ज्ञानेश्वरी अध्याय १६

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:00:21
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १६ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय सोळावा | दैवासुरसम्पद्विभागयोगः | मावळवीत विश्वाभासु| नवल उदयला चंडांशु| अद्वयाब्जिनीविकाशु| वंदूं आतां ||१|| जो अविद्याराती रुसोनियां| गिळी ज्ञानाज्ञानचांदणिया| जो सुदिनु करी ज्ञानियां| स्वबोधाचा ||२|| जेणें विवळतिये सवळे| लाहोनि आत्मज्ञानाचे डोळे| सांडिती देहाहंतेचीं अविसाळें| जीवपक्षी ||३|| लिंगदेहकमळाचा| पोटीं वेंचु तया चिद्भ्रमराचा| बंदिमोक्षु जयाचा| उदैला होय ||४|| शब्दाचिया आसकडीं| भेद नदीच्या दोहीं थडीं| आरडाते विरहवेडीं| बुद्धिबोधु ||५|| तया चक्रवाकांचें मिथुन| सामरस्याचें समाधान| भोगवी जो चिद्गगन| भुवनदिवा ||६|| जेणें पाहालिये पाहांटे| भेदाची चोरवेळ फिटे| रिघती आत्मानुभववाटे| पांथिक योगी ||७|| जयाचेनि विवेककिरणसंगें| उन्मेखसूर्यकांतु फुणगे| दीपले जाळिती दांगें| संसाराचीं ||८|| जयाचा रश्मिपुंजु निबरु| होता स्वरूप उखरीं स्थिरु| ये महासिद्धीचा पूरु| मृगजळ तें ||९|| जो प्रत्यग्बोधाचिया माथया| सोऽहंतेचा मध्यान्हीं आलिया| लपे आत्मभ्रांतिछाया| आपणपां तळीं ||१०|| ते वेळीं विश्वस्वप्नासहितें| कोण अन्यथामती निद्रेतें| सांभाळी नुरेचि जेथें| मायाराती ||११|| म्हणौनि अद्वयबोधपाटणीं| तेथ महानंदाची दाटणी| मग सुखानुभूतीचीं घेणीं देणीं| मंदावो लागती ||१२|| किंबहुना ऐसैसें| मुक्तकैवल्य सुदिवसें| सदा लाहिजे कां प्रकाशें| जयाचेनि ||१३|| जो निजधामव्योमींचा रावो| उदैलाचि उदैजतखेंवो| फेडी पूर्वादि दिशांसि ठावो| उदोअस्तूचा ||१४|| न दिसणें दिसणेंनसीं मावळवी| दोहीं झांकिलें ते सैंघ पालवी| काय बहु बोलों ते आघवी| उखाचि आनी ||१५|| तो अहोरात्रांचा पैलकडु| कोणें देखावा ज्ञानमार्तंडु| जो प्रकाश्येंवीण सुरवाडु| प्रकाशाचा ||१६|| तया चित्सूर्या श्रीनिवृत्ती| आतां नमों म्हणों पुढतपुढती| जे बाधका येइजतसे स्तुती| बोलाचिया ||१७|| देवाचें महिमान पाहोनियां| स्तुति तरी येइजे चांगावया| जरी स्तव्यबुद्धीसीं लया| जाईजे कां ||१८|| जो सर्वनेणिवां जाणिजे| मौनाचिया मिठीया वानिजे| कांहींच न होनि आणिजे| आपणपयां जो ||१९|| तया तुझिया उद्देशासाठीं| पश्यंती मध्यमा पोटीं| सूनि परेसींही पाठीं| वैखरी विरे ||२०|| तया तूतें मी सेवकपणें| लेववीं बोलकेया स्तोत्राचें लेणें| हें उपसाहावेंही म्हणतां उणें| अद्वयानंदा ||२१|| परी रंकें अमृताचा सागरु| देखिलिया पडे उचिताचा विसरु| मग करूं धांवे पाहुणेरु| शाकांचा तया ||२२|| तेथ शाकुही कीर बहुत म्हणावा| तयाचा हर्षवेगुचि तो घ्यावा| उजळोनि दिव्यतेजा हातिवा| ते भक्तीचि पाहावी ||२३|| बाळा उचित जाणणें होये| तरी बाळपणचि कें आहे ? | परी साचचि येरी माये| म्हणौनि तोषे ||२४|| हां गा गांवरसें भरलें| पाणी पाठीं पाय देत आलें| तें गंगा काय म्हणितलें| परतें सर ? ||२५|| जी भृगूचा कैसा अपकारु| कीं तो मानूनि प्रियोपचारु| तोषेचिना शारङ्गधरु| गुरुत्वासीं ? ||२६|| कीं आंधारें खतेलें अंबर| झालेया दिवसनाथासमोर| तेणें तयातें पऱ्हा सर| म्हणितलें काई ? ||२७|| तेवीं भेदबुद्धीचिये तुळे| घालूनि सूर्यश्लेषाचें कांटाळे| तुकिलासि तें येकी वेळे| उपसाहिजो जी ||२८|| जिहीं ध्यानाचा डोळां पाहिलासी| वेदादि वाचां वानिलासी| जें उपसाहिलें तयासी| तें आम्हांही करीं ||२९|| परी मी आजि तुझ्या गुणीं| लांचावलों अपराधु न गणीं| भलतें करीं परी अर्धधणीं| नुठी कदा ||३०|| मियां गीता येणें नांवें| तुझें पसायामृत सुहावें| वानूं लाधलों तें दुणेन थावें| दैवलों दैवें ||३१|| माझिया सत्यवादाचें तप| वाचा केलें बहुत कल्प| तया फळाचें हें महाद्वीप| पातली प्रभु ||३२|| पुण्यें पोशिलीं असाधरणें| तियें तुझें गुण वानणें| देऊनि मज उत्तीर्णें| जालीं आजी ||३३|| जी जीवित्वाच्या आडवीं| आतुडलों होतों मरणगांवीं| ते अवदसाची आघवी| फेडिली आजी ||३४|| जे गीता येणें नांवें नावाणिगी| जे अविद्या जिणोनि दाटुगी| ते कीर्ती तुझी आम्हांजोगी| वानावया जाली ||३५|| पैं निर्धना घरीं वानिवसें| महालक्ष्मी येऊनि बैसे| तयातें निर्धन ऐसें| म्हणों ये काई ? ||३६|| कां अंधकाराचिया ठाया| दैवें सुर्यु आलिया| तो अंधारुचि जगा यया| प्रकाशु नोहे ? ||३७|| जया देवाची पाहतां थोरी| विश्व परमाणुही दशा न धरी| तो भावाचिये सरोभरी| नव्हेचि काई ? ||३८|| तैसा मी गीता वाखाणी| हे खपुष्पाची तुरंबणी| परी समर्थें तुवां शिरयाणी| फेडिली ते ||३९|| म्हणौनि तुझेनि प्रसादें| मी गीतापद्यें अगाधें| निरूपीन जी विशदें| ज्ञानदेवो म्हणे ||४०|| तरी अध्यायीं पंधरावा| श्रीकृष्णें तया पांडवा| शास्त्रसिद्धांतु आघवा| उगाणिला ||४१|| जे वृक्षरूपक परीभाषा| केलें उपाधि रूप अशेषा| सद्वैद्यें जैसें दोषा| अंगलीना ||४२|| आणि कूटस्थु जो अक्षरु| दाविला पुरुषप्रकारु| तेणें उपहिताही आकारु| चैतन्या केला ||४३|| पाठीं उत्तम पुरुष| शब्दाचें करूनि मिष| दाविलें चोख| आत्मतत्त्व ||४४|| आत्मविषयीं आंतुवट| साधन जें आंगदट| ज्ञान हेंही स्पष्ट| चावळला ||४५|| म्हणौनि इये अध्यायीं| निरूप्य नुरेचि कांहीं| आतां गुरुशिष्यां दोहीं| स्नेहो लाहणा ||४६|| एवं इयेविषयीं कीर| जाणते बुझावले अपार| परी मुमुक्षु इतर| साकांक्ष जाले ||४७|| त्या मज पुरुषोत्तमा| ज्ञानें भेटे जो सुवर्मा| तो सर्वज्ञु तोचि सीमा| भक्तीचीही ||४८|| ऐसें हें त्रैलोक्यनायकें| बोलिलें अध्यायांत श्लोकें| तेथें ज्ञानचि बहुतेकें| वानिलें तोषें ||४९|| भरूनि प्रपंचाचा घोंटु| कीजे देखतांचि देखतया द्रष्टु| आनंदसाम्राज्यीं पाटु| बांधिजे जीवा ||५०|| येवढेया लाठेपणाचा उपावो| आनु नाहींचि म्हणे देवो| हा सम्यक्ज्ञानाचा रावो| उपायांमाजीं ||५१|| ऐसे आत्मजिज्ञासु जे होते| तिहीं तोषलेनि चित्तें| आदरें तया ज्ञानातें| वोंवाळिलें जीवें ||५२|| आतां आवडी जेथ पडे| तयाचि अवसरीं पुढें पुढें| रिगों लागें हें घडे| प्रेम ऐसें ||५३|| म्हणौनि जिज्ञासूंच्या पैकीं| ज्ञानी प्रतीती होय ना जंव निकी| तंव योग क्षेमु ज्ञानविखीं| स्फुरेलचि कीं ||५४|| म्हणौनि तेंचि सम्यक् ज्ञान| कैसेनि होय स्वाधीन| जालिया वृद्धियत्न| घडेल केवीं ||५५|| कां उपजोंचि जें न लाहे| जें उपजलेंही अव्हांटा सूये| तें ज्ञानीं विरुद्ध काय आहे| हें जाणावें कीं ||५६|| मग जाणतयां जें विरू| तयाचीं वाट वाहती करूं| ज्ञाना हित तेंचि विचारूं| सर्वभावें ||५७|| ऐसा ज्ञानजिज्ञासु तुम्हीं समस्तीं| भावो जो धरिला असे चित्तीं| तो पुरवावया लक्ष्मीपती| बोलिजेल ||५८|| ज्ञानासि सुजन्म जोडे| आपली विश्रांतिही वरी वाढे| ते संपत्तीचे पवाडे| सांगिजेल दैवी ||५९|| आणि ज्ञानाचेनि कामाकारें| जे रागद्वेषांसि दे थारे| तिये आसुरियेहि घोरे| करील रूप ||६०|| सहज इष्टानिष्टकरणी| दोघीचि इया कवतुकिणी| हे नवमाध्यायीं उभारणी| केली होती ||६१|| तेथ साउमा घेयावया उवावो| तंव वोडवला आन प्रस्तावो| तरी तयां प्रसंगें आतां देवो| निरूपीत असे ||६२|| तया निरूपणाचेनि नांवें| अध्याय पद सोळावें| लावणी पाहतां जाणावें| मागिलावरी ||६३|| परी हें असो आतां प्रस्तुतीं| ज्ञानाच्या हिताहितीं| समर्था संपत्ती| इयाचि दोन्ही ||६४|| जे मुमुक्षुमार्गींची बोळावी| जे मोहरात्रीची धर्मदिवी| ते आधीं तंव दैवी| संपत्ती ऐका ||६५|| जेथ एक एकातें पोखी| ऐसे बहुत पदार्थ येकीं| संपादिजती ते लोकीं| संपत्ति म्हणिजे ||६६|| ते दैवी सुखसंभवी| तेथ दैवगुणें येकोपजीवीं| जाली म्हणौनि दैवी| संपत्ति हे ||६७|| श्री भगवानुवाच | अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितः | दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवं ||१|| आतां तयाचि दैवगुणां- | माजीं धुरेचा बैसणा| बैसे तया आकर्णा| अभय ऐसें ||६८|| तरी न घालूनि महापुरीं| न घेपे बुडणयाची शियारी| कां रोगु न गणिजे घरीं| पथ्याचिया ||६९|| तैसा कर्माकर्माचिया मोहरा| उठूं नेदूनि अहंकारा| संसाराचा दरारा| सांडणें येणें ||७०|| अथवा ऐक्यभावाचेनि पैसें| दुजे मानूनि आत्मा ऐसें| भयवार्ता देशें| दवडणें जें ||७१|| पाणी बुडऊं ये मिठातें| तंव मीठचि पाणी आतें| तेवीं आपण जालेनि अद्वैतें| नाशे भय ||७२|| अगा अभय येणें नांवें| बोलिजे तें हें जाणावें| सम्यक्ज्ञानाचें आघवें| धांवणें हें ||७३|| आतां सत्त्वशुद्धी जे म्हणिजे| ते ऐशा चिन्हीं जाणिजे| तरी जळे ना विझे| राखोंडी जैसी ||७४|| कां पाडिवा वाढी न मगे| अंवसे तुटी सांडूनि मागे| माजीं अतिसूक्ष्म अंगें| चंद्रु जैसा राहे ||७५|| नातरी वार्षिया नाहीं मांडिली| ग्रीष्में नाहीं सांडिली| माजीं निजरूपें निवडली| गंगा जैसी ||७६|| तैसी संकल्पविकल्पाची वोढी| सांडूनि रजतमाची कावडी| भोगितां निजधर्माची आवडी| बुद्धि उरे ||७७|| इंद्रियवर्गीं दाखविलिया| विरुद्धा अथवा भलीया| विस्मयो कांहीं केलिया| नुठी चित्तीं ||७८|| गांवा गेलिया वल्लभु| पतिव्रतेचा विरहक्षोभु| भलतेसणी हानिलाभु| न मनीं जेवीं ||७९|| तेवीं सत्स्वरूप रुचलेपणें| बुद्धी जें ऐसें अनन्य होणें| ते सत्त्वशुद्धी म्हणे| केशिहंता ||८०|| आतां आत्मलाभाविखीं| ज्ञानयोगामाजीं एकीं| जे आपुलिया ठाकी| हांवें भरे ||८१|| तेथ सगळिये चित्तवृत्ती| त्यागु करणें या रीती| निष्कामें पूर्णाहुती| हुताशीं जैसी ||८२|| कां सुकुळीनें आपुली| आत्मजा सत्कुळींचि दिधली| हें असो लक्ष्मी स्थिरावली| मुकुंदीं जैसी ||८३|| तैसे निर्विकल्पपणें| जें योगज्ञानींच या वृत्तिक होणें| तो तिजा गुण म्हणे| श्रीकृष्णनाथु ||८४|| आतां देहवाचाचित्तें| यथासंपन्नें वित्तें| वैरी जालियाही आर्तातें| न वंचणे जें कां ||८५|| पत्र पुष्प छाया| फळें मूळ धनंजया| वाटेचा न चुके आलिया| वृक्षु जैसा ||८६|| तैसें मनौनि धनधान्यवरी| विद्यमानें आल्या अवसरीं| श्रांताचिये मनोहारीं| उपयोगा जाणें ||८७|| तयां नांव जाण दान| जें मोक्षनिधानाचें अंजन| हें असो आइक चिन्ह| दमाचें तें ||८८|| तरी विषयेंद्रियां मिळणी| करूनि घापे वितुटणी| जैसें तोडिजे खड्गपाणी| पारकेया ||८९|| तैसा विषयजातांचा वारा| वाजों नेदिजे इंद्रियद्वारां| इये बांधोनि प्रत्याहारा| हातीं वोपी ||९०|| आंतुला चित्ताचें अंगवरीं| प्रवृत्ति पळे पर बाहेरी| आगी सुयिजे दाहींहि द्वारीं| वैराग्याची ||९१|| श्वासोश्वासाहुनी बहुवसें| व्रतें आचरे खरपुसें| वोसंतिता रात्रिदिवसें| नाराणुक जया ||९२|| पैं दमु ऐसा म्हणिपे| तो हा जाण स्वरूपें| यागार्थुही संक्षेपें| सांगों ऐक ||९३|| तरी ब्राह्मण करूनि धुरे| स्त्रियादिक पैल मेरे| माझारीं अधिकारें| आपुलालेनि ||९४|| जया जे सर्वोत्तम| भजनीय देवताधर्म| ते तेणें यथागम| विधी यजिजे ||९५|| जैसा द्विज षट्कर्में करी| शूद्र तयातें नमस्कारी| कीं दोहींसही सरोभरी| निपजे यागु ||९६|| तैसें अधिकारपर्यालोचें| हें यज्ञ करणें सर्वांचें| परी विषय विष फळाशेचें| न घापे माजीं ||९७|| आणि मी कर्ता ऐसा भावो| नेदिजे देहाचेनि द्वारें जावों| ना वेदाज्ञेसि तरी ठावो| होइजे स्वयें ||९८|| अर्जुना एवं यज्ञु| सर्वत्र जाण साज्ञु| कैवल्यमार्गींचा अभिज्ञु| सांगाती हा ||९९|| आतां चेंडुवें भूमी हाणिजे| नव्हे तो हाता आणिजे| कीं शेतीं बीं विखुरिजे| परी पिकीं लक्ष ||१००|| नातरी ठेविलें देखावया| आदर कीजे दिविया| कां शाखा फळें यावया| सिंपिजे मूळ ||१०१|| हें बहु असो आरिसा| आपणपें देखावया जैसा| पुढतपुढती बहुवसा| उटिजे प्रीती ||१०२|| तैसा वेदप्रतिपाद्यु जो ईश्वरु| तो होआवयालागीं गोचरु| श्रुतीचा निरंतरु| अभ्यासु करणें ||१०३|| तेंचि द्विजांसीच ब्रह्मसूत्र| येरा स्तोत्र कां नाममंत्र| आवर्तवणें पवित्र| पावावया तत्त्व ||१०४|| पार्था गा स्वाध्यावो| बोलिजे तो हा म्हणे देवो| आतां तप शब्दाभिप्रावो| आईक सांगों ||१०५|| तरी दानें सर्वस्व देणें| वेंचणें तें व्यर्थ करणें| जैसे फळोनि स्वयें सुकणें| इंद्रावणी जेवीं ||१०६|| नाना धूपाचा अग्निप्रवेशु| कनकीं तुकाचा नाशु| पितृपक्षु पोषिता ऱ्हासु| चंद्राचा जैसा ||१०७|| तैसा स्वरूपाचिया प्रसरा - | लागीं प्राणेंद्रियशरीरां| आटणी करणें जें वीरा| तेंचि तप ||१०८|| अथवा अनारिसें| तपाचें रूप जरी असे| तरी जाण जेवीं दुधीं हंसें| सूदली चांचू ||१०९|| तैसें देहजीवाचिये मिळणीं| जो उदयजत सूये पाणी| तो विवेक अंतःकरणीं| जागवीजे ||११०|| पाहतां आत्मयाकडे| बुद्धीचा पैसु सांकडें| सनिद्र स्वप्न बुडे| जागणीं जैसें ||१११|| तैसा आत्मपर्यालोचु| प्रवर्ते जो साचु| तपाचा हा निर्वेचु| धनुर्धरा ||११२|| आतां बाळाच्या हितीं स्तन्य| जैसें नानाभूतीं चैतन्य| तैसें प्राणिमात्रीं सौजन्य| आर्जव तें ||११३|| अहिंसा सत्यमक्रोध्स्त्यागः शान्तिरपैशुनम् | दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||२|| आणि जगाचिया सुखोद्देशें| शरीरवाचामानसें| राहाटणें तें अहिंसे| रूप जाण ||११४|| आतां तीख होऊनि मवाळ| जैसें जातीचें मुकुळ| कां तेज परी शीतळ| शशांकाचें ||११५|| शके दावितांचि रोग फेडूं| आणि जिभे तरी नव्हे कडु| ते वोखदु नाहीं मा घडू| उपमा कैंची ||११६|| तरी मऊपणें बुबुळे| झगडतांही परी नाडळे| एऱ्हवीं फोडी कोंराळें| पाणी जैसें ||११७|| तैसें तोडावया संदेह| तीख जैसें कां लोह| श्राव्यत्वें तरी माधुर्य| पायीं घालीं ||११८|| ऐकों ठातां कौतुकें| कानातें निघती मुखें| जें साचारिवेचेनि बिकें| ब्रह्मही भेदी ||११९|| किंबहुना प्रियपणे| कोणातेंही झकऊं नेणे| यथार्थ तरी खुपणें| नाहीं कवणा ||१२०|| एऱ्हवीं गोरी कीर काना गोड| परी साचाचा पाखाळीं कीड| आगीचें करणें उघड| परी जळों तें साच ||१२१|| कानीं लागतां महूर| अर्थें विभांडी जिव्हार| तें वाचा नव्हे सुंदर| लांवचि पां ||१२२|| परी अहितीं कोपोनि सोप| लालनीं मऊ जैसें पुष्प| तिये मातेचें स्वरूप| जैसें कां होय ||१२३|| तैसें श्रवणसुख चतुर| परीणमोनि साचार| बोलणें जें अविकार| तें सत्य येथें ||१२४|| आतां घालितांही पाणी| पाषाणीं न निघे आणी| कां मथिलिया लोणी| कांजी नेदी ||१२५|| त्वचा पायें शिरीं| हालेयाही फडे न करी| वसंतींही अंबरीं| न होती फुलें ||१२६|| नाना रंभेचेनिही रूपें| शुकीं नुठिजेचि कंदर्पें| कां भस्मीं वन्हि न उद्दीपे| घृतेंही जेवीं ||१२७|| तेवींचि कुमारु क्रोधें भरे| तैसिया मंत्राचीं बीजाक्षरें| तियें निमित्तेंही अपारें| मीनलिया ||१२८|| परी धातयाही पायां पडतां| नुठी गतायु पंडुसुता| तैसी नुपजे उपजवितां| क्रोधोर्मी गा ||१२९|| अक्रोधत्व ऐसें| नांव तें ये दशे| जाण ऐसें श्रीनिवासें| म्हणितलें तया ||१३०|| आतां मृत्तिकात्यागें घटु| तंतुत्यागें पटु| त्यजिजे जेवीं वटु| बीजत्यागें ||१३१|| कां त्यजुनि भिंतिमात्र| त्यजिजे आघवेंचि चित्र| कां निद्रात्यागें विचित्र| स्वप्नजाळ ||१३२|| नाना जळत्यागें तरंग| वर्षात्यागें मेघ| त्यजिजती जैसे भोग| धनत्यागें ||१३३|| तेवीं बुद्धिमंतीं देहीं| अहंता सांडूनि पाहीं| सांडिजे अशेषही| संसारजात ||१३४|| तया नांव त्यागु| म्हणे तो यज्ञांगु| हे मानूनि सुभगु| पार्थु पुसे ||१३५|| आतां शांतीचें लिंग| तें व्यक्त मज सांग| देवो म्हणती चांग| अवधान देईं ||१३६|| तरी गिळोनि ज्ञेयातें| ज्ञाता ज्ञानही माघौतें| हारपें निरुतें| ते शांति पैं गा ||१३७|| जैसा प्रळयांबूचा उभडु| बुडवूनि विश्वाचा पवाडु| होय आपणपें निबिडु| आपणचि ||१३८|| मग उगम ओघ सिंधु| हा नुरेचि व्यवहारभेदु| परी जलैक्याचा बोधु| तोही कवणा ? ||१३९|| तैसी ज्ञेया देतां मिठी| ज्ञातृत्वही पडे पोटीं| मग उरे तेंचि किरीटी| शांतीचें रूप ||१४०|| आतां कदर्थवीत व्याधी| बळीकरणाचिया आधीं| आपपरु न शोधी| सद्वैद्यु जैसा ||१४१|| का चिखलीं रुतली गाये| धडभाकड न पाहे| जो तियेचिया ग्लानी होये| कालाभुला ||१४२|| नाना बुडतयातें सकरुणु| न पुसे अंत्यजु कां ब्राह्मणु| काढूनि राखे प्राणु| हेंचि जाणे ||१४३|| कीं माय वनीं पापियें| उघडी केली विपायें| ते नेसविल्यावीण न पाहे| शिष्टु जैसा ||१४४|| तैसे अज्ञानप्रमादादिकीं| कां प्राक्तनहीन सदोखीं| निंदत्वाच्या सर्वविखीं| खिळिले जे ||१४५|| तयां आंगीक आपुलें| देऊनियां भलें| विसरविजती सलें| सलतीं तियें ||१४६|| अगा पुढिलाचा दोखु| करूनि आपुलिये दिठी चोखु| मग घापे अवलोकु| तयावरी ||१४७|| जैसा पुजूनि देवो पाहिजे| पेरूनि शेता जाइजे| तोषौनि प्रसादु घेइजे| अतिथीचा ||१४८|| तैसें आपुलेनि गुणें| पुढिलाचें उणें| फेडुनियां पाहणें| तयाकडे ||१४९|| वांचूनि न विंधिजें वर्मीं| नातुडविजे अकर्मीं| न बोलविजे नामीं| सदोषीं तिहीं ||१५०|| वरी कोणे एकें उपायें| पडिलें तें उभें होये| तेंच कीजे परी घाये| नेदावे वर्मीं ||१५१|| पैं उत्तमाचियासाठीं| नीच मानिजे किरीटी| हें वांचोनि दिठी| दोषु न घेपे ||१५२|| अगा अपैशून्याचें लक्षण| अर्जुना हें फुडें जाण| मोक्षमार्गींचें सुखासन| मुख्य हें गा ||१५३|| आतां दया ते ऐसी| पूर्णचंद्रिका जैसी| निववितां न कडसी| सानें थोर ||१५४|| तैसें दुःखिताचें शिणणें| हिरतां सकणवपणें| उत्तमाधम नेणें| विवंचूं गा ||१५५|| पैं जगीं जीवनासारिखें| वस्तु अंगवरी उपखें| परी जातें जीवित राखे| तृणाचेंहि ||१५६|| तैसें पुढिलाचेनि तापें| कळवळलिये कृपें| सर्वस्वेंसीं दिधलेंहि आपणपें| थोडेंचि गमे ||१५७|| निम्न भरलियाविणें| पाणी ढळोंचि नेणे| तेवीं श्रांता तोषौनि जाणें| सामोरें पां ||१५८|| पैं पायीं कांटा नेहटे| तंव व्यथा जीवीं उमटे| तैसा पोळे संकटें| पुढिलांचेनि ||१५९|| कां पावो शीतळता लाहे| कीं ते डोळ्याचिलागीं होये| तैसा परसुखें जाये| सुखावतु ||१६०|| किंबहुना तृषितालागीं| पाणी आरायिलें असे जगीं| तैसें दुःखितांचे सेलभागीं| जिणें जयाचें ||१६१|| तो पुरुषु वीरराया| मूर्तिमंत जाण दया| मी उदयजतांचि तया| ऋणिया लाभें ||१६२|| आतां सूर्यासि जीवें| अनुसरलिया राजीवें| परी तें तो न शिवे| सौरभ्य जैसें ||१६३|| कां वसंताचिया वाहाणीं| आलिया वनश्रीच्या अक्षौहिणी| ते न करीतुचि घेणी| निगाला तो ||१६४|| हें असो महासिद्धीसी| लक्ष्मीही आलिया पाशीं| परी महाविष्णु जैसी| न गणीच ते ||१६५|| तैसे ऐहिकींचे कां स्वर्गींचे| भोग पाईक जालिया इच्छेचे| परी भोगावे हें न रुचे| मनामाजीं ||१६६|| बहुवें काय कौतुकीं| जीव नोहे विषयाभिलाखी| अलोलुप्त्वदशा ठाउकी| जाण ते हे ||१६७|| आतां माशियां जैसें मोहळ| जळचरां जेवीं जळ| कां पक्षियां अंतराळ| मोकळें हें ||१६८|| नातरी बाळकोद्देशें| मातेचें स्नेह जैसें| कां वसंतीच्या स्पर्शें| मऊ मलयानिळु ||१६९|| डोळ्यां प्रियाची भेटी| कां पिलियां कूर्मीची दिठी| तैसीं भूतमात्रीं राहटी| मवाळ ते ||१७०|| स्पर्शें अतिमृदु| मुखीं घेतां सुस्वादु| घ्राणासि सुगंधु| उजाळु आंगें ||१७१|| तो आवडे तेवढा घेतां| विरुद्ध जरी न होतां| तरी उपमे येता| कापूर कीं ||१७२|| परी महाभूतें पोटीं वाहे| तेवींचि परमाणूमाजीं सामाये| या विश्वानुसार होये| गगन जैसें ||१७३|| काय सांगों ऐसें जिणें| जें जगाचेनि जीवें प्राणें| तया नांव म्हणें| मार्दव मी ||१७४|| आतां पराजयें राजा| जैसा कदर्थिजे लाजा| कां मानिया निस्तेजा| निकृष्टास्तव ||१७५|| नाना चांडाळ मंदिराशीं| अवचटें आलिया संन्याशी| मग लाज होय जैसी| उत्तमा तया ||१७६|| क्षत्रिया रणीं पळोनि जाणें| तें कोण साहे लाजिरवाणें| कां वैधव्यें पाचारणें| महासतियेतें ||१७७|| रूपसा उदयलें कुष्ट| संभावितां कुटीचें बोट| तया लाजा प्राणसंकट| होय जैसें ||१७८|| तैसें औटहातपणें| जें शव होऊनि जिणें| उपजों उपजों मरणें| नावानावा ||१७९|| तियें गर्भमेदमुसें| रक्तमूत्ररसें| वोंतीव होऊनि असे| तें लाजिरवाणें ||१८०|| हें बहु असो देहपणें| नामरूपासि येणें| नाहीं गा लाजिरवाणें| तयाहूनी ||१८१|| ऐसैसिया अवकळा| घेपे शरीराचा कंटाळा| ते लाज पैं निर्मळा| निसुगा गोड ||१८२|| आतां सूत्रतंतु तुटलिया| चेष्टाचि ठाके सायखडिया| तैसें प्राणजयें कर्मेंद्रियां| खुंटे गती ||१८३|| कीं मावळलिया दिनकरु| सरे किरणांचा प्रसरु| तैसा मनोजयें प्रकारु| ज्ञानेंद्रियांचा ||१८४|| एवं मनपवननियमें| होती दाही इंद्रियें अक्षमें| तें अचापल्य वर्में| येणें होय ||१८५|| तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता | भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ||३|| आतां ईश्वरप्राप्तीलागीं| प्रवर्ततां ज्ञानमार्गीं| धिंवसेयाचि आंगी| उणीव नोहे ||१८६|| वोखटें मरणाऐसें| तेंही आलें अग्निप्रवेशें| परी प्राणेश्वरोद्देशें| न गणीचि सती ||१८७|| तैसें आत्मनाथाचिया आधी| लाऊनि विषयविषाची बाधी| धांवों आवडे पाणधी| शून्याचिये ||१८८|| न ठाके निषेधु आड| न पडे विधीची भीड| नुपजेचि जीवीं कोड| महासिद्धीचें ||१८९|| ऐसें ईश्वराकडे निज| धांवे आपसया सहज| तया नांव तेज| आध्यात्मिक तें ||१९०|| आतां सर्वही साहातिया गरिमा| गर्वा न ये तेचि क्षमा| जैसें देह वाहोनि रोमा| वाहणें नेणें ||१९१|| आणि मातलिया इंद्रियांचे वेग| कां प्राचीनें खवळले रोग| अथवा योगवियोग| प्रियाप्रियांचे ||१९२|| यया आघवियांचाचि थोरु| एके वेळे आलिया पूरु| तरी अगस्त्य कां होऊनि धीरु| उभा ठाके ||१९३|| आकाशीं धूमाची रेखा| उठिली बहुवा आगळिका| ते गिळी येकी झुळुका| वारा जेवीं ||१९४|| तैसें अधिभूताधिदैवां| अध्यात्मादि उपद्रवां| पातलेयां पांडवा| गिळुनि घाली ||१९५|| ऐसें चित्तक्षोभाच्या अवसरीं| उचलूनि धैर्या जें चांगावें करी| धृति म्हणिपे अवधारीं| तियेतें गा ||१९६|| आतां निर्वाळूनि कनकें| भरिला गांगें पीयूखें| तया कलशाचियासारिखें| शौच असें ||१९७|| जे आंगीं निष्काम आचारु| जीवीं विवेकु साचारु| तो सबाह्य घडला आकारु| शुचित्वाचाचि ||१९८|| कां फेडित पाप ताप| पोखीत तीरींचे पादप| समुद्रा जाय आप| गंगेचें जैसें ||१९९|| कां जगाचें आंध्य फेडितु| श्रियेचीं राउळें उघडितु| निघे जैसा भास्वतु| प्रदक्षिणे ||२००|| तैसीं बांधिलीं सोडिता| बुडालीं काढिता| सांकडी फेडिता| आर्तांचिया ||२०१|| किंबहुना दिवसराती| पुढिलांचें सुख उन्नति| आणित आणित स्वार्थीं| प्रवेशिजे ||२०२|| वांचूनि आपुलिया काजालागीं| प्राणिजाताच्या अहितभागीं| संकल्पाचीही आडवंगी| न करणें जें ||२०३|| पैं अद्रोहत्व ऐशिया गोष्टी| ऐकसी जिया किरीटी| तें सांगितलें हें दिठी| पाहों ये तैसें ||२०४|| आणि गंगा शंभूचा माथां| पावोनि संकोचे जेवीं पार्था| तेवीं मान्यपणें सर्वथा| लाजणें जें ||२०५|| तें हें पुढत पुढती| अमानित्व जाण सुमती| मागां सांगितलेंसे किती| तेंचि तें बोलों ||२०६|| एवं इहीं सव्विसें| ब्रह्मसंपदा हे वसत असे| मोक्षचक्रवर्तीचें जैसें| अग्रहार होय ||२०७|| नाना हे संपत्ति दैवी| या गुणतीर्थांची नीच नवी| निर्विण्णसगरांची दैवी| गंगाचि आली ||२०८|| कीं गणकुसुमांची माळा| हे घेऊनि मुक्तिबाळा| वैराग्यनिरपेक्षाचा गळा| गिंवसीत असे ||२०९|| कीं सव्विसें गुणज्योती| इहीं उजळूनि आरती| गीता आत्मया निजपती| नीरांजना आली ||२१०|| उगळितें निर्मळें| गुण इयेंचि मुक्ताफळें| दैवी शुक्तिकळें| गीतार्णवींची ||२११|| काय बहु वानूं ऐसी| अभिव्यक्ती ये अपैसी| केलें दैवी गुणराशी| संपत्तिरूप ||२१२|| आतां दुःखाची आंतुवट वेली| दोषकाट्यांची जरी भरली| तरी निजाभिधानी घाली| आसुरी ते ||२१३|| पैं त्याज्य त्यजावयालागीं| जाणावी जरी अनुपयोगी| तरी ऐका ते चांगी| श्रोत्रशक्ती ||२१४|| तरी नरकव्यथा थोरी| आणावया दोषींघोरीं| मेळु केला ते आसुरी| संपत्ति हे ||२१५|| नाना विषवर्गु एकवटु| तया नांव जैसा बासटु| आसुरी संपत्ती हा खोटु| दोषांचा तैसा ||२१६|| दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च | अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ||४|| तरी तयाचि असुरां| दोषांमाजीं जया वीरा| वाडपणाचा डांगोरा| तो दंभु ऐसा ||२१७|| जैसी आपुली जननी| नग्न दाविलिया जनीं| ते तीर्थचि परी पतनीं| कारण होय ||२१८|| कां विद्या गुरूपदिष्टा| बोभाइलिया चोहटां| तरी इष्टदा परी अनिष्टा| हेतु होती ||२१९|| पैं आंगें बुडतां महापूरीं| जे वेगें काढी पैलतीरीं| ते नांवचि बांधिलिया शिरीं| बुडवी जैसी ||२२०|| कारण जें जीविता| तें वानिलें जरी सेवितां| तरी अन्नचि पंडुसुता| होय विष ||२२१|| तैसा दृष्टादृष्टाचा सखा| धर्मु जाला तो फोकारिजे देखा| तरी तारिता तोचि दोखा- | लागीं होय ||२२२|| म्हणौनि वाचेचा चौबारा| घातलिया धर्माचा पसारा| धर्मुचि तो अधर्मु होय वीरा| तो दंभु जाणे ||२२३|| आतां मूर्खाचिये जिभे| अक्षरांचा आंबुखा सुभे| आणि तो ब्रह्मसभे| न रिझे जैसा ||२२४|| कां मादुरी लोकांचा घोडा| गजपतिही मानी थोडा| कां कांटियेवरिल्या सरडा| स्वर्गुही नीच ||२२५|| तृणाचेनि इंधनें| आगी धांवे गगनें| थिल्लरबळें मीनें| न गणिजे सिंधु ||२२६|| तैसा माजे स्त्रिया धनें| विद्या स्तुती बहुतें मानें| एके दिवसींचेनि परान्नें| अल्पकु जैसा ||२२७|| अभ्रच्छायेचिया जोडी| निदैवु घर मोडी| मृगांबु देखोनि फोडी| पणियाडें मूर्ख ||२२८|| किंबहुना ऐसैसें| उतणें जें संपत्तिमिसें| तो दर्पु गा अनारिसें| न बोलें घेईं ||२२९|| आणि जगा वेदीं विश्वासु| आणि विश्वासीं पूज्य ईशु| जगीं एक तेजसु| सूर्युचि हा ||२३०|| जगस्पृहे आस्पद| एक सार्वभौमपद| न मरणें निर्विवाद| जगा पढियें ||२३१|| म्हणौनि जग उत्साहें| यातें वानूं जाये| कीं तें आइकोनि मत्सरु वाहे| फुगों लागे ||२३२|| म्हणे ईश्वरातें खायें| तया वेदा विष सूयें| गौरवामाजीं त्राये| भंगीत असे ||२३३|| पतंगा नावडे ज्योती| खद्योता भानूची खंती| टिटिभेनें आपांपती| वैरी केला ||२३४|| तैसा अभिमानाचेनि मोहें| ईश्वराचेंही नाम न साहे| बापातें म्हणे मज हे| सवती जाली ||२३५|| ऐसा मान्यतेचा पुष्टगंडु| तो अभिमानी परमलंडु| रौरवाचा रूढु| मार्गुचि पै ||२३६|| आणि पुढिलांचें सुख| देखणियाचें होय मिख| चढे क्रोधाग्नीचें विख| मनोवृत्ती ||२३७|| शीतळाचिये भेटी| तातला तेलीं आगी उठी| चंद्रु देखोनि जळे पोटीं| कोल्हा जैसा ||२३८|| विश्वाचें आयुष्य जेणें उजळे| तो सूर्यु उदैला देखोनि सवळे| पापिया फुटती डोळे| डुडुळाचे ||२३९|| जगाची सुखपहांट| चोरां मरणाहूनि निकृष्ट| दुधाचें काळकूट| होय व्याळीं ||२४०|| अगाधें समुद्रजळें| प्राशितां अधिक जळे| वडवाग्नी न मिळे| शांति कहीं ||२४१|| तैसा विद्याविनोदविभवें| देखे पुढिलांचीं दैवें| तंव तंव रोषु दुणावे| क्रोधु तो जाण ||२४२|| आणि मन सर्पाची कुटी| डोळे नाराचांची सुटी| बोलणें ते वृष्टी| इंगळांची ||२४३|| येर जें क्रियाजात| तें तिखयाचें कर्वत| ऐसें सबाह्य खसासित| जयाचें गा ||२४४|| तो मनुष्यांत अधमु जाण| पारुष्याचें अवतरण| आतां आइक खूण| अज्ञानाची ||२४५|| तरी शीतोष्णस्पर्शा| निवाडु नेणें पाषाणु जैसा| कां रात्री आणि दिवसा| जात्यंधु तो ||२४६|| आगी उठिला आरोगणें| जैसा खाद्याखाद्य न म्हणे| कां परिसा पाडु नेणें| सोनया लोहा ||२४७|| नातरी नानारसीं| रिघोनि दर्वी जैसी| परी रसस्वादासी| चाखों नेणें ||२४८|| कां वारा जैसा पारखी| नव्हेचि गा मार्गामार्गविखीं| तैसे कृत्याकृत्यविवेकीं| अंधपण जें ||२४९|| हें चोख हें मैळ| ऐसें नेणोनियां बाळ| देखे तें केवळ| मुखींचि घाली ||२५०|| तैसें पापपुण्याचें खिचटें| करोनि खातां बुद्धिचेष्टे| कडु मधुर न वाटे| ऐसी जे दशा ||२५१|| तिये नाम अज्ञान| या बोला नाहीं आन| एवं साही दोषांचें चिन्ह| सांगितलें ||२५२|| इहींच साही दोषांगीं| हे आसुरी संपत्ति दाटुगी| जैसें थोर विषय सुभगे अंगीं| अंग सानें ||२५३|| कां तिघा वन्हींच्या पांती| पाहतां थोडे ठाय गमती| परी विश्वही प्राणाहुती| करूं न पुरे ||२५४|| धातयाही गेलिया शरण| त्रिदोषीं न चुके मरण| तया तिहींची दुणी जाण| साही दोष हे ||२५५|| इहीं साही दोषीं संपूर्णीं| जाली इयेचि उभारणी| म्हणौनि आसुरी उणी| संपदा नव्हे ||२५६|| परी क्रूरग्रहांची जैसी| मांदी मिळे एकेचि राशी| कां येती निंदकापासीं| अशेष पापें ||२५७|| मरणाराचें आंग| पडिघाती अवघेचि रोग| कां कुमुहूर्तीं दुर्योग| एकवटती ||२५८|| विश्वासला आतुडवीजे चोरा| शिणला सुइजे महापुरा| तैसें दोषीं इहीं नरा| अनिष्ट कीजे ||२५९|| कां आयुष्य जातिये वेळे| शेळिये सातवेउळी मिळे| तैसे साही दोष सगळे| जोडती तया ||२६०|| मोक्षमार्गाकडे| जैं यांचा आंबुखा पडे| तैं न निघे म्हणौनि बुडे| संसारीं तो ||२६१|| अधमां योनींच्या पाउटीं| उतरत जो किरीटी| स्थावरांही तळवटीं| बैसणें घे ||२६२|| हें असो तयाच्या ठायीं| मिळोनि साही दोषीं इहीं| आसुरी संपत्ति पाहीं| वाढविजे ||२६३|| ऐसिया या दोनी| संपदा प्रसिद्धा जनीं| सांगितलिया चिन्हीं| वेगळाल्या ||२६४|| दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ||५|| इया दोन्हींमाजीं पहिली| दैवी जे म्हणितली| ते मोक्षसूर्यें पाहली| उखाचि जाण ||२६५|| येरी जे दुसरी| संपत्ति कां आसुरी| ते मोहलोहाची खरी| सांखळी जीवां ||२६६|| परी हें आइकोनि झणें| भय घेसी हो मनें| काय रात्रीचा दिनें| धाकु धरिजे ||२६७|| हे आसुरी संपत्ति तया| बंधालागीं धनंजया| जो साही दोषां ययां| आश्रयो होय ||२६८|| तूं तंव पांडवा| सांगितलेया दैवा| गुणनिधी बरवा| जन्मलासी ||२६९|| म्हणौनि पार्था तूं या| दैवी संपत्ती स्वामिया| होऊनि यावें उवाया| कैवल्याचिया ||२७०|| द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च | दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रुणु ||६|| आणि दैवां आसुरां| संपत्तिवंतां नरां| अनादिसिद्ध उजगरा| राहाटीचा आहे ||२७१|| जैसें रात्रीच्या अवसरीं| व्यापारिजे निशाचरीं| दिवसा सुव्यवहारीं| मनुष्यादिकीं ||२७२|| तैसिया आपुलालिया राहाटीं| वर्तती दोन्ही सृष्टी| दैवी आणि किरीटी| आसुरी येथ ||२७३|| तेवींचि विस्तारूनि दैवी| ज्ञानकथनादि प्रस्तावीं| मागील ग्रंथीं बरवी| सांगितली ||२७४|| आतां आसुरी जे सृष्टी| तेथिंची उपलऊं गोठी| अवधानाची दिठी| दे पां निकी ||२७५|| तरी वाद्येंवीण नादु| नेदी कवणाही सादु| कां अपुष्पीं मकरंदु| न लभे जैसा ||२७६|| तैसी प्रकृति हे आसुर| एकली नोहे गोचर| जंव एकाधें शरीर| माल्हातीना ||२७७|| मग आविष्कारला लांकुडें| पावकु जैसा जोडे| तैसी प्राणिदेहीं सांपडे| आटोपली हे ||२७८|| ते वेळीं जे वाढी ऊंसा| तेचि आंतुला रसा| देहाकारु होय तैसा| प्राणियांचा ||२७९|| आतां तयाचि प्राणियां| रूप करूं धनंजया| घडले जे आसुरीया| दोषवृंदीं ||२८०|| प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः | न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ||७|| तरी पुण्यालागीं प्रवृत्ती| कां पापाविषयीं निवृत्ती| या जाणणेयाची राती| तयांचें मन ||२८१|| निगणेया आणि प्रवेशा| चित्त नेदीतु आवेशा| कोशकिटु जैसा| जाचिन्नला पैं ||२८२|| कां दिधलें मागुती येईल| कीं न ये हें पुढील| न पाहातां दे भांडवल| मूर्ख चोरां ||२८३|| तैसिया प्रवृत्ति निवृत्ति दोनी| नेणिजती आसुरीं जनीं| आणि शौच ते स्वप्नीं| देखती ना ते ||२८४|| काळिमा सांडील कोळसा| वरी चोखी होईल वायसा| राक्षसही मांसा| विटों शके ||२८५|| परी आसुरां प्राणियां| शौच नाहीं धनंजया| पवित्रत्व जेवीं भांडिया| मद्याचिया ||२८६|| वाढविती विधीची आस| कां पाहाती वडिलांची वास| आचाराची भाष| नेणतीचि ते ||२८७|| जैसें चरणें शेळियेचें| कां धावणें वारियाचें| जाळणें आगीचें| भलतेउतें ||२८८|| तैसें पुढां सूनि स्वैर| आचरती ते गा आसुर| सत्येंसि कीर वैर| सदाचि तयां ||२८९|| जरी नांगिया आपुलिया| विंचू करी गुदगुलिया| तरी साचा बोली बोलिया| बोलती ते ||२९०|| आपानाचेनि तोंडें| जरी सुगंधा येणें घडे| तरी सत्य तयां जोडे| आसुरांतें ||२९१|| ऐसें ते न करितां कांहीं| आंगेंचि वोखटे पाहीं| आतां बोलती ते नवाई| सांगिजैल ||२९२|| एऱ्हवीं करेयाच्या ठायीं चांग| तें तयासि कैचें नीट आंग| तैसा आसुरांचा प्रसंग| प्रसंगें परीस ||२९३|| उधवणीचें जेवीं तोंड| उभळी धुंवाचे उभड| हें जाणिजे तेवीं उघड| सांगों ते बोल ||२९४|| असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् | अपरस्परसंभूतं किमन्यत् कामहैतुकम् ||८|| तरी विश्व हा अनादि ठावो| येथ नियंता ईश्वररावो| चावडिये न्यावो अन्यावो| निवडी वेदु ||२९५|| वेदीं अन्यायीं पडे| तो निरयभोगें दंडे| सन्यायी तो सुरवाडें| स्वर्गीं जिये ||२९६|| ऐसी हे विश्वव्यवस्था| अनादि जे पार्था| इयेतें म्हणती ते वृथा| अवघेंचि हें ||२९७|| यज्ञमूढ ठकिले यागीं| देवपिसें प्रतिमालिंगीं| नागविले भगवे योगी| समाधिभ्रमें ||२९८|| येथ आपुलेनि बळें| भोगिजे जें जें वेंटाळें| हें वांचोनि वेगळें| पुण्य आहे ? ||२९९|| ना अशक्तपणें आंगिकें| वेगळवेंटाळीं न टकें| ऐसा गादिजेवीण विषयसुखें| तेंचि पाप ||३००|| प्राण घेपती संपन्नांचे| ते पाप जरी साचें| तरी सर्वस्व हाता ये तयांचें| हें पुण्यफळ कीं ? ||३०१|| बळी अबळातें खाय| हेंचि बाधित जरी होय| तरी मासयां कां न होय| निसंतान ? ||३०२|| आणि कुळें शोधूनि दोन्ही| कुमारेंचि शुभलग्नीं| मेळवीजती प्रजासाधनीं| हेतु जरी ||३०३|| तरी पशुपक्षादि जाती| जया मिती नाहीं संतती| तयां कोणें प्रतिपत्तीं| विवाह केले ? ||३०४|| चोरियेचें धन आलें| तरी तें कोणासि विष जालें ? | वालभें परद्वार केलें| कोढी कोणी होय ? ||३०५|| म्हणौनि देवो गोसांवी| तो धर्माधर्मु भोगवी| आणि परत्राच्या गांवीं| करी तो भोगी ||३०६|| परी परत्र ना देवो| न दिसे म्हणौनि तें वावो| आणि कर्ता निमे मा ठावो| भोग्यासि कवणु ? ||३०७|| येथ उर्वशिया इंद्र सुखी| जैसा कां स्वर्गलोकीं| तैसाचि कृमिही नरकीं| लोळतु श्लाघे ||३०८|| म्हणौनि नरक स्वर्गु| नव्हे पापपुण्यभागु| जे दोहीं ठायीं सुखभोगु| कामाचाचि तो ||३०९|| याकारणें कामें| स्त्रीपुरुषयुग्में| मिळती तेथ जन्मे| आघवें जग ||३१०|| आणि जें जें अभिलाषें| स्वार्थालागीं हें पोषे| पाठीं परस्परद्वेषें| कामचि नाशी ||३११|| एवं कामावांचूनि कांहीं| जगा मूळचि आन नाहीं| ऐसें बोलती पाहीं| आसुर गा ते ||३१२|| आतां असो हें किडाळ| बोली न करूं पघळ| सांगतांचि सफोल| होतसे वाचा ||३१३|| एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः | प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ||९|| आणि ईश्वराचिया खंती| नुसधियाचि करिती चांथी| हेंही नाहीं चित्तीं| निश्चयो एकु ||३१४|| किंबहुना उघड| आंगी लाऊनियां पाखांड| नास्तिकपणाचें हाड| रोंविलें जीवीं ||३१५|| ते वेळीं स्वर्गालागीं आदरु| कां नरकाचा अडदरु| या वासनांचा अंकुरु| जळोनि गेला ||३१६|| मग केवळ ये देहखोडां| अमेध्योदकाचा बुडबुडा| विषयपंकीं सुहाडा| बुडाले गा ||३१७|| जैं आटावें होती जळचर| तैं डोहीं मिळतीं ढीवर| कां पडावें होय शरीर| तैं रोगा उदयो ||३१८|| उदैजणें केतूचें जैसें| विश्वा अनिष्टोद्देशें| जन्मती ते तैसे| लोकां आटूं ||३१९|| विरूढलिया अशुभ| फुटती तैं ते कोंभ| पापाचे कीर्तिस्तंभ| चालते ते ||३२०|| आणि मागांपुढां जाळणें| वांचूनि आगी कांहीं नेणें| तैसें विरुद्धचि एक करणें| भलतेयां ||३२१|| परी तेंचि गा करणें| आदरिती संभ्रमें जेणें| तो आइक पार्था म्हणे| श्रीनिवासु ||३२२|| काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः | मोहाद् गृहीत्वाऽसद्ग्रहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ||१०|| तरी जाळ पाणियें न भरे| आगी इंधन न पुरे| तयां दुर्भरांचिये धुरे| भुकाळु जो ||३२३|| तया कामाचा वोलावा| जीवीं धरुनिया पांडवा| दंभमानाचा मेळावा| मेळविती ||३२४|| मातलिया कुंजरा| आगळी जाली मदिरा| तैसा मदाचा ताठा तंव जरा| चढतां आंगीं ||३२५|| आणि आग्रहा तोचि ठावो| वरी मौढ्याऐसा सावावो| मग काय वानूं निर्वाहो| निश्चयाचा ||३२६|| जिहीं परोपतापु घडे| परावा जीवु रगडे| तिहीं कर्मीं होऊनि गाढे| जन्मवृत्ती ||३२७|| मग आपुलें केलें फोकारिती| आणि जगातें धिक्कारिती| दाहीं दिशीं पसरिती| स्पृहाजाळ ||३२८|| ऐसेनि गा आटोपें| थोरियें आणती पापें| धर्मधेनु खुरपें| सुटलें जैसें ||३२९|| चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः | कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ||११|| याचि एका आयती| तयाचिया कर्मप्रवृत्ती| आणि जिणियाही परौती| वाहती चिंता ||३३०|| पाताळाहूनि निम्न| जियेचिये उंचीये सानें गगन| जें पाहातां त्रिभुवन| अणुही नोहे ||३३१|| ते योगपटाची मवणी| जीवीं अनियम चिंतवणी| जे सांडूं नेणें मरणीं| वल्लभा जैसी ||३३२|| तैसी चिंता अपार| वाढविती निरंतर| जीवीं सूनि असार| विषयादिक ||३३३|| स्त्रिया गाइलें आइकावें| स्त्रीरूप डोळां देखावें| सर्वेंद्रियें आलिंगावें| स्त्रियेतेंचि ||३३४|| कुरवंडी कीजे अमृतें| ऐसें सुख स्त्रियेपरौतें| नाहींचि म्हणौनि चित्तें| निश्चयो केला ||३३५|| मग तयाचि स्त्रीभोगा- | लागीं पाताळ स्वर्गा| धांवती दिग्विभागा| परौतेही ||३३६|| आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः | ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ||१२|| आमिषकवळु थोरी आशा| न विचारितां गिळी मासा| तैसें कीजे विषयाशा| तयांसि गा ||३३७|| वांछित तंव न पवती| मग कोरडियेचि आशेची संतती| वाढऊं वाढऊं होती| कोशकिडे ||३३८|| आणि पसरिला अभिलाषु| अपूर्णु होय तोचि द्वेषु| एवं कामक्रोधांहूनि अधिकु| पुरुषार्थु नाहीं ||३३९|| दिहा खोलणें रात्रीं जागोवा| ठाणांतरीयां जैसा पांडवा| अहोरात्रींही विसांवा| भेटेचिना ||३४०|| तैसें उंचौनि लोटिलें कामें| नेहटती क्रोधाचिये ढेमे| तरी रागद्वेष प्रेमें| न माती केंही ||३४१|| तेवींचि जीवींचिया हांवा| विषयवासनांचा मेळावा| केला तरी भोगावा| अर्थें कीं ना ? ||३४२|| म्हणौनि भोगावयाजोगा| पुरता अर्थु पैं गा| आणावया जगा| झोंबती सैरा ||३४३|| एकातें साधूनि मारिती| एकाचि सर्वस्वें हरिती| एकालागीं उभारिती| अपाययंत्रें ||३४४|| पाशिकें पोतीं वागुरा| सुणीं ससाणें चिकाटी खोंचारा| घेऊनि निघती डोंगरा| पारधी जैसें ||३४५|| ते पोसावया पोट| मारूनि प्राणियांचे संघाट| आणिती ऐसें निकृष्ट| तेंही करिती ||३४६|| परप्राणघातें| मेळविती वित्तें| मिळाल्या चित्तें| तोषणें कैसें ||३४७|| इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् | इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ||१३|| म्हणे आजि मियां| संपत्ति बहुतेकांचिया| आपुल्या हातीं केलिया| धन्यु ना मी ? ||३४८|| ऐसा श्लाघों जंव जाये| तंव मन आणीकही वाहे| सवेंचि म्हणे पाहे| आणिकांचेंही आणूं ||३४९|| हें जेतुलें असे जोडिलें| तयाचेनि भांडवलें| लाभा घेईन उरलें| चराचर हें ||३५०|| ऐसेनि धना विश्वाचिया| मीचि होईन स्वामिया| मग दिठी पडे तया| उरों नेदी ||३५१|| असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि | ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी ||१४|| हे मारिले वैरी थोडे| आणीकही साधीन गाढे| मग नांदेन पवाडें| येकलाचि मी ||३५२|| मग माझी होतील कामारीं| तियेंवांचूनि येरें मारीं| किंबहुना चराचरीं| ईश्वरु तो मी ||३५३|| मी भोगभूमीचा रावो| आजि सर्वसुखासी ठावो| म्हणौनि इंद्रुही वावो| मातें पाहुनि ||३५४|| मी मनें वाचा देहें| करीं ते कैसें नोहे| कें मजवांचूनि आहे| आज्ञासिद्ध आन ? ||३५५|| तंवचि बळिया काळु| जंव न दिसें मी अतुर्बळु| सुखाचा कीर निखिळु| रासिवा मीचि ||३५६|| आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया | यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ||१५|| कुबेरु आथिला होये| परी तो नेणें माझी सोये| संपत्ती मजसम नव्हे| श्रीनाथाही ||३५७|| माझिया कुळाचा उजाळू| कां जातिगोतांचा मेळू| पाहतां ब्रह्माही हळू| उणाचि दिसे ||३५८|| म्हणौनि मिरविती नांवें| वायां ईश्वरादि आघवे| नाहीं मजसीं सरी पावे| ऐसें कोण्ही ||३५९|| आतां लोपला अभिचारु| तया करीन मी जीर्णोद्धारु| प्रतिष्ठीन परमारु| यागवरी ||३६०|| मातें गाती वानिती| नटनाचें रिझविती| तयां देईन मागती| ते ते वस्तु ||३६१|| माजिरा अन्नपानीं| प्रमदांच्या आलिंगनीं| मी होईन त्रिभुवनीं| आनंदाकारु ||३६२|| काय बहु सांगों ऐसें| ते आसुरीप्रकृती पिसें| तुरंबिती असोसें| गगनौळें तियें ||३६३|| अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः | प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ||१६|| ज्वराचेनि आटोपें| रोगी भलतैसें जल्पे| चावळती संकल्पें| जाण ते तैसें ||३६४|| अज्ञान आतुले धुळी| म्हणौनि आशा वाहटुळी| भोवंडीजती अंतराळीं| मनोरथांच्या ||३६५|| अनियम आषाढ मेघ| कां समुद्रोर्मी अभंग| तैसे कामिती अनेग| अखंड काम ||३६६|| मग पैं कामनाचि तया| जीवीं जाल्या वेलरिया| वोरपिली कांटिया| कमळें जैसीं ||३६७|| कां पाषाणाचिया माथां| हांडी फुटली पार्था| जीवीं तैसें सर्वथा| कुटके जाले ||३६८|| तेव्हां चढतिये रजनी| तमाची होय पुरवणी| तैसा मोहो अंतःकरणीं| वाढोंचि लागे ||३६९|| आणि वाढे जंव जंव मोहो| तंव तंव विषयीं रोहो| विषय तेथ ठावो| पातकासी ||३७०|| पापें आपलेनि थांवें| जंव करिती मेळावे| तंव जितांचि आघवे| येती नरकां ||३७१|| म्हणौनि गा सुमती| जे कुमनोरथां पाळिती| ते आसुर येती वस्ती| तया ठाया ||३७२|| जेथ असिपत्रतरुवर| खदिरांगाराचे डोंगर| तातला तेलीं सागर| उतताती ||३७३|| जेथ यातनांची श्रेणी| हे नित्य नवी यमजाचणी| पडती तिये दारुणीं| नरकलोकीं ||३७४|| ऐसे नरकाचिये शेले| भागीं जे जे जन्मले| तेही देखों भुलले| यजिती यागीं ||३७५|| एऱ्हवीं यागादिक क्रिया| आहाण तेचि धनंजया| परी विफळती आचरोनियां| नाटकी जैसी ||३७६|| वल्लभाचिया उजरिया| आपणयाप्रति कुस्त्रिया| जोडोनि तोषिती जैसियां| अहेवपणें ||३७७|| आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः | यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ||१७|| तैसें आपणयां आपण| मानितां महंतपण| फुगती असाधारण| गर्वें तेणें ||३७८|| मग लवों नेणती कैसे| आटिवा लोहाचे खांब जैसे| कां उधवले आकाशें| शिळाराशी ||३७९|| तैसें आपुलिये बरवे| आपणचि रिझतां जीवें| तृणाहीहूनि आघवें| मानिती नीच ||३८०|| वरी धनाचिया मदिरा| माजूनि धनुर्धरा| कृत्याकृत्यविचारा| सवतें केलें ||३८१|| जया आंगीं आयती ऐसी| तेथ यज्ञाची गोठी कायसी| तरी काय काय पिसीं| न करिती गा ? ||३८२|| म्हणौनि कोणे एके वेळे| मौढ्यमद्याचेनि बळें| यागाचींही टवाळें| आदरिती ||३८३|| ना कुंड मंडप वेदी| ना उचित साधनसमृद्धी| आणि तयांसी तंव विधी| द्वंद्वचि सदा ||३८४|| देवां ब्राह्मणांचेनि नांवें| आडवारेनहि नोहावें| ऐसें आथी तेथ यावें| लागे कवणा ? ||३८५|| पैं वासरुवाचा भोकसा| गाईपुढें ठेवूनि जैसा| उगाणा घेती क्षीररसा| बुद्धिवंत ||३८६|| तैसें यागाचेनि नांवें| जग वाऊनि हांवें| नागविती आघवें| अहेरावारी ||३८७|| ऐशा कांहीं आपुलिया| होमिती जे उजरिया| तेणें कामिती प्राणिया| सर्वनाशु ||३८८|| अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधम् च संश्रिताः | मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ||१८|| मग पुढां भेरी निशाण| लाउनी ते दीक्षितपण| जगीं फोकारिती आण| वावो वावो ||३८९|| तेव्हां महत्त्वें तेणें अधमा| गर्वा चढे महिमा| जैसे लेवे दिधले तमा| काजळाचे ||३९०|| तैसें मौढ्य घणावे| औद्धत्य उंचावे| अहंकारु दुणावे| अविवेकुही ||३९१|| मग दुजयाची भाष| नुरवावया निःशेष| बळीयेपणा अधिक| होय बळ ||३९२|| ऐसा अहंकार बळा| जालिया एकवळा| दर्पसागरु मर्यादवेळा| सांडूनि उते ||३९३|| मग वोसंडिलेनि दर्पें| कामाही पित्त कुरुपे| तया धगीं सैंघ पळिपे| क्रोधाग्नि तो ||३९४|| तेथ उन्हाळा आगी खरमरा| तेलातुपाचिया कोठारा| लागला आणि वारा| सुटला जैसा ||३९५|| तैसा अहंकारु बळा आला| दर्पु कामक्रोधीं गूढला| या दोहींचा मेळु जाला| जयांच्या ठायीं ||३९६|| ते आपुलिया सवेशा| मग कोणी कोणी हिंसा| या प्राणियांते वीरेशा| न साधती गा ? ||३९७|| पहिलें तंव धनुर्धरा| आपुलिया मांसरुधिरा| वेंचु करिती अभिचारा- | लागोनियां ||३९८|| तेथ जाळिती जियें देहें| यामाजीं जो मी आहें| तया आत्मया मज घाये| वाजती ते ||३९९|| आणि अभिचारकीं तिहीं| उपद्रविजे जेतुलें कांहीं| तेथ चैतन्य मी पाहीं| सीणु पावे ||४००|| आणि अभिचारावेगळें| विपायें जे अवगळें| तया टाकिती इटाळें| पैशून्याचीं ||४०१|| सती आणि सत्पुरुख| दानशीळ याज्ञिक| तपस्वी अलौकिक| संन्यासी जे ||४०२|| कां भक्त हन महात्मे| इयें माझीं निजाचीं धामें| निर्वाळलीं होमधर्में| श्रौतादिकीं ||४०३|| तयां द्वेषाचेनि काळकूटें| बासटोनि तिखटें| कुबोलांचीं सदटें| सूति कांडें ||४०४|| तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् | क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ||१९|| ऐसे आघवाचि परी| प्रवर्तले माझ्या वैरी| तयां पापियां जें मी करीं| तें आइक पां ||४०५|| तरी मनुष्यदेहाचा तागा| घेऊनि रुसती जे जगा| ते पदवी हिरोनि पैं गा| ऐसे ठेवीं ||४०६|| जे क्लेशगांवींचा उकरडा| भवपुरींचा पानवडा| ते तमोयोनि तयां मूढां| वृत्तीचि दें ||४०७|| मग आहाराचेनि नांवें| तृणही जेथ नुगवे| ते व्याघ्र वृश्चिक आडवे| तैसिये करीं ||४०८|| तेथ क्षुधादुःखें बहुतें| तोडूनि खाती आपणयातें| मरमरों मागुतें| होतचि असती ||४०९|| कां आपुला गरळजाळीं| जळिती आंगाची पेंदळी| ते सर्पचि करीं बिळीं| निरुंधला ||४१०|| परी घेतला श्वासु घापे| येतुलेनही मापें| विसांवा तयां नाटोपे| दुर्जनांसी ||४११|| ऐसेनि कल्पांचिया कोडी| गणितांही संख्या थोडी| तेतुला वेळु न काढी| क्लेशौनि तयां ||४१२|| तरी तयांसी जेथ जाणें| तेथिंचें हें पहिलें पेणें| तें पावोनि येरें दारुणें| न होती दुःखें ||४१३|| आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि | मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ||२०|| हा ठायवरी| संपत्ति ते आसुरी| अधोगती अवधारीं| जोडिली तिहीं ||४१४|| पाठीं व्याघ्रादि तामसा| योनी तो अळुमाळु ऐसा| देहाधाराचा उसासा| आथी जोही ||४१५|| तोही मी वोल्हावा हिरें| मग तमचि होती एकसरें| जेथे गेलें आंधारें| काळवंडैजे ||४१६|| जयांची पापा चिळसी| नरक घेती विवसी| शीण जाय मूर्च्छी| सिणें जेणें ||४१७|| मळु जेणें मैळे| तापु जेणें पोळे| जयाचेनि नांवें सळे| महाभय ||४१८|| पापा जयाचा कंटाळा| उपजे अमंगळ अमंगळा| विटाळुही विटाळा| बिहे जया ||४१९|| ऐसें विश्वाचेया वोखटेया| अधम जे धनंजया| तें ते होती भोगूनियां| तामसा योनी ||४२०|| अहा सांगतां वाचा रडे| आठवितां मन खिरडे| कटारे मूर्खीं केवढे| जोडिले निरय ||४२१|| कायिसया ते आसुर| संपत्ति पोषिती वाउर| जिया दिधलें घोर| पतन ऐसें ||४२२|| म्हणौनि तुवां धनुर्धरा| नोहावें गा तिया मोहरा| जेउता वासु आसुरा| संपत्तिवंता ||४२३|| आणि दंभादि दोष साही| हे संपूर्ण जयांच्या ठायीं| ते त्यजावे हें काई| म्हणों कीर ? ||४२४|| त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः | कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ||२१|| परी काम क्रोध लोभ| या तिहींचेंही थोंब| थांवे तेथें अशुभ| पिकलें जाण ||४२५|| सर्व दुःखां आपुलिया| दर्शना धनंजया| पाढाऊ हे भलतया| दिधलें आहाती ||४२६|| कां पापियां नरकभोगीं| सुवावयालागीं जगीं| पातकांची दाटुगी| सभाचि हे ||४२७|| ते रौरव गा तंवचिवरी| आइकिजती पटांतरीं| जंव हे तिन्ही अंतरीं| उठती ना ||४२८|| अपाय तिहीं आसलग| यातना इहीं सवंग| हाणी हाणी नोहे हे तिघ| हेचि हाणी ||४२९|| काय बहु बोलों सुभटा| सांगितलिया निकृष्टा| नरकाचा दारवंटा| त्रिशंकु हा ||४३०|| या कामक्रोधलोभां- | माजीं जीवें जो होय उभा| तो निरयपुरीची सभा| सन्मानु पावे ||४३१|| म्हणौनि पुढत पुढतीं किरीटी| हे कामादि दोष त्रिपुटी| त्यजावींचि गा वोखटी| आघवा विषयीं ||४३२|| एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः | आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् २२|| धर्मादिकां चौंही आंतु| पुरुषार्थाची तैंचि मातु| करावी जैं संघातु| सांडील हा ||४३३|| हे तिन्ही जीवीं जंव जागती| तंववरी निकियाची प्राप्ती| हे माझे कान नाइकती| देवोही म्हणे ||४३४|| जया आपणपें पढिये| आत्मनाशा जो बिहे| तेणें न धरावी हे सोये| सावधु होईजे ||४३५|| पोटीं बांधोनि पाषाण| समुद्रीं बाहीं आंगवण| कां जियावया जेवण| काळकूटाचें ||४३६|| इहीं कामक्रोधलोभेंसी| कार्यसिद्धि जाण तैसी| म्हणौनि ठावोचि पुसीं| ययांचा गा ||४३७|| जैं कहीं अवचटें| हे तिकडी सांखळ तुटे| तैं सुखें आपुलिये वाटे| चालों लाभे ||४३८|| त्रिदोषीं सांडिलें शरीर| त्रिकुटीं फिटलिया नगर| त्रिदाह निमालिया अंतर| जैसें होय ||४३९|| तैसा कामादिकीं तिघीं| सांडिला सुख पावोनि जगीं| संगु लाहे मोक्षमार्गीं| सज्जनांचा ||४४०|| मग सत्संगें प्रबळें| सच्छास्त्राचेनि बळें| जन्ममृत्यूचीं निमाळें| निस्तरें रानें ||४४१|| ते वेळीं आत्मानंदें आघवें| जें सदा वसतें बरवें| तें तैसेंचि पाटण पावे| गुरुकृपेचें ||४४२|| तेथ प्रियाची परमसीमा| तो भेटे माउली आत्मा| तयें खेवीं आटे डिंडिमा| सांसारिक हे ||४४३|| ऐसा जो कामक्रोधलोभां| झाडी करूनि ठाके उभा| तो येवढिया लाभा| गोसावी होय ||४४४|| यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत | न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||२३|| ना हें नावडोनि कांहीं| कामादिकांच्याचि ठायीं| दाटिली जेणें डोई| आत्मचोरें ||४४५|| जो जगीं समान सकृपु| हिताहित दाविता दीपु| तो अमान्यु केला बापु| वेदु जेणें ||४४६|| न धरीचि विधीची भीड| न करीचि आपली चाड| वाढवीत गेला कोड| इंद्रियांचें ||४४७|| कामक्रोधलोभांची कास| न सोडीच पाळिली भाष| स्वैराचाराचें असोस| वळघला रान ||४४८|| तो सुटकेचिया वाहिणीं| मग पिवों न लाहे पाणी| स्वप्नींही ते कहाणी| दूरीचि तया ||४४९|| आणि परत्र तंव जाये| हें कीर तया आहे| परी ऐहिकही न लाहे| भोग भोगूं ||४५०|| तरी माशालागीं भुलला| ब्राह्मण पाणबुडां रिघाला| कीं तेथही पावला| नास्तिकवादु ||४५१|| तैसें विषयांचेनि कोडें| जेणें परत्रा केलें उबडें| तंव तोचि आणिकीकडे| मरणें नेला ||४५२|| एवं परत्र ना स्वर्गु| ना ऐहिकही विषयभोगु| तेथ केउता प्रसंगु| मोक्षाचा तो ? ||४५३|| म्हणौनि कामाचेनि बळें| जो विषय सेवूं पाहे सळें| तया विषयो ना स्वर्गु मिळे| ना उद्धरे तो ||४५४|| तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ | ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ||२४|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगोनाम षोडशोऽध्यायः ||१६अ || याकारणें पैं बापा| जया आथी आपुली कृपा| तेणें वेदांचिया निरोपा| आन न कीजे ||४५५|| पतीचिया मता| अनुसरोनि पतिव्रता| अनायासें आत्महिता| भेटेचि ते ||४५६|| नातरी श्रीगुरुवचना| दिठी देतु जतना| शिष्य आत्मभुवना- | माजीं पैसे ||४५७|| हें असो आपुला ठेवा| हाता आथी जरी यावा| तरी आदरें जेवीं दिवा| पुढां कीजे ||४५८|| तैसा अशेषांही पुरुषार्था| जो गोसावी हो म्हणे पार्था| तेणें श्रुतिस्मृति माथां| बैसणें घापे ||४५९|| शास्त्र म्हणेल जें सांडावें| तें राज्यही तृण मानावें| जें घेववी तें न म्हणावें| विषही विरु ||४६०|| ऐसिया वेदैकनिष्ठा| जालिया जरी सुभटा| तरी कें आहे अनिष्टा| भेटणें गा ? ||४६१|| पैं अहितापासूनि काढिती| हित देऊनि वाढविती| नाहीं गा श्रुतिपरौती| माउली जगा ||४६२|| म्हणौनि ब्रह्मेंशीं मेळवी| तंव हे कोणें न सांडावी| अगा तुवांही ऐसीचि भजावी| विशेषेंसीं ||४६३|| जे आजि अर्जुना तूं येथें| करावया सत्य शास्त्रें सार्थें| जन्मलासि बळार्थें| धर्माचेनि ||४६४|| आणि धर्मानुज हें ऐसें| बोधेंचि आलें अपैसें| म्हणौनि आनारिसें| करूं नये ||४६५|| कार्याकार्यविवेकीं| शास्त्रेंचि करावीं पारखीं| अकृत्य तें कुडें लोकीं| वाळावें गा ||४६६|| मग कृत्यपणें खरें निगे| तें तुवां आपुलेनि आंगें| आचरोनि आदरें चांगें| सारावें गा ||४६७|| जे विश्वप्रामाण्याची मुदी| आजि तुझ्या हातीं असें सुबुद्धी| लोकसंग्रहासि त्रिशुद्धी| योग्यु होसी ||४६८|| एवं आसुरवर्गु आघवा| सांगोनि तेथिंचा निगावा| तोहि देवें पांडवा| निरूपिला ||४६९|| इयावरी तो पंडूचा| कुमरु सद्भावो जीवींचा| पुसेल तो चैतन्याचा| कानीं ऐका ||४७०|| संजयें व्यासाचिया निरोपा| तो वेळु फेडिला तया नृपा| तैसा मीहि निवृत्तिकृपा| सांगेन तुम्हां ||४७१|| तुम्ही संत माझिया कडा| दिठीचा कराल बहुडा| तरी तुम्हां माने येवढा| होईन मी ||४७२|| म्हणौनि निज अवधान| मज वोळगे पसायदान| दीजो जी सनाथु होईन| ज्ञानदेवो म्हणे ||४७३|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां षोडशोऽध्यायः ||

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