ज्ञानेश्वरी अध्याय १४

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:09:55
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १४ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय चौदावा | गुणत्रयविभागयोगः | जय जय आचार्या| समस्तसुरवर्या| प्रज्ञाप्रभातसूर्या| सुखोदया ||१|| जय जय सर्व विसांवया| सो~हंभावसुहावया| नाना लोक हेलावया| समुद्रा तूं ||२|| आइकें गा आर्तबंधू| निरंतरकारुण्यसिंधू| विशदविद्यावधू- | वल्लभा जी ||३|| तू जयांप्रति लपसी| तया विश्व हें दाविसी| प्रकट तैं करिसी| आघवेंचि तूं ||४|| कीं पुढिलाची दृष्टि चोरिजे| हा दृष्टिबंधु निफजे| परी नवल लाघव तुझें| जें आपणपें चोरें ||५|| जी तूंचि तूं सर्वां यया| मा कोणा बोधु कोणा माया| ऐसिया आपेंआप लाघविया| नमो तुज ||६|| जाणों जगीं आप वोलें| तें तुझिया बोला सुरस जालें| तुझेनि क्षमत्व आलें| पृथ्वियेसी ||७|| रविचंद्रादि शुक्ती| उदो करिती त्रिजगतीं| तें तुझिया दीप्ती| तेज तेजां ||८|| चळवळिजे अनिळें| तें दैविकेनि जी निजबळें| नभ तुजमाजीं खेळे| लपीथपी ||९|| किंबहुना माया असोस| ज्ञान जी तुझेनि डोळस| असो वानणें सायास| श्रुतीसि हे ||१०|| वेद वानूनि तंवचि चांग| जंव न दिसे तुझें आंग| मग आम्हां तया मूग| एके पांती ||११|| जी एकार्णवाचे ठाईं| पाहतां थेंबाचा पाडु नाहीं| मा महानदी काई| जाणिजती ||१२|| कां उअदयलिया भास्वतु| चंद्र जैसा खद्योतु| आम्हां श्रुति तुज आंतु| तो पाडु असे ||१३|| आणि दुजया थांवो मोडे| जेथ परेशीं वैखरी बुडे| तो तूं मा कोणें तोंडें| वानावासी ||१४|| यालागीं आतां| स्तुति सांडूनि निवांता| चरणीं ठेविजे माथा| हेंचि भलें ||१५|| तरी तू जैसा आहासि तैसिया| नमो जी श्रीगुरुराया| मज ग्रंथोद्यमु फळावया| वेव्हारा होईं ||१६|| आतां कृपाभांडवल सोडीं| भरीं मति माझी पोतडी| करीं ज्ञानपद्य जोडी| थोरा मातें ||१७|| मग मी संसरेन तेणें| करीन संतांसी कर्णभूषणें| लेववीन सुलक्षणें| विवेकाचीं ||१८|| जी गीतार्थनिधान| काढू माझें मन| सुयीं स्नेहांजन| आपलें तूं ||१९|| हे वाक्सृष्टि एके वेळे| देखतु माझे बुद्धीचे डोळे| तैसा उदैजो जो निर्मळें| कारुण्यबिंबें ||२०|| माझी प्रज्ञावेली वेल्हाळ| काव्यें होय सफळ| तो वसंतु होय स्नेहाळ- | शिरोमणी ||२१|| प्रमेय महापूरें| हे मतिगंगा ये थोरें| तैसा वरिष उदारें| दिठीवेनी ||२२|| अगा विश्वैकधामा| तुझा प्रसाद चंद्रमा| करूं मज पूर्णिमा| स्फूर्तीची जी ||२३|| जी अवलोकिलिया मातें| उन्मेषसागरीं भरितें| वोसंडेल स्फूर्तीतें| रसवृत्तीचें ||२४|| तंव संतोषोनि श्रीगुरुराजें| म्हणितलें विनतिव्याजें| मांडिलें देखोनि दुजें| स्तवनमिषें ||२५|| हें असो आतां वांजटा| तो ज्ञानार्थ करूनि गोमटा| ग्रंथु दावीं उत्कंठा| भंगो नेदीं ||२६|| हो कां जी स्वामी| हेंचि पाहत होतों मी| जे श्रीमुखें म्हणा तुम्ही| ग्रंथु सांग ||२७|| सहजें दुर्वेचा डिरु| आंगेंचि तंव अमरु| वरी आला पूरु| पीयूषाचा ||२८|| तरी आतां येणें प्रसादें| विन्यासें विदग्धें| मूळशास्त्रपदें| वाखाणीन ||२९|| परी जीवा आंतुलीकडे| जैसी संदेहाची डोणी बुडे| ना श्रवणीं तरी चाडे| वाढी दिसे ||३०|| तैसी बोली साचारी| अवतरो माझी माधुरी| माले मागूनि घरीं| गुरुकृपेच्या ||३१|| तरी मागां त्रयोदशीं| अध्यायीं गोठी ऐसी| श्रीकृष्ण अर्जुनेंसी| चावळले ||३२|| जे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगें| होईजे येणें जगें| आत्मा गुणसंगें| संसारिया ||३३|| आणि हाचि प्रकृतिगतु| सुखदुःख भोगीं हेतु| अथवा गुणातीतु| केवळु हा ||३४|| तरी कैसा पां असंगा संगु| कोण तो क्षेत्रक्षेत्रज्ञायोगु| सुखदुःखादि भोगु| केवीं तया ? ||३५|| गुण ते कैसे किती| बांधती कवणे रीती| नातरी गुणातीतीं| चिन्हें काई ? ||३६|| एवं इया आघवेया| अर्था रूप करावया| विषो एथ चौदाविया| अध्यायासी ||३७|| तरी तो आतां ऐसा| प्रस्तुत परियेसा| अभिप्रायो विश्वेशा| वैकुंठाचा ||३८|| तो म्हणे गा अर्जुना| अवधानाची सर्व सेना| मेळऊनि इया ज्ञाना| झोंबावें हो ! ||३९|| आम्हीं मागां तुज बहुतीं| दाविलें हें उपपत्ती| तरी आझुनी प्रतीती- | कुशीं न निघे ||४०|| श्रीभगवानुवाच | परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानाना.म् ज्ञानमुत्तमम् | यद्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ||१|| म्हणौनि गा पुढती| सांगिजैल तुजप्रती| पर म्हण म्हणौनि श्रुतीं| डाहारिलें जें ||४१|| एऱ्हवीं ज्ञान हें आपुलें| परी पर ऐसेनि जालें| जे आवडोनि घेतलें| भवस्वर्गादिक ||४२|| अगा याचि कारणें| हें उत्तम सर्वांपरी मी म्हणें| जे वन्हि हें तृणें| येरें ज्ञानें ||४३|| जियें भवस्वर्गातें जाणती| यागचि चांग म्हणती| पारखी फुडी आथी| भेदीं जया ||४४|| तियें आघवींचि ज्ञानें| केलीं येणें स्वप्नें| जैशा वातोर्मी गगनें| गिळिजती अंतीं ||४५|| कां उदितें रश्मिराजें| लोपिलीं चंद्रादि तेजें| नाना प्रळयांबुमाजें| नदी नद ||४६|| तैसें येणें पाहलेया| ज्ञानजात जाय लया| म्हणौनियां धनंजया| उत्तम हें ||४७|| अनादि जे मुक्तता| आपुली असे पंडुसुता| तो मोक्षु हातां येता| होय जेणें ||४८|| जयाचिया प्रतीती| विचारवीरीं समस्तीं| नेदिजेचि संसृती| माथां उधऊं ||४९|| मनें मन घालूनि मागें| विश्रांति जालिया आंगें| ते देहीं देहाजोगे| होतीचि ना ||५०|| मग तें देहाचें बेळें| वोलांडूनि एकेचि वेळे| संवतुकी कांटाळें| माझें जालें ||५१|| इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः | सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ||२|| जे माझिया नित्यता| तेणें नित्य ते पंडुसुता| परिपूर्ण पूर्णता| माझियाची ||५२|| मी जैसा अनंतानंदु| जैसाचि सत्यसिंधु| तैसेचि ते भेदु| उरेचि ना ||५३|| जें मी जेवढें जैसें| तेंचि ते जाले तैसें| घटभंगीं घटाकाशें| आकाश जेवीं ||५४|| नातरीं दीपमूळकीं| दीपशिखा अनेकीं| मीनलिया अवलोकीं| होय जैसें ||५५|| अर्जुना तयापरी| सरली द्वैताची वारी| नांदे नामार्थ एकाहारीं| मीतूंविण ||५६|| येणेंचि पैं कारणें| जैं पहिलें सृष्टीचें जुंपणें| तेंही तया होणें| पडेचिना ||५७|| सृष्टीचिये सर्वादी| जयां देहाची नाहीं बांधी| ते कैचें प्रळयावधी| निमतील पां ? ||५८|| म्हणौनि जन्मक्षयां- | अतीत ते धनंजया| मी जालें ज्ञाना इया| अनुसरोनी ||५९|| ऐसी ज्ञानाची वाढी| वानिली देवें आवडी| तेवींचि पार्थाही गोडी| लावावया ||६०|| तंव तया जालें आन| सर्वांगीं निघाले कान| सणई अवधान| आतला पां ||६१|| आतां देवाचिया ऐसें| जाकळीजत असे वोरसें| जें निरूपण आकाशें| वेंटाळेना ||६२|| मग म्हणे गा प्रज्ञाकांता| उजवली आजि वक्तृत्वता| जे बोलायेवढा श्रोता| जोडलासी ||६३|| तरि एकु मी अनेकीं| गोंविजे देहपाशकीं| त्रिगुणीं लुब्धकीं| कवणेपरी ||६४|| कैसा क्षेत्रयोगें| वियें इयें जगें| तें परिस सांगें| कवणेपरी ||६५|| पैं क्षेत्र येणें व्याजें| यालागीं हें बोलिजे| जे मत्संगबीजें| भूतीं पिके ||६६|| मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधामहम्यम् | संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ||३|| एऱ्हवीं तरी महद्ब्रह्म| यालागीं हें ऐसें नाम| जे महदादिविश्राम| शालिका हें ||६७|| विकारां बहुवस थोरी| अर्जुना हेंचि करी| म्हणौनि अवधारीं| महद्ब्रह्म ||६८|| अव्यक्तवादमतीं| अव्यक्त ऐसी वदंती| सांख्याचिया प्रतीती| प्रकृति हेचि ||६९|| वेदांतीं इयेतें माया| ऐसें म्हणिजे प्राज्ञराया| असो किती बोलों वायां| अज्ञान हें ||७०|| आपला आपणपेयां| विसरु जो धनंजया| तेंचि रूप यया| अज्ञानासी ||७१|| आणिकही एक असे| जें विचारावेळे न दिसे| वातीं पाहतां जैसें| अंधारें कां ||७२|| हालविलिया जाय| निश्चळीं तरी होय| दुधीं जैसी साय| दुधाची ते ||७३|| पैं जागरु ना स्वप्न| ना स्वरूप अवस्थान| ते सुषुप्ति कां घन| जैसी होय ||७४|| कां न वियतां वायूतें| वांझें आकाश रितें| तया ऐसें निरुतें| अज्ञान गा ||७५|| पैल खांबु कां पुरुखु| ऐसा निश्चयो नाहीं एकु| परी काय नेणों आलोकु| दिसत असे ||७६|| तेवीं वस्तु जैसी असे| तैसी कीर न दिसे| परी कांहीं अनारिसें| देखिजेना ||७७|| ना राती ना तेज| ते संधि जेवीं सांज| तेवीं विरुद्ध ना निज| ज्ञान आथी ||७८|| ऐसी कोण्ही एकी दिशा| तिये वादु अज्ञान ऐसा| तया गुंडलिया प्रकाशा| क्षेत्रज्ञु नाम ||७९|| अज्ञान थोरिये आणिजे| आपणपें तरी नेणिजे| तें रूप जाणिजे| क्षेत्रज्ञाचें ||८०|| हाचि उभय योगु| बुझें बापा चांगु| सत्तेचा नैसर्गु| स्वभावो हा ||८१|| आतां अज्ञानासारिखें| वस्तु आपणपांचि देखे| परी रूपें अनेकें| नेणों कोणें ||८२|| जैसा रंकु भ्रमला| म्हणे जा रे मी रावो आला| कां मूर्च्छितु गेला| स्वर्गलोकां ||८३|| तेवीं लचकलिया दिठी| मग देखणें जें जें उठी| तया नाम सृष्टी| मीचि वियें पैं गा ||८४|| जैसें कां स्वप्नमोहा| तो एकाकी देखे बहुवा| तोचि पाडु आत्मया| स्मरणेंवीण असे ||८५|| हेंचि आनीभ्रांती| प्रमेय उपलवूं पुढती| परी तूं प्रतीती| याचि घे पां ||८६|| तरी माझी हे गृहिणी| अनादि तरुणी| अनिर्वाच्यगुणी| अविद्या हे ||८७|| इये नाहीं हेंचि रूप| ठाणें हें अति उमप| हें निद्रितां समीप| चेतां दुरी ||८८|| पैं माझेनिचि आंगें| पहुढल्या हे जागे| आणि सत्तासंभोगें| गुर्विणी होय ||८९|| महद्ब्रह्मउदरीं| प्रकृतीं आठै विकारीं| गर्भाची करी| पेलोवेली ||९०|| उभयसंगु पहिलें| बुद्धितत्त्वें प्रसवलें| बुद्धितत्त्व भारैलें| होय मन ||९१|| तरुणी ममता मनाची| ते अहंकार तत्त्व रची| तेणें महाभूतांची| अभिव्यक्ति होय ||९२|| आणि विषयेंद्रियां गौसी| स्वभावें तंव भूतांसी| म्हणौनि येती सरिसीं| तियेंही रूपा ||९३|| जालेनि विकारक्षोभें| पाठीं त्रिगुणाचें उभें| तेव्हां ये वासनागर्भें| ठायेंठावों ||९४|| रुखाचा आवांका| जैसी बीजकणिका| जीवीं बांधें उदका| भेटतखेंवो ||९५|| तैसी माझेनि संगें| अविद्या नाना जगें| आर घेवों लागे| आणियाची ||९६|| मग गर्भगोळा तया| कैसें रूप तैं ये आया| तें परियेसें राया| सुजनांचिया ||९७|| पैं मणिज स्वेदज| उद्भिज जारज| उमटती सहज| अवयव हें ||९८|| व्योमवायुवशें| वाढलेनि गर्भरसें| मणिजु उससे| अवयव तो ||९९|| पोटीं सूनि तमरजें| आगळिकां तोय तेजें| उठितां निफजे| स्वेदजु गा ||१००|| आपपृथ्वी उत्कटें| आणि तमोमात्रें निकृष्टें| स्थावरु उमटे| उद्भिजु हा ||१०१|| पांचां पांचही विरजीं| होती मनबुद्ध्यादि साजीं| हीं हेतु जारजीं| ऐसें जाण ||१०२|| ऐसे चारी हे सरळ| करचरणतळ| महाप्रकृति स्थूळ| तेंचि शिर ||१०३|| प्रवृत्ति पेललें पोट| निवृत्ति ते पाठी नीट| सुर योनी आंगें आठ| ऊर्ध्वाचीं ||१०४|| कंठु उल्हासता स्वर्गु| मृत्युलोकु मध्यभागु| अधोदेशु चांगु| नितंबु तो ||१०५|| ऐसें लेकरूं एक| प्रसवली हें देख| जयाचें तिन्ही लोक| बाळसें गा ||१०६|| चौऱ्यांयशीं लक्ष योनी| तियें कांडां पेरां सांदणी| वाढे प्रतिदिनीं| बाळक हें ||१०७|| नाना देह अवयवीं| नामाचीं लेणीं लेववी| मोहस्तन्यें वाढवी| नित्य नवें ||१०८|| सृष्टी वेगवेगळीया| तिया करांघ्रीं आंगोळियां| भिन्नाभिमान सूदलिया| मुदिया तेथें ||१०९|| हें एकलौतें चराचर| अविचारित सुंदर| प्रसवोनि थोर| थोरावली ||११०|| पै ब्रह्मा प्रातःकाळु| विष्णु तो माध्यान्ह वेळु| सदाशिव सायंकाळु| बाळा यया ||१११|| महाप्रळयसेजे| खिळोनि निवांत निजे| विषमज्ञानें उमजें| कल्पोदयीं ||११२|| अर्जुना इयापरी| मिथ्यादृष्टीच्या घरीं| युगानुवृत्तीचीं करी| चोज पाउलें ||११३|| संकल्पु जयाचा इष्टु| अहंकारु तो विनटु| ऐसिया होय शेवटु| ज्ञानें यया ||११४|| आतां असो हे बहु बोली| ऐसें विश्व माया व्याली| तेथ साह्य जाली| माझी सत्ता ||११५|| सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः | तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ||४|| याकारणें मी पिता| महद्ब्रह्म हे माता| अपत्य पंडुसुता| जगडंबरु ||११६|| आतां शरीरें बहुतें| देखोनि न भेदें हो चित्तें| जे मनबुद्ध्यादि भूतें| एकेंचि येथें ||११७|| हां गा एकाचि देहीं| काय अनारिसें अवयव नाहीं ? | तेवीं विचित्र विश्व पाहीं| एकचि हें ||११८|| पैं उंचा नीचा डाहाळिया| विषमा वेगळालिया| येकाचि जेवीं जालिया| बीजाचिया ||११९|| आणि संबंधु तोही ऐसा| मृत्तिके घटु लेंकु जैसा| कां पटत्व कापुसा| नातू होय ||१२०|| नाना कल्लोळपरंपरा| संतती जैसी सागरा| आम्हां आणि चराचरा| संबंधु तैसा ||१२१|| म्हणौनि वन्हि आणि ज्वाळ| दोन्ही वन्हीचि केवळ| तेवीं मी गा सकळ| संबंधु वावो ||१२२|| जालेनि जगें मी झांकें| तरी जगत्वें कोण फांके ? | किळेवरी माणिकें| लोपिजे काई ? ||१२३|| अळंकारातें आलें| तरी सोनेपण काइ गेलें ? | कीं कमळ फांकलें| कमळत्वा मुके ? ||१२४|| सांग पां धनंजया| अवयवीं अवयविया| आच्छादिजे कीं तया| तेंचि रूप ? ||१२५|| कीं विरूढलिया जोंधळा| कणिसाचा निर्वाळा| वेंचला कीं आगळा| दिसतसे ||१२६|| म्हणौनि जग परौतें| सारूनि पाहिजे मातें| तैसा नोव्हें उखितें| आघवें मीचि ||१२७|| हा तूं साचोकारा| निश्चयाचा खरा| गांठीं बांध वीरा| जीवाचिये ||१२८|| आतां मियां मज दाविला| शरीरीं वेगळाला| गुणीं मीचि बांधला| ऐसा आवडें ||१२९|| जैसें स्वप्नीं आपण| उठूनियां आत्ममरण| भोगिजे गा जाण| कपिध्वजा ||१३०|| कां कवळातें डोळे| प्रकाशूनि पिवळें| देखती तेंही कळे| तयांसीचि ||१३१|| नाना सूर्यप्रकाशें| प्रकटी तैं अभ्र भासे| तो लोपला हेंही दिसे| सूर्येंचि कीं ||१३२|| पैं आपणपेनि जालिया| छाया गा आपुलिया| बिहोनि बिहालिया| आन आहे ? ||१३३|| तैसीं इयें नाना देहें| दाऊनि मी नाना होयें| तेथ ऐसा जो बंधु आहे| तेंही देखें ||१३४|| बंधु कां न बंधिजे| हें जाणणें मज माझें| नेणणेनि उपजे| आपलेनि ||१३५|| तरी कोणें गुणें कैसा| मजचि मी बंधु ऐसा| आवडे तें परियेसा| अर्जुनदेवा ||१३६|| गुण ते किती किंधर्म| कायि ययां रूपनाम| कें जालें हें वर्म| अवधारीं पां ||१३७|| सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः | निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ||५|| तरी सत्त्वरजतम| तिघांसि हें नाम| आणि प्रकृति जन्म- | भूमिका ययां ||१३८|| येथ सत्त्व तें उत्तम| रज तें मध्यम| तिहींमाजीं तम| सावियाधारें ||१३९|| हें एकेचि वृत्तीच्या ठायीं| त्रिगुणत्व आवडे पाहीं| वयसात्रय देहीं| येकीं जेवीं ||१४०|| कां मीनलेनि कीडें| जंव जंव तूक वाढे| तंव तंव सोनें हीन पडे| पांचिका कसीं ||१४१|| पैं सावधपण जैसें| वाहविलें आळसें| सुषुप्ति बैसे| घणावोनि ||१४२|| तैसी अज्ञानांगीकारें| निगाली वृत्ति विखुरे| ते सत्त्वरजद्वारें| तमही होय ||१४३|| अर्जुना गा जाण| ययां नाम गुण| आतां दाखऊं खूण| बांधिती ते ||१४४|| तरी क्षेत्रज्ञदशे| आत्मा मोटका पैसे| हें देह मी ऐसें| मुहूर्त करी ||१४५|| आजन्ममरणांतीं| देहधर्मीं समस्तीं| ममत्वाची सूती| घे ना जंव ||१४६|| जैसी मीनाच्या तोंडीं| पडेना जंव उंडी| तंव गळ आसुडी| जळपारधी ||१४७|| तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् | सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ||६|| तेवीं सत्त्वें लुब्धकें| सुखज्ञानाचीं पाशकें| वोढिजती मग खुडके| मृगु जैसा ||१४८|| मग ज्ञानें चडफडी| जाणिवेचे खुरखोडी| स्वयं सुख हें धाडी| हातींचें गा ||१४९|| तेव्हां विद्यामानें तोखे| लाभमात्रें हरिखे| मी संतुष्ट हेंही देखे| श्लाघों लागे ||१५०|| म्हणे भाग्य ना माझें ? | आजि सुखियें नाहीं दुजें| विकाराष्टकें फुंजे| सात्त्विकाचेनि ||१५१|| आणि येणेंही न सरे| लांकण लागे दुसरें| जें विद्वत्तेचें भरे| भूत आंगीं ||१५२|| आपणचि ज्ञानस्वरूप आहे| तें गेलें हें दुःख न वाहे| कीं विषयज्ञानें होये| गगनायेवढा ||१५३|| रावो जैसा स्वप्नीं| रंकपणें रिघे धानीं| तो दों दाणां मानी| इंद्रु ना मी ||१५४|| तैसें गा देहातीता| जालेया देहवंता| हों लागे पंडुसुता| बाह्यज्ञानें ||१५५|| प्रवृत्तिशास्त्र बुझे| यज्ञविद्या उमजे| किंबहुना सुझे| स्वर्गवरी ||१५६|| आणि म्हणे आजि आन| मीवांचूनि नाहीं सज्ञान| चातुर्यचंद्रा गगन| चित्त माझें ||१५७|| ऐसें सत्त्व सुखज्ञानीं| जीवासि लावूनि कानी| बैलाची करी वानी| पांगुळाचिया ||१५८|| आतां हाचि शरीरीं| रजें जियापरी| बांधिजे तें अवधारीं| सांगिजैल ||१५९|| रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम् | तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ||७|| हें रज याचि कारणें| जीवातें रंजऊं जाणे| हें अभिलाखाचें तरुणें| सदाचि गा ||१६०|| हें जीवीं मोटकें रिगे| आणि कामाच्या मदीं लागे| मग वारया वळघे| तृष्णेचिया ||१६१|| घृतें आंबुखूनि आगियाळें| वज्राग्नीचें सादुकलें| आतां बहु थेंकुलें| आहे तेथ ? ||१६२|| तैसी खवळें चाड| होय दुःखासकट गोड| इंद्रश्रीहि सांकड| गमों लागे ||१६३|| तैसी तृष्णा वाढिनलिया| मेरुही हाता आलिया| तऱ्ही म्हणे एखादिया| दारुणा वळघो ||१६४|| जीविताचि कुरोंडी| वोवाळूं लागे कवडी| मानी तृणाचिये जोडी| कृतकृत्यता ||१६५|| आजि असतें वेंचिजेल| परी पाहे काय कीजेल| ऐसा पांगीं वडील| व्यवसाय मांडी ||१६६|| म्हणे स्वर्गा हन जावें| तरी काय तेथें खावें| इयालागीं धांवें| याग करूं ||१६७|| व्रतापाठीं व्रतें| आचरें इष्टापूर्तें| काम्यावांचूनि हातें| शिवणें नाहीं ||१६८|| पैं ग्रीष्मांतींचा वारा| विसांवो नेणें वीरा| तैसा न म्हणे व्यापारा| रात्रदिवस ||१६९|| काय चंचळु मासा ? | कामिनीकटाक्षु जैसा| लवलाहो तैसा| विजूही नाहीं ||१७०|| तेतुलेनि गा वेगें| स्वर्गसंसारपांगें| आगीमाजीं रिगे| क्रियांचिये ||१७१|| ऐसा देहीं देहावेगळा| ले तृष्णेचिया सांखळा| खटाटोपु वाहे गळां| व्यापाराचा ||१७२|| हें रजोगुणाचें दारुण| देहीं देहियासी बंधन| परिस आतां विंदाण| तमाचें तें ||१७३|| तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् | प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ||८|| व्यवहाराचेहि डोळे| मंद जेणें पडळें| मोहरात्रीचें काळें| मेहुडें जें ||१७४|| अज्ञानाचें जियालें| जया एका लागलें| जेणें विश्व भुललें| नाचत असे ||१७५|| अविवेकमहामंत्र| जें मौढ्यमद्याचें पात्र| हें असो मोहनास्त्र| जीवांसि जें ||१७६|| पार्था तें गा तम| रचूनि ऐसें वर्म| चौखुरी देहात्म- | मानियातें ||१७७|| हें एकचि कीर शरीरीं| माजों लागे चराचरीं| आणि तेथ दुसरी| गोठी नाहीं ||१७८|| सर्वेंद्रिया जाड्य| मनामाजीं मौढ्य| माल्हाती जे दार्ढ्य| आलस्याचेंं ||१७९|| आंगें आंग मोडामोडी| कार्यजाती अनावडी| नुसती परवडी| जांभयांची ||१८०|| उघडियाची दिठी| देखणें नाहीं किरीटी| नाळवितांचि उठी| वो म्हणौनि ||१८१|| पडलिये धोंडी| नेणे कानी मुरडी| तयाचि परी मुरकुंडी| उकलूं नेणें ||१८२|| पृथ्वी पाताळीं जांवो| कां आकाशही वरी येवो| परी उठणें हा भावो| उपजों नेणें ||१८३|| उचितानुचित आघवें| झांसुरता नाठवे जीवें| जेथींचा तेथ लोळावें| ऐसी मेधा ||१८४|| उभऊनि करतळें| पडिघाये कपोळें| पायाचें शिरियाळें| मांडूं लागे ||१८५|| आणि निद्रेविषयीं चांगु| जीवीं आथि लागु| झोंपीं जातां स्वर्गु| वावो म्हणे ||१८६|| ब्रह्मायु होईजे| मा निजलेयाचि असिजे| हें वांचूनि दुजें| व्यसन नाहीं ||१८७|| कां वाटें जातां वोघें| कल्हातांही डोळा लागे| अमृतही परी नेघे| जरी नीद आली ||१८८|| तेवींचि आक्रोशबळें| व्यापारे कोणे एके वेळे| निगालें तरी आंधळें| रोषें जैसें ||१८९|| केधवां कैसे राहाटावें| कोणेसीं काय बोलावें| हें ठाकतें कीं नागवें| हेंही नेणें ||१९०|| वणवा मियां आघवा| पांखें पुसोनि घेयावा| पतंगु पां हांवा| घाली जेवीं ||१९१|| तैसा वळघे साहसा| अकरणींच धिंवसा| किंबहुना ऐसा| प्रमादु रुचे ||१९२|| एवं निद्रालस्यप्रमादीं| तम इया त्रिबंधीं| बांधे निरुपाधी| चोखटातें ||१९३|| जैसा वन्ही काष्ठीं भरे| तैं दिसे काष्ठाकारें| व्योम घटें आवरे| तें घटाकाश ||१९४|| नाना सरोवर भरलें| तैं चंद्रत्व तेथें बिंबलें| तैसें गुणाभासीं बांधलें| आत्मत्व गमे ||१९५|| सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत | ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ||९|| रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत | रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ||१०|| पैं हरूनि कफवात| जैं देही आटोपे पित्त| तैं करी संतप्त| देह जेवीं ||१९६|| कां वरिष आतप जैसें| जिणौनि शीतचि दिसे| तेव्हां होय हिंव ऐसें| आकाश हें ||१९७|| नाना स्वप्न जागृती| लोपूनि ये सुषुप्ती| तैं क्षणु एक चित्तवृत्ती| तेचि होय ||१९८|| तैसीं रजतमें हारवी| जैं सत्त्व माजु मिरवी| तैं जीवाकरवीं म्हणवी| सुखिया ना मी ? ||१९९|| तैसेंचि सत्त्व रज| लोपूनि तमाचें भोज| वळघें तैं सहज| प्रमादीं होय ||२००|| तयाचि गा परिपाठीं| सत्त्व तमातें पोटीं| घालूनि जेव्हां उठी| रजोगुण ||२०१|| तेव्हां कर्मावांचूनि कांहीं| आन गोमटें नाहीं| ऐसें मानी देहीं| देहराजु ||२०२|| त्रिगुण वृद्धि निरूपण| तीं श्लोकीं सांगितलें जाण| आतां सत्त्वादि वृद्धिलक्षण| सादर परियेसीं ||२०३|| सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते | ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ||११|| लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा | रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ||१२|| अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च | तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ||१३|| यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् | तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते ||१४|| रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते | तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ||१५|| पैं रजतमविजयें| सत्त्व गा देहीं इयें| वाढतां चिन्हें तियें| ऐसीं होती ||२०२०४|| जे प्रज्ञा आंतुलीकडे| न समाती बाहेरी वोसंडें| वसंतीं पद्मखंडें| दृती जैसी ||२०५|| सर्वेंद्रियांच्या आंगणीं| विवेक करी राबणी| साचचि करचरणीं| होती डोळे ||२०६|| राजहंसापुढें| चांचूचें आगरडें| तोडी जेवीं झगडे| क्षीरनीराचे ||२०७|| तेवीं दोषादोषविवेकीं| इंद्रियेंचि होती पारखीं| नियमु बा रे पायिकी| वोळगे तैं ||२०८|| नाइकणें तें कानचि वाळी| न पहाणें तें दिठीचि गाळी| अवाच्य तें टाळी| जीभचि गा ||२०९|| वाती पुढां जैसें| पळों लागे काळवसें| निषिद्ध इंद्रियां तैसें| समोर नोहे ||२१०|| धाराधरकाळें| महानदी उचंबळे| तैसी बुद्धि पघळे| शास्त्रजातीं ||२११|| अगा पुनवेच्या दिवशीं| चंद्रप्रभा धांवें आकाशीं| ज्ञानीं वृत्ति तैसी| फांके सैंघ ||२१२|| वासना एकवटे| प्रवृत्ति वोहटे| मानस विटे| विषयांवरी ||२१३|| एवं सत्त्व वाढे| तैं हें चिन्ह फुडें| आणि निधनही घडे| तेव्हांचि जरी ||२१४|| कां पाहालेनि सुयाणें| जालया परगुणें| पडियंतें पाहुणें| स्वर्गौनियां ||२१५|| तरी जैसीचि घरींची संपत्ती| आणि तैसीचि औदार्यधैर्यवृत्ती| मा परत्रा आणि कीर्ती| कां नोहावें ? ||२१६|| मग गोमटेया तया| जावळी असे धनंजया| तेवीं सत्त्वीं जाणे देहा| कें आथि गा ? ||२१७|| जे स्वगुणीं उद्ब्हट| घेऊनि सत्त्व चोखट| निगे सांडूनि कोपट| भोगक्षम हें ||२१८|| अवचटें ऐसा जो जाये| तो सत्त्वाचाचि नवा होये| किंबहुना जन्म लाहे| ज्ञानियांमाजीं ||२१९|| सांग पां धनुर्धरा| रावो रायपणें डोंगरा| गेलिया अपुरा| होय काई ? ||२२०|| नातरी येथिंचा दिवा| नेलिया सेजिया गांवा| तो तेथें तरी पांडवा| दीपचि कीं ||२२१|| तैसी ते सत्त्वशुद्धी| आगळी ज्ञानेंसी वृद्धी| तरंगावों लागें बुद्धी| विवेकावरी ||२२२|| पैं महदादि परिपाठीं| विचारूनि शेवटीं| विचारासकट पोटीं| जिरोनि जाय ||२२३|| छत्तिसां सदतिसावें| चोविसां पंचविसावें| तिन्ही नुरोनि स्वभावें| चतुर्थ जें ||२२४|| ऐसें सर्व जें सर्वोत्तम| जालें असे जया सुगम| तयासवें निरुपम| लाहे देह ||२२५|| इयाचि परी देख| तमसत्त्व अधोमुख| बैसोनि जैं आगळीक| धरी रज ||२२६|| आपलिया कार्याचा| धुमाड गांवीं देहाचा| माजवी तैं चिन्हांचा| उदयो ऐसा ||२२७|| पांजरली वाहुटळी| करी वेगळ वेंटाळी| तैसी विषयीं सरळी| इंद्रियां होय ||२२८|| परदारादि पडे| परी विरुद्ध ऐसें नावडे| मग शेळियेचेनि तोंडें| सैंघ चारी ||२२९|| हा ठायवरी लोभु| करी स्वैरत्वाचा राबु| वेंटाळितां अलाभु| तें तें उरे ||२३०|| आणि आड पडलिया| उद्यमजाती भलतिया| प्रवृत्ती धनंजया| हातु न काढी ||२३१|| तेवींचि एखादा प्रासादु| कां करावा अश्वमेधु| ऐसा अचाट छंदु| घेऊनि उठी ||२३२|| नगरेंचि रचावीं| जळाशयें निर्मावीं| महावनें लावावीं| नानाविधें ||२३३|| ऐसैसां अफाटीं कर्मीं| समारंभु उपक्रमीं| आणि दृष्टादृष्ट कामीं| पुरे न म्हणे ||२३४|| सागरुही सांडीं पडे| आगी न लाहे तीन कवडे| ऐसें अभिलषीं जोडे| दुर्भरत्व ||२३५|| स्पृहा मना पुढां पुढां| आशेचा घे दवडा| विश्व घापे चाडा| पायांतळीं ||२३६|| इत्यादि वाढतां रजीं| इयें चिन्हें होतीं साजीं| आणि ऐशा समाजीं| वेंचे जरी देह ||२३७|| तरी आघवाचि इहीं| परिवारला आनी देहीं| रिगे परी योनिही| मानुषीचि ||२३८|| सुरवाडेंसिं भिकारी| वसो पां राजमंदिरीं| तरी काय अवधारीं| रावो होईल ? ||२३९|| बैल तेथें करबाडें| हें न चुके गा फुडें| नेईजो कां वऱ्हाडें| समर्थाचेनी ||२४०|| म्हणौनि व्यापारा हातीं| उसंतु दिहा ना राती| तैसयाचिये पांती| जुंपिजे तो ||२४१|| कर्मजडाच्या ठायीं| किंबहुना होय देहीं| जो रजोवृत्तीच्या डोहीं| बुडोनि निमे ||२४२|| मग तैसाचि पुढती| रजसत्त्ववृत्ती| गिळूनि ये उन्नती| तमोगुण ||२४३|| तैंचि जियें लिंगें| देहींचीं सबाह्य सांगें| तियें परिस चांगें| श्रोत्रबळें ||२४४|| तरी होय ऐसें मन| जैसें रविचंद्रहीन| रात्रींचें कां गगन| अंवसेचिये ||२४५|| तैसें अंतर असोस| होय स्फूर्तिहीन उद्वस| विचाराची भाष| हारपे तैं ||२४६|| बुद्धि मेचवेना धोंडीं| हा ठायवरी मवाळें सांडी| आठवो देशधडी| जाला दिसे ||२४७|| अविवेकाचेनि माजें| सबाह्य शरीर गाजे| एकलेनि घेपे दीजे| मौढ्य तेथ ||२४८|| आचारभंगाचीं हाडें| रुपतीं इंद्रियांपुढें| मरे जरी तेणेंकडे| क्रिया जाय ||२४९|| पैं आणिकही एक दिसे| जे दुष्कृतीं चित्त उल्हासे| आंधारी देखणें जैसें| डुडुळाचें ||२५०|| तैसें निषिद्धाचेनि नांवें| भलतेंही भरे हावे| तियेविषयीं धांवे| घेती करणें ||२५१|| मदिरा न घेतां डुले| सन्निपातेंवीण बरळे| निष्प्रेमेंचि भुले| पिसें जैसें ||२५२|| चित्त तरी गेलें आहे| परी उन्मनी ते नोहे| ऐसें माल्हातिजे मोहें| माजिरेनि ||२५३|| किंबहुना ऐसैसीं| इयें चिन्हें तम पोषीं| जैं वाढे आयितीसी| आपुलिया ||२५४|| आणि हेंचि होय प्रसंगें| मरणाचें जरी पडे खागें| तरी तेतुलेनि निगे| तमेंसीं तो ||२५५|| राई राईपण बीजीं| सांठवूनियां अंग त्यजी| मग विरूढे तैं दुजी| गोठी आहे ? ||२५६|| पैं होऊनि दीपकलिका| येरु आगी विझो कां| कां जेथ लागे तेथ असका| तोचि आहे ||२५७|| म्हणौनि तमाचिये लोथें| बांधोनियां संकल्पातें| देह जाय तैं मागौतें| तमाचेचि होय ||२५८|| आतां काय येणें बहुवे| जो तमोवृद्धि मृत्यु लाहे| तो पशु कां पक्षी होये| झाड कां कृमी ||२५९|| कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् | रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ||१६|| येणेंचि पैं कारणें| जें निपजे सत्त्वगुणें| तें सुकृत ऐसें म्हणे| श्रौत समो ||२६०|| म्हणौनि तया निर्मळा| सुखज्ञानी सरळा| अपूर्व ये फळा| सात्त्विक तें ||२६१|| मग राजसा जिया क्रिया| तया इंद्रावणी फळलिया| जें सुखें चितारूनियां| फळती दुःखें ||२६२|| कां निंबोळियेचें पिक| वरि गोड आंत विख| तैसें तें राजस देख| क्रियाफळ ||२६३|| तामस कर्म जितुकें| अज्ञानफळेंचि पिके| विषांकुर विखें| जियापरी ||२६४|| सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च | प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ||१७|| म्हणौनि बा रे अर्जुना| येथ सत्त्वचि हेतु ज्ञाना| जैसा कां दिनमाना| सूर्य हा पैं ||२६५|| आणि तैसेंचि हें जाण| लोभासि रज कारण| आपुलें विस्मरण| अद्वैता जेवीं ||२६६|| मोह अज्ञान प्रमादा| ययां मैळेया दोषवृंदा| पुढती पुढती प्रबुद्धा| तमचि मूळ ||२६७|| ऐसें विचाराच्या डोळां| तिन्ही गुण हे वेगळवेगळां| दाविले जैसा आंवळा| तळहातींचा ||२६८|| तंव रजतमें दोन्हीं| देखिलीं प्रौढ पतनीं| सत्त्वावांचूनि नाणीं| ज्ञानाकडे ||२६९|| म्हणौनि सात्त्विक वृत्ती| एक जाले गा जन्मव्रती| सर्वत्यागें चतुर्थी| भक्ति जैसी ||२७०|| ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः | जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||१८|| तैसें सत्त्वाचेनि नटनाचें| असणें जाणें जयांचें| ते तनुत्यागीं स्वर्गींचे| राय होती ||२७१|| इयाचि परी रजें| जिहीं कां जीजे मरिजे| तिहीं मनुष्य होईजे| मृत्युलोकीं ||२७२|| तेथ सुखदुःखाचें खिचटें| जेविजें एकेचि ताटें| जेथ इये मरणवाटे| पडिलें नुठी ||२७३|| आणि तयाचि स्थिति तमीं| जे वाढोनि निमती भोगक्षमीं| ते घेती नरकभूमी| मूळपत्र ||२७४|| एवं वस्तूचिया सत्ता| त्रिगुणासी पंडुसुता| दाविली सकारणता| आघवीचि ||२७५|| पैं वस्तु वस्तुत्वें असिकें| तें आपणपें गुणासारिखें| देखोनि कार्यविशेखें| अनुकरे गा ||२७६|| जैसें कां स्वप्नींचेनि राजें| जैं परचक्र देखिजे| तैं हारी जैत होईजे| आपणपांचि ||२७७|| तैसे मध्योर्ध्व अध| हे जे गुणवृत्तिभेद| ते दृष्टीवांचूनि शुद्ध| वस्तुचि असे ||२७८|| नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति | गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ||१९|| परी हे वाहणी असो| तरी तुज आन न दिसो| परिसें तें सांगतसों| मागील गोठी ||२७९|| तरी ऐसें जाणिजे| सामर्थ्यें तिन्ही सहजें| होती देहव्याजें| गुणचि हे ||२८०|| इंधनाचेनि आकारें| अग्नि जैसा अवतरे| कां आंगवे तरुवरें| भूमिरसु ||२८१|| नाना दहिंयाचेनि मिसें| परिणमे दूधचि जैसें| कां मूर्त होय ऊंसें| गोडी जेवीं ||२८२|| तैसें हे स्वांतःकरण| देहचि होती त्रिगुण| म्हणौनि बंधासि कारण| घडे कीर ||२८३|| परी चोज हें धनुर्धरा| जे एवढा हा गुंफिरा| मोक्षाचा संसारा| उणा नोहे ||२८४|| त्रिगुण आपुलालेनि धर्में| देहींचे माघुत साउमें| चाळितांही न खोमें| गुणातीतता ||२८५|| ऐसी मुक्ति असे सहज| ते आतां परिसऊं तुज| जे तूं ज्ञानांबुज- | द्विरेफु कीं ||२८६|| आणि गुणीं गुणाजोगें| चैतन्य नोहे मागें| बोलिलों तें खागें| तेवींचि हें ||२८७|| तरी पार्था जैं ऐसें| बोधलेनि जीवें दिसे| स्वप्न कां जैसें| चेइलेनी ||२८८|| नातरी आपण जळीं| बिंबलों तीरोनी न्याहळी| चळण होतां कल्लोळीं| अनेकधा ||२८९|| कां नटलेनि लाघवें| नटु जैसा न झकवे| तैसें गुणजात देखावें| न होनियां ||२९०|| पैं ऋतुत्रय आकाशें| धरूनियांही जैसें| नेदिजेचि येवों वोसें| वेगळेपणा ||२९१|| तैसें गुणीं गुणापरौतें| जें आपणपें असे आयितें| तिये अहं बैसे अहंतें| मूळकेचिये ||२९२|| तैं तेथूनि मग पाहतां| म्हणे साक्षी मी अकर्ता| हे गुणचि क्रियाजातां| नियोजित ||२९३|| सत्त्वरजतमांचा| भेदीं पसरु कर्माचा| होत असे तो गुणांचा| विकारु हा ||२९४|| ययामाजीं मी ऐसा| वनीं कां वसंतु जैसा| वनलक्ष्मीविलासा| हेतुभूत ||२९५|| कां तारांगणीं लोपावें| सूर्यकांतीं उद्दीपावें| कमळीं विकासावें| जावें तमें ||२९६|| ये कोणाचीं काजें कहीं| सवितिया जैसी नाहीं| तैसा अकर्ता मी देहीं| सत्तारूप ||२९७|| मी दाऊनि गुण देखे| गुणता हे मियां पोखे| ययाचेनि निःशेखें| उरे तें मी ||२९८|| ऐसेनि विवेकें जया| उदो होय धनंजया| ये गुणातीतत्व तया| अर्थपंथें ||२९९|| गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् | जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ||२०|| आतां निर्गुण असे आणिक| तें तो जाणें अचुक| जे ज्ञानें केलें टीक| तयाचिवरी ||३००|| किंबहुना पंडुसुता| ऐसी तो माझी सत्ता| पावे जैसी सरिता| सिंधुत्व गा ||३०१|| नळिकेवरूनि उठिला| जैसा शुक शाखे बैसला| तैसा मूळ अहंतें वेढिला| तो मी म्हणौनि ||३०२|| अगा अज्ञानाचिया निदा| जो घोरत होता बदबदा| तो स्वस्वरूपीं प्रबुद्धा| चेइला कीं ||३०३|| पैं बुद्धिभेदाचा आरिसा| तया हातोनि पडिला वीरेशा| म्हणौनि प्रतिमुखाभासा| मुकला तो ||३०४|| देहाभिमानाचा वारा| आतां वाजो ठेला वीरा| तैं ऐक्य वीचिसागरां| जीवेशां हें ||३०५|| म्हणौनि मद्भावेंसी| प्राप्ति पाविजे तेणेंसरिसी| वर्षांतीं आकाशीं| घनजात जेवीं ||३०६|| तेवीं मी होऊनि निरुता| मग देहींचि ये असतां| नागवे देहसंभूतां| गुणांसि तो ||३०७|| जैसा भिंगाचेनि घरें| दीपप्रकाशु नावरे| कां न विझेचि सागरें| वडवानळु ||३०८|| तैसा आला गेला गुणांचा| बोधु न मैळे तयाचा| तो देहीं जैसा व्योमींचा| चंद्र जळीं ||३०९|| तिन्ही गुण आपुलालिये प्रौढी| देहीं नाचविती बागडीं| तो पाहोंही न धाडी| अहंतेतें ||३१०|| हा ठायवरी| नेहटोनि ठेला अंतरीं| आतां काय वर्ते शरीरीं| हेंहीं नेणे ||३११|| सांडुनि आंगींची खोळी| सर्प रिगालिया पाताळीं| ते त्वचा कोण सांभाळी| तैसें जालें ||३१२|| कां सौरभ्य जीर्णु जैसा| आमोदु मिळोनि जाय आकाशा| माघारा कमळकोशा| नयेचि तो ||३१३|| पैं स्वरूपसमरसें| ऐक्य गा जालें तैसें| तेथ किं धर्म हें कैसें| नेणें देह ||३१४|| म्हणौनि जन्मजरामरण| इत्यादि जे साही गुण| ते देहींचि ठेले कारण| नाहीं तया ||३१५|| घटाचिया खापरिया| घटभंगीं फेडिलिया| महदाकाश अपैसया| जालेंचि असे ||३१६|| तैसी देहबुद्धी जाये| जैं आपणपां आठौ होय| तैं आन कांहीं आहे| तेंवांचुनी ? ||३१७|| येणें थोर बोधलेपणें| तयासि गा देहीं असणें| म्हणूनि तो मी म्हणें| गुणातीत ||३१८|| यया देवाचिया बोला| पार्थु अति सुखावला| मेघें संबोखिला| मोरु जैसा ||३१९|| अर्जुन उवाच | कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणात्नेतानतीतो भवति प्रभो | किमाचारः कथंचैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ||२१|| तेणें तोषें वीर पुसे| जी कोण्ही चिन्हीं तो दिसे| जयामाजीं वसे| ऐसा बोधु ||३२०|| तो निर्गुण काय आचरे| कैसेनि गुण निस्तरे| हें सांगिजो माहेरें| कृपेचेनि ||३२१|| यया अर्जुनाचिया प्रश्ना| तो षड्गुणांचा राणा| परिहारु आकर्णा| बोलतु असे ||३२२|| म्हणे पार्था तुझी नवाई| हें येतुलेंचि पुससी काई| तें नामचि तया पाहीं| सत्य लटिकें ||३२३|| गुणातीत जया नांवें| तो गुणाधीन तरी नव्हे| ना होय तरी नांगवे| गुणां यया ||३२४|| परी अधीन कां नांगवें| हेंचि कैसेनि जाणावें| गुणांचिये रवरवे- | माजीं असतां ||३२५|| हा संदेह जरी वाहसी| तरी सुखें पुसों लाहसी| परिस आतां तयासी| रूप करूं ||३२६|| श्रीभगवानुवाच | प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव | न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ||२२|| तरी रजाचेनि माजें| देहीं कर्माचें आणोजें| प्रवृत्ति जैं घेईजे| वेंटाळुनि ||३२७|| तैं मीचि कां कर्मठ| ऐसा न ये श्रीमाठ| दरिद्रलिये बुद्धी वीट| तोही नाहीं ||३२८|| अथवा सत्त्वेंचि अधिकें| जैं सर्वेंद्रियीं ज्ञान फांके| तैं सुविद्यता तोखें| उभजेही ना ||३२९|| कां वाढिन्नलेनि तमें| न गिळिजेचि मोहभ्रमें| तैं अज्ञानत्वें न श्रमे| घेणेंही नाहीं ||३३०|| पैं मोहाच्या अवसरीं| ज्ञानाची चाड न धरी| ज्ञानें कर्में नादरी| होतां न दुःखी ||३३१|| सायंप्रतर्मध्यान्हा| या तिन्ही काळांची गणना| नाहीं जेवीं तपना| तैसा असे ||३३२|| तया वेगळाचि काय प्रकाशें| ज्ञानित्व यावें असें| कायि जळार्णव पाउसें| साजा होय ? ||३३३|| ना प्रवर्तलेनि कर्में| कर्मठत्व तयां कां गमे| सांगें हिमवंतु हिमें| कांपे कायी ? ||३३४|| नातरी मोह आलिया| काई पां ज्ञाना मुकिजैल तया| हो मा आगीतें उन्हाळेया| जाळवत असे ? ||३३५|| उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते | गुणा वर्तन्त इत्येव यो~वतिष्ठति नेङ्गते ||२३|| तैसे गुणागुणकार्य हें| आघवेंचि आपण आहे| म्हणौनि एकेका नोहे| तडातोडी ||३३६|| येवढे गा प्रतीती| तो देहा आलासे वस्ती| वाटे जातां गुंती- | माजीं जैसा ||३३७|| तो जिणता ना हरवी| तैसा गुण नव्हे ना करवी| जैसी कां श्रोणवी| संग्रामींची ||३३८|| कां शरीराआंतील प्राणु| घरीं आतिथ्याचा ब्राह्मणु| नाना चोहटांचा स्थाणु| उदासु जैसा ||३३९|| आणि गुणाचा यावाजावा| ढळे चळे ना पांडवा| मृगजळाचा हेलावा| मेरु जैसा ||३४०|| हें बहुत कायि बोलिजे| व्योम वारेनि न वचिजे| कां सूर्य ना गिळिजे| अंधकारें ? ||३४१|| स्वप्न कां गा जियापरी| जगतयातें न सिंतरी| गुणीं तैसा अवधारीं| न बंधिजे तो ||३४२|| गुणांसि कीर नातुडे| परी दुरूनि जैं पाहे कोडें| तैं गुणदोष सायिखडें| सभ्यु जैसा ||३४३|| सत्कर्में सात्त्विकीं| रज तें रजोविषयकीं| तम मोहादिकीं| वर्तत असे ||३४४|| परिस तयाचिया गा सत्ता| होती गुणक्रिया समस्ता| हें फुडें जाणे सविता| लौकिका जेवीं ||३४५|| समुद्रचि भरती| सोमकांतचि द्रवती| कुमुदें विकासती| चंद्रु तो उगा ||३४६|| कां वाराचि वाजे विझे| गगनें निश्चळ असिजे| तैसा गुणाचिये गजबजे| डोलेना जो ||३४७|| अर्जुना येणें लक्षणें| तो गुणातीतु जाणणें| परिस आतां आचरणें| तयाचीं जीं ||३४८|| समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः | तुल्यप्रियाप्रियोधीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ||२४|| तरी वस्त्रासि पाठीं पोटीं| नाहीं सुतावांचूनि किरीटी| ऐसें सुये दिठी| चराचर मद्रूपें ||३४९|| म्हणौनि सुखदुःखासरिसें| कांटाळें आचरे ऐसें| रिपुभक्तां जैसें| हरीचें देणें ||३५०|| एऱ्हवीं तरी सहजें| सुखदुःख तैंचि सेविजे| देहजळीं होईजे| मासोळी जैं ||३५१|| आतां तें तंव तेणें सांडिलें| आहे स्वस्वरूपेंसीचि मांडिलें| सस्यांतीं निवडिलें| बीज जैसें ||३५२|| कां वोघ सांडूनि गांग| रिघोनि समुद्राचें आंग| निस्तरली लगबग| खळाळाची ||३५३|| तेवीं आपणपांचि जया| वस्ती जाली गा धनंजया| तया देहीं अपैसया| सुख तैसें दुःख ||३५४|| रात्रि तैसें पाहलें| हें धारणा जेवीं एक जालें| आत्माराम देहीं आतलें| द्वंद्व तैसें ||३५५|| पैं निद्रिताचेनि आंगेंशीं| सापु तैशी उर्वशी| तेवीं स्वरूपस्था सरिशीं| देहीं द्वंद्वें ||३५६|| म्हणौनि तयाच्या ठायीं| शेणा सोनया विशेष नाहीं| रत्ना गुंडेया कांहीं| नेणिजे भेदु ||३५७|| घरा येवों पां स्वर्ग| कां वरिपडो वाघ| परी आत्मबुद्धीसि भंग| कदा नव्हे ||३५८|| निवटलें न उपवडे| जळीनलें न विरूढे| साम्यबुद्धी न मोडे| तयापरी ||३५९|| हा ब्रह्मा ऐसेनि स्तविजो| कां नीच म्हणौनि निंदिजो| परी नेणें जळों विझों| राखोंडी जैसी ||३६०|| तैसी निंदा आणि स्तुती| नये कोण्हेचि व्यक्ती| नाहीं अंधारें कां वाती| सूर्या घरीं ||३६१|| मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः | सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ||२५|| ईश्वर म्हणौनि पूजिला| कां चोरु म्हणौनि गांजिला| वृषगजीं वेढिला| केला रावो ||३६२|| कां सुहृद पासीं आले| अथवा वैरी वरपडे जाले| परी नेणें राती पाहालें| तेज जेवीं ||३६३|| साहीं ऋतु येतां आकाशें| लिंपिजेचि ना जैसें| तेवीं वैशम्य मानसें| जाणिजेना ||३६४|| आणीकही एकु पाहीं| आचारु तयाच्या ठायीं| तरी व्यापारासि नाहीं| जालें दिसे ||३६५|| सर्वांरंभा उटकलें| प्रवृत्तीचें तेथ मावळले| जळती गा कर्मफळें| ते तो आगी ||३६६|| दृष्टादृष्टाचेनि नांवें| भावोचि जीवीं नुगवें| सेवी जें कां स्वभावें| पैठें होये ||३६७|| सुखे ना शिणे| पाषाणु कां जेणें मानें| तैसी सांडीमांडी मनें| वर्जिली असे ||३६८|| आतां किती हा विस्तारु| जाणें ऐसा आचारु| जयातें तोचि साचारु| गुणातीतु ||३६९|| गुणांतें अतिक्रमणें| घडे उपायें जेणें| तो आतां आईक म्हणे| श्रीकृष्णनाथु ||३७०|| मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते | स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ||२६|| तरी व्यभिचाररहित चित्तें| भक्तियोगें मातें| सेवी तो गुणातें| जाकळूं शके ||३७१|| तरी कोण मी कैसी भक्ती| अव्यभिचारा काय व्यक्ती| हे आघवीचि निरुती| होआवी लागे ||३७२|| तरी पार्था परियेसा| मी तंव येथ ऐसा| रत्नीं किळावो जैसा| रत्नचि कीं तो ||३७३|| कां द्रवपणचि नीर| अवकाशचि अंबर| गोडी तेचि साखर| आन नाहीं ||३७४|| वन्हि तेचि ज्वाळ| दळाचि नांव कमळ| रूख तेंचि डाळ- | फळादिक ||३७५|| अगा हिम जें आकर्षलें| तेंचि हिमवंत जेवीं जालें| नाना दूध मुरालें| तेंचि दहीं ||३७६|| तैसें विश्व येणें नांवें| हें मीचि पैं आघवें| घेईं चंद्रबिंब सोलावें| न लगे जेवीं ||३७७|| घृताचें थिजलेंपण| न मोडितां घृतचि जाण| कां नाटितां कांकण| सोनेंचि तें ||३७८|| न उकलितां पटु| तंतुचि असे स्पष्टु| न विरवितां घटु| मृत्तिका जेवीं ||३७९|| म्हणौनि विश्वपण जावें| मग तैं मातें घेयावें| तैसा नव्हे आघवें| सकटचि मी ||३८०|| ऐसेनि मातें जाणिजे| ते अव्यभिचारी भक्ति म्हणिजे| येथ भेदु कांहीं देखिजे| तरी व्यभिचारु तो ||३८१|| याकारणें भेदातें| सांडूनि अभेदें चित्तें| आपण सकट मातें| जाणावें गा ||३८२|| पार्था सोनयाची टिका| सोनयासी लागली देखा| तैसें आपणपें आणिका| मानावें ना ||३८३|| तेजाचा तेजौनि निघाला| परी तेजींचि असे लागला| तया रश्मी ऐसा भला| बोधु होआवा ||३८४|| पैं परमाणु भूतळीं| हिमकणु हिमाचळीं| मजमाजीं न्याहाळीं| अहं तैसें ||३८५|| हो कां तरंगु लहानु| परी सिंधूसी नाहीं भिन्नु| तैसा ईश्वरीं मी आनु| नोहेचि गा ||३८६|| ऐसेनि बा समरसें| दृष्टि जे उल्हासे| ते भक्ति पैं ऐसे| आम्ही म्हणों ||३८७|| आणि ज्ञानाचें चांगावें| इयेचि दृष्टि नांवें| योगाचेंही आघवें| सर्वस्व हें ||३८८|| सिंधू आणि जळधरा- | माजीं लागली अखंड धारा| तैसी वृत्ति वीरा| प्रवर्ते ते ||३८९|| कां कुहेसीं आकाशा| तोंडीं सांदा नाहीं तैसा| तो परमपुरुषीं तैसा| एकवटे गा ||३९०|| प्रतिबिंबौनि बिंबवरी| प्रभेची जैसी उजरी| ते सोऽहंवृत्ती अवधारीं| तैसी होय ||३९१|| ऐसेनि मग परस्परें| ते सोऽहंवृत्ति जैं अवतरे| तैं तियेहि सकट सरे| अपैसया ||३९२|| जैसा सैंधवाचा रवा| सिंधूमाजीं पांडवा| विरालेया विरवावा| हेंही ठाके ||३९३|| नातरी जाळूनि तृण| वन्हिही विझे आपण| तैसें भेदु नाशूनि जाण| ज्ञानही नुरे ||३९४|| माझें पैलपण जाये| भक्त हें ऐलपण ठाये| अनादि ऐक्य जें आहे| तेंचि निवडे ||३९५|| आतां गुणातें तो किरीटी| जिणे या नव्हती गोष्टी| जे एकपणाही मिठी| पडों सरली ||३९६|| किंबहुना ऐसी दशा| तें ब्रह्मत्व गा सुदंशा| हें तो पावें जो ऐसा| मातें भजे ||३९७|| पुढतीं इहीं लिंगीं| भक्तु जो माझा जगीं| हे ब्रह्मता तयालागीं| पतिव्रता ||३९८|| जैसें गंगेचेनि वोघें| डळमळित जळ जें निघे| सिंधुपद तयाजोगें| आन नाहीं ||३९९|| तैसा ज्ञानाचिया दिठी| जो मातें सेवी किरीटी| तो होय ब्रह्मतेच्या मुकुटीं| चूडारत्न ||४००|| यया ब्रह्मत्वासीचि पार्था| सायुज्य ऐसी व्यवस्था| याचि नांवें चौथा| पुरुषार्थ गा ||४०१|| परी माझें आराधन| ब्रह्मत्वीं होय सोपान| एथ मी हन साधन| गमेन हो ||४०२|| तरी झणीं ऐसें| तुझ्या चित्तीं पैसें| पैं ब्रह्म आन नसे| मीवांचूनि ||४०३|| ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च | शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ||२७|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगोनाम चतुर्दशोऽध्यायः ||१४अ || अगा ब्रह्म या नांवा| अभिप्रायो मी पांडवा| मीचि बोलिजे आघवा| शब्दीं इहीं ||४०४|| पैं मंडळ आणि चंद्रमा| दोन्ही नव्हती सुवर्मा| तैसा मज आणि ब्रह्मा| भेदु नाहीं ||४०५|| अगा नित्य जें निष्कंप| अनावृत धर्मरूप| सुख जें उमप| अद्वितीय ||४०६|| विवेकु आपलें काम| सारूनि ठाकी जें धाम| निष्कर्षाचें निःसीम| किंबहुना मी ||४०७|| ऐसेसें हो अवधारा| तो अनन्याचा सोयरा| सांगतसे वीरा| पार्थासी ||४०८|| येथ धृतराष्ट्र म्हणे| संजया हें तूतें कोणें| पुसलेनिविण वायाणें| कां बोलसी ? ||४०९|| माझी अवसरी ते फेडी| विजयाची सांगें गुढी| येरु जीवीं म्हणे सांडीं| गोठी यिया ||४१०|| संजयो विस्मयो मानसीं| आहा करूनि रसरसी| म्हणे कैसें पां देवेंसी| द्वंद्व यया ? ||४११|| तरी तो कृपाळु तुष्टो| यया विवेकु हा घोंटो| मोहाचा फिटो| महारोगु ||४१२|| संजयो ऐसें चिंतितां| संवादु तो सांभाळितां| हरिखाचा येतु चित्ता| महापूरु ||४१३|| म्हणौनि आतां येणें| उत्साहाचेनि अवतरणें| श्रीकृष्णाचें बोलणें| सांगिजैल ||४१४|| तया अक्षराआंतील भावो| पाववीन मी तुमचा ठावो| आइका म्हणे ज्ञानदेवो| निवृत्तीचा ||४१५|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां गुणत्रयविभागयोगोनाम चतुर्दशोऽध्यायः ||

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