आंगचि घे दवडा| काज करी होडा| मानसेंशीं ||४४१|| एकादियां वेळा| श्रीगुरुचिया खेळा| लोण करी सकळा| जीविताचें ||४४२|| जो गुरुदास्यें कृशु| जो गुरुप्रेमें सपोषु| गुरुआज्ञे निवासु| आपणचि जो ||४४३|| जो गुरु कुळें सुकुलीनु| जो गुरुबंधुसौजन्यें सुजनु| जो गुरुसेवाव्यसनें सव्यसनु| निरंतर ||४४४|| गुरुसंप्रदायधर्म| तेचि जयाचे वर्णाश्रम| गुरुपरिचर्या नित्यकर्म| जयाचें गा ||४४५|| गुरु क्षेत्र गुरु देवता| गुरु माय गुरु पिता| जो गुरुसेवेपरौता| मार्ग नेणें ||४४६|| श्रीगुरूचे द्वार| तें जयाचें सर्वस्व सार| गुरुसेवकां सहोदर| प्रेमें भजे ||४४७|| जयाचें वक्त्र| वाहे गुरुनामाचे मंत्र| गुरुवाक्यावांचूनि शास्त्र| हातीं न शिवे ||४४८|| शिवतलें गुरुचरणीं| भलतैसें हो पाणी| तया सकळ तीर्थें आणी| त्रैलोक्यींचीं ||४४९|| श्रीगुरूचें उशिटें| लाहे जैं अवचटें| तैं तेणें लाभें विटे| समाधीसी ||४५०|| कैवल्यसुखासाठीं| परमाणु घे किरीटी| उधळती पायांपाठीं| चालतां जे ||४५१|| हें असो सांगावें किती| नाहीं पारु गुरुभक्ती| परी गा उत्क्रांतमती| कारण हें ||४५२|| जया इये भक्तीची चाड| जया इये विषयींचें कोड| जो हे सेवेवांचून गोड| न मनी कांहीं ||४५३|| तो तत्त्वज्ञाचा ठावो| ज्ञाना तेणेंचि आवो| हें असो तो देवो| ज्ञान भक्तु ||४५४|| हें जाण पां साचोकारें| तेथ ज्ञान उघडेनि द्वारें| नांदत असे जगा पुरे| इया रीती ||४५५|| जिये गुरुसेवेविखीं| माझा जीव अभिलाखी| म्हणौनि सोयचुकी| बोली केली ||४५६|| एऱ्हवीं असतां हातीं खुळा| भजनावधानीं आंधळा| परिचर्येलागीं पांगुळा- | पासूनि मंदु ||४५७|| गुरुवर्णनीं मुका| आळशी पोशिजे फुका| परी मनीं आथि निका| सानुरागु ||४५८|| तेणेंचि पैं कारणें| हें स्थूळ पोसणें| पडलें मज म्हणे| ज्ञानदेवो ||४५९|| परि तो बोलु उपसाहावा| आणि वोळगे अवसरु देयावा| आतां म्हणेन जी बरवा| ग्रंथार्थुचि ||४६०|| परिसा परिसा श्रीकृष्णु| जो भूतभारसहिष्णु| तो बोलतसे विष्णु| पार्थु ऐके ||४६१|| म्हणे शुचित्व गा ऐसें| जयापाशीं दिसे| आंग मन जैसें| कापुराचें ||४६२|| कां रत्नाचें दळवाडें| तैसें सबाह्य चोखडें| आंत बाहेरि एकें पाडें| सूर्यु जैसा ||४६३|| बाहेरीं कर्में क्षाळला| भितरीं ज्ञानें उजळला| इहीं दोहीं परीं आला| पाखाळा एका ||४६४|| मृत्तिका आणि जळें| बाह्य येणें मेळें| निर्मळु होय बोलें| वेदाचेनी ||४६५|| भलतेथ बुद्धीबळी| रजआरिसा उजळी| सौंदणी फेडी थिगळी| वस्त्रांचिया ||४६६|| किंबहुना इयापरी| बाह्य चोख अवधारीं| आणि ज्ञानदीपु अंतरीं| म्हणौनि शुद्ध ||४६७|| एऱ्हवीं तरी पंडुसुता| आंत शुद्ध नसतां| बाहेरि कर्म तो तत्त्वतां| विटंबु गा ||४६८|| मृत जैसा शृंगारिला| गाढव तीर्थीं न्हाणिला| कडुदुधिया माखिला| गुळें जैसा ||४६९|| वोस गृहीं तोरण बांधिलें| कां उपवासी अन्नें लिंपिलें| कुंकुमसेंदुर केलें| कांतहीनेनें ||४७०|| कळस ढिमाचे पोकळ| जळो वरील तें झळाळ| काय करूं चित्रींव फळ| आंतु शेण ||४७१|| तैसें कर्मवरिचिलेंकडां| न सरे थोर मोलें कुडा| नव्हे मदिरेचा घडा| पवित्र गंगे ||४७२|| म्हणौनि अंतरीं ज्ञान व्हावें| मग बाह्य लाभेल स्वभावें| वरी ज्ञान कर्में संभवे| ऐसें कें जोडे ? ||४७३|| यालागी बाह्य विभागु| कर्में धुतला चांगु| आणि ज्ञानें फिटला वंगु| अंतरींचा ||४७४|| तेथ अंतर बाह्य गेले| निर्मळत्व एक जाहलें| किंबहुना उरलें| शुचित्वचि ||४७५|| म्हणौनि सद्भाव जीवगत| बाहेरी दिसती फांकत| जे स्फटिकगृहींचे डोलत| दीप जैसे ||४७६|| विकल्प जेणें उपजे| नाथिली विकृति निपजे| अप्रवृत्तीचीं बीजें| अंकुर घेती ||४७७|| तें आइके देखे अथवा भेटे| परी मनीं कांहींचि नुमटे| मेघरंगें न कांटे| व्योम जैसें ||४७८|| एऱ्हवीं इंद्रियांचेनि मेळें| विषयांवरी तरी लोळे| परी विकाराचेनि विटाळें| लिंपिजेना ||४७९|| भेटलिया वाटेवरी| चोखी आणि माहारी| तेथ नातळें तियापरी| राहाटों जाणें ||४८०|| कां पतिपुत्रांतें आलिंगी| एकचि ते तरुणांगी| तेथ पुत्रभावाच्या आंगीं| न रिगे कामु ||४८१|| तैसें हृदय चोख| संकल्पविकल्पीं सनोळख| कृत्याकृत्य विशेख| फुडें जाणें ||४८२|| पाणियें हिरा न भिजे| आधणीं हरळु न शिजे| तैसी विकल्पजातें न लिंपिजे| मनोवृत्ती ||४८३|| तया नांव शुचिपण| पार्था गा संपूर्ण| हें देखसी तेथ जाण| ज्ञान असे ||४८४|| आणि स्थिरता साचें| घर रिगाली जयाचें| तो पुरुष ज्ञानाचें| आयुष्य गा ||४८५|| देह तरी वरिचिलीकडे| आपुलिया परी हिंडे| परी बैसका न मोडे| मानसींची ||४८६|| वत्सावरूनि धेनूचें| स्नेह राना न वचे| नव्हती भोग सतियेचे| प्रेमभोग ||४८७|| कां लोभिया दूर जाये| परी जीव ठेविलाचि ठाये| तैसा देहो चाळितां नव्हे| चळु चित्ता ||४८८|| जातया अभ्रासवें| जैसें आकाश न धांवे| भ्रमणचक्रीं न भंवे| ध्रुव जैसा ||४८९|| पांथिकाचिया येरझारा| सवें पंथु न वचे धनुर्धरा| कां नाहीं जेवीं तरुवरा| येणें जाणें ||४९०|| तैसा चळणवळणात्मकीं| असोनि ये पांचभौतिकीं| भूतोर्मी एकी| चळिजेना ||४९१|| वाहुटळीचेनि बळें| पृथ्वी जैसी न ढळे| तैसा उपद्रव उमाळें| न लोटे जो ||४९२|| दैन्यदुःखीं न तपे| भवशोकीं न कंपे| देहमृत्यु न वासिपे| पातलेनी ||४९३|| आर्ति आशा पडिभरें| वय व्याधी गजरें| उजू असतां पाठिमोरें| नव्हे चित्त ||४९४|| निंदा निस्तेज दंडी| कामलोभा वरपडी| परी रोमा नव्हे वांकुडी| मानसाची ||४९५|| आकाश हें वोसरो| पृथ्वी वरि विरो| परि नेणे मोहरों| चित्तवृत्ती ||४९६|| हाती हाला फुलीं| पासवणा जेवीं न घाली| तैसा न लोटे दुर्वाक्यशेलीं| शेलिला सांता ||४९७|| क्षीरार्णवाचिया कल्लोळीं| कंपु नाहीं मंदराचळीं| कां आकाश न जळे जाळीं| वणवियाच्या ||४९८|| तैशा आल्या गेल्या ऊर्मी| नव्हे गजबज मनोधर्मीं| किंबहुना धैर्य क्षमी| कल्पांतींही ||४९९|| परी स्थैर्य ऐसी भाष| बोलिजे जे सविशेष| ते हे दशा गा देख| देखणया ||५००|| हें स्थैर्य निधडें| जेथ आंगें जीवें जोडे| तें ज्ञानाचें उघडें| निधान साचें ||५०१|| आणि इसाळु जैसा घरा| कां दंदिया हतियेरा| न विसंबे भांडारा| बद्धकु जैसा ||५०२|| कां एकलौतिया बाळका- | वरि पडौनि ठाके अंबिका| मधुविषीं मधुमक्षिका| लोभिणी जैसी ||५०३|| अर्जुना जो यापरी| अंतःकरण जतन करी| नेदी उभें ठाकों द्वारीं| इंद्रियांच्या ||५०४|| म्हणे काम बागुल ऐकेल| हे आशा सियारी देखैल| तरि जीवा टेंकैल| म्हणौनि बिहे ||५०५|| बाहेरी धीट जैसी| दाटुगा पति कळासी| करी टेहणी तैसी| प्रवृत्तीसीं ||५०६|| सचेतनीं वाणेपणें| देहासकट आटणें| संयमावरीं करणें| बुझूनि घाली ||५०७|| मनाच्या महाद्वारीं| प्रत्याहाराचिया ठाणांतरीं| जो यम दम शरीरीं| जागवी उभे ||५०८|| आधारीं नाभीं कंठीं| बंधत्रयाचीं घरटीं| चंद्रसूर्य संपुटीं| सुये चित्त ||५०९|| समाधीचे शेजेपासीं| बांधोनि घाली ध्यानासी| चित्त चैतन्य समरसीं| आंतु रते ||५१०|| अगा अंतःकरणनिग्रहो जो| तो हा हें जाणिजो| हा आथी तेथ विजयो| ज्ञानाचा पैं ||५११|| जयाची आज्ञा आपण| शिरीं वाहे अंतःकरण| मनुष्याकारें जाण| ज्ञानचि तो ||५१२|| इंद्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च | जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ||८|| आणि विषयांविखीं| वैराग्याची निकी| पुरवणी मानसीं कीं| जिती आथी ||५१३|| वमिलेया अन्ना| लाळ न घोंटी जेवीं रसना| कांआंग न सूये आलिंगना| प्रेताचिया ||५१४|| विष खाणें नागवे| जळत घरीं न रिगवे| व्याघ्रविवरां न वचवे| वस्ती जेवीं ||५१५|| धडाडीत लोहरसीं| उडी न घालवे जैसी| न करवे उशी| अजगराची ||५१६|| अर्जुना तेणें पाडें| जयासी विषयवार्ता नावडे| नेदी इंद्रियांचेनि तोंडें| कांहींच जावों ||५१७|| जयाचे मनीं आलस्य| देही अतिकार्श्य| शमदमीं सौरस्य| जयासि गा ||५१८|| तपोव्रतांचा मेळावा| जयाच्या ठायीं पांडवा| युगांत जया गांवा- | आंतु येतां ||५१९|| बहु योगाभ्यासीं हांव| विजनाकडे धांव| न साहे जो नांव| संघाताचें ||५२०|| नाराचांचीं आंथुरणें| पूयपंकीं लोळणें| तैसें लेखी भोगणें| ऐहिकींचें ||५२१|| आणि स्वर्गातें मानसें| ऐकोनि मानी ऐसें| कुहिलें पिशित जैसें| श्वानाचें कां ||५२२|| तें हें विषयवैराग्य| जें आत्मलाभाचें सभाग्य| येणें ब्रह्मानंदा योग्य| जीव होती ||५२३|| ऐसा उभयभोगीं त्रासु| देखसी जेथ बहुवसु| तेथ जाण रहिवासु| ज्ञानाचा तूं ||५२४|| आणि सचाडाचिये परी| इष्टापूर्तें करी| परी केलेंपण शरीरीं| वसों नेदी ||५२५|| वर्णाश्रमपोषकें| कर्में नित्यनैमित्तिकें| तयामाजीं कांहीं न ठके| आचरतां ||५२६|| परि हें मियां केलें| कीं हें माझेनि सिद्धी गेलें| ऐसें नाहीं ठेविलें| वासनेमाजीं ||५२७|| जैसें अवचितपणें| वायूसि सर्वत्र विचरणें| कां निरभिमान उदैजणें| सूर्याचें जैसें ||५२८|| कां श्रुति स्वभावता बोले| गंगा काजेंविण चाले| तैसें अवष्टंभहीन भलें| वर्तणें जयाचें ||५२९|| ऋतुकाळीं तरी फळती| परी फळलों हें नेणती| तयां वृक्षांचिये ऐसी वृत्ती| कर्मीं सदा ||५३०|| एवं मनीं कर्मीं बोलीं| जेथ अहंकारा उखी जाहली| एकावळीची काढिली| दोरी जैसी ||५३१|| संबंधेंवीण जैसीं| अभ्रें असती आकाशीं| देहीं कर्में तैसीं| जयासि गा ||५३२|| मद्यपाआंगींचें वस्त्र| लेपाहातींचें शस्त्र| बैलावरी शास्त्र| बांधलें आहे ||५३३|| तया पाडें देहीं| जया मी आहे हे सेचि नाहीं| निरहंकारता पाहीं| तया नांव ||५३४|| हें संपूर्ण जेथें दिसे| तेथेंचि ज्ञान असे| इयेविषीं अनारिसें| बोलों नये ||५३५|| आणि जन्ममृत्युजरादुःखें| व्याधिवार्धक्यकलुषें| तियें आंगा न येतां देखे| दुरूनि जो ||५३६|| साधकु विवसिया| कां उपसर्गु योगिया| पावे उणेयापुरेया| वोथंबा जेवीं ||५३७|| वैर जन्मांतरींचें| सर्पा मनौनि न वचे| तेवीं अतीता जन्माचें| उणें जो वाहे ||५३८|| डोळां हरळ न विरे| घाईं कोत न जिरे| तैसें काळींचें न विसरे| जन्मदुःख ||५३९|| म्हणे पूयगर्ते रिगाला| अहा मूत्ररंध्रें निघाला| कटा रे मियां चाटिला| कुचस्वेदु ||५४०|| ऐसाइसिया परी| जन्माचा कांटाळा धरी| म्हणे आतां तें मी न करीं| जेणें ऐसें होय ||५४१|| हारी उमचावया| जुंवारी जैसा ये डाया| कीं वैरा बापाचेया| पुत्र जचे ||५४२|| मारिलियाचेनि रागें| पाठीचा जेवीं सूड मागें| तेणें आक्षेपें लागे| जन्मापाठीं ||५४३|| परी जन्मती ते लाज| न सांडी जयाचें निज| संभाविता निस्तेज| न जिरे जेवीं ||५४४|| आणि मृत्यु पुढां आहे| तोचि कल्पांतीं कां पाहे| परी आजीचि होये| सावधु जो ||५४५|| माजीं अथांव म्हणता| थडियेचि पंडुसुता| पोहणारा आइता| कासे जेवीं ||५४६|| कां न पवतां रणाचा ठावो| सांभाळिजे जैसा आवो| वोडण सुइजे घावो| न लागतांचि ||५४७|| पाहेचा पेणा वाटवधा| तंव आजीचि होईजे सावधा| जीवु न वचतां औषधा| धांविजे जेवीं ||५४८|| येऱ्हवीं ऐसें घडे| जो जळतां घरीं सांपडे| तो मग न पवाडे| कुहा खणों ||५४९|| चोंढिये पाथरु गेला| तैसेनि जो बुडाला| तो बोंबेहिसकट निमाला| कोण सांगे ||५५०|| म्हणौनि समर्थेंसीं वैर| जया पडिलें हाडखाइर| तो जैसा आठही पाहर| परजून असे ||५५१|| नातरी केळवली नोवरी| का संन्यासी जियापरी| तैसा न मरतां जो करी| मृत्युसूचना ||५५२|| पैं गा जो ययापरी| जन्मेंचि जन्म निवारी| मरणें मृत्यु मारी| आपण उरे ||५५३|| तया घरीं ज्ञानाचें| सांकडें नाहीं साचें| जया जन्ममृत्युचें| निमालें शल्य ||५५४|| आणि तयाचिपरी जरा| न टेंकतां शरीरा| तारुण्याचिया भरा- | माजीं देखे ||५५५|| म्हणे आजिच्या अवसरीं| पुष्टि जे शरीरीं| ते पाहे होईल काचरी| वाळली जैसी ||५५६|| निदैव्याचे व्यवसाय| तैसे ठाकती हातपाय| अमंत्र्या राजाची परी आहे| बळा यया ||५५७|| फुलांचिया भोगा- | लागीं प्रेम टांगा| तें करेयाचा गुडघा| तैसें होईल ||५५८|| वोढाळाच्या खुरीं| आखरुआतें बुरी| ते दशा माझ्या शिरीं| पावेल गा ||५५९|| पद्मदळेंसी इसाळे| भांडताति हे डोळे| ते होती पडवळें| पिकलीं जैसीं ||५६०|| भंवईचीं पडळें| वोमथती सिनसाळे| उरु कुहिजैल जळें| आंसुवाचेनि ||५६१|| जैसें बाभुळीचें खोड| गिरबडूनि जाती सरड| तैसें पिचडीं तोंड| सरकटिजैल ||५६२|| रांधवणी चुलीपुढें| पऱ्हे उन्मादती खातवडे| तैसींचि यें नाकाडें| बिडबिडती ||५६३|| तांबुलें वोंठ र्ॐ| हांसतां दांत द्ॐ| सनागर मिरऊं| बोल जेणें ||५६४|| तयाचि पाहे या तोंडा| येईल जळंबटाचा लोंढा| इया उमळती दाढा| दातांसहित ||५६५|| कुळवाडी रिणें दाटली| कां वांकडिया ढोरें बैसलीं| तैसी नुठी कांहीं केली| जीभचि हे ||५६६|| कुसळें कोरडीं| वारेनि जाती बरडीं| तैसा आपदा तोंडीं| दाढियेसी ||५६७|| आषाढींचेनि जळें| जैसीं झिरपती शैलाचीं मौळें| तैसें खांडीहूनि लाळे| पडती पूर ||५६८|| वाचेसि अपवाडु| कानीं अनुघडु| पिंड गरुवा माकडु| होईल हा ||५६९|| तृणाचें बुझवणें| आंदोळे वारेनगुणें| तैसें येईल कांपणें| सर्वांगासी ||५७०|| पायां पडती वेंगडी| हात वळती मुरकुंडी| बरवपणा बागडी| नाचविजैल ||५७१|| मळमूत्रद्वारें| होऊनि ठाती खोंकरें| नवसियें होती इतरें| माझियां निधनीं ||५७२|| देखोनि थुंकील जगु| मरणाचा पडैल पांगु| सोइरियां उबगु| येईल माझा ||५७३|| स्त्रियां म्हणती विवसी| बाळें जाती मूर्छी| किंबहुना चिळसी| पात्र होईन ||५७४|| उभळीचा उजगरा| सेजारियां साइलिया घरा| शिणवील म्हणती म्हातारा| बहुतांतें हा ||५७५|| ऐसी वार्धक्याची सूचणी| आपणिया तरुणपणीं| देखे मग मनीं| विटे जो गा ||५७६|| म्हणे पाहे हें येईल| आणि आतांचें भोगितां जाईल| मग काय उरेल| हितालागीं ? ||५७७|| म्हणौनि नाइकणें पावे| तंव आईकोनि घाली आघवें| पंगु न होता जावें| तेथ जाय ||५७८|| दृष्टी जंव आहे| तंव पाहावें तेतुलें पाहे| मूकत्वा आधीं वाचा वाहे| सुभाषितें ||५७९|| हात होती खुळे| हें पुढील मोटकें कळे| आणि करूनि घाली सकळें| दानादिकें ||५८०|| ऐसी दशा येईल पुढें| तैं मन होईल वेडें| तंव चिंतूनि ठेवी चोखडें| आत्मज्ञान ||५८१|| जैं चोर पाहे झोंबती| तंव आजीचि रुसिजे संपत्ती| का झांकाझांकी वाती| न वचतां कीजे ||५८२|| तैसें वार्धक्य यावें| मग जें वायां जावें| तें आतांचि आघवें| सवतें करीं ||५८३|| आतां मोडूनि ठेलीं दुर्गें| कां वळित धरिलें खगें| तेथ उपेक्षूनि जो निघे| तो नागवला कीं ? ||५८४|| तैसें वृद्धाप्य होये| आलेपण तें वायां जाये| जे तो शतवृद्ध आहे| नेणों कैंचा ||५८५|| झाडिलींचि कोळें झाडी| तया न फळे जेवीं बोंडीं| जाहला अग्नि तरी राखोंडी| जाळील काई ? ||५८६|| म्हणौनि वार्धक्याचेनि आठवें| वार्धक्या जो नागवे| तयाच्या ठायीं जाणावें| ज्ञान आहे ||५८७|| तैसेंचि नाना रोग| पडिघाती ना जंव पुढां आंग| तंव आरोग्याचे उपेग| करूनि घाली ||५८८|| सापाच्या तोंडी| पडली जे उंडी| ते लाऊनि सांडी| प्रबुद्धु जैसा ||५८९|| तैसा वियोगें जेणें दुःखे| विपत्ति शोक पोखे| तें स्नेह सांडूनि सुखें| उदासु होय ||५९०|| आणि जेणें जेणें कडे| दोष सूतील तोंडें| तयां कर्मरंध्री गुंडे| नियमाचे दाटी ||५९१|| ऐसाइसिया आइती| जयाची परी असती| तोचि ज्ञानसंपत्ती- | गोसावी गा ||५९२|| आतां आणीकही एक| लक्षण अलौकिक| सांगेन आइक| धनंजया ||५९३|| असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु | नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ||९|| तरि जो या देहावरी| उदासु ऐसिया परी| उखिता जैसा बिढारीं| बैसला आहे ||५९४|| कां झाडाची साउली| वाटे जातां मीनली| घरावरी तेतुली| आस्था नाहीं ||५९५|| साउली सरिसीच असे| परी असे हें नेणिजे जैसें| स्त्रियेचें तैसें| लोलुप्य नाहीं ||५९६|| आणि प्रजा जे जाली| तियें वस्ती कीर आलीं| कां गोरुवें बैसलीं| रुखातळीं ||५९७|| जो संपत्तीमाजी असतां| ऐसा गमे पंडुसुता| जैसा कां वाटे जातां| साक्षी ठेविला ||५९८|| किंबहुना पुंसा| पांजरियामाजीं जैसा| वेदाज्ञेसी तैसा| बिहूनि असे ||५९९|| एऱ्हवीं दारागृहपुत्रीं| नाहीं जया मैत्री| तो जाण पां धात्री| ज्ञानासि गा ||६००|| महासिंधू जैसे| ग्रीष्मवर्षीं सरिसे| इष्टानिष्ट तैसें| जयाच्या ठायीं ||६०१|| कां तिन्ही काळ होतां| त्रिधा नव्हे सविता| तैसा सुखदुःखीं चित्ता| भेदु नाहीं ||६०२|| जेथ नभाचेनि पाडें| समत्वा उणें न पडे| तेथ ज्ञान रोकडें| वोळख तूं ||६०३|| मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी | विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१०|| आणि मीवांचूनि कांहीं| आणिक गोमटें नाहीं| ऐसा निश्चयोचि तिहीं| जयाचा केला ||६०४|| शरीर वाचा मानस| पियालीं कृतनिश्चयाचा कोश| एक मीवांचूनि वास| न पाहती आन ||६०५|| किंबहुना निकट निज| जयाचें जाहलें मज| तेणें आपणयां आम्हां सेज| एकी केली ||६०६|| रिगतां वल्लभापुढें| नाहीं आंगीं जीवीं सांकडें| तिये कांतेचेनि पाडें| एकसरला जो ||६०७|| मिळोनि मिळतचि असे| समुद्रीं गंगाजळ जैसें| मी होऊनि मज तैसें| सर्वस्वें भजती ||६०८|| सूर्याच्या होण्यां होईजे| कां सूर्यासवेंचि जाइजे| हें विकलेपण साजे| प्रभेसि जेवीं ||६०९|| पैं पाणियाचिये भूमिके| पाणी तळपे कौतुकें| ते लहरी म्हणती लौकिकें| एऱ्हवीं तें पाणी ||६१०|| जो अनन्यु यापरी| मी जाहलाहि मातें वरी| तोचि तो मूर्तधारी| ज्ञान पैं गा ||६११|| आणि तीर्थें धौतें तटें| तपोवनें चोखटें| आवडती कपाटें| वसवूं जया ||६१२|| शैलकक्षांचीं कुहरें| जळाशय परिसरें| अधिष्ठी जो आदरें| नगरा न ये ||६१३|| बहु एकांतावरी प्रीति| जया जनपदाची खंती| जाण मनुष्याकारें मूर्ती| ज्ञानाची तो ||६१४|| आणिकहि पुढती| चिन्हें गा सुमती| ज्ञानाचिये निरुती- | लागीं सांगों ||६१५|| अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् | एतद्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा ||११|| तरी परमात्मा ऐसें| जें एक वस्तु असे| तें जया दिसें| ज्ञानास्तव ||६१६|| तें एकवांचूनि आनें| जियें भवस्वर्गादि ज्ञानें| तें अज्ञान ऐसा मनें| निश्चयो केला ||६१७|| स्वर्गा जाणें हें सांडी| भवविषयीं कान झाडी| दे अध्यात्मज्ञानीं बुडी| सद्भावाची ||६१८|| भंगलिये वाटे| शोधूनिया अव्हांटे| निघिजे जेवीं नीटें| राजपंथें ||६१९|| तैसें ज्ञानजातां करी| आघवेंचि एकीकडे सारी| मग मन बुद्धि मोहरी| अध्यात्मज्ञानीं ||६२०|| म्हणे एक हेंचि आथी| येर जाणणें ते भ्रांती| ऐसी निकुरेंसी मती| मेरु होय ||६२१|| एवं निश्चयो जयाचा| द्वारीं आध्यात्मज्ञानाचा| ध्रुव देवो गगनींचा| तैसा राहिला ||६२२|| तयाच्या ठायीं ज्ञान| या बोला नाहीं आन| जे ज्ञानीं बैसलें मन| तेव्हांचि तें तो मी ||६२३|| तरी बैसलेपणें जें होये| बैसतांचि बोलें न होये| तरी ज्ञाना तया आहे| सरिसा पाडु ||६२४|| आणि तत्त्वज्ञान निर्मळ| फळे जें एक फळ| तें ज्ञेयही वरी सरळ| दिठी जया ||६२५|| एऱ्हवीं बोधा आलेनि ज्ञानें| जरी ज्ञेय न दिसेचि मनें| तरी ज्ञानलाभुही न मने| जाहला सांता ||६२६|| आंधळेनि हातीं दिवा| घेऊनि काय करावा ? | तैसा ज्ञाननिश्चयो आघवा| वायांचि जाय ||६२७|| जरि ज्ञानाचेनि प्रकाशें| परतत्त्वीं दिठी न पैसे| ते स्फूर्तीचि असे| अंध होऊनी ||६२८|| म्हणौनि ज्ञान जेतुलें दावीं| तेतुली वस्तुचि आघवी| तें देखे ऐशी व्हावी| बुद्धि चोख ||६२९|| यालागीं ज्ञानें निर्दोखें| दाविलें ज्ञेय देखे| तैसेनि उन्मेखें| आथिला जो ||६३०|| जेवढी ज्ञानाची वृद्धी| तेवढीच जयाची बुद्धी| तो ज्ञान हे शब्दीं| करणें न लगे ||६३१|| पैं ज्ञानाचिये प्रभेसवें| जयाची मती ज्ञेयीं पावे| तो हातधरणिया शिवे| परतत्त्वातें ||६३२|| तोचि ज्ञान हें बोलतां| विस्मो कवण पंडुसुता ? | काय सवितयातें सविता| म्हणावें असें ? ||६३३|| तंव श्रोतें म्हणती असो| न सांगें तयाचा अतिसो| ग्रंथोक्ती तेथ आडसो| घालितोसी कां ? ||६३४|| तुझा हाचि आम्हां थोरु| वक्तृत्वाचा पाहुणेरु| जे ज्ञानविषो फारु| निरोपिला ||६३५|| रसु होआवा अतिमात्रु| हा घेतासि कविमंत्रु| तरी अवंतूनि शत्रु| करितोसि कां गा ? ||६३६|| ठायीं बैसतिये वेळे| जे रससोय घेऊनि पळे| तियेचा येरु वोडव मिळे| कोणा अर्था ? ||६३७|| आघवाचि विषयीं भादी| परी सांजवणीं टेंकों नेदी| ते खुरतोडी नुसधी| पोषी कवण ? ||६३८|| तैसी ज्ञानीं मती न फांके| येर जल्पती नेणों केतुकें| परि तें असो निकें| केलें तुवां ||६३९|| जया ज्ञानलेशोद्देशें| कीजती योगादि सायासें| तें धणीचें आथी तुझिया ऐसें| निरूपण ||६४०|| अमृताची सातवांकुडी| लागो कां अनुघडी| सुखाच्या दिवसकोडी| गणिजतु कां ||६४१|| पूर्णचंद्रेंसीं राती| युग एक असोनि पहाती| तरी काय पाहात आहाती| चकोर ते ? ||६४२|| तैसें ज्ञानाचें बोलणें| आणि येणें रसाळपणें| आतां पुरे कोण म्हणे ? | आकर्णितां ||६४३|| आणि सभाग्यु पाहुणा ये| सुभगाचि वाढती होये| तैं सरों नेणें रससोये| ऐसें आथी ||६४४|| तैसा जाहला प्रसंगु| जे ज्ञानीं आम्हांसि लागु| आणि तुजही अनुरागु| आथि तेथ ||६४५|| म्हणौनि यया वाखाणा- | पासीं से आली चौगुणा| ना म्हणों नयेसि देखणा ? | होसी ज्ञानी ||६४६|| तरी आतां ययावरी| प्रज्ञेच्या माजघरीं| पदें साच करीं| निरूपणीं ||६४७|| या संतवाक्यासरिसें| म्हणितलें निवृत्तिदासें| माझेंही जी ऐसें| मनोगत ||६४८|| यावरी आतां तुम्हीं| आज्ञापिला स्वामी| तरी वायां वागू मी| वाढों नेदी ||६४९|| एवं इयें अवधारा| ज्ञानलक्षणें अठरा| श्रीकृष्णें धनुर्धरा| निरूपिली ||६५०|| मग म्हणें या नांवें| ज्ञान एथ जाणावें| हे स्वमत आणि आघवें| ज्ञानियेही म्हणती ||६५१|| करतळावरी वाटोळा| डोलतु देखिजे आंवळा| तैसें ज्ञान आम्हीं डोळां| दाविलें तुज ||६५२|| आतां धनंजया महामती| अज्ञान ऐसी वदंती| तेंही सांगों व्यक्ती| लक्षणेंसीं ||६५३|| एऱ्हवीं ज्ञान फुडें जालिया| अज्ञान जाणवे धनंजया| जें ज्ञान नव्हे तें अपैसया| अज्ञानचि ||६५४|| पाहें पां दिवसु आघवा सरे| मग रात्रीची वारी उरे| वांचूनि कांहीं तिसरें| नाहीं जेवीं ||६५५|| तैसें ज्ञान जेथ नाहीं| तेंचि अज्ञान पाहीं| तरी सांगों कांहीं कांहीं| चिन्हें तियें ||६५६|| तरी संभावने जिये| जो मानाची वाट पाहे| सत्कारें होये| तोषु जया ||६५७|| गर्वें पर्वताचीं शिखरें| तैसा महत्त्वावरूनि नुतरे| तयाचिया ठायीं पुरे| अज्ञान आहे ||६५८|| आणि स्वधर्माची मांगळी| बांधे वाचेच्या पिंपळीं| उभिला जैसा देउळीं| जाणोनि कुंचा ||६५९|| घाली विद्येचा पसारा| सूये सुकृताचा डांगोरा| करी तेतुलें मोहरा| स्फीतीचिया ||६६०|| आंग वरिवरी चर्ची| जनातें अभ्यर्चितां वंची| तो जाण पां अज्ञानाची| खाणी एथ ||६६१|| आणि वन्ही वनीं विचरे| तेथ जळती जैसीं जंगमें स्थावरें| तैसें जयाचेनि आचारें| जगा दुःख ||६६२|| कौतुकें जें जें जल्पे| तें साबळाहूनि तीख रुपे| विषाहूनि संकल्पें| मारकु जो ||६६३|| तयातें बहु अज्ञान| तोचि अज्ञानाचें निधान| हिंसेसि आयतन| जयाचें जिणें ||६६४|| आणि फुंकें भाता फुगे| रेचिलिया सवेंचि उफगे| तैसा संयोगवियोगें| चढे वोहटे ||६६५|| पडली वारयाचिया वळसा| धुळी चढे आकाशा| हरिखा वळघे तैसा| स्तुतीवेळे ||६६६|| निंदा मोटकी आइके| आणि कपाळ धरूनि ठाके| थेंबें विरे वारोनि शोखे| चिखलु जैसा ||६६७|| तैसा मानापमानीं होये| जो कोण्हीचि उर्मी न साहे| तयाच्या ठायीं आहे| अज्ञान पुरें ||६६८|| आणि जयाचिया मनीं गांठी| वरिवरी मोकळी वाचा दिठी| आंगें मिळे जीवें पाठीं| भलतया दे ||६६९|| व्याधाचे चारा घालणें| तैसें प्रांजळ जोगावणें| चांगाचीं अंतःकरणें| विरु करी ||६७०|| गार शेवाळें गुंडाळली| कां निंबोळी जैसी पिकली| तैसी जयाची भली| बाह्य क्रिया ||६७१|| अज्ञान तयाचिया ठायीं| ठेविलें असे पाहीं| याबोला आन नाहीं| सत्य मानीं ||६७२|| आणि गुरुकुळीं लाजे| जो गुरुभक्ती उभजे| विद्या घेऊनि माजे| गुरूसींचि जो ||६७३|| तयाचें नाम घेणें| तें वाचे शूद्रान्न होणें| परी घडलें लक्षणें| बोलतां इयें ||६७४|| आता गुरुभक्तांचें नांव घेवों| तेणें वाचेसि प्रायश्चित देवों| गुरुसेवका नांव पावों| सूर्यु जैसा ||६७५|| येतुलेनि पांगु पापाचा| निस्तरेल हे वाचा| जो गुरुतल्पगाचा| नामीं आला ||६७६|| हा ठायवरी| तया नामाचें भय हरी| मग म्हणे अवधारीं| आणिकें चिन्हें ||६७७|| तरि आंगें कर्में ढिला| जो मनें विकल्पें भरला| अडवींचा अवगळला| कुहा जैसा ||६७८|| तया तोंडीं कांटिवडे| आंतु नुसधीं हाडें| अशुचि तेणें पाडें| सबाह्य जो ||६७९|| जैसें पोटालागीं सुणें| उघडें झांकलें न म्हणे| तैसें आपलें परावें नेणे| द्रव्यालागीं ||६८०|| इया ग्रामसिंहाचिया ठायीं| जैसा मिळणी ठावो अठावो नाहीं| तैसा स्त्रीविषयीं कांहीं| विचारीना ||६८१|| कर्माचा वेळु चुके| कां नित्य नैमित्तिक ठाके| तें जया न दुखे| जीवामाजीं ||६८२|| पापी जो निसुगु| पुण्याविषयीं अतिनिलागु| जयाचिया मनीं वेगु| विकल्पाचा ||६८३|| तो जाण निखिळा| अज्ञानाचा पुतळा| जो बांधोनि असे डोळां| वित्ताशेतें ||६८४|| आणि स्वार्थें अळुमाळें| जो धैर्यापासोनि चळे| जैसें तृणबीज ढळे| मुंगियेचेनी ||६८५|| पावो सूदलिया सवें| जैसें थिल्लर कालवे| तैसा भयाचेनि नांवें| गजबजे जो ||६८६|| मनोरथांचिया धारसा| वाहणें जयाचिया मानसा| पूरीं पडिला जैसा| दुधिया पाहीं ||६८७|| वायूचेनि सावायें| धू दिगंतरा जाये| दुःखवार्ता होये| तसें जया ||६८८|| वाउधणाचिया परी| जो आश्रो कहींचि न धरी| क्षेत्रीं तीर्थीं पुरीं| थारों नेणे ||६८९|| कां मातलिया सरडा| पुढती बुडुख पुढती शेंडा| हिंडणवारा कोरडा| तैसा जया ||६९०|| जैसा रोविल्याविणें| रांजणु थारों नेणे| तैसा पडे तैं राहणें| एऱ्हवीं हिंडे ||६९१|| तयाच्या ठायीं उदंड| अज्ञान असे वितंड| जो चांचल्यें भावंड| मर्कटाचें ||६९२|| आणि पैं गा धनुर्धरा| जयाचिया अंतरा| नाहीं वोढावारा| संयमाचा ||६९३|| लेंडिये आला लोंढा| न मनी वाळुवेचा वरवंडा| तैसा निषेधाचिया तोंडा| बिहेना जो ||६९४|| व्रतातें आड मोडी| स्वधर्मु पायें वोलांडी| नियमाची आस तोडी| जयाची क्रिया ||६९५|| नाहीं पापाचा कंटाळा| नेणें पुण्याचा जिव्हाळा| लाजेचा पेंडवळा| खाणोनि घाली ||६९६|| कुळेंसीं जो पाठमोरा| वेदाज्ञेसीं दुऱ्हा| कृत्याकृत्यव्यापारा| निवाडु नेणे ||६९७|| वसू जैसा मोकाटु| वारा जैसा अफाटु| फुटला जैसा पाटु| निर्जनीं ||६९८|| आंधळें हातिरूं मातलें| कां डोंगरीं जैसें पेटलें| तैसें विषयीं सुटलें| चित्त जयाचें ||६९९|| पैं उबधडां काय न पडे| मोकाटु कोणां नातुडे| ग्रामद्वारींचे आडें| नोलांडी कोण ||७००|| जैसें सत्रीं अन्न जालें| कीं सामान्या बीक आलें| वाणसियेचें उभलें| कोण न रिगे ? ||७०१|| तैसें जयाचें अंतःकरण| तयाच्या ठायीं संपूर्ण| अज्ञानाची जाण| ऋद्धि आहे ||७०२|| आणि विषयांची गोडी| जो जीतु मेला न संडी| स्वर्गींही खावया जोडी| येथूनिची ||७०३|| जो अखंड भोगा जचे| जया व्यसन काम्यक्रियेचें| मुख देखोनि विरक्ताचें| सचैल करी ||७०४|| विषो शिणोनि जाये| परि न शिणे सावधु नोहे| कुहीला हातीं खाये| कोढी जैसा ||७०५|| खरी टेंकों नेदी उडे| लातौनि फोडी नाकाडें| तऱ्ही जेवीं न काढे| माघौता खरु ||७०६|| तैसा जो विषयांलागीं| उडी घाली जळतिये आगीं| व्यसनाची आंगीं| लेणीं मिरवी ||७०७|| फुटोनि पडे तंव| मृग वाढवी हांव| परी न म्हणे ते माव| रोहिणीची ||७०८|| तैसा जन्मोनि मृत्यूवरी| विषयीं त्रासितां बहुतीं परीं| तऱ्ही त्रासु नेघे धरी| अधिक प्रेम ||७०९|| पहिलिये बाळदशे| आई बा हेंचि पिसें| तें सरे मग स्त्रीमांसें| भुलोनि ठाके ||७१०|| मग स्त्री भोगितां थावों| वृद्धाप्य लागे येवों| तेव्हां तोचि प्रेमभावो| बाळकांसि आणी ||७११|| आंधळें व्यालें जैसें| तैसा बाळें परिवसे| परि जीवें मरे तों न त्रासे| विषयांसि जो ||७१२|| जाण तयाच्या ठायीं| अज्ञानासि पारु नाहीं| आतां आणीक कांहीं| चिन्हें सांगों ||७१३|| तरि देह हाचि आत्मा| ऐसेया जो मनोधर्मा| वळघोनियां कर्मा| आरंभु करी ||७१४|| आणि उणें कां पुरें| जें जें कांहीं आचरे| तयाचेनि आविष्करें| कुंथों लागे ||७१५|| डोईये ठेविलेनि भोजें| देवलविसें जेवीं फुंजे| तैसा विद्यावयसा माजे| उताणा चाले ||७१६|| म्हणे मीचि एकु आथी| माझ्यांचि घरीं संपत्ती| माझी आचरती रीती| कोणा आहे ||७१७|| नाहीं माझेनि पाडें वाडु| मी सर्वज्ञ एकचि रूढु| ऐसा गर्वतुष्टीगंडु| घेऊनि ठाके ||७१८|| व्याधि लागलिया माणुसा| नयेचि भोग द्ॐ जैसा| निकें न साहे जो तैसा| पुढिलांचें ||७१९|| पैं गुण तेतुला खाय| स्नेह कीं जाळितु जाय| जेथ ठेविजे तेथ होय| मसीऐसें ||७२०|| जीवनें शिंपिला तिडपिडी| विजिला प्राण सांडीं| लागला तरी काडी| उरों नेदी ||७२१|| आळुमाळ प्रकाशु करी| तेतुलेनीच उबारा धरी| तैसिया दीपाचि परी| सुविद्यु जो ||७२२|| औषधाचेनि नांवें अमृतें| जैसा नवज्वरु आंबुथे| कां विषचि होऊनि परतें| सर्पा दूध ||७२३|| तैसा सद्गुणीं मत्सरु| व्युत्पत्ती अहंकारु| तपोज्ञानें अपारु| ताठा चढे ||७२४|| अंत्यु राणिवे बैसविला| आरें धारणु गिळिला| तैसा गर्वें फुगला| देखसी जो ||७२५|| जो लाटणें ऐसा न लवे| पाथरु तेवीं न द्रवे| गुणियासि नागवे| फोडसें जैसें ||७२६|| किंबहुना तयापाशी| अज्ञान आहे वाढीसीं| हें निकरें गा तुजसीं| बोलत असों ||७२७|| आणीकही धनंजया| जो गृहदेह सामग्रिया| न देखे कालचेया| जन्मातें गा ||७२८|| कृतघ्ना उपकारु केला| कां चोरा व्यवहारु दिधला| निसुगु स्तविला| विसरे जैसा ||७२९|| वोढाळितां लाविलें| तें तैसेंच कान पूंस वोलें| कीं पुढती वोढाळुं आलें| सुणें जैसें ||७३०|| बेडूक सापाचिया तोंडीं| जातसे सबुडबुडीं| तो मक्षिकांचिया कोडीं| स्मरेना कांहीं ? ||७३१|| तैसीं नवही द्वारें स्रवती| आंगीं देहाची लुती जिती| जेणें जाली तें चित्तीं| सलेना जया ||७३२|| मातेच्या उदरकुहरीं| पचूनि विष्ठेच्या दाथरीं| जठरीं नवमासवरी| उकडला जो ||७३३|| तें गर्भींची जे व्यथा| कां जें जालें उपजतां| तें कांहींचि सर्वथा| नाठवी जो ||७३४|| मलमूत्रपंकीं| जे लोळतें बाळ अंकीं| तें देखोनि जो न थुंकीं| त्रासु नेघे ||७३५|| कालचि ना जन्म गेलें| पाहेचि पुढती आलें| ऐसें हें कांहीं वाटलें| नाहीं जया ||७३६|| आणि पैं तयाची परी| जीविताची फरारी| देखोनि जो न करी| मृत्युचिंता ||७३७|| जिणेयाचेनि विश्वासें| मृत्यु एक एथ असे| हें जयाचेनि मानसें| मानिजेना ||७३८|| अल्पोदकींचा मासा| हें नाटे ऐसिया आशा| न वचेचि कां जैसा| अगाध डोहां ||७३९|| कां गोरीचिया भुली| मृग व्याधा दृष्टी न घाली| गळु न पाहतां गिळिली| उंडी मीनें ||७४०|| दीपाचिया झगमगा| जाळील हें पतंगा| नेणवेचि पैं गा| जयापरी ||७४१|| गव्हारु निद्रासुखें| घर जळत असे तें न देखे| नेणतां जेंवी विखें| रांधिलें अन्न ||७४२|| तैसा जीविताचेनि मिषें| हा मृत्युचि आला असे| हें नेणेचि राजसें| सुखें जो गा ||७४३|| शरीरींचीं वाढी| अहोरात्रांची जोडी| विषयसुखप्रौढी| साचचि मानी ||७४४|| परी बापुडा ऐसें नेणे| जें वेश्येचें सर्वस्व देणें| तेंचि तें नागवणें| रूप एथ ||७४५|| संवचोराचें साजणें| तेंचि तें प्राण घेणें| लेपा स्नपन करणें| तोचि नाशु ||७४६|| पांडुरोगें आंग सुटलें| तें तयाचि नांवे खुंटलें| तैसें नेणें भुललें| आहारनिद्रा ||७४७|| सन्मुख शूला| धांवतया पायें चपळा| प्रतिपदीं ये जवळा| मृत्यु जेवीं ||७४८|| तेवीं देहा जंव जंव वाढु| जंव जंव दिवसांचा पवाडु| जंव जंव सुरवाडु| भोगांचा या ||७४९|| तंव तंव अधिकाधिकें| मरण आयुष्यातें जिंके| मीठ जेवीं उदकें| घांसिजत असे ||७५०|| तैसें जीवित्व जाये| तयास्तव काळु पाहे| हें हातोहातींचें नव्हे| ठाउकें जया ||७५१|| किंबहुना पांडवा| हा आंगींचा मृत्यु नीच नवा| न देखे जो मावा| विषयांचिया ||७५२|| तो अज्ञानदेशींचा रावो| या बोला महाबाहो| न पडे गा ठावो| आणिकांचा ||७५३|| पैं जीविताचेनि तोखें| जैसा कां मृत्यु न देखे| तैसाचि तारुण्ये पोखें| जरा न गणी ||७५४|| कडाडीं लोटला गाडा| कां शिखरौनि सुटला धोंडा| तैसा न देखे जो पुढां| वार्धक्य आहे ||७५५|| कां आडवोहळा पाणी आलें| कां जैसे म्हैसयाचें झुंज मातलें| तैसें तारुण्याचे चढलें| भुररें जया ||७५६|| पुष्टि लागे विघरों| कांति पाहे निसरों| मस्तक आदरीं शिरों- | भागीं कंप ||७५७|| दाढी साउळ धरी| मान हालौनि वारी| तरी जो करी| मायेचा पैसु ||७५८|| पुढील उरीं आदळे| तंव न देखे जेवीं आंधळें| कां डोळ्यावरलें निगळे| आळशी तोषें ||७५९|| तैसें तारुण्य आजिचें| भोगितां वृद्धाप्य पाहेचें| न देखे तोचि साचें| अज्ञानु गा ||७६०|| देखे अक्षमें कुब्जें| कीं विटावूं लागे फुंजें| परी न म्हणे पाहे माझें| ऐसेंचि भवे ||७६१|| आणि आंगीं वृद्धाप्यतेची| संज्ञा ये मरणाची| परी जया तारुण्याची| भुली न फिटे ||७६२|| तो अज्ञानाचें घर| हें साचचि घे उत्तर| तेवींचि परियेसीं थोर| चिन्हें आणिक ||७६३|| तरि वाघाचिये अडवे| एक वेळ आला चरोनि दैवें| तेणें विश्वासें पुढती धांवे| वसू जैसा ||७६४|| कां सर्पघराआंतु| अवचटें ठेवा आणिला स्वस्थु| येतुलियासाठीं निश्चितु| नास्तिकु होय ||७६५|| तैसेनि अवचटें हें| एकदोनी वेळां लाहे| एथ रोग एक आहे| हें मानीना जो ||७६६|| वैरिया नीद आली| आतां द्वंद्वें माझीं सरलीं| हें मानी तो सपिली| मुकला जेवीं ||७६७|| तैसी आहारनिद्रेची उजरी| रोग निवांतु जोंवरी| तंव जो न करी| व्याधी चिंता ||७६८|| आणि स्त्रीपुत्रादिमेळें| संपत्ति जंव जंव फळे| तेणें रजें डोळे| जाती जयाचे ||७६९|| सवेंचि वियोगु पडैल| विळौनी विपत्ति येईल| हें दुःख पुढील| देखेना जो ||७७०|| तो अज्ञान गा पांडवा| आणि तोही तोचि जाणावा| जो इंद्रियें अव्हासवा| चारी एथ ||७७१|| वयसेचेनि उवायें| संपत्तीचेनि सावायें| सेव्यासेव्य जाये| सरकटितु ||७७२|| न करावें तें करी| असंभाव्य मनीं धरी| चिंतू नये तें विचारी| जयाची मती ||७७३|| रिघे जेथ न रिघावें| मागे जें न घ्यावें| स्पर्शे जेथ न लागावें| आंग मन ||७७४|| न जावें तेथ जाये| न पाहावें तें जो पाहे| न खावें तें खाये| तेवींचि तोषे ||७७५|| न धरावा तो संगु| न लागावें तेथ लागु| नाचरावा तो मार्गु| आचरे जो ||७७६|| नायकावें तें आइके| न बोलावें तें बके| परी दोष होतील हें न देखे| प्रवर्ततां ||७७७|| आंगा मनासि रुचावें| येतुलेनि कृत्याकृत्य नाठवें| जो करणेयाचेनि नांवें| भलतेंचि करी ||७७८|| परि पाप मज होईल| कां नरकयातना येईल| हें कांहींचि पुढील| देखेना जो ||७७९|| तयाचेनि आंगलगें| अज्ञान जगीं दाटुगें| जें सज्ञानाही संगें| झोंबों सके ||७८०|| परी असो हें आइक| अज्ञान चिन्हें आणिक| जेणें तुज सम्यक्| जाणवे तें ||७८१|| तरी जयाची प्रीति पुरी| गुंतली देखसी घरीं| नवगंधकेसरीं| भ्रमरी जैशी ||७८२|| साकरेचिया राशी| बैसली नुठे माशी| तैसेनि स्त्रीचित्त आवेशीं| जयाचें मन ||७८३|| ठेला बेडूक कुंडीं| मशक गुंतला शेंबुडीं| जैसा ढोरु सबुडबुडीं| रुतला पंकीं ||७८४|| तैसें घरींहूनि निघणें| नाहीं जीवें मनें प्राणें| जया साप होऊनि असणें| भाटीं तियें ||७८५|| प्रियोत्तमाचिया कंठीं| प्रमदा घे आटी| तैशी जीवेंसी कोंपटी| धरूनि ठाके ||७८६|| मधुरसोद्देशें| मधुकर जचे जैसें| गृहसंगोपन तैसें| करी जो गा ||७८७|| म्हातारपणीं जालें| मा आणिक एक विपाईलें| तयाचें कां जेतुलें| मातापितरां ||७८८|| तेतुलेनि पाडें पार्था| घरीं जया प्रेम आस्था| आणि स्त्रीवांचूनि सर्वथा| जाणेना जो ||७८९|| तैसा स्त्रीदेहीं जो जीवें| पडोनिया सर्वभावें| कोण मी काय करावें| कांहीं नेणे ||७९०|| महापुरुषाचें चित्त| जालिया वस्तुगत| ठाके व्यवहारजात| जयापरी ||७९१|| हानि लाज न देखे| परापवादु नाइके| जयाचीं इंद्रियें एकमुखें| स्त्रिया केलीं ||७९२|| चित्त आराधी स्त्रीयेचें| आणि तियेचेनि छंदें नाचे| माकड गारुडियाचें| जैसें होय ||७९३|| आपणपेंही शिणवी| इष्टमित्र दुखवी| मग कवडाचि वाढवी| लोभी जैसा ||७९४|| तैसा दानपुण्यें खांची| गोत्रकुटुंबा वंची| परी गारी भरी स्त्रियेची| उणी हों नेदी ||७९५|| पूजिती दैवतें जोगावी| गुरूतें बोलें झकवी| मायबापां दावी| निदारपण ||७९६|| स्त्रियेच्या तरी विखीं| भोगुसंपत्ती अनेकीं| आणी वस्तु निकी| जे जे देखे ||७९७|| प्रेमाथिलेनि भक्तें| जैसेनि भजिजे कुळदैवतें| तैसा एकाग्रचित्तें| स्त्री जो उपासी ||७९८|| साच आणि चोख| तें स्त्रियेसीचि अशेख| येरांविषयीं जोगावणूक| तेही नाहीं ||७९९|| इयेतें हन कोणी देखैल| इयेसी वेखासें जाईल| तरी युगचि बुडैल| ऐसें जया ||८००|| नायट्यांभेण| न मोडिजे नागांची आण| तैसी पाळी उणखुण| स्त्रीयेची जो ||८०१|| किंबहुना धनंजया| स्त्रीचि सर्वस्व जया| आणि तियेचिया जालिया- | लागीं प्रेम ||८०२|| आणिकही जें समस्त| तियेचें संपत्तिजात| तें जीवाहूनि आप्त| मानी जो कां ||८०३|| तो अज्ञानासी मूळ| अज्ञाना त्याचेनि बळ| हें असो केवळ| तेंचि रूप ||८०४|| आणि मातलिया सागरीं| मोकललिया तरी| लाटांच्या येरझारीं| आंदोळे जेवीं ||८०५|| तेवीं प्रिय वस्तु पावे| आणि सुखें जो उंचावे| तैसाचि अप्रियासवें| तळवटु घे ||८०६|| ऐसेनि जयाचे चित्तीं| वैषम्यसाम्याची वोखती| वाहे तो महामती| अज्ञान गा ||८०७|| आणि माझ्या ठायीं भक्ती| फळालागीं जया आर्ती| धनोद्देशें विरक्ती| नटणें जेवीं ||८०८|| नातरी कांताच्या मानसी| रिगोनि स्वैरिणी जैसी| राहाटे जारेंसीं| जावयालागीं ||८०९|| तैसा मातें किरीटी| भजती गा पाउटी| करूनि जो दिठी| विषो सूये ||८१०|| आणि भजिन्नलियासवें| तो विषो जरी न पावे| तरी सांडी म्हणे आघवें| टवाळ हें ||८११|| कुणबट कुळवाडी| तैसा आन आन देव मांडी| आदिलाची परवडी| करी तया ||८१२|| तया गुरुमार्गा टेंकें| जयाचा सुगरवा देखे| तरी तयाचा मंत्र शिके| येरु नेघे ||८१३|| प्राणिजातेंसीं निष्ठुरु| स्थावरीं बहु भरु| तेवींचि नाहीं एकसरु| निर्वाहो जया ||८१४|| माझी मूर्ति निफजवी| ते घराचे कोनीं बैसवी| आपण देवो देवी| यात्रे जाय ||८१५|| नित्य आराधन माझें| काजीं कुळदैवता भजे| पर्वविशेषें कीजे| पूजा आना ||८१६|| माझें अधिष्ठान घरीं| आणि वोवसे आनाचे करी| पितृकार्यावसरीं| पितरांचा होय ||८१७|| एकादशीच्या दिवशीं| जेतुला पाडु आम्हांसी| तेतुलाचि नागांसी| पंचमीच्या दिवशीं ||८१८|| चौथ मोटकी पाहे| आणि गणेशाचाचि होये| चावदसी म्हणे माये| तुझाचि वो दुर्गे ||८१९|| नित्य नैमित्तिकें कर्में सांडी| मग बैसे नवचंडी| आदित्यवारीं वाढी| बहिरवां पात्रीं ||८२०|| पाठीं सोमवार पावे| आणि बेलेंसी लिंगा धांवे| ऐसा एकलाचि आघवे| जोगावी जो ||८२१|| ऐसा अखंड भजन करी| उगा नोहे क्षणभरी| अवघेन गांवद्वारीं| अहेव जैसी ||८२२|| ऐसेनि जो भक्तु| देखसी सैरा धांवतु| जाण अज्ञानाचा मूर्तु| अवतार तो ||८२३|| आणि एकांतें चोखटें| तपोवनें तीर्थे तटें| देखोनि जो गा विटे| तोहि तोचि ||८२४|| जया जनपदीं सुख| गजबजेचें कवतिक| वानूं आवडे लौकिक| तोहि तोची ||८२५|| आणि आत्मा गोचरु होये| ऐसी जे विद्या आहे| ते आइकोनि डौर वाहे| विद्वांसु जो ||८२६|| उपनिषदांकडे न वचे| योगशास्त्र न रुचे| अध्यात्मज्ञानीं जयाचें| मनचि नाहीं ||८२७|| आत्मचर्चा एकी आथी| ऐसिये बुद्धीची भिंती| पाडूनि जयाची मती| वोढाळ जाहली ||८२८|| कर्मकांड तरी जाणे| मुखोद्गत पुराणें| ज्योतिषीं तो म्हणे| तैसेंचि होय ||८२९|| शिल्पीं अति निपुण| सूपकर्मींही प्रवीण| विधि आथर्वण| हातीं आथी ||८३०|| कोकीं नाहीं ठेलें| भारत करी म्हणितलें| आगम आफाविले| मूर्त होतीं ||८८३१|| नीतिजात सुझे| वैद्यकही बुझे| काव्यनाटकीं दुजें| चतुर नाहीं ||८३२|| स्मृतींची चर्चा| दंशु जाणे गारुडियाचा| निघंटु प्रज्ञेचा| पाइकी करी ||८३३|| पैं व्याकरणीं चोखडा| तर्कीं अतिगाढा| परी एक आत्मज्ञानीं फुडा| जात्यंधु जो ||८३४|| तें एकवांचूनि आघवां शास्त्रीं| सिद्धांत निर्माणधात्री| परी जळों तें मूळनक्षत्रीं| न पाहें गा ||८३५|| मोराआंगीं अशेषें| पिसें असतीं डोळसें| परी एकली दृष्टि नसे| तैसें तें गा ||८३६|| जरी परमाणूएवढें| संजीवनीमूळ जोडे| तरी बहु काय गाडे| भरणें येरें ? ||८३७|| आयुष्येंवीण लक्षणें| सिसेंवीण अळंकरणें| वोहरेंवीण वाधावणें| तो विटंबु गा ||८३८|| तैसें शास्त्रजात जाण| आघवेंचि अप्रमाण| अध्यात्मज्ञानेंविण| एकलेनी ||८३९|| यालागीं अर्जुना पाहीं| अध्यात्मज्ञानाच्या ठायीं| जया नित्यबोधु नाहीं| शास्त्रमूढा ||८४०|| तया शरीर जें जालें| तें अज्ञानाचें बीं विरुढलें| तयाचें व्युत्पन्नत्व गेलें| अज्ञानवेलीं ||८४१|| तो जें जें बोले| तें अज्ञानचि फुललें| तयाचें पुण्य जें फळलें| तें अज्ञान गा ||८४२|| आणि अध्यात्मज्ञान कांहीं| जेणें मानिलेंचि नाहीं| तो ज्ञानार्थु न देखे काई| हें बोलावें असें ? ||८४३|| ऐलीचि थडी न पवतां| पळे जो माघौता| तया पैलद्वीपींची वार्ता| काय होय ? ||८४४|| कां दारवंठाचि जयाचें| शीर रोंविलें खांचे| तो केवीं परिवरींचें| ठेविलें देखे ? ||८४५|| तेवीं अध्यात्मज्ञानीं जया| अनोळख धनंजया| तया ज्ञानार्थु देखावया| विषो काई ? ||८४६|| म्हणौनि आतां विशेषें| तो ज्ञानाचें तत्त्व न देखे| हें सांगावें आंखेंलेखें| न लगे तुज ||८४७|| जेव्हां सगर्भे वाढिलें| तेव्हांचि पोटींचें धालें| तैसें मागिलें पदें बोलिलें| तेंचि होय ||८४८|| वांचूनियां वेगळें| रूप करणें हें न मिळे| जेवीं अवंतिलें आंधळें| तें दुजेनसीं ये ||८४९|| एवं इये उपरतीं| अज्ञानचिन्हें मागुतीं| अमानित्वादि प्रभृती| वाखाणिलीं ||८५०|| जे ज्ञानपदें अठरा| केलियां येरी मोहरां| अज्ञान या आकारा| सहजें येती ||८५१|| मागां श्लोकाचेनि अर्धार्धें| ऐसें सांगितलें श्रीमुकुंदें| ना उफराटीं इयें ज्ञानपदें| तेंचि अज्ञान ||८५२|| म्हणौनि इया वाहणीं| केली म्यां उपलवणी| वांचूनि दुधा मेळऊनि पाणी| फार कीजे ? ||८५३|| तैसें जी न बडबडीं| पदाची कोर न सांडी| परी मूळध्वनींचिये वाढी| निमित्त जाहलों ||८५४|| तंव श्रोते म्हणती राहें| कें परिहारा ठावो आहे ? | बिहिसी कां वायें| कविपोषका ? ||८५५|| तूतें श्रीमुरारी| म्हणितलें आम्ही प्रकट करीं| जें अभिप्राय गव्हरीं| झांकिले आम्हीं ||८५६|| तें देवाचें मनोगत| दावित आहासी तूं मूर्त| हेंही म्हणतां चित्त| दाटैल तुझें ||८५७|| म्हणौनि असो हें न बोलों| परि साविया गा तोषलों| जे ज्ञानतरिये मेळविलों| श्रवण सुखाचिये ||८५८|| आतां इयावरी| जे तो श्रीहरी| बोलिला तें करीं| कथन वेगां ||८५९|| इया संतवाक्यासरिसें| म्हणितलें निवृत्तिदासें| जी अवधारा तरी ऐसें| बोलिलें देवें ||८६०|| म्हणती तुवां पांडवा| हा चिन्हसमुच्चयो आघवा| आयकिला तो जाणावा| अज्ञानभागु ||८६१|| इया अज्ञानविभागा| पाठी देऊनि पैं गा| ज्ञानविखीं चांगा| दृढा होईजे ||८६२|| मग निर्वाळिलेनि ज्ञानें| ज्ञेय भेटेल मनें| तें जाणावया अर्जुनें| आस केली ||८६३|| तंव सर्वज्ञांचा रावो| म्हणे जाणौनि तयाचा भावो| परिसें ज्ञेयाचा अभिप्रावो| सांगों आतां ||८६४|| ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा~मृतमश्नुते | अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||१२|| तरि ज्ञेय ऐसें म्हणणें| वस्तूतें येणेंचि कारणें| जें ज्ञानेंवांचूनि कवणें| उपायें नये ||८६५|| आणि जाणितलेयावरौतें| कांहींच करणें नाहीं जेथें| जाणणेंचि तन्मयातें| आणी जयाचें ||८६६|| जें जाणितलेयासाठीं| संसार काढूनियां कांठीं| जिरोनि जाइजे पोटीं| नित्यानंदाच्या ||८६७|| तें ज्ञेय गा ऐसें| आदि जया नसे| परब्रह्म आपैसें| नाम जया ||८६८|| जें नाहीं म्हणों जाइजे| तंव विश्वाकारें देखिजे| आणि विश्वचि ऐसें म्हणिजे| तरि हे माया ||८६९|| रूप वर्ण व्यक्ती| नाहीं दृश्य दृष्टा स्थिती| तरी कोणें कैसें आथी| म्हणावें पां ||८७०|| आणि साचचि जरी नाहीं| तरी महदादि कोणें ठाईं| स्फुरत कैचें काई| तेणेंवीण असे ? ||८७१|| म्हणौनि आथी नाथी हे बोली| जें देखोनि मुकी जाहली| विचारेंसीं मोडली| वाट जेथें ||८७२|| जैसी भांडघटशरावीं| तदाकारें असे पृथ्वी| तैसें सर्व होऊनियां सर्वीं| असे जे वस्तु ||८७३|| सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतो~क्षिशिरोमुखम् | सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ||१३|| आघवांचि देशीं काळीं| नव्हतां देशकाळांवेगळी| जे क्रिया स्थूळास्थूळीं| तेचि हात जयाचे ||८७४|| तयातें याकारणें| विश्वबाहू ऐसें म्हणणें| जें सर्वचि सर्वपणें| सर्वदा करी ||८७५|| आणि समस्तांही ठाया| एके काळीं धनंजया| आलें असे म्हणौनि जया| विश्वांघ्रीनाम ||८७६|| पैं सवितया आंग डोळे| नाहींत वेगळे वेगळे| तैसें सर्वद्रष्टे सकळें| स्वरूपें जें ||८७७|| म्हणौनि विश्वतश्चक्षु| हा अचक्षूच्या ठायीं पक्षु| बोलावया दक्षु| जाहला वेदु ||८७८|| जें सर्वांचे शिरावरी| नित्य नांदे सर्वांपरी| ऐसिये स्थितीवरी| विश्वमूर्धा म्हणिपे ||८७९|| पैं गा मूर्ति तेंचि मुख| हुताशना जैसें देख| तैसें सर्वपणें अशेख| भोक्ते जे ||८८०|| यालागीं तया पार्था| विश्वतोमुख हे व्यवस्था| आली वाक्पथा| श्रुतीचिया ||८८१|| आणि वस्तुमात्रीं गगन| जैसें असे संलग्न| तैसें शब्दजातीं कान| सर्वत्र जया ||८८२|| म्हणौनि आम्हीं तयातें| म्हणों सर्वत्र आइकतें| एवं जें सर्वांतें| आवरूनि असे ||८८३|| एऱ्हवीं तरी महामती| विश्वतश्चक्षु इया श्रुती| तयाचिया व्याप्ती| रूप केलें ||८८४|| वांचूनि हस्त नेत्र पाये| हें भाष तेथ कें आहे ? | सर्व शून्याचा न साहे| निष्कर्षु जें ||८८५|| पैं कल्लोळातें कल्लोळें| ग्रसिजत असे ऐसें कळे| परी ग्रसितें ग्रासावेगळें| असे काई ? ||८८६|| तैसें साचचि जें एक| तेथ कें व्याप्यव्यापक ? | परी बोलावया नावेक| करावें लागे ||८८७|| पैं शून्य जैं दावावें जाहलें| तैं बिंदुलें एक पाहिजे केलें| तैसें अद्वैत सांगावें बोलें| तैं द्वैत कीजे ||८८८|| एऱ्हवीं तरी पार्था| गुरुशिष्यसत्पथा| आडळु पडे सर्वथा| बोल खुंटे ||८८९|| म्हणौनि गा श्रुती| द्वैतभावें अद्वैतीं| निरूपणाची वाहती| वाट केली ||८९०|| तेंचि आतां अवधारीं| इये नेत्रगोचरें आकारीं| तें ज्ञेय जयापरी| व्यापक असे ||८९१|| सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् | असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ||१४|| तरी तें गा किरीटी ऐसें| अवकाशीं आकाश जैसें| पटीं पटु होऊनि असे| तंतु जेवीं ||८९२|| उदक होऊनि उदकीं| रसु जैसा अवलोकीं| दीपपणें दीपकीं| तेज जैसें ||८९३|| कर्पूरत्वें कापुरीं| सौरभ्य असे जयापरी| शरीर होऊनि शरीरीं| कर्म जेवीं ||८९४|| किंबहुना पांडवा| सोनेंचि सोनयाचा रवा| तैसें जें या सर्वां| सर्वांगीं असे ||८९५|| परी रवेपणामाजिवडे| तंव रवा ऐसें आवडे| वांचूनि सोनें सांगडें| सोनया जेवीं ||८९६|| पैं गा वोघुचि वांकुडा| परि पाणी उजू सुहाडा| वन्हि आला लोखंडा| लोह नव्हे कीं ||८९७|| घटाकारें वेंटाळें| तेथ नभ गमे वाटोळें| मठीं तरी चौफळें| आये दिसे ||८९८|| तरि ते अवकाश जैसें| नोहिजतीचि कां आकाशें| जें विकार होऊनि तैसें| विकारी नोहे ||८९९|| मन मुख्य इंद्रियां| सत्त्वादि गुणां ययां- | सारिखें ऐसें धनंजया| आवडे कीर ||९००|| पैं गुळाची गोडी| नोहे बांधया सांगडी| तैसीं गुण इंद्रियें फुडीं| नाहीं तेथ ||९०१|| अगा क्षीराचिये दशे| घृत क्षीराकारें असे| परी क्षीरचि नोहे जैसें| कपिध्वजा ||९०२|| तैसें जें इये विकारीं| विकार नोहे अवधारीं| पैं आकारा नाम भोंवरी| येर सोने तें सोनें ||९०३|| इया उघड मऱ्हाटिया| तें वेगळेपण धनंजया| जाण गुण इंद्रियां- | पासोनियां ||९०४|| नामरूपसंबंधु| जातिक्रियाभेदु| हा आकारासीच प्रवादु| वस्तूसि नाहीं ||९०५|| तें गुण नव्हे कहीं| गुणा तया संबंधु नाहीं| परी तयाच्याचि ठायीं| आभासती ||९०६|| येतुलेयासाठीं| संभ्रांताच्या पोटीं| ऐसें जाय किरीटी| जे हेंचि धरी ||९०७|| तरी तें गा धरणें ऐसें| अभ्रातें जेवीं आकाशें| कां प्रतिवदन जैसें| आरसेनी ||९०८|| नातरी सूर्य प्रतिमंडल| जैसेनि धरी सलिल| कां रश्मिकरीं मृगजळ| धरिजे जेवीं ||९०९|| तैसें गा संबंधेंवीण| यया सर्वांतें धरी निर्गुण| परी तें वायां जाण| मिथ्यादृष्टी ||९१०|| आणि यापरी निर्गुणें| गुणातें भोगणें| रंका राज्य करणें| स्वप्नीं जैसें ||९११|| म्हणौनि गुणाचा संगु| अथवा गुणभोगु| हा निर्गुणीं लागु| बोलों नये ||९१२|| बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च | सूक्षमत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ||१५|| जें चराचर भूतां- | माजीं असे पंडुसुता| नाना वन्हीं उष्णता| अभेदें जैसी ||९१३|| तैसेनि अविनाशभावें| जें सूक्ष्मदशे आघवें| व्यापूनि असे तें जाणावें| ज्ञेय एथ ||९१४|| जें एक आंतुबाहेरी| जें एक जवळ दुरी| जें एकवांचूनि परी| दुजीं नाहीं ||९१५|| क्षीरसागरींची गोडी| माजीं बहु थडिये थोडी| हें नाहीं तया परवडी| पूर्ण जें गा ||९१६|| स्वेदजादिप्रभृती| वेगळाल्यां भूतीं| जयाचिये अनुस्यूतीं| खोमणें नाहीं ||९१७|| पैं श्रोते मुखटिळका| घटसहस्रा अनेकां- | माजीं बिंबोनि चंद्रिका| न भेदे जेवीं ||९१८|| नाना लवणकणाचिये राशी| क्षारता एकचि जैसी| कां कोडी एकीं ऊसीं| एकचि गोडी ||९१९|| अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितं | भूतभर्तृ च तज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||१६|| तैसें अनेकीं भूतजातीं| जें आहे एकी व्याप्ती| विश्वकार्या सुमती| कारण जें गा ||९२०|| म्हणौनि हा भूताकारु| जेथोनि तेंचि तया आधारु| कल्लोळा सागरु| जियापरी ||९२१|| बाल्यादि तिन्हीं वयसीं| काया एकचि जैसी| तैसें आदिस्थितिग्रासीं| अखंड जें ||९२२|| सायंप्रातर्मध्यान| होतां जातां दिनमान| जैसें कां गगन| पालटेना ||९२३|| अगा सृष्टिवेळे प्रियोत्तमा| जया नांव म्हणती ब्रह्मा| व्याप्ति जें विष्णुनामा| पात्र जाहलें ||९२४|| मग आकारु हा हारपे| तेव्हां रुद्र जें म्हणिपे| तेंही गुणत्रय जेव्हां लोपे| तैं जें शून्य ||९२५|| नभाचें शून्यत्व गिळून| गुणत्रयातें नुरऊन| तें शून्य तें महाशून्य| श्रुतिवचनसंमत ||९२६|| ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते | ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विस्ठितम् ||१७|| जें अग्नीचें दीपन| जें चंद्राचें जीवन| सूर्याचे नयन| देखती जेणें ||९२७|| जयाचेनि उजियेडें| तारांगण उभडें| महातेज सुरवाडें| राहाटे जेणें ||९२८|| जें आदीची आदी| जें वृद्धीची वृद्धी| बुद्धीची जे बुद्धी| जीवाचा जीवु ||९२९|| जें मनाचें मन| जें नेत्राचे नयन| कानाचे कान| वाचेची वाचा ||९३०|| जें प्राणाचा प्राण| जें गतीचे चरण| क्रियेचें कर्तेपण| जयाचेनि ||९३१|| आकारु जेणें आकारे| विस्तारु जेणें विस्तारे| संहारु जेणें संहारे| पंडुकुमरा ||९३२|| जें मेदिनीची मेदिनी| जें पाणी पिऊनि असे पाणी| तेजा दिवेलावणी| जेणें तेजें ||९३३|| जें वायूचा श्वासोश्वासु| जें गगनाचा अवकाशु| हें असो आघवाची आभासु| आभासे जेणें ||९३४|| किंबहुना पांडवा| जें आघवेंचि असे आघवा| जेथ नाहीं रिगावा| द्वैतभावासी ||९३५|| जें देखिलियाचिसवें| दृश्य द्रष्टा हें आघवें| एकवाट कालवे| सामरस्यें ||९३६|| मग तेंचि होय ज्ञान| ज्ञाता ज्ञेय हन| ज्ञानें गमिजे स्थान| तेंहि तेंची ||९३७|| जैसें सरलियां लेख| आंख होती एक| तैसें साध्यसाधनादिक| ऐक्यासि ये ||९३८|| अर्जुना जिये ठायीं| न सरे द्वैताची वही| हें असो जें हृदयीं| सर्वांच्या असे ||९३९|| इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः | मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ||१८|| एवं तुजपुढां| आदीं क्षेत्र सुहाडा| दाविलें फाडोवाडां| विवंचुनी ||९४०|| तैसेंचि क्षेत्रापाठीं| जैसेनि देखसी दिठी| तें ज्ञानही किरीटी| सांगितलें ||९४१|| अज्ञानाही कौतुकें| रूप केलें निकें| जंव आयणी तुझी टेंके| पुरे म्हणे ||९४२|| आणि आतां हें रोकडें| उपपत्तीचेनि पवाडें| निरूपिलें उघडें| ज्ञेय पैं गा ||९४३|| हे आघवीच विवंचना| बुद्धी भरोनि अर्जुना| मत्सिद्धिभावना| माझिया येती ||९४४|| देहादि परिग्रहीं| संन्यासु करूनियां जिहीं| जीवु माझ्या ठाईं| वृत्तिकु केला ||९४५|| ते मातें किरीटी| हेंचि जाणौनियां शेवटीं| आपणपयां साटोवाटीं| मीचि होती ||९४६|| मीचि होती परी| हे मुख्य गा अवधारीं| सोहोपी सर्वांपरी| रचिलीं आम्हीं ||९४७|| कडां पायरी कीजे| निराळीं माचु बांधिजे| अथावीं सुइजे| तरी जैसी ||९४८|| एऱ्हवीं अवघेंचि आत्मा| हें सांगों जरी वीरोत्तमा| परी तुझिया मनोधर्मा| मिळेल ना ||९४९|| म्हणौनि एकचि संचलें| चतुर्धा आम्हीं केलें| जें अदळपण देखिलें| तुझिये प्रज्ञे ||९५०|| पैं बाळ जैं जेवविजे| तैं घांसु विसा ठायीं कीजे| तैसें एकचि हेंचतुर्व्याजें| कथिलें आम्हीं ||९५१|| एक क्षेत्र एक ज्ञान| एक ज्ञेय एक अज्ञान| हे भाग केले अवधान| जाणौनि तुझें ||९५२|| आणि ऐसेनही पार्था| जरी हा अभिप्रावो तुज हाता| नये तरी हे व्यवस्था| एक वेळ सांगों ||९५३|| आतां चौठायीं न करूं| एकही म्हणौनि न सरूं| आत्मानात्मया धरूं| सरिसा पाडु ||९५४|| परि तुवां येतुलें करावें| मागों तें आम्हां देआवें| जे कानचि नांव ठेवावें| आपण पैं गा ||९५५|| या श्रीकृष्णाचिया बोला| पार्थु रोमांचितु जाहला| तेथ देवो म्हणती भला| उचंबळेना ||९५६|| ऐसेनि तो येतां वेगु| धरूनि म्हणे श्रीरंगु| प्रकृतिपुरुषविभागु| परिसें सांगों ||९५७|| प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि | विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ||१९|| जया मार्गातें जगीं| सांख्य म्हणती योगी| जयाचिये भाटिवेलागीं| मी कपिल जाहलों ||९५८|| तो आइक निर्दोखु| प्रकृतिपुरुषविवेकु| म्हणे आदिपुरुखु| अर्जुनातें ||९५९|| तरी पुरुष अनादि आथी| आणि तैंचि लागोनि प्रकृति| संसरिसी दिवोराती| दोनी जैसी ||९६०|| कां रूप नोहे वायां| परी रूपा लागली छाया| निकणु वाढे धनंजया| कणेंसीं कोंडा ||९६१|| तैसीं जाण जवटें| दोन्हीं इयें एकवटे| प्रकृतिपुरुष प्रगटें| अनादिसिद्धें ||९६२|| पैं क्षेत्र येणें नांवें| जें सांगितलें आघवें| तेंचि एथ जाणावें| प्रकृति हे गा ||९६३|| आणि क्षेत्रज्ञ ऐसें| जयातें म्हणितलें असे| तो पुरुष हें अनारिसे| न बोलों घेईं ||९६४|| इयें आनानें नांवें| परी निरूप्य आन नोहे| हें लक्षण न चुकावें| पुढतपुढती ||९६५|| तरी केवळ जे सत्ता| तो पुरुष गा पंडुसुता| प्रकृतीतें समस्तां| क्रिया नाम ||९६६|| बुद्धि इंद्रियें अंतःकरण| इत्यादि विकारभरण| आणि ते तिन्ही गुण| सत्त्वादिक ||९६७|| हा आघवाचि मेळावा| प्रकृती जाहला जाणावा| हेचि हेतु संभवा| कर्माचिया ||९६८|| कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते | पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ||२०|| तेथ इच्छा आणि बुद्धि| घडवी अहंकारेंसीं आधीं| मग तिया लाविती वेधीं| कारणाच्या ||९६९|| तेंचि कारण ठाकावया| जें सूत्र धरणें उपाया| तया नांव धनंजया| कार्य पैं गा ||९७०|| आणि इच्छा मदाच्या थावीं| लागली मनातें उठवी| तें इंद्रियें राहाटवी| हें कर्तृत्व पैं गा ||९७१|| म्हणौनि तीन्ही या जाणा| कार्यकर्तृत्वकारणा| प्रकृति मूळ हे राणा| सिद्धांचा म्हणे ||९७२|| एवं तिहींचेनि समवायें| प्रकृति कर्मरूप होये| परी जया गुणा वाढे त्राये| त्याचि सारिखी ||९७३|| जें सत्त्वगुणें अधिष्ठिजे| तें सत्कर्म म्हणिजे| रजोगुणें निफजे| मध्यम तें ||९७४|| जें कां केवळ तमें| होती जियें कर्में| निषिद्धें अधमें| जाण तियें ||९७५|| ऐसेनि संतासंतें| कर्में प्रकृतीस्तव होतें| तयापासोनि निर्वाळतें| सुखदुःख गा ||९७६|| असंतीं दुःख उपजे| सत्कर्मीं सुख निफजे| तया दोहींचा बोलिजे| भोगु पुरुषा ||९७७|| सुखदुःखें जंववरी| निफजती साचोकारीं| तंव प्रकृति उद्यमु करी| पुरुषु भोगी ||९७८|| प्रकृतिपुरुषांची कुळवाडी| सांगतां असंगडी| जे आंबुली जोडी| आंबुला खाय ||९७९|| आंबुला आंबुलिये| संगती ना सोये| कीं आंबुली जग विये| चोज ऐका ||९८०|| पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् | कारणं गुण संगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ||२१|| जे अनंगु तो पेंधा| निकवडा नुसधा| जीर्णु अतिवृद्धा- | पासोनि वृद्धु ||९८१|| तया आडनांव पुरुषु| एऱ्हवीं स्त्री ना नपुंसकु| किंबहुना एकु| निश्चयो नाहीं ||९८२|| तो अचक्षु अश्रवणु| अहस्तु अचरणु| रूप ना वर्णु| नाम आथी ||९८३|| अर्जुना कांहींचि जेथ नाहीं| तो प्रकृतीचा भर्ता पाहीं| कीं भोगणें ऐसयाही| सुखदुःखांचें ||९८४|| तो तरी अकर्ता| उदासु अभोक्ता| परी इया पतिव्रता| भोगविजे ||९८५|| जियेतें अळुमाळु| रूपागुणाचा चाळढाळु| ते भलतैसाही खेळु| लेखा आणी ||९८६|| मा इये प्रकृती तंव| गुणमयी हेंचि नांव| किंबहुना सावेव| गुण तेचि हे ||९८७|| हे प्रतिक्षणीं नीत्य नवी| रूपा गुणाचीच आघवी| जडातेंही माजवी| इयेचा माजु ||९८८|| नामें इयें प्रसिद्धें| स्नेहो इया स्निग्धें| इंद्रियें प्रबुद्धें| इयेचेनि ||९८९|| कायि मन हें नपुंसक| कीं ते भोगवी तिन्ही लोक| ऐसें ऐसें अलौकिक| करणें इयेचें ||९९०|| हे भ्रमाचे महाद्वीप| व्याप्तीचें रूप| विकार उमप| इया केले ||९९१|| हे कामाची मांडवी| हे मोहवनींची माधवी| इये प्रसिद्धचि दैवी| माया हे नाम ||९९२|| हे वाङ्मयाची वाढी| हे साकारपणाची जोडी| प्रपंचाची धाडी| अभंग हे ||९९३|| कळा एथुनि जालिया| विद्या इयेच्या केलिया| इच्छा ज्ञान क्रिया| वियाली हे ||९९४|| हे नादाची टांकसाळ| हे चमत्काराचें वेळाउळ| किंबहुना सकळ| खेळु इयेचा ||९९५|| जे उत्पत्ति प्रलयो होत| ते इयेचे सायंप्रात| हें असो अद्भुत| मोहन हे ||९९६|| हे अद्वयाचें दुसरें| हे निःसंगाचें सोयरे| निराळेंसि घरें| नांदत असे ||९९७|| इयेतें येतुलावरी| सौभाग्यव्याप्तीची थोरी| म्हणौनि तया आवरी| अनावरातें ||९९८|| तयाच्या तंव ठायीं| निपटूनि कांहींचि नाहीं| कीं तया आघवेहीं| आपणचि होय ||९९९|| तया स्वयंभाची संभूती| तया अमूर्ताची मूर्ती| आपण होय स्थिती| ठावो तया ||१०००|| तया अनार्ताची आर्ती| तया पूर्णाची तृप्ती| तया अकुळाची जाती- | गोत होय ||१००१|| तया अचर्चाचें चिन्ह| तया अपाराचें मान| तया अमनस्काचें मन| बुद्धीही होय ||१००२|| तया निराकाराचा आकारु| तया निर्व्यापाराचा व्यापारु| निरहंकाराचा अहंकारु| होऊनि ठाके ||१००३|| तया अनामाचें नाम| तया अजाचें जन्म| आपण होय कर्म- | क्रिया तया ||१००४|| तया निर्गुणाचे गुण| तया अचरणाचे चरण| तया अश्रवणाचे श्रवण| अचक्षूचे चक्षु ||१००५|| तया भावातीताचे भाव| तया निरवयवाचे अवयव| किंबहुना होय सर्व| पुरुषाचें हे ||१००६|| ऐसेनि इया प्रकृती| आपुलिया सर्व व्याप्ती| तया अविकारातें विकृती- | माजीं कीजे ||१००७|| तेथ पुरुषत्व जें असे| तें ये इये प्रकृतिदशे| चंद्रमा अंवसे| पडिला जैसा ||१००८|| विदळ बहु चोखा| मीनलिया वाला एका| कसु होय पांचका| जयापरी ||१००९|| कां साधूतें गोंधळी| संचारोनि सुये मैळी| नाना सुदिनाचा आभाळीं| दुर्दिनु कीजे ||१०१०|| जेवीं पय पशूच्या पोटीं| कां वन्हि जैसा काष्ठीं| गुंडूनि घेतला पटीं| रत्नदीपु ||१०११|| राजा पराधीनु जाहला| कां सिंहु रोगें रुंधला| तैसा पुरुष प्रकृती आला| स्वतेजा मुके ||१०१२|| जागता नरु सहसा| निद्रा पाडूनि जैसा| स्वप्नींचिया सोसा| वश्यु कीजे ||१०१३|| तैसें प्रकृति जालेपणें| पुरुषा गुण भोगणें| उदास अंतुरीगुणें| आतुडे जेवीं ||१०१४|| तैसें अजा नित्या होये| आंगीं जन्ममृत्यूचे घाये| वाजती जैं लाहे| गुणसंगातें ||१०१५|| परि तें ऐसें पंडुसुता| तातलें लोह पिटितां| जेवीं वन्हीसीचि घाता| बोलती तया ||१०१६|| कां आंदोळलिया उदक| प्रतिभा होय अनेक| तें नानात्व म्हणती लोक| चंद्रीं जेवीं ||१०१७|| दर्पणाचिया जवळिका| दुजेपण जैसें ये मुखा| कां कुंकुमें स्फटिका| लोहितत्व ये ||१०१८|| तैसा गुणसंगमें| अजन्मा हा जन्मे| पावतु ऐसा गमे| एऱ्हवीं नाहीं ||१०१९|| अधमोत्तमा योनी| यासि ऐसिया मानी| जैसा संन्यासी होय स्वप्नीं| अंत्यजादि जाती ||१०२०|| म्हणौनि केवळा पुरुषा| नाहीं होणें भोगणें देखा| येथ गुणसंगुचि अशेखा- | लागीं मूळ ||१०२१|| उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः | परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ||२२|| हा प्रकृतिमाजीं उभा| परी जुई जैसा वोथंबा| इया प्रकृति पृथ्वी नभा| तेतुला पाडु ||१०२२|| प्रकृतिसरितेच्या तटीं| मेरु होय हा किरीटी| माजीं बिंबे परी लोटीं| लोटों नेणे ||१०२३|| प्रकृति होय जाये| हा तो असतुचि आहे| म्हणौनि आब्रह्माचें होये| शासन हा ||१०२४|| प्रकृति येणें जिये| याचिया सत्ता जग विये| इयालागीं इये| वरयेतु हा ||१०२५|| अनंतें काळें किरीटी| जिया मिळती इया सृष्टी| तिया रिगती ययाच्या पोटीं| कल्पांतसमयीं ||१०२६|| हा महद्ब्रह्मगोसावी| ब्रह्मगोळ लाघवी| अपारपणें मवी| प्रपंचातें ||१०२७|| पैं या देहामाझारीं| परमात्मा ऐसी जे परी| बोलिजे तें अवधारीं| ययातेंचि ||१०२८|| अगा प्रकृतिपरौता| एकु आथी पंडुसुता| ऐसा प्रवादु तो तत्त्वता| पुरुषु हा पैं ||१०२९|| य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह | सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ||२३|| जो निखळपणें येणें| पुरुषा यया जाणे| आणि गुणांचें करणें| प्रकृतीचें तें ||१०३०|| हें रूप हे छाया| पैल जळ हे माया| ऐसा निवाडु धनंजया| जेवीं कीजे ||१०३१|| तेणें पाडें अर्जुना| प्रकृतिपुरुषविवंचना| जयाचिया मना| गोचर जाहली ||१०३२|| तो शरीराचेनि मेळें| करूं कां कर्में सकळें| परी आकाश धुई न मैळे| तैसा असे ||१०३३|| आथिलेनि देहें| जो न घेपे देहमोहें| देह गेलिया नोहे| पुनरपि तो ||१०३४|| ऐसा तया एकु| प्रकृतिपुरुषविवेकु| उपकारु अलौकिकु| करी पैं गा ||१०३५|| परी हाचि अंतरीं| विवेक भानूचिया परी| उदैजे तें अवधारीं| उपाय बहुत ||१०३६|| ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना | अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ||२४|| कोणी एकु सुभटा| विचाराचा आगिटां| आत्मानात्मकिटा| पुटें देउनी ||१०३७|| छत्तीसही वानी भेद| तोडोनियां निर्विवाद| निवडिती शुद्ध| आपणपें ||१०३८|| तया आपणपयाच्या पोटीं| आत्मध्यानाचिया दिठी| देखती गा किरीटी| आपणपेंचि ||१०३९|| आणिक पैं दैवबगें| चित्त देती सांख्ययोगें| एक ते अंगलगें| कर्माचेनी ||१०४०|| अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते | तेऽपि चातितरंत्येव मृत्युं श्रुतिपरायणः ||२५|| येणें येणें प्रकारें| निस्तरती साचोकारें| हें भवा भेउरें| आघवेंचि ||१०४१|| परी ते करिती ऐसें| अभिमानु दवडूनि देशें| एकाचिया विश्वासें| टेंकती बोला ||१०४२|| जे हिताहित देखती| हानि कणवा घेपती| पुसोनि शिणु हरिती| देती सुख ||१०४३|| तयांचेनि मुखें जें निघे| तेतुलें आदरें चांगें| ऐकोनियां आंगें| मनें होती ||१०४४|| तया ऐकणेयाचि नांवें| ठेविती गा आघवें| तया अक्षरांसीं जीवें| लोण करिती ||१०४५|| तेही अंतीं कपिध्वजा| इया मरणार्णवसमाजा- | पासूनि निघती वोजा| गोमटिया ||१०४६|| ऐसेसे हे उपाये| बहुवस एथें पाहें| जाणावया होये| एकी वस्तु ||१०४७|| आतां पुरे हे बहुत| पैं सर्वार्थाचें मथित| सिद्धांतनवनीत| देऊं तुज ||१०४८|| येतुलेनि पंडुसुता| अनुभव लाहाणा आयिता| येर तंव तुज होतां| सायास नाहीं ||१०४९|| म्हणौनि ते बुद्धि रचूं| मतवाद हे खांचूं| सोलीव निर्वचूं| फलितार्थुची ||१०५०|| यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम् | क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ||२६|| तरी क्षेत्रज्ञ येणें बोलें| तुज आपणपें जें दाविलें| आणि क्षेत्रही सांगितलें| आघवें जें ||१०५१|| तया येरयेरांच्या मेळीं| होईजे भूतीं सकळीं| अनिलसंगें सलिलीं| कल्लोळ जैसे ||१०५२|| कां तेजा आणि उखरा| भेटी जालिया वीरा| मृगजळाचिया पूरा| रूप होय ||१०५३|| नाना धाराधरधारीं| झळंबलिया वसुंधरी| उठिजे जेवीं अंकुरीं| नानाविधीं ||१०५४|| तैसें चराचर आघवें| जें कांहीं जीवु नावें| तें तों उभययोगें संभवे| ऐसें जाण ||१०५५|| इयालागीं अर्जुना| क्षेत्रज्ञा प्रधाना- | पासूनि न होती भिन्ना| भूतव्यक्ती ||१०५६|| समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् | विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ||२७|| पैं पटत्व तंतु नव्हे| तरी तंतूसीचि तें आहे| ऐसां खोलीं डोळां पाहें| ऐक्य हें गा ||१०५७|| भूतें आघवींचि होती| एकाचीं एक आहाती| परी तूं प्रतीती| यांची घे पां ||१०५८|| यांचीं नामेंही आनानें| अनारिसीं वर्तनें| वेषही सिनाने| आघवेयांचे ||१०५९|| ऐसें देखोनि किरीटी| भेद सूसी हन पोटीं| तरी जन्माचिया कोटी| न लाहसी निघों ||१०६०|| पैं नानाप्रयोजनशीळें| दीर्घें वक्रें वर्तुळें| होती एकाचींच फळें| तुंबिणीयेचीं ||१०६१|| होतु कां उजू वांकुडें| परी बोरीचे हें न मोडे| तैसी भूतें अवघडें| परी वस्तु उजू ||१०६२|| अंगारकणीं बहुवसीं| उष्णता समान जैशी| तैसा नाना जीवराशीं| परेशु असे ||१०६३|| गगनभरी धारा| परी पाणी एकचि वीरा| तैसा या भूताकारा| सर्वांगीं तो ||१०६४|| हें भूतग्राम विषम| परी वस्तू ते एथ सम| घटमठीं व्योम| जिंयापरी ||१०६५|| हा नाशतां भूताभासु| एथ आत्मा तो अविनाशु| जैसा केयूरादिकीं कसु| सुवर्णाचा ||१०६६|| एवं जीवधर्महीनु| जो जीवेंसीं अभिन्नु| देख तो सुनयनु| ज्ञानियांमाजीं ||१०६७|| ज्ञानाचा डोळा डोळसां- | माजीं डोळसु तो वीरेशा| हे स्तुति नोहे बहुवसा| भाग्याचा तो ||१०६८|| समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् | न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ||२८|| जे गुणेंद्रिय धोकोटी| देह धातूंची त्रिकुटी| पांचमेळावा वोखटी| दारुण हे ||१०६९|| हें उघड पांचवेउली| पंचधां आगी लागली| जीवपंचानना सांपडली| हरिणकुटी हे ||१०७०|| ऐसा असोनि इये शरीरीं| कोण नित्यबुद्धीची सुरी| अनित्यभावाच्या उदरीं| दाटीचिना ||१०७१|| परी इये देहीं असतां| जो नयेचि आपणया घाता| आणि शेखीं पंडुसुता| तेथेंचि मिळे ||१०७२|| जेथ योगज्ञानाचिया प्रौढी| वोलांडूनियां जन्मकोडी| न निगों इया भाषा बुडी| देती योगी ||१०७३|| जें आकाराचें पैल तीर| जें नादाची पैल मेर| तुर्येचें माजघर| परब्रह्म जें ||१०७४|| मोक्षासकट गती| जेथें येती विश्रांती| गंगादि आपांपती| सरिता जेवीं ||१०७५|| तें सुख येणेंचि देहें| पाय पाखाळणिया लाहे| जो भूतवैषम्यें नोहे| विषमबुद्धी ||१०७६|| दीपांचिया कोडी जैसें| एकचि तेज सरिसें| तैसा जो असतुचि असे| सर्वत्र ईशु ||१०७७|| ऐसेनि समत्वें पंडुसुता| जिये जो देखत साता| तो मरण आणि जीविता| नागवे फुडा ||१०७८|| म्हणौनि तो दैवागळा| वानीत असों वेळोवेळां| जे साम्यसेजे डोळां| लागला तया ||१०७९|| प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः | यः पश्यति तथाऽऽत्मानंअकर्तारं स पश्यति ||२९|| आणि मनोबुद्धिप्रमुखें| कर्मेंद्रियें अशेखें| करी प्रकृतीचि हें देखे| साच जो गा ||१०८०|| घरींचीं राहटती घरीं| घर कांहीं न करी| अभ्र धांवे अंबरीं| अंबर तें उगें ||१०८१|| तैसी प्रकृति आत्मप्रभा| खेळे गुणीं विविधारंभा| येथ आत्मा तो वोथंबा| नेणे कोण ||१०८२|| ऐसेनि येणें निवाडें| जयाच्या जीवीं उजिवडें| अकर्तयातें फुडें| देखिलें तेणें ||१०८३|| यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति | तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ||३०|| एऱ्हवीं तैंचि अर्जुना| होईजे ब्रह्मसंपन्ना| जैं या भूताकृती भिन्ना| दिसती एकी ||१०८४|| लहरी जैसिया जळीं| परमाणुकणिका स्थळीं| रश्मीकरमंडळीं| सूर्याच्या जेवीं ? ||१०८५|| नातरी देहीं अवेव| मनीं आघवेचि भाव| विस्फुलिंग सावेव| वन्हीं एकीं ||१०८६|| तैसे भूताकार एकाचे| हें दिठी रिगे जैं साचें| तैंचि ब्रह्मसंपत्तीचें| तारूं लागे ||१०८७|| मग जया तयाकडे| ब्रह्मेचि दिठी उघडे| किंबहुना जोडे| अपार सुख ||१०८८|| येतुलेनि तुज पार्था| प्रकृतिपुरुषव्यवस्था| ठायें ठावो प्रतीतिपथा- | माजीं जाहली ? ||१०८९|| अमृत जैसें ये चुळा| कां निधान देखिजे डोळां| तेतुला जिव्हाळा| मानावा हा ||१०९०|| जी जाहलिये प्रतीती| घर बांधणें जें चित्तीं| तें आतां ना सुभद्रापती| इयावरी ||१०९१|| तरी एक दोन्ही ते बोल| बोलिजती सखोल| देईं मनातें वोल| मग ते घेईं ||१०९२|| ऐसें देवें म्हणितलें| मग बोलों आदरिलें| तेथें अवधानाचेचि केलें| सर्वांग येरें ||१०९३|| अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः | शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ||३१|| तरी परमात्मा म्हणिपे| तो ऐसा जाण स्वरूपें| जळीं जळें न लिंपे| सूर्यु जैसा ||१०९४|| कां जे जळा आदीं पाठीं| तो असतुचि असे किरीटी| माजीं बिंबे तें दृष्टी| आणिकांचिये ||१०९५|| तैसा आत्मा देहीं| आथि म्हणिपे हें कांहीं| साचें तरी नाहीं| तो जेथिंचा तेथें ||१०९६|| आरिसां मुख जैसें| बिंबलिया नाम असे| देहीं वसणें तैसें| आत्मतत्त्वा ||१०९७|| तया देहा म्हणती भेटी| हे सपायी निर्जीव गोठी| वारिया वाळुवे गांठी| केंही आहे ? ||१०९८|| आगी आणि कापुसा| दोरा सुवावा कैसा| केउता सांदा आकाशा| पाषाणेंसी ? ||१०९९|| एक निघे पूर्वेकडे| एक तें पश्चिमेकडे| तिये भेटीचेनि पाडें| संबंधु हा ||११००|| उजियेडा आणि अंधारेया| जो पाडु मृता उभेयां| तोचि गा आत्मया| देहा जाण ||११०१|| रात्री आणि दिवसा| कनका आणि कापुसा| अपाडु कां जैसा| तैसाचि यासी ||११०२|| देह तंव पांचांचें जालें| हें कर्माचें गुणीं गुंथले| भंवतसे चाकीं सूदलें| जन्ममृत्यूच्या ||११०३|| हें काळानळाच्या तोंडीं| घातली लोणियाची उंडी| माशी पांखु पाखडी| तंव हें सरे ||११०४|| हें विपायें आगींत पडे| तरी भस्म होऊनि उडे| जाहलें श्वाना वरपडें| तरी ते विष्ठा ||११०५|| या चुके दोहीं काजा| तरी होय कृमींचा पुंजा| हा परिणामु कपिध्वजा| कश्मलु गा ||११०६|| या देहाची हे दशा| आणि आत्मा तो एथ ऐसा| पैं नित्य सिद्ध आपैसा| अनादिपणें ||११०७|| सकळु ना निष्कळु| अक्रियु ना क्रियाशीळु| कृश ना स्थुळु| निर्गुणपणें ||११०८|| आभासु ना निराभासु| प्रकाशु ना अप्रकाशु| अल्प ना बहुवसु| अरूपपणें ||११०९|| रिता ना भरितु| रहितु ना सहितु| मूर्तु ना अमूर्तु| शून्यपणें ||१११०|| आनंदु ना निरानंदु| एक ना विविधु| मुक्त ना बद्धु| आत्मपणें ||११११|| येतुला ना तेतुला| आइता ना रचिला| बोलता ना उगला| अलक्षपणें ||१११२|| सृष्टीच्या होणा न रचे| सर्वसंहारें न वेंचे| आथी नाथी या दोहींचें| पंचत्व तो ||१११३|| मवे ना चर्चे| वाढे ना खांचे| विटे ना वेंचे| अव्ययपणें ||१११४|| एवं रूप पैं आत्मा| देहीं जें म्हणती प्रियोत्तमा| तें मठाकारें व्योमा| नाम जैसें ||१११५|| तैसें तयाचिये अनुस्यूती| होती जाती देहाकृती| तो घे ना सांडी सुमती| जैसा तैसा ||१११६|| अहोरात्रें जैशी| येती जाती आकाशीं| आत्मसत्तें तैसीं| देहें जाण ||१११७|| म्हणौनि इयें शरीरीं| कांहीं करवीं ना करी| आयताही व्यापारीं| सज्ज न होय ||१११८|| यालागीं स्वरूपें| उणा पुरा न घेपे| हें असो तो न लिंपे| देहीं देहा ||१११९|| यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते | सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ||३२|| अगा आकाश कें नाहीं ? | हें न रिघेचि कवणे ठायीं ? | परी कायिसेनि कहीं| गादिजेना ||११२०|| तैसा सर्वत्र सर्व देहीं| आत्मा असतुचि असे पाहीं| संगदोषें एकेंही| लिप्त नोहे ||११२१|| पुढतपुढती एथें| हेंचि लक्षण निरुतें| जे जाणावें क्षेत्रज्ञातें| क्षेत्रविहीना ||११२२|| संसर्गें चेष्टिजे लोहें| परी लोह भ्रामकु नोहे| क्षेत्रक्षेत्रज्ञां आहे| तेतुला पाडु ||११२३|| दीपकाची अर्ची| राहाटी वाहे घरींची| परी वेगळीक कोडीची| दीपा आणि घरा ||११२४|| पैं काष्ठाच्या पोटीं| वन्हि असे किरीटी| परी काष्ठ नोहे या दृष्टी| पाहिजे हा ||११२५|| अपाडु नभा आभाळा| रवि आणि मृगजळा| तैसाचि हाही डोळां| देखसी जरी ||११२६|| यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः | क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ||३३|| हें आघवेंचि असो एकु| गगनौनि जैसा अर्कु| प्रगटवी लोकु| नांवें नांवें ||११२७|| एथ क्षेत्रज्ञु तो ऐसा| प्रकाशकु क्षेत्राभासा| यावरुतें हें न पुसा| शंका नेघा ||११२८|| क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा | भूतप्रकृतिमोक्षं च विदुर्यान्ति ते परम् ||३४|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगोनाम त्रयोदशोऽध्यायः ||१३अ || शब्दतत्त्वसारज्ञा| पैं देखणें तेचि प्रज्ञा| जे क्षेत्रा क्षेत्रज्ञा| अपाडु देखे ||११२९|| इया दोहींचें अंतर| देखावया चतुर| ज्ञानियांचे द्वार| आराधिती ||११३०|| याचिलागीं सुमती| जोडिती शांतिसंपत्ती| शास्त्रांचीं दुभतीं| पोसिती घरीं ||११३१|| योगाचिया आकाशा| वळघिजे येवढाचि धिंवसा| याचियाचि आशा| पुरुषासि गा ||११३२|| शरीरादि समस्त| मानिताति तृणवत| जीवें संतांचे होत| वाहणधरु ||११३३|| ऐसैसियापरी| ज्ञानाचिया भरोवरी| करूनियां अंतरीं| निरुतें होती ||११३४|| मग क्षेत्रक्षेत्रज्ञांचें| जें अंतर देखती साचें| ज्ञानें उन्मेख तयांचें| वोवाळूं आम्ही ||११३५|| आणि महाभूतादिकीं| प्रभेदलीं अनेकीं| पसरलीसे लटिकी| प्रकृति जे हे ||११३६|| जे शुकनळिकान्यायें| न लगती लागली आहे| हें जैसें तैसें होये| ठाउवें जयां ||११३७|| जैसी माळा ते माळा| ऐसीचि देखिजे डोळां| सर्पबुद्धि टवाळा| उखी होउनी ||११३८|| कां शुक्ति ते शुक्ती| हे साच होय प्रतीती| रुपेयाची भ्रांती| जाऊनियां ||११३९|| तैसी वेगळी वेगळेपणें| प्रकृति जे अंतःकरणें| देखती ते मी म्हणें| ब्रह्म होती ||११४०|| जें आकाशाहूनि वाड| जें अव्यक्ताची पैल कड| जें भेटलिया अपाडा पाड| पडों नेदी ||११४१|| आकारु जेथ सरे| जीवत्व जेथ विरे| द्वैत जेथ नुरे| अद्वय जें ||११४२|| तें परम तत्त्व पार्था| होती ते सर्वथा| जे आत्मानात्मव्यवस्था- | राजहंसु ||११४३|| ऐसा हा जी आघवा| श्रीकृष्णें तया पांडवा| उगाणा दिधला जीवा| जीवाचिया ||११४४|| येर कलशींचें येरीं| रिचविजे जयापरी| आपणपें तया श्रीहरी| दिधलें तैसें ||११४५|| आणि कोणा देता कोण| तो नर तैसा नारायण| वरी अर्जुनातें श्रीकृष्ण| हा मी म्हणे ||११४६|| परी असो तें नाथिलें| न पुसतां कां मी बोलें| किंबहुना दिधलें| सर्वस्व देवें ||११४७|| कीं तो पार्थु जी मनीं| अझुनी तृप्ती न मनी| अधिकाधिक उतान्ही| वाढवीतु असे ||११४८|| स्नेहाचिया भरोवरी| आंबुथिला दीपु घे थोरी| चाड अर्जुना अंतरीं| परिसतां तैसी ||११४९|| तेथ सुगरिणी आणि उदारे| रसज्ञ आणि जेवणारे| मिळती मग अवतरे| हातु जैसा ||११५०|| तैसें जी होतसे देवा| तया अवधानाचिया लवलवा| पाहतां व्याख्यान चढलें थांवा| चौगुणें वरी ||११५१|| सुवायें मेघु सांवरे| जैसा चंद्रें सिंधु भरे| तैसा मातुला रसु आदरें| श्रोतयांचेनि ||११५२|| आतां आनंदमय आघवें| विश्व कीजेल देवें| तें रायें परिसावें| संजयो म्हणे ||११५३|| एवं जे महाभारतीं| श्रीव्यासें आप्रांतमती| भीष्मपर्वसंगतीं| म्हणितली कथा ||११५४|| तो कृष्णार्जुनसंवादु| नागरीं बोलीं विशदु| सांगोनि द्ॐ प्रबंधु| वोवियेचा ||११५५|| नुसधीचि शांतिकथा| आणिजेल कीर वाक्पथा| जे शृंगाराच्या माथां| पाय ठेवी ||११५६|| द्ॐ वेल्हाळे देशी नवी| जे साहित्यातें वोजावी| अमृतातें चुकी ठेवी| गोडिसेंपणें ||११५७|| बोल वोल्हावतेनि गुणें| चंद्रासि घे उमाणे| रसरंगीं भुलवणें| नादु लोपी ||११५८|| खेचरांचियाही मना| आणीन सात्त्विकाचा पान्हा| श्रवणासवें सुमना| समाधि जोडे ||११५९|| तैसा वाग्विलास विस्तारू| गीतार्थेंसी विश्व भरूं| आनंदाचें आवारूं| मांडूं जगा ||११६०|| फिटो विवेकाची वाणी| हो कानामनाची जिणी| देखो आवडे तो खाणी| ब्रह्मविद्येची ||११६१|| दिसो परतत्त्व डोळां| पाहो सुखाचा सोहळा| रिघो महाबोध सुकाळा- | माजीं विश्व ||११६२|| हें निफजेल आतां आघवें| ऐसें बोलिजेल बरवें| जें अधिष्ठिला असें परमदेवें| श्रीनिवृत्तीं मी ||११६३|| म्हणौनि अक्षरीं सुभेदीं| उपमा श्लोक कोंदाकोंदी| झाडा देईन प्रतिपदीं| ग्रंथार्थासी ||११६४|| हा ठावोवरी मातें| पुरतया सारस्वतें| केलें असे श्रीमंतें| श्रीगुरुरायें ||११६५|| तेणें जी कृपासावायें| मी बोलें तेतुलें सामाये| आणि तुमचिये सभे लाहें| गीता म्हणों ||११६६|| वरी तुम्हा संतांचे पाये| आजि मी लाधलों आहें| म्हणौनि जी नोहे| अटकु काहीं ||११६७|| प्रभु काश्मिरीं मुकें| नुपजे हें काय कौतुकें| नाहीं उणीं सामुद्रिकें| लक्ष्मीयेसी ||११६८|| तैसी तुम्हां संतांपासीं| अज्ञानाची गोठी कायसी| यालागीं नवरसीं| वरुषेन मी ||११६९|| किंबहुना आतां देवा| अवसरु मज देयावा| ज्ञानदेव म्हणे बरवा| सांगेन ग्रंथु ||११७०|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां त्रयोदशोऽध्यायः ||

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