ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ भाग१

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 14:37:20
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय १८ || part 1 ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय अठरावा || मोक्षसंन्यासयोगः | जयजय देव निर्मळ| निजजनाखिलमंगळ| जन्मजराजलदजाळ| प्रभंजन ||१|| जयजय देव प्रबळ| विदळितामंगळकुळ| निगमागमद्रुमफळ| फलप्रद ||२|| जयजय देव सकल| विगतविषयवत्सल| कलितकाळकौतूहल| कलातीत ||३|| जयजय देव निश्चळ| चलितचित्तपानतुंदिल| जगदुन्मीलनाविरल| केलिप्रिय ||४|| जयजय देव निष्कळ| स्फुरदमंदानंदबहळ| नित्यनिरस्ताखिलमळ| मूळभूत ||५|| जयजय देव स्वप्रभ| जगदंबुदगर्भनभ| भुवनोद्भवारंभस्तंभ| भवध्वंस ||६|| जयजय देव विशुद्ध| विदुदयोद्यानद्विरद| शमदम- मदनमदभेद| दयार्णव ||७|| जयजय देवैकरूप| अतिकृतकंदर्पसर्पदर्प| भक्तभावभुवनदीप| तापापह ||८|| जयजय देव अद्वितीय| परीणतोपरमैकप्रिय| निजजनजित भजनीय| मायागम्य ||९|| जयजय देव श्रीगुरो| अकल्पनाख्यकल्पतरो| स्वसंविद्रुमबीजप्ररो| हणावनी ||१०|| हे काय एकैक ऐसैसें| नानापरीभाषावशें| स्तोत्र करूं तुजोद्देशें| निर्विशेषा ||११|| जिहींं विशेषणीं विशेषिजे| तें दृश्य नव्हे रूप तुझें| हें जाणें मी म्हणौनि लाजें| वानणा इहीं ||१२|| परी मर्यादेचा सागरु| हा तंवचि तया डगरु| जंव न देखे सुधाकरु| उदया आला ||१३|| सोमकांतु निजनिर्झरींं| चंद्रा अर्घ्यादिक न करी| तें तोचि अवधारीं| करवी कीं जी ||१४|| नेणों कैसी वसंतसंगें| अवचितिया वृक्षाचीं अंगें| फुटती तैं हे तयांहि जोगें| धरणें नोहे ? ||१५|| पद्मिनी रविकिरण| लाहे मग लाजें कवण ? | | कां जळें शिवतलें लवण| आंग भुले ||१६|| तैसा तूतें जेथ मी स्मरें| तेथ मीपण मी विसरें| मग जाकळिला ढेंकरें| तृप्तु जैसा ||१७|| मज तुवां जी केलें तैसें| माझें मीपण दवडूनि देशें| स्तुतिमिषेंच पां पिसें| बांधलें वाचे ||१८|| ना येऱ्हवींं तरी आठवीं| राहोनि स्तुति जैं करावी| तैं गुणागुणिया धरावी| सरोभरी कींंं ||१९|| तरी तूं जी एकरसाचें लिंग| केवीं करूं गुणागुणीं विभाग| मोतीं फोडोनि सांधितां चांग| कीं तैसेंचि भलें ||२०|| आणि बाप तूं माय| इहीं बोलीं ना स्तुति होय| डिंभोपाधिक आहे| विटाळु तेथें ||२१|| जी जालेनि पाइकें आलें| तें गोसावीपण केवीं बोलें ? | ऐसें उपाधी उशिटलें| काय वर्णूं ||२२|| जरी आत्मा तूं एकसरा| हेंही म्हणतां दातारा| तरी आंतुल तूं बाहेरा| घापतासी ||२३|| म्हणौनि सत्यचि तुजलागींं| स्तुति न देखों जी जगीं| मौनावांचूनि लेणें आंगीं| सुसीना मा ||२४|| स्तुति कांहीं न बोलणें| पूजा कांहींं न करणें| सन्निधी कांहींंं न होणें| तुझ्या ठायीं ||२५|| तरी जिंतलें जैसें भुली| पिसें आलापु घाली| तैसें वानूं तें माऊली| उपसाहावें तुवां ||२६|| आतां गीतार्थाची मुक्तमुदी| लावीं माझिये वाग्वृद्धी| जे माने हे सभासदीं | सज्जनांच्या ||२७|| तेथ म्हणितलें श्रीनिवृत्ती| नको हें पुढतपुढती| परीसीं लोहा घृष्टी किती| वेळवेळां कीजे गा ||२८|| तंव विनवी ज्ञानदेवो| म्हणे हो कां जी पसावो| तरी अवधान देतु देवो| ग्रंथा आतां ||२९|| जी गीतारत्नप्रासादाचा| कळसु अर्थचिंतामणीचा| सर्व गीतादर्शनाचा| पाढ्ॐ जो ||३०|| लोकीं तरी आथी ऐसें| जे दुरूनि कळसु दिसे| आणी भेटीचि हातवसे| देवतेची तिये ||३१|| तैसेंचि एथही आहे| जे एकेचि येणें अध्यायें| आघवाचि दृष्ट होये| गीतागमु हा ||३२|| मी कळसु याचि कारणें| अठरावा अध्यायो म्हणें| उवाइला बादरायणें| गीताप्रासादा ||३३|| नोहे कळसापरतें कांहीं| प्रासादीं काम नाहीं| तें सांगतसे गीता ही| संपलेपणें ||३४|| व्यासु सहजें सूत्री बळी| तेणें निगमरत्नाचळीं| उपनिषदार्थाची माळी- | माजीं खांडिली ||३५|| तेथ त्रिवर्गाचा अणुआरु| आडऊ निघाला जो अपारु| तो महाभारतप्राकारु| भोंवता केला ||३६|| माजीं आत्मज्ञानाचें एकवट| दळवाडें झाडूनि चोखट| घडिलें पार्थवैकुंठ- | संवाद कुसरी ||३७|| निवृत्तिसूत्र सोडवणिया| सर्व शास्त्रार्थ पुरवणिया| आवो साधिला मांडणिया| मोक्षरेखेचा ||३८|| ऐसेनि करितां उभारा| पंधरा अध्यायांत पंधरा| भूमि निर्वाळलिया पुरा| प्रासादु जाहला ||३९|| उपरी सोळावा अध्यायो| तो ग्रीवघंटेचा आवो| सप्तदशु तोचि ठावो| पडघाणिये ||४०|| तयाहीवरी अष्टादशु| तो अपैसा मांडला कळसु| उपरि गीतादिकीं व्यासु| ध्वजें लागला ||४१|| म्हणौनि मागील जे अध्याये| ते चढते भूमीचे आये| तयांचें पुरें दाविताहे| आपुल्या आंगीं ||४२|| जालया कामा नाहीं चोरी| ते कळसें होय उजरी| तेवींं अष्टादशु विवरी| साद्यंत गीता ||४३|| ऐसा व्यासें विंदाणियें| गीताप्रासादु सोडवणिये| आणूनि राखिले प्राणिये| नानापरी ||४४|| एक प्रदक्षिणा जपाचिया| बाहेरोनि करिती यया| एक ते श्रवणमिषें छाया| सेविती ययाची ||४५|| एक ते अवधानाचा पुरा| विडापाऊड भीतरां| घेऊनि रिघती गाभारां| अर्थज्ञानाच्या ||४६|| ते निजबोधें उराउरी| भेटती आत्मया श्रीहरी| परी मोक्षप्रासादीं सरी| सर्वांही आथी ||४७|| समर्थाचिये पंक्तिभोजनें| तळिल्या वरील्या एकचि पक्वान्नें| तेवीं श्रवणें अर्थें पठणें| मोक्षुचि लाभे ||४८|| ऐसा गीता वैष्णवप्रासादु| अठरावा अध्याय कळसु विशदु| म्यां म्हणितला हा भेदु| जाणोनियां ||४९|| आतां सप्तदशापाठीं | अध्याय कैसेनि उठी| तो संबंधु सांगो दिठी| दिसे तैसा ||५०|| का गंगायमुना उदक| वोघबगें वेगळिक| दावी होऊनि एक| पाणीपणें ||५१|| न मोडितां दोन्ही आकार| घडिलें एक शरीर| हें अर्धनारी नटेश्वर- | रूपीं दिसें ||५२|| नाना वाढिली दिवसें| कळा बिंबीं पैसे| परी सिनानें लेवे जैसें| चंद्रीं नाहीं ||५३|| तैसींं सिनानीं चारीं पदें| श्लोक तो श्लोकावच्छेदें| अध्यावो अध्यायभेदें| गमे कीर ||५४|| परी प्रमेयाची उजरी| आनान रूप न धरी| नाना रत्नमणीं दोरी| एकचि जैसी ||५५|| मोतियें मिळोनि बहुवें| एकावळीचा पाडु आहे| परी शोभे रूप होये| एकचि तेथ ||५६|| फुलांफुलसरां लेख चढे| द्रुतीं दुजी अंगुळी न पडे| श्लोक अध्याय तेणें पाडें| जाणावे हे ||५७|| सात शतें श्लोक| अध्यायां अठरांचे लेख| परी देवो बोलिले एक| जें दुजें नाहीं ||५८|| आणि म्यांही न सांडूनि ते सोये| ग्रंथ व्यक्ति केली आहे| प्रस्तुत तेणें निर्वाहे| निरूपण आइका ||५९|| तरी सतरावा अध्यावो| पावतां पुरता ठावो| जें संपतां श्लोकीं देवो| बोलिले ऐसें ||६०|| अर्जुना ब्रह्मनामाच्याविखीं. बुद्धि सांडूनि आस्तिकीं| कर्मे कीजती तितुकींंंं| असंतें होतीं ||६१|| हा ऐकोनि देवाचा बोलु| अर्जुना आला डोलु| म्हणे कर्मनिष्ठां मळु| ठेविला देखों ||६२|| तो अज्ञानांधु तंव बापुडा| ईश्वरुचि न देखे एवढा| तेथ नामचि एक पुढां| कां सुझे तया ||६३|| आणि रजतमें दोन्हीं| गेलियावीण श्रद्धा सानी| ते कां लागे अभिधानीं| ब्रह्माचिये ? ||६४|| मग कोता खेंव देणें| वार्तेवरील धावणें| सांडी पडे खेळणें| नागिणीचें तें ||६५|| तैसीं कर्में दुवाडें| तयां जन्मांतराची कडे| दुर्मेळावे येवढे| कर्मामाजीं ||६६|| ना विपायें हें उजू होये| तरी ज्ञानाची योग्यता लाहे| येऱ्हवीं येणेंचि जाये| निरयालया ||६७|| कर्मीं हा ठायवरी| आहाती बहुवा अवसरी| आतां कर्मठां कैं वारी| मोक्षाची हे ||६८|| तरी फिटो कर्माचा पांगु| कीजो अवघाचि त्यागु| आदरिजो अव्यंगु| संन्यासु हा ||६९|| कर्मबाधेची कहीं| जेथ भयाची गोठी नाहीं| तें आत्मज्ञान जिहीं| स्वाधीन होय ||७०|| ज्ञानाचें आवाहनमंत्र| जें ज्ञान पिकतें सुक्षेत्र| ज्ञान आकर्षितें सूत्र| तंतु जे का ||७१|| ते दोनी संन्यास त्याग| अनुष्ठूनि सुटे जग| तरी हेंचि आतां चांग| व्यक्त पुसों ||७२|| ऐसें म्हणौनि पार्थें| त्यागसंन्यासव्यवस्थे| रूप होआवया जेथें| प्रश्नु केला ||७३|| तेथ प्रत्युत्तरें बोली| श्रीकृष्णें जे चावळिली| तया व्यक्ति जाली| अष्टादशा ||७४|| एवं जन्यजनकभावें| अध्यावो अध्यायातें प्रसवे| आतां ऐका बरवें| पुसिलें जें ||७५|| तरी पंडुकुमरें तेणें| देवाचें सरतें बोलणें| जाणोनि अंतःकरणें| काणी घेतली ||७६|| येऱ्हवीं तत्वविषयीं भला| तो निश्चितु असे कीर जाहला| परी देवो राहे उगला| तें साहावेना ||७७|| वत्स धालयाही वरी| धेनू न वचावी दुरी| अनन्य प्रीतीची परी| ऐसी आहे ||७८|| तेणें काजेवीणही बोलावें| तें देखीलें तरी पाहावें| भोगितां चाड दुणावे| पढियंतयाठायीं ||७९|| ऐसी प्रेमाची हे जाती| आणि पार्थ तंव तेचि मूर्ती| म्हणौनि करूं लाहे खंती| उगेपणाची ||८०|| आणि संवादाचेनि मिषें| जे अव्यवहारी वस्तु असे | ते भोगिजे कीं जैसें| आरिसां रूप ||८१|| मग संवादु तोही पारुखे| तरी भोगितां भोगणें थोके| हें कां साहवेल सुखें| लांचावलेया ? ||८२|| यालागीं त्याग संन्यास| पुसावयाचें घेऊनि मिस| मग उपलविलें दुस| गीतेंचें तें ||८३|| अठरावा अध्यावो नोहे| हे एकाध्यायी गीताचि आहे| जैं वांसरुचि गाय दुहे | तैं वेळु कायसा ||८४|| तैसी संपतां अवसरीं| गीता आदरविली माघारीं| स्वामी भृत्याचा न करी| संवादु काई ? ||८५|| परी हें असो ऐसें| अर्जुनें पुसिजत असे | म्हणे विनंती विश्वेशें| अवधारिजो ||८६|| अर्जुन उवाच | संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् | त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ||१|| हां जी संन्यासु आणि त्यागु| इयां दोहीं एक अर्थीं लागु| जैसा सांघातु आणि संघु| संघातेंचि बोलिजे ||८७|| तैसेंचि त्यागें आणि संन्यासें| त्यागुचि बोलिजतु असे| | आमचेनि तंव मानसें| जाणिजे हेंचि ||८८|| ना कांहीं आथी अर्थभेदु| तो देवो करोतु विशदु| तेथ म्हणती श्रीमुकुंदु| भिन्नचि पैं ||८९|| तरी अर्जुना तुझ्या मनीं| त्याग संन्यास दोनी| एकार्थ गमलें हें मानीं| मीही साच ||९०|| इहीं दोहीं कीर शब्दीं| त्यागुचि बोलिजे त्रिशुद्धी| परी कारण एथ भेदीं| येतुलेंचि ||९१|| जें निपटूनि कर्म सांडिजे| तें सांडणें संन्यासु म्हणिजे| आणि फलमात्र का त्यजिजे| तो त्यागु गा ||९२|| तरी कोणा कर्माचें फळ| सांडिजे कोण कर्म केवळ| हेंही सांगों विवळ| चित्त दे पां ||९३|| तरी आपैसीं दांगें डोंगर| झाडें डाळती अपार| तैसें लांबे राजागर| नुठिती ते ||९४|| न पेरितां सैंघ तृणें| उठती तैसें साळीचें होणें| नाहीं गा राबाउणें| जियापरी ||९५|| कां अंग जाहलें सहजें| परी लेणें उद्यमें कीजे| नदी आपैसी आपादिजे| विहिरी जेवीं ||९६|| तैसें नित्य नैमित्तिक| कर्म होय स्वाभाविक| परी न कामितां कामिक| न निफजे जें ||९७|| श्रीभगवानुवाच | काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः | सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||२|| कां कामनेचेनि दळवाडें| जें उभारावया घडे| अश्वमेधादिक फुडे| याग जेथ ||९८|| वापी कूप आराम| अग्रहारें हन महाग्राम| आणीकही नाना संभ्रम| व्रतांचे ते ||९९|| ऐसें इष्टापूर्त सकळ| जया कामना एक मूळ| जें केलें भोगवी फळ| बांधोनियां ||१००|| देहाचिया गांवा अलिया| जन्ममृत्यूचिया सोहळिया| ना म्हणों नये धनंजया| जियापरी ||१०१|| का ललाटींचें लिहिलें| न मोडे गा कांहीं केलें| काळेगोरेपण धुतलें| फिटों नेणे ||१०२|| केलें काम्य कर्म तैसें| फळ भोगावया धरणें बैसे| न फेडितां ऋण जैसें| वोसंडीना ||१०३|| कां कामनाही न करितां| अवसांत घडे पंडुसुता| तरी वायकांडें न झुंजतां| लागे जैसें ||१०४|| गूळ नेणतां तोंडीं| घातला देचि गोडी| आगी मानूनि राखोंडी| चेपिला पोळी ||१०५|| काम्यकर्मी हें एक| सामर्थ्य आथी स्वाभाविक| म्हणौनि नको कौतुक| मुमुक्षु एथ ||१०६|| किंबहुना पार्था ऐसें| जें काम्य कर्म गा असे | तें त्यजिजे विष जैसें| वोकूनियां ||१०७|| मग तया त्यागातें जगीं| संन्यासु ऐसया भंगीं| बोलिजे अंतरंगीं| सर्वद्रष्टा ||१०८|| हें काम्य कर्म सांडणें| तें कामनेतेंचि उपडणें| द्रव्यत्यागें दवडणें| भय जैसें ||१०९|| आणि सोमसूर्यग्रहणें| येऊनि करविती पार्वणें| का मातापितरमरणें| अंकित जे दिवस ||११०|| अथवा अतिथी हन पावे| हें ऐसैसें पडे जैं करावें| तैं तें कर्म जाणावें| नौमित्तिक गा ||१११|| वार्षिया क्षोमे गगन| वसंतें दुणावे वन| देहा श्रृंगारी यौवन- | दशा जैसी ||११२|| का सोमकांतु सोमें पघळें | सूर्यें फांकती कमळें| एथ असे तेंचि पाल्हाळे | आन नये ||११३|| तैसें नित्य जें का कर्म| तेंचि निमित्ताचे लाहे नियम| एथ उंचावे तेणें नाम| नैमित्तिक होय ||११४|| आणि सायंप्रातर्मध्यान्हीं| जें कां करणीय प्रतिदिनीं| परी दृष्टि जैसी लोचनीं| अधिक नोहे ||११५|| कां नापादितां गती| चरणीं जैसी आथी| नातरी ते दीप्ती| दीपबिंबीं ||११६|| वासु नेदितां जैसे| चंदनीं सौरभ्य असे | अधिकाराचे तैसें| रूपचि जें ||११७|| नित्य कर्म ऐसें जनीं| पार्था बोलिजे तें मानीं| एवं नित्य नैमित्तिक दोन्हीं| दाविलीं तुज ||११८|| हेंचि नित्य नैमित्तिक| अनुष्ठेय आवश्यक| म्हणौनि म्हणोंं पाहती एक| वांझ ययातें ||११९|| परी भोजनीं जैसें होये| तृप्ति लाहे भूक जाये| तैसे नित्यनैमित्तिकीं आहे| सर्वांगीं फळ ||१२०|| कीड आगिठां पडे| तरी मळु तुटे वानी चढे| यया कर्मा तया सांगडें| फळ जाणावें ||१२१|| जे प्रत्यवाय तंव गळे| स्वाधिकार बहुवें उजळे| तेथ हातोफळिया मिळे| सद्गतीसी ||१२२|| येवढेवरी ढिसाळ| नित्यनैमित्तिकीं आहे फळ| परी तें त्यजिजे मूळ| नक्षत्रीं जैसें ||१२३|| लता पिके आघवी| तंव च्यूत बांधे पालवीं| मग हात न लावित माधवीं| सोडूनि घाली ||१२४|| तैसी नोलांडितां कर्मरेखा| चित्त दीजे नित्यनैमित्तिका| पाठीं फळा कीजे अशेखा| वांताचे वानी ||१२५|| यया कर्म फळत्यागातें| त्यागु म्हणती पैं जाणते| एवं त्याग संन्यास तूतें| परीसविले ||१२६|| हा संन्यासु जैं संभवे| तैं काम्य बाधूं न पावे| निषिद्ध तंव स्वभावें| निषेधें गेलें ||१२७|| आणि नित्यादिक जें असे | तें येणें फलत्यागें नसे| शिर लोटलिया जैसें| येर आंग ||१२८|| मग सस्य फळपाकांत| तैसें निमालिया कर्मजात| आत्मज्ञान गिंवसीत| अपैसें ये ||१२९|| ऐसिया निगुती दोनी| त्याग संन्यास अनुष्ठानीं| पडले गा आत्मज्ञानीं | बांधती पाटु ||१३०|| नातरी हे निगुती चुके| मग त्यागु कीजे हाततुकें| तैं कांहीं न त्यजे अधिकें| गोंवींचि पडे ||१३१|| जें औषध व्याधी अनोळख| तें घेतलिया परतें विख| कां अन्न न मानितां भूक| मारी ना काय ? ||१३२|| म्हणौनि त्याज्य जें नोहे| तेथ त्यागातें न सुवावें| त्याज्यालागीं नोहावें| लोभापर ||१३३|| चुकलिया त्यागाचें वेझें| केला सर्वत्यागुही होय वोझें| न देखती सर्वत्र दुजें| वीतराग ते ||१३४|| त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः | यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ||३|| एकां फळाभिलाष न ठके| ते कर्मांते म्हणती बंधकें| जैसें आपण नग्न भांडकें| जगातें म्हणे ||१३५|| कां जिव्हालंपट रोगिया| अन्नें दूषी धनंजया| आंगा न रुसे कोढिया| मासियां कोपे ||१३६|| तैसे फळकाम दुर्बळ| म्हणती कर्मचि किडाळ| मग निर्णयो देती केवळ| त्यजावें ऐसा ||१३७|| एक म्हणती यागादिक| करावेंचि आवश्यक| जे यावांचूनि शोधक| आन नसे ||१३८|| मनशुद्धीच्या मार्गीं| जैं विजयी व्हावें वेगीं| तैं कर्म सबळालागीं | आळसु न कीजे ||१३९|| भांगार आथी शोधावें| तरी आगी जेवी नुबगावें| कां दर्पणालागीं सांचावें| अधिक रज ||१४०|| नाना वस्त्रें चोख होआवीं| ऐसें आथी जरी जीवीं| तरी संवदणी न मनावी| मलिन जैसी ||१४१|| तैसीं कर्में क्लेशकारें| म्हणौनि न न्यावीं अव्हेरें| कां अन्नलाभें अरुवारें| रांधितिये उणें ||१४२|| इहीं इहीं गा शब्दीं| एक कर्मीं बांधिती बुद्धी| ऐसा त्यागु विसंवादीं| पडोनि ठेला ||१४३|| तरी विसंवादु तो फिटे| त्यागाचा निश्चयो भेटे| तैसें बोलों गोमटें| अवधान देईं ||१४४|| निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम | त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ||४|| तरी त्यागु एथें पांडवा| त्रिविधु पैं जाणावा| तया त्रिविधाही बरवा| विभाग करूं ||१४५|| त्यागाचे तीन्ही प्रकार| कीजती जरी गोचर| तरी तूं इत्यर्थाचें सार| इतुलें जाण ||१४६|| मज सर्वज्ञाचिये बुद्धी| जें अलोट माने त्रिशुद्धी| निश्चयतत्व तें आधीं| अवधारीं पां ||१४७|| तरी आपुलिये सोडवणें| जो मुमुक्षु जागों म्हणे| तया सर्वस्वें करणें| हेंचि एक ||१४८|| यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् | यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ||५|| जियें यज्ञदानतपादिकें| इयें कर्में आवश्यकें| तियें न सांडावीं पांथिकें| पाउलें जैसीं ||१४९|| हारपलें न देखिजे| तंव तयाचा मागु न सांडिजे| कां तृप्त न होतां न लोटिजे| भाणें जेवीं ||१५०|| नाव थडी न पवतां| न खांडिजे केळी न फळतां| कां ठेविलें न दिसतां| दीपु जैसा ||१५१|| तैसी आत्मज्ञानविखीं| जंव निश्चिती नाहीं निकी| तंव नोहावें यागादिकीं| उदासीन ||१५२|| तरी स्वाधिकारानुरुपें| तियें यज्ञदानें तपें| अनुष्ठावींचि साक्षेपें| अधिकेंवर ||१५३|| जें चालणें वेगावत जाये| तो वेगु बैसावयाचि होये| तैसा कर्मातिशयो आहे| नैष्कर्म्यालागीं ||१५४|| अधिकें जंव जंव औषधी| सेवनेची मांडी बांधी| तंव तंव मुकिजे व्याधी| तयाचिये ||१५५|| तैसीं कर्में हातोपातीं| जैं कीजती यथानिगुती| तैं रजतमें झडती| झाडा देऊनी ||१५६|| कां पाठोवाटीं पुटें| भांगारा खारु देणें घटे| तैं कीड झडकरी तुटे| निर्व्याजु होय ||१५७|| तैसें निष्ठा केलें कर्म| तें झाडी करूनि रजतम| सत्वशुद्धीचें धाम| डोळां दावी ||१५८|| म्हणौनियां धनंजया| सत्वशुद्धी गिंवसितया| तीर्थांचिया सावाया| आलीं कर्में ||१५९|| तीर्थें बाह्यमळु क्षाळे| कर्में अभ्यंतर उजळे| एवं तीर्थें जाण निर्मळें| सत्कर्मेॅहि ||१६०|| तृषार्ता मरुदेशीं| झळे अमृतें वोळलीं जैसींं| कीं अंधालागीं डोळ्यांसी| सूर्यु आला ||१६१|| बुडतया नदीच धाविन्नली| पडतया पृथ्वीच कळवळिली| निमतया मृत्यूनें दिधली| आयुष्यवृद्धी ||१६२|| तैसें कर्में कर्मबद्धता| मुमुक्षु सोडविले पंडुसुता| जैसा रसरीति मरतां| राखिला विषें ||१६३|| तैसीं एके हातवटिया| कर्में कीजती धनंजया| बंधकेंचि सोडवावया| मुख्यें होती ||१६४|| आतां तेचि हातवटी| तुज सांगों गोमटी| जया कर्मातें किरीटी| कर्मचि रुसे ||१६५|| एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च | कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||६|| तरी महायागप्रमुखें| कर्मे निफजतांही अचुकें| कर्तेपणाचें न ठाके| फुंजणें आंगीं ||१६६|| जो मोलें तीर्था जाये| तया मी यात्रा करितु आहे| ऐसिये श्लाघ्यतेचा नोहे| तोषु जेवीं ||१६७|| कां मुद्रा समर्थाचिया| जो एकवटु झोंबे राया| तो मी जिणता ऐसिया| न येचि गर्वा ||१६८|| जो कासें लागोनि तरे| तया पोहती ऊर्मी नुरे| पुरोहितु नाविष्करे| दातेपणें ||१६९|| तैसें कर्तृत्व अहंकारें| नेघोनि यथा अवसरें| कृत्यजातांचें मोहरें| सारीजती ||१७०|| केल्या कर्मा पांडवा| जो आथी फळाचा यावा| तया मोहरा हों नेदावा| मनोरथु ||१७१|| आधींचि फळीं आस तुटिया| कर्मे आरंभावीं धनंजया| परावें बाळ धाया| पाहिजे जैसें ||१७२|| पिंपरुवांचिया आशा| न शिंपिजे पिंपळु जैसा| तैसिया फळनिराशा| कीजती कर्में ||१७३|| सांडूनि दुधाची टकळी| गोंवारी गांवधेनु वेंटाळी| किंबहुना कर्मफळीं| तैसें कीजे ||१७४|| ऐसी हे हातवटी| घेऊनि जे क्रिया उठी| आपणा आपुलिया गांठी| लाहेची तो ||१७५|| म्हणौनि फळीं लागु| सांडोनि देहसंगु| कर्में करावीं हा चांगु| निरोपु माझा ||१७६|| जो जीवबंधेएं शिणला| सुटके जाचे आपला| तेणें पुढतपुढतीं या बोला| आन न कीजे ||१७७|| नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते | मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ||७|| नातरी आंधाराचेनि रोखें| जैसीं डोळां रोंविजती नखें| तैसा कर्मद्वेषें अशेखें| कर्मेंचि सांडी ||१७८|| तयाचें जें कर्म सांडणें| तें तामस पैं मी म्हणें| शिसाराचे रागें लोटणें| शिरचि जैसें ||१७९|| हां गा मार्गु दुवाडु होये| तरी निस्तरितील पाये| कीं तेचि खांडणें आहे| मार्गापराधें ||१८०|| भुकेलियापुढें अन्न| हो कां भलतैसें उन्ह| तरी बुद्धी न घेतां लंघन| भाणें पापरां हल्या ||१८१|| तैसा कर्माचा बाधु कर्में| निस्तरीजे करितेनि वर्में| हे तामसु नेणें भ्रमें| माजविला ||१८२|| कीं स्वभावें आलें विभागा| तें कर्मचि वोसंडी पैं गा| तरी झणें आतळा त्यागा| तामसा तया ||१८३|| दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् | स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||८|| अथवा स्वाधिकारु बुझे| आपले विहितही सुजे| परी करितया उमजे| निबरपणा ||१८४|| जे कर्माची ऐलीकड| नावेक दिसे दुवाड| जे वाहतिये वेळे जड| शिदोरी जैसी ||१८५|| जैसा निंब जिभे कडवटु| हिरडा पहिलें तुरटु| तैसा कर्मा ऐल शेवटु| खणुवाळा होय ||१८६|| कां धेनु दुवाड शिंग| शेवंतीये अडव आंग| भोजनसुख महाग| पाकु करितां ||१८७|| तैसें पुढतपुढती कर्म | आरंभींच अति विषम| म्हणौनि तो तें श्रम| करितां मानी ||१८८|| येऱ्हवीं विहितत्वें मांडी| परी घालितां असुरवाडीं| तेथ पोळला ऐसा सांडी| आदरिलेंही ||१८९|| म्हणे वस्तु देहासारिखी| आली बहुतीं भाग्यविशेखीं| मा जाचूं कां कर्मादिकीं| पापिया जैसा ? ||१९०|| केलें कर्मीं जे द्यावें| तें झणें मज होआवें| आजि भोगूं ना कां बरवे| हातींचे भोग ? ||१९१|| ऐसा शरीराचिया क्लेशा| भेणें कर्में वीरेशा| सांडी तो परीयेसा| राजसु त्यागु ||१९२|| येऱ्हवीं तेथही कर्म सांडे| परी तया त्यागफळ न जोडे| जैसें उतलें आगीं पडे| तें नलगेचि होमा ||१९३|| कां बुडोनि प्राण गेले| ते अर्धोदकीं निमाले| हें म्हणों नये जाहलें| दुर्मरणचि ||१९४|| तैसें देहाचेनि लोभें| जेणें कर्मा पाणी सुभे| तेणें साच न लभे| त्यागाचें फळ ||१९५|| किंबहुना आपुलें| जैं ज्ञान होय उदया आलें| तैं नक्षत्रातें पाहलें| गिळी जैसें ||१९६|| तैशा सकारण क्रिया| हारपती धनंजया| तो कर्मत्यागु ये जया| मोक्षफळासी ||१९७|| तें मोक्षफळ अज्ञाना| त्यागिया नाहीं अर्जुना| म्हणौनि तो त्यागु न माना| राजसु जो ||१९८|| तरी कोणे पां एथ त्यागें| तें मोक्षफळ घर रिघे| हेंही आइक प्रसंगे| बोलिजेल ||१९९|| कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन | सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||९|| तरी स्वाधिकाराचेनि नांवें| जें वांटिया आलें स्वभावें| तें आचरे विधिगौरवें| शृंगारोनि ||२००|| परी हें मी करितु असें| ऐसा आठवु त्यजी मानसें| तैसेचि पाणी दे आशे| फळाचिये ||२०१|| पैं अवज्ञा आणि कामना| मातेच्या ठायीं अर्जुना| केलिया दोनी पतना| कारण होती ||२०२|| तरी दोनीं यें त्यजावीं| मग माताची ते भजावी| वांचूनि मुखालागीं वाळावी| गायचि सगळी ? ||२०३|| आवडतियेही फळीं| असारें साली आंठोळीं| त्यासाठीं अवगळी| फळातें कोण्ही ? ||२०४|| तैसा कर्तृत्वाचा मदु| आणि कर्मफळाचा आस्वादु| या दोहींचें नांव बंधु| कर्माचा कीं ||२०५|| तरी या दोहींच्या विखीं| जैसा बापु नातळे लेंकीं | तैसा हों न शके दुःखी| विहिता क्रिया ||२०६|| हा तो त्याग तरुवरु| जो गा मोक्षफळें ये थोरु| सात्विक ऐसा डगरु| यासींच जगीं ||२०७|| आतां जाळूनि बीज जैसें| झाडा कीजे निर्वंशें| फळ त्यागूनि कर्म तैसें| त्यजिलें जेणें ||२०८|| लोह लागतखेंवो परीसीं| धातूची गंधिकाळिमा जैसी| जाती रजतमें तैसीं| तुटलीं दोन्ही ||२०९|| मग सत्वें चोखाळें| उघडती आत्मबोधाचे डोळे| तेथ मृगांबु सांजवेळे| होय जैसें ||२१०|| तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां| असतु विश्वाभासु हा येवढा| तो न देखे कवणीकडां| आकाश जैसें ||२११|| न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते | त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ||१०|| म्हणौनि प्राचिनाचेनि बळें| अलंकृतें कुशलाकुशलें| तियें व्योमाआंगीं आभाळें| जिरालीं जैसीं ||२१२|| तैसीं तयाचिये दिठी| कर्में चोखाळलीं किरीटी. म्हणौनि सुखदुःखीं उठी| पडेना तो ||२१३|| तेणें शुभकर्म जाणावें| मग तें हर्षें करावें| कां अशुभालागीं होआवें| द्वेषिया ना ||२१४|| तरी इयाविषयींचा कांहीं| तया एकुही संदेहो नाहीं| जैसा स्वप्नाच्या ठायीं| जागिन्नलिया ||२१५|| म्हणौनि कर्म आणि कर्ता| या द्वैतभावाची वार्ता| नेणें तो पंडुसुता| सात्विक त्यागु ||२१६|| ऐसेनि कर्में पार्था| त्यजिलीं त्यजिती सर्वथा | अधिकें बांधिती अन्यथा| सांडिलीं तरी ||२१७|| न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः | यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ||११|| आणि हां गा सव्यसाची| मूर्ति लाहोनि देहाची| खंती करिती कर्माची| ते गांवढे गा ||२१८|| मृत्तिकेचा वीटु| घेऊनि काय करील घटु ? | केउता ताथु पटु| सांडील तो ? ||२१९|| तेवींचि वन्हित्व आंगीं| आणि उबे उबगणें आगी| कीं तो दीपु प्रभेलागीं| द्वेषु करील काई ? ||२२०|| हिंगु त्रासिला घाणी| तरी कैचें सुगंधत्व आणी ? | द्रवपण सांडूनि पाणी | कें राहे तें ? ||२२१|| तैसा शरीराचेनि आभासें| नांदतु जंव असे | तंव कर्मत्यागाचें पिसें| काइसें तरी ? ||२२२|| आपण लाविजे टिळा| म्हणौनि पुसों ये वेळोवेळा| मा घाली फेडी निडळा| कां करूं ये गा ? ||२२३|| तैसें विहित स्वयें आदरिलें| म्हणौनि त्यजूं ये त्यजिलें| परी कर्मचि देह आतलें| तें कां सांडील गा ? ||२२४|| जें श्वासोच्छ्वासवरी| होत निजेलियाहीवरी| कांहीं न करणेंयाचि परी| होती जयाची ||२२५|| या शरीराचेनि मिसकें| कर्मची लागलें असिकें| जितां मेलया न ठाके| इया रीती ||२२६|| यया कर्मातें सांडिती परी| एकीचि ते अवधारीं| जे करितां न जाइजे हारीं| फळशेचिये ||२२७|| कर्मफळ ईश्वरीं अर्पे| तत्प्रसादें बोधु उद्दीपें| तेथ रज्जुज्ञानें लोपे| व्याळशंका ||२२८|| तेणें आत्मबोधें तैसें| अविद्येसीं कर्म नाशे| पार्था त्यजिजे जैं ऐसें| तैं त्यजिलें होय ||२२९|| म्हणौनि इयापरी जगीं| कर्में करितां मानूं त्यागी| येर मुर्छने नांव रोगी| विसांवा जैसा ||२३०|| तैसा कर्मीं शिणे एकीं| तो विसांवो पाहे आणिकीं| दांडेयाचे घाय बुकी| धाडणें जैसें ||२३१|| परी हें असो पुढती| तोचि त्यागी त्रिजगतीं| जेणें फळत्यागें निष्कृती| नेलें कर्म ||२३२|| अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् | भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ||१२|| येऱ्हवीं तरी धनंजया| त्रिविधा कर्मफळा गा यया| समर्थ ते कीं भोगावया| जे न सांडितीचि आशा ||२३३|| आपणचि विऊनि दुहिता| कीं न मम म्हणे पिता| तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता| जांवई शिरके ||२३४|| विषाचे आगरही वाहती| तें विकितां सुखें लाभे जिती| येर निमालें जे घेती| वेंचोनि मोलें ||२३५|| तैसें कर्ता कर्म करू| अकर्ता फळाशा न धरू| एथ न शके आवरूं| दोहींतें कर्म ||२३६|| वाटे पिकलिया रुखाचें| फळ अपेक्षी तयाचें| तेवीं साधारण कर्माचें| फळ घे तया ||२३७|| परी करूनि फळ नेघे| तो जगाच्या कामीं न रिघे| जे त्रिविध जग अवघें| कर्मफळ हें ||२३८|| देव मनुष्य स्थावर| यया नांव जगडंबर| आणि हे तंव तिन्ही प्रकार| कर्मफळांचे ||२३९|| तेंचि एक गा अनिष्ट| एक तें केवळ इष्ट| आणि एक इष्टानिष्ट| त्रिविध ऐसें ||२४०|| परी विषयमंतीं बुद्धी| आंगीं सूनि अविधी| प्रवर्तती जे निषिद्धीं| कुव्यापारीं ||२४१|| तेथ कृमि कीट लोष्ट| हे देह लाहती निकृष्ट| तया नाम तें अनिष्ट| कर्मफळ ||२४२|| कां स्वधर्मा मानु देतां| स्वाधिकारु पुढां सूतां| सुकृत कीजे पुसतां| आम्नायातें ||२४३|| तैं इंद्रादिक देवांचीं| देहें लाहिजती सव्यसाची| तया कर्मफळा इष्टाची| प्रसिद्धि गा ||२४४|| आणि गोड आंबट मिळे| तेथ रसांतर फरसाळें| उठी दोंही वेगळें| दोहीं जिणतें ||२४५|| रेचकुचि योगवशें| होय स्तंभावयादोषें| तेवीं सत्यासत्य समरसें| सत्यासत्यचि जिणिजे ||२४६|| म्हणौनि समभागें शुभाशुभें| मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें. तेणें मनुष्यत्व लाभे| तें मिश्र फळ ||२४७|| ऐसें त्रिविध यया भागीं| कर्मफळ मांडलेसें जगीं| हें न सांडी तयां भोगीं| जें सूदले आशा ||२४८|| जेथें जिव्हेचा हातु फांटे| तंव जेवितां वाटे गोमटें| मग परीणामीं शेवटें| अवश्य मरण ||२४९|| संवचोरमैत्री चांग| जंव न पविजे तें दांग| सामान्या भली आंग| न शिवे तंव ||२५०|| तैसीं कर्में करितां शरीरीं| लाहती महत्त्वाची फरारी| पाठीं निधनीं एकसरी| पावती फळें ||२५१|| तैसा समर्थु आणि ऋणिया| मागों आला बाइणिया| न लोटे तैसा प्राणिया| पडे तो भोगु ||२५२|| मग कणिसौनि कणु झडे| तो विरूढला कणिसा चढे| पुढती भूमी पडे| पुढती उठी ||२५३|| तैसें भोगीं जें फळ होय| तें फळांतरें वीत जाय| चालतां पावो पाय| जिणिजे जैसा ||२५४|| उताराचिये सांगडी| ठाके ते ऐलीच थडी| तेवीं न मुकीजती वोढी| भोग्याचिये ||२५५|| पैं साध्यसाधनप्रकारें| फळभोगु तो पसरे| एवं गोंविले संसारें| अत्यागी ते ||२५६|| येऱ्हवीं जाईचियां फुलां फांकणें| त्याचि नाम जैसें सुकणें| तैसें कर्ममिषें न करणें| केलें जिहीं ||२५७|| बीजचि वरोसि वेंचे| तेथ वाढती कुळवाडी खांचे| तेवीं फळत्यागें कर्माचें| सारिलें काम ||२५८|| ते सत्वशुद्धि साहाकारें| गुरुकृपामृततुषारें| सासिन्नलेनि बोधें वोसरे| द्वैतदैन्य ||२५९|| तेव्हां जगदाभासमिषें| स्फुरे तें त्रिविध फळ नाशे| एथ भोक्ता भोग्य आपैसें| निमालें हें ||२६०|| घडे ज्ञानप्रधानु हा ऐसा| संन्यासु जयां वीरेशा| तेचि फलभोग सोसा| मुकले गा ||२६१|| आणि येणें कीर संन्यासें| जैं आत्मरूपीं दिठी पैसे| तैं कर्म एक ऐसें | देखणें आहे ? ||२६२|| पडोनि गेलिया भिंती| चित्रांची केवळ होय माती| कां पाहालेया राती| आंधारें उरे ? ||२६३|| जैं रूपचि नाहीं उभें| तैं साउली काह्याची शोभे ? | दर्पणेवीण बिंबें| वदन कें पां ? ||२६४|| फिटलिया निद्रेचा ठावो| कैचा स्वप्नासि प्रस्तावो ? | मग साच का वावो| कोण म्हणे ? ||२६५|| तैसें गा संन्यासें येणें| मूळ अविद्येसीचि नाहीं जिणें| मा तियेचें कार्य कोणें| घेपे दीजे ? ||२६६|| म्हणौनि संन्यासी ये पाहीं| कर्माची गोठी कीजेल ख़ई | परी अविद्या आपुलाम् देहीं| आहे जै कां ||२६७|| जैं कर्तेपणाचेनि थांवें| आत्मा शुभाशुभीं धांवें| दृष्टि भेदाचिये राणिवे| रचलीसे जैं ||२६८|| तैं तरी गा सुवर्मा| बिजावळी आत्मया कर्मा| अपाडें जैसी पश्चिमा| पूर्वेसि कां ||२६९|| नातरी आकाशा का आभाळा| सूर्या आणि मृगजळा| बिजावळी भूतळा| वायूसि जैसी ||२७०|| पांघरौनि नईचें उदक| असे नईचिमाजीं खडक| परी जाणिजे का वेगळिक | कोडीची ते ||२७१|| हो कां उदकाजवळी| परी सिनानीचि ते बाबुळी| काय संगास्तव काजळी| दीपु म्हणों ये ? ||२७२|| जरी चंद्रीं जाला कलंकु| तरी चंद्रेसीं नव्हे एकु| आहे दृष्टी डोळ्यां विवेकु| अपाडु जेतुला ||२७३|| नाना वाटा वाटे जातया| वोघा वोघीं वाहातया| आरसा आरसां पाहातया| अपाडु जेतुला ||२७४|| पार्था गा तेतुलेनि मानें| आत्मेंनिसीं कर्म सिनें| परी घेवविजे अज्ञानें| तें कीर ऐसें ||२७५|| विकाशें रवीतें उपजवी| द्रुती अलीकरवी भोगवी| ते सरोवरीं कां बरवी | अब्जिनी जैसी ||२७६|| पुढतपुढती आत्मक्रिया| अन्यकारणकाचि तैशिया| करूं पांचांही तयां| कारणां रूप ||२७७|| पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे | साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||१३|| आणि पांचही कारणें तियें| तूंही जाणसील विपायें| जें शास्त्रें उभऊनी बाहे| बोलती तयांते ||२७८|| वेदरायाचिया राजधानीं| सांख्यवेदांताच्या भुवनीं| निरूपणाच्या निशाणध्वनीं| गर्जती जियें ||२७९|| जें सर्वकर्मसिद्धीलागीं| इयेंचि मुद्दलें हो जगीं| तेथ न सुवावा अभंगीं| आत्मराजु ||२८०|| ह्या बोलाचि डांगुरटी| तियें प्रसिद्धीचि आली किरीटी| म्हणौनि तुझ्या हन कर्णपुटीं| वसों हें काज ||२८१|| आणि मुखांतरीं आइकिजे| तैसें कायसें हें ओझें| मी चिद्रत्न तुझें | असतां हातीं ||२८२|| दर्पणु पुढां मांडलेया| कां लोकांचियां डोळयां| मानु द्यावा पहावया| आपुलें निकें ||२८३|| भक्त जैसेनि जेथ पाहे| तेथ तें तेंचि होत जाये| तो मी तुझें जाहालों आहें| खेळणें आजी ||२८४|| ऐसें हें प्रीतीचेनि वेगें| देवो बोलतां से नेघे| तंव आनंदामाजीं आंगें| विरतसे येरु ||२८५|| चांदिणियाचा पडिभरु| होतां सोमकांताचा डोंगरु| विघरोनि सरोवरु| हों पाहे जैसा ||२८६|| तैसें सुख आणि अनुभूती| या भावांची मोडूनि भिंती| आतलें अर्जुनाकृति| सुखचि जेथ ||२८७|| तेथ समर्थु म्हणौनि देवा| अवकाशु जाहला आठवा| मग बुडतयाचा धांवा| जीवें केला ||२८८|| अर्जुना येसणें धेंडें| प्रज्ञा पसरेंसीं बुडे| आलें भरतें एवढें| तें काढूनि पुढती ||२८९|| देवो म्हणे हां गा पार्था| तूं आपणपें देख सर्वथा| तंव श्वासूनि येरें माथा| तुकियेला ||२९०|| म्हणे जाणसी दातारा| मी तुजशीं व्यक्तिशेजारा| उबगला आजी एकाहारा| येवों पाहें ||२९१|| तयाही हा ऐसा| लोभें देतसां जरी लालसा| तरी कां जी घालीतसां| आड आड जीवा ? ||२९२|| तेथ श्रीकृष्ण म्हणती निकें| अद्यापि नाहीं मा ठाऊकें| वेडया चंद्रा आणि चंद्रिके| न मिळणें आहे ? ||२९३|| आणि हाही बोलोनि भावो| तुज द्ॐ आम्ही भिवों| जे रुसतां बांधे थांवो| तें प्रेम गा हें ||२९४|| एथ एकमेकांचिये खुणें| विसंवादु तंवचि जिणें| म्हणौनि असो हें बोलणें| इयेविषयींचें ||२९५|| मग कैशी कैशी ते आतां | बोलत होतों पंडुसुता| सर्व कर्मा भिन्नता| आत्मेनिसीं ||२९६|| तंव अर्जुन म्हणे देवें| माझिये मनींचेंचि स्वभावें| प्रस्ताविलें बरवें| प्रमेय तें जी ||२९७|| जें सकळ कर्माचें बीज| कारणपंचक तुज| सांगेन ऐसी पैज| घेतली कां ||२९८|| आणि आत्मया एथ कांहीं| सर्वथा लागु नाहीं| हें पुढारलासि ते देईं| लाहाणें माझें ||२९९|| यया बोला विश्वेशें| म्हणितलें तोषें बहुवसे| इयेविषयीं धरणें बैसे. ऐसें कें जोडे ? ||३००|| तरी अर्जुना निरूपिजेल| तें कीर भाषेआंतुल| परी मेचु ये होईजेल| ऋणिया तुज ||३०१|| तंव अर्जुन म्हणे देवो| काई विसरले मागील भावो ? | इये गोंठीस कीं राखत आहों| मीतूंपण जी ? ||३०२|| एथ श्रीकृष्ण म्हणती हो कां| आतां अवधानाचा पसरु निका| करूनियां आइका| पुढारलों तें ||३०३|| तरी सत्यचि गा धनुर्धरा| सर्वकर्मांचा उभारा| होतसे बहिरबाहिरा| करणीं पांचें ||३०४|| आणि पांच कारण दळवाडें| जिहीं कर्माकारु मांडे| ते हेतुस्तव घडे| पांच आथी ||३०५|| येर आत्मतत्त्व उदासीन| तें ना हेतु ना उपादान| ना ते अंगें करी संवाहन| कर्मसिद्धीचें ||३०६|| तेथ शुभाशुभीं अंशीं| निफजती कर्में ऐसीं| राती दिवो आकाशीं| जियापरी ||३०७|| तोय तेज धूमु| ययां वायूसीं संगमु| जालिया होय अभ्रागमु| व्योम तें नेणें ||३०८|| नाना काष्ठीं नाव मिळे| ते नावाडेनि चळे| चालविजे अनिळें| उदक तें साक्षी ||३०९|| कां कवणे एकें पिंडे| वेंचितां अवतरे भांडें| मग भवंडीजे दंडें| भ्रमे चक्र ||३१०|| आणि कर्तृत्व कुलालाचें| तेथ काय तें पृथ्वीयेचें| आधारावांचूनि वेंचे| विचारीं पां ||३११|| हेंहि असो लोकांचिया| राहाटी होतां आघविया| कोण काम सवितया| आंगा आलें ? ||३१२|| तैसें पांचहेतुमिळणीं| पांचेंचि इहीं कारणीं| कीजे कर्मलतांची लावणी| आत्मा सिना ||३१३|| आतां तेंचि वेगळालीं| पांचही विवंचूं गा भलीं| तुकोनि घेतलीं| मोतियें जैसीं ||३१४|| अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् | विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ||१४|| तैसीं यथा लक्षणें| आइकें कर्म- कारणें| तरी देह हें मी म्हणें| पहिलें एथ ||३१५|| ययातें अधिष्ठान ऐसें| म्हणिजे तें याचि उद्देशें| जे स्वभोग्येंसीं वसे| भोक्ता येथ ||३१६|| इंद्रियांच्या दाहें हातीं| जाचोनियां दिवोराती| सुखदुःखें प्रकृती| जोडीजती जियें ||३१७|| तियें भोगावया पुरुखा| आन ठावोचि नाहीं देखा| म्हणौनि अधिष्ठानभाखा| बोलिजे देह ||३१८|| हें चोविसांही तत्वांचें| कुटुंबघर वस्तीचें| तुटे बंधमोक्षाचें| गुंथाडे एथ ||३१९|| किंबहुना अवस्थात्रया| हें अधिष्ठान धनंजया| म्हणौनि देहा यया| हेंचि नाम ||३२०|| आणि कर्ता हें दुजें| कर्माचें कारण जाणिजे| प्रतिबिंब म्हणिजे| चैतन्याचें जें ||३२१|| आकाशचि वर्षे नीर| तें तळवटीं बांधे नाडर| मग बिंबोनि तदाकार| होय जेवीं ||३२२|| कां निद्राभरें बहुवें| राया आपणपें ठाउवें नव्हे| मग स्वप्नींचिये सामावे| रंकपणीं ||३२३|| तैसें आपुलेनि विसरें| चैतन्यचि देहाकारें| आभासोनि आविष्करें| देहपणें जें ||३२४|| जया विसराच्या देशीं| प्रसिद्धि गा जीवु ऐसी| जेणें भाष केली देहेंसी| आघवाविषयीं ||३२५|| प्रकृति करी कर्में| तीं म्यां केलीं म्हणे भ्रमें| येथ कर्ता येणें नामें| बोलिजे जीवु ||३२६|| मग पातेयांच्या केशीं| एकीच उठी दिठी जैसी| मोकळी चवरी ऐसी| चिरीव गमे ||३२७|| कां घराआंतुल एकु| दीपाचा तो अवलोकु| गवाक्षभेदें अनेकु| आवडे जेवीं ||३२८|| कां एकुचि पुरुषु जैसा| अनुसरत नवां रसां| नवविधु ऐसा| आवडों लागे ||३२९|| तेवीं बुद्धीचें एक जाणणें| श्रोत्रादिभेदें येणें| बाहेरी इंद्रियपणें| फांके जें कां ||३३०|| तें पृथग्विध करण| कर्माचें इया कारण| तिसरें गा जाण| नृपनंदना ||३३१|| आणि पूर्वपश्चिमवाहणीं| निघालिया वोघाचिया मिळणी| होय नदी नद पाणी| एकचि जेवीं ||३३२|| तैसी क्रियाशक्ति पवनीं| असे जे अनपायिनी| ते पडिली नानास्थानीं| नाना होय ||३३३|| जैं वाचे करी येणें| तैं तेंचि होय बोलणें| हाता आली तरी घेणें| देणें होय ||३३४|| अगा चरणाच्या ठायीं| तरी गति तेचि पाहीं| अधोद्वारीं दोहीं| क्षरणें तेचि ||३३५|| कंदौनि हृदयवरी| प्रणवाची उजरी| करितां तेचि शरीरीं| प्राणु म्हणिजे ||३३६|| मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा| पुढती तेचि शक्ति पैं गा| उदानु ऐसिया लिंगा| पात्र जाहली ||३३७|| अधोरंध्राचेनि वाहें| अपानु हें नाम लाहे| व्यापकपणें होये| व्यानु तेचि ||३३८|| आरोगिलेनि रसें| शरीर भरी सरिसें| आणि न सांडितां असे | सर्वसंधीं ||३३९|| ऐसिया इया राहटीं| मग तेचि क्रिया पाठीं| समान ऐसी किरीटी| बोलिजे गा ||३४०|| आणि जांभई शिंक ढेंकर| ऐसैसा होतसे व्यापार| नाग कूर्म कृकर| इत्यादि होय ||३४१|| एवं वायूची हे चेष्टा| एकीचि परी सुभटा| वर्तनास्तव पालटा| येतसे जे ||३४२|| तें भेदली वृत्तिपंथें| वायुशक्ति गा एथें| कर्मकारण चौथें| ऐसें जाण ||३४३|| आणि ऋतु बरवा शारदु| शारदीं पुढती चांदु| चंद्री जैसा संबंधु| पूर्णिमेचा ||३४४|| कां वसंतीं बरवा आरामु| आरामींही प्रियसंगमु | संगमीं आगमु. उपचारांचा ||३४५|| नाना कमळीं पांडवा| विकासु जैसा बरवा| विकासींही यावा| परागाचा ||३४६|| वाचे बरवें कवित्व| कवित्वीं बरवें रसिकत्व| रसिकत्वीं परतत्व| स्पर्शु जैसा ||३४७|| तैसी सर्ववृत्तिवैभवीं| बुद्धिचि एकली बरवी| बुद्धिही बरव नवी| इंद्रियप्रौढी ||३४८|| इंद्रियप्रौढीमंडळा| शृंगारु एकुचि निर्मळा| जैं अधिष्ठात्रियां कां मेळा| देवतांचा जो ||३४९|| म्हणौनि चक्षुरादिकीं दाहें| इंद्रियां पाठीं स्वानुग्रहें| सूर्यादिकां कां आहे| सुरांचें वृंद ||३५०|| तें देववृंद बरवें| कर्मकारण पांचवें| अर्जुना एथ जाणावें| देवो म्हणे ||३५१|| एवं माने तुझिये आयणी| तैसी कर्मजातांची हे खाणी| पंचविध आकर्णीं| निरूपिली ||३५२|| आतां हेचि खाणी वाढे| मग कर्माची सृष्टि घडे| जिहीं ते हेतुही उघडे| द्ॐ पांचै ||३५३|| शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः | न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ||१५|| तरी अवसांत आली माधवी| ते हेतु होय नवपल्लवीं| पल्लव पुष्पपुंज दावी| पुष्प फळातें ||३५४|| कां वार्षिये आणिजे मेघु| मेघें वृष्टिप्रसंगु| वृष्टीस्तव भोगु| सस्यसुखाचा ||३५५|| नातरी प्राची अरुणातें विये| अरुणें सूर्योदयो होये| सूर्यें सगळा पाहे| दिवो जैसा ||३५६|| तैसें मन हेतु पांडवा| होय कर्मसंकल्पभावा| तो संकल्पु लावी दिवा| वाचेचा गा ||३५७|| मग वाचेचा तो दिवटा| दावी कृत्यजातांचिया वाटा| तेव्हां कर्ता रिगे कामठां | कर्तृत्वाच्या ||३५८|| तेथ शरीरादिक दळवाडें| शरीरादिकां हेतुचि घडे| लोहकाम लोखंडें| निर्वाळिजे जैसें ||३५९|| कां तांथुवाचा ताणा| तांथु घालितां वैरणा| तो तंतुचि विचक्षणा| होय पटु ||३६०|| तैसें मनवाचादेहाचें| कर्म मनादि हेतुचि रचे| रत्नीं घडे रत्नाचें| दळवाडें जेवीं ||३६१|| एथ शरीरादिकें कारणें| तेंचि हेतु केवीं हें कोणें| अपेक्षिजे तरी तेणें| अवधारिजो ||३६२|| आइका सूर्याचिया प्रकाशा| हेतु कारण सूर्युचि जैसा| कां ऊंसाचें कांडें ऊंसा| वाढी हेतु ||३६३|| नाना वाग्देवता वानावी| तैं वाचाचि लागे कामवावी| कां वेदां वेदेंचि बोलावी| प्रतिष्ठा जेवीं ||३६४|| तैसें कर्मा शरीरादिकें| कारण हें कीर ठाउकें| परी हेंचि हेतु न चुके| हेंही एथ ||३६५|| आणि देहादिकीं कारणीं| देहादि हेतु मिळणीं| होय जया उभारणी| कर्मजातां ||३६६|| तें शास्त्रार्थेंं मानिलेया| मार्गा अनुसरे धनंजया| तरी न्याय तो न्याया| हेतु होय ||३६७|| जैसा पर्जन्योदकाचा लोटु| विपायें धरी साळीचा पाटु| तो जिरे परी अचाटु| उपयोगु आथी ||३६८|| कां रोषें निघालें अवचटें| पडिलें द्वारकेचिया वाटे | तें शिणे परी सुनाटें| न वचिती पदें ||३६९|| तैसें हेतुकारण मेळें| उठी कर्म जें आंधळें| तें शास्त्राचें लाहे डोळे| तैं न्याय म्हणिपे ||३७०|| ना दूध वाढिता ठावो पावे| तंव उतोनि जाय स्वभावें| तोही वेंचु परी नव्हे| वेंचिलें तें ||३७१|| तैसें शास्त्रसाह्येंवीण| केलें नोहे जरी अकारण| तरी लागो कां नागवण| दानलेखीं ||३७२|| अगा बावन्ना वर्णांपरता| कोण मंत्रु आहे पंडुसुता| कां बावन्नही नुच्चारितां| जीवु आथी ? ||३७३|| परी मंत्राची कडसणी| जंव नेणिजे कोदंडपाणी| तंव उच्चारफळ वाणी| न पवे जेवीं ||३७४|| तेवीं कारणहेतुयोगें| जें बिसाट कर्म निगे| तें शास्त्राचिये न लगे| कांसे जंव ||३७५|| कर्म होतचि असे तेव्हांही| परी तें होणें नव्हे पाहीं| तो अन्यायो गा अन्यायीं| हेतु होय ||३७६|| तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः | पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ||१६|| एवं पंचकारणा कर्मा| पांचही हेतु हे सुमहिमा| आतां एथें पाहें पां आत्मा| सांपडला असे ? ||३७७|| भानु न होनि रूपें जैसीं| चक्षुरूपातें प्रकाशी| आत्मा न होनि कर्में तैसीं| प्रकटित असे गा ||३७८|| पैं प्रतिबिंब आरिसा| दोन्ही न होनि वीरेशा| दोहींतें प्रकाशी जैसा| न्याहाळिता तो ||३७९|| कां अहोरात्र सविता| न होनि करी पंडुसुता| तैसा आत्मा कर्मकर्ता| न होनि दावी ||३८०|| परी देहाहंमान भुली| जयाची बुद्धि देहींचि आतली| तया आत्मविषयीं जाली| मध्यरात्री गा ||३८१|| जेणें चैतन्या ईश्वरा ब्रह्मा| देहचि केलें परमसीमा| तया आत्मा कर्ता हे प्रमा| अलोट उपजे ||३८२|| आत्माचि कर्मकर्ता| हाही निश्चयो नाहीं तत्वतां| देहोचि मी कर्मकर्ता| मानितो साचे ||३८३|| जे आत्मा मी कर्मातीतु| सर्वकर्मसाक्षिभूतु| हे आपुली कहीं मातु| नायकेचि कानीं ||३८४|| म्हणौनि उमपा आत्मयातें| देहचिवरी मविजे एथें| विचित्र काई रात्रि दिवसातें| डुडुळ न करी ? ||३८५|| पैं जेणें आकाशींचा कहीं| सत्य सूर्यु देखिला नाहीं| तो थिल्लरींचें बिंब काई| मानू न लाहे ? ||३८६|| थिल्लराचेनि जालेपणें| सूर्यासि आणी होणें| त्याच्या नाशीं नाशणें| कंपें कंपू ||३८७|| आणि निद्रिस्ता चेवो नये| तंव स्वप्न साच हों लाहे| रज्जु नेणतां सापा बिहे| विस्मो कवण ? ||३८८|| जंव कवळ आथि डोळां| तंव चंद्रु देखावा कींं पिंवळा| काय मृगींहीं मृगजळा| भाळावें नाहीं ? ||३८९|| तैसा शास्त्रगुरूचेनि नांवे| जो वाराही टेंकों नेदी सिवें| केवळ मौढ्याचेनिचि जीवें| जियाला जो ||३९०|| तेणें देहात्मदृष्टीमुळें| आत्मया घापे देहाचें जाळें| जैसा अभ्राचा वेगु कोल्हें| चंद्रीं मानीं ||३९१|| मग तया मानणयासाठीं| देहबंदीशाळे किरीटी| कर्माच्या वज्रगांठी| कळासे तो ||३९२|| पाहे पां बद्ध भावना दृढा| नळियेवरी तो बापुडा| काय मोकळेयाही पायाचा चवडा| न ठकेचि पुंसा ||३९३|| म्हणौनि निर्मळा आत्मस्वरूपीं| तो प्रकृतीचें केलें आरोपी| तो कल्पकोडीच्या मापीं| मवीचि कर्में ||३९४|| आता कर्मामाजीं असे | परी तयातें कर्म न स्पर्शे| वडवानळातें जैसें| समुद्रोदक ||३९५|| तैसेंनि वेगळेपणें| जयाचें कर्मीं असणें| तो कीर वोळखावा कवणें| तरी सांगो ||३९६|| जे मुक्तातें निर्धारितां| लाभे आपलीच मुक्तता| जैसी दीपें दिसें पाहतां| आपली वस्तु ||३९७|| नातरी दर्पणु जंव उटिजे| तंव आपणपयां आपण भेटिजे| कां तोय पावतां तोय होईजे| लवणें जेंवीं ||३९८|| हें असो परतोनि मागुतें| प्रतिबिंब पाहे बिंबातें| तंव पाहणें जाउनी आयितें| बिंबचि होय ||३९९|| तैसें हारपलें आपणपें पावे| तैं संतांतें पाहतां गिंवसावें| म्हणौनि वानावे ऐकावे| तेचि सदा ||४००|| परी कर्मीं असोनि कर्में | जो नावरे समेंविषमें| चर्मचक्षूंचेनि चामें| दृष्टि जैसी ||४०१|| तैसा सोडवला जो आहे| तयाचें रूप आतां पाहें| उपपत्तीची बाहे| उभऊनि सांगों ||४०२|| यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते | हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ||१७|| तरी अविद्येचिया निदा| विश्वस्वप्नाचा हा धांदा| भोगीत होता प्रबुद्धा| अनादि जो ||४०३|| तो महावाक्याचेनि नांवें| गुरुकृपेचेनि थांवें| माथां हातु ठेविला नव्हे| थापटिला जैसा ||४०४|| तैसा विश्वस्वप्नेंसीं माया| नीद सांडूनि धनंजया| सहसा चेइला अद्वया- | नंदपणें जो ||४०५|| तेव्हां मृगजळाचे पूर| दिसते एक निरंतर| हारपती कां चंद्रकर| फांकतां जैसे ||४०६|| कां बाळत्व निघोनि जाय| तैं बागुला नाहीं त्राय| पैं जळालिया इंधन न होय| इंधन जेवीं ||४०७|| नाना चेवो आलिया पाठीं| तैं स्वप्न न दिसे दिठी| तैसी अहं ममता किरीटी| नुरेचि तया ||४०८|| मग सूर्यु आंधारालागीं| रिघो कां भलते सुरंगीं| परी तो तयाच्या भागीं| नाहींचि जैसा ||४०९|| तैसा आत्मत्वें वेष्टिला होये| तो जया जया दृश्यातें पाहें| तें दृष्य द्रष्टेपणेंसीं होत जाये| तयाचेंचि रूप ||४१०|| जैसा वन्हि जया लागे| तें वन्हिचि जालिया आंगें| दाह्यदाहकविभागें| सांडिजे तें ||४११|| तैसा कर्माकारा दुजेया| तो कर्तेपणाचा आत्मया| आळु आला तो गेलिया| कांहीं बाहीं जें उरे ||४१२|| तिये आत्मस्थितीचा जो रावो| मग तो देहीं इये जाणेल ठावो ? | काय प्रलयांबूचा उन्नाहो| वोघु मानी ? ||४१३|| तैसी ते पूर्ण अहंता| काई देहपणें पंडुसुता| आवरे काई सविता| बिंबें धरिला ? ||४१४|| पैं मथूनि लोणी घेपे| तें मागुती ताकीं घापे| तरी तें अलिप्तपणें सिंपे| तेणेंसी काई ? ||४१५|| नाना काष्ठौनि वीरेशा| वेगळा केलिया हुताशा| राहे काष्ठाचिया मांदुसा| कोंडलेपणें ? ||४१६|| कां रात्रीचिया उदराआंतु| निघाला जो हा भास्वतु| तो रात्री ऐसी मातु| ऐके कायी ? ||४१७|| तैसें वेद्य वेदकपणेंसी| पडिलें कां जयाचे ग्रासीं| तया देह मी ऐसी| अहंता कैंची ? ||४१८|| आणि आकाशें जेथें जेथुनी| जाइजे तेथ असे भरोनी| म्हणौनि ठेलें कोंदोनी| आपेंआप ||४१९|| तैसें जें तेणें करावें| तो तेंचि आहे स्वभावें| मा कोणें कर्मीं वेष्टावें| कर्तेपणें ? ||४२०|| नुरेचि गगनावीण ठावो| नोहेचि समुद्रा प्रवाहो| नुठीचि ध्रुवा जावों| तैसें जाहालें ||४२१|| ऐसेनि अहंकृतिभावो| जयाचा बोधीं जाहला वावो| तऱ्ही देहा जंव निर्वाहो| तंव आथी कर्में ||४२२|| वारा जरी वाजोनि वोसरे| तरी तो डोल रुखीं उरे| कां सेंदें द्रुति राहे कापुरें| वेंचलेनी ||४२३|| कां सरलेया गीताचा समारंभु| न वचे राहवलेपणाचा क्षोभु| भूमी लोळोनि गेलिया अंबु| वोल थारे ||४२४|| अगा मावळलेनि अर्कें| संध्येचिये भूमिके| ज्योतिदीप्ति कौतुकें| दिसे जैसी ||४२५|| पैं लक्ष भेदिलियाहीवरी| बाण धांवेचि तंववरी| जंव भरली आथी उरी| बळाची ते ||४२६|| नाना चक्रीं भांडें जालें| तें कुलालें परतें नेलें| परी भ्रमेंचि तें मागिले| भोवंडिलेपणें ||४२७|| तैसा देहाभिमानु गेलिया| देह जेणें स्वभावें धनंजया. जालें तें अपैसया| चेष्टवीच तें ||४२८|| संकल्पेंवीण स्वप्न| न लावितां दांगीचें बन| न रचितां गंधर्वभुवन| उठी जैसें ||४२९|| आत्मयाचेनि उद्यमेंवीण| तैसें देहादिपंचकारण| होय आपणयां आपण| क्रियाजात ||४३०|| पैं प्राचीनसंस्कारवशें| पांचही कारणें सहेतुकें| कामवीजती गा अनेकें| कर्माकारें ||४३१|| तया कर्मामाजीं मग| संहरो आघवें जग| अथवा नवें चांग| अनुकरो ||४३२|| परी कुमुद कैसेनि सुके| कैसें तें कमळ फांके| हीं दोन्ही रवी न देखे| जयापरी ||४३३|| कां वीजु वर्षोनि आभाळ| ठिकरिया आतो भूतळ| अथवा करूं शाड्वळ| प्रसन्नावृष्टी ||४३४|| तरी तया दोहींतें जैसें| नेणिजेचि कां आकाशें| तैसा देहींच जो असे | विदेहदृष्टी ||४३५|| तो देहादिकीं चेष्टीं| घडतां मोडतां हे सृष्टी| न देखे स्वप्न दृष्टी| चेइला जैसा ||४३६|| येऱ्हवीं चामाचे डोळेवरी| जे देखती देहचिवरी| ते कीर तो व्यापारी| ऐसेंचि मानिती ||४३७|| कां तृणाचा बाहुला| जो आगरामेरें ठेविला| तो साचचि राखता कोल्हा| मानिजे ना ? ||४३८|| पिसेंं नेसलें कां नागवें| हें लोकीं येऊनि जाणावें| ठाणोरियांचें मवावें| आणिकीं घाय ||४३९|| कां महासतीचे भोग| देखे कीर सकळ जग| परी ते आगी ना आंग| ना लोकु देखे ||४४०|| तैसा स्वस्वरूपें उठिला| जो दृश्येंसी द्रष्टा आटला| तो नेणें काय राहटला| इंद्रियग्रामु ||४४१|| अगा थोरीं कल्लोळीं कल्लोळ साने| लोपतां तिरींचेनि जनें| एकीं एक गिळिलें हें मनें| मानिजे जऱ्ही ||४४२|| तऱ्ही उदकाप्रति पाहीं| कोण ग्रसितसे काई| तैसें पूर्णा दुजें नाहीं| जें तो मारी ||४४३|| सुवर्णाचिया चंडिका| सुवर्णशूळेंचि देखा| सुवर्णाचिया महिखा| नाशु केला ||४४४|| तो देवलवसिया कडा| व्यवहारु गमला फुडा| वांचूनि शूळ महिष चामुंडा| सुवर्णचि तें ||४४५|| पैं चित्रींचें जळ हुतांशु| तो दृष्टीचाचि आभासु| पटीं आगी वोलांशु| दोन्ही नाहीं ||४४६|| मुक्ताचें देह तैसें | हालत संस्कारवशें | तें देखोनि लोक पिसे | कर्ता म्हणती ||४४७|| आणि तयां करणेया आंतु| घडो तिहीं लोकां घातु| परी तेणें केला हे मातु| बोलों नये ||४४८|| अगा अंधारुचि देखावा तेजें| मग तो फेडी हें बोलिजे| | तैसें ज्ञानिया नाहीं दुजें| जें तो मारी ||४४९|| म्हणौनि तयाचि बुद्धी| नेणे पापपुण्याची गंधी| गंगा मीनलिया नदी| विटाळु जैसा ||४५०|| आगीसी आगी झगटलिया| काय पोळे धनंजया| | कीं शस्त्र रुपे आपणया| आपणचि ||४५१|| तैसें आपणपयापरतें| जो नेणें क्रियाजातातें| तेथ काय लिंपवी बुद्धीतें| तयाचिये ||४५२|| म्हणौनि कार्य कर्ता क्रिया| हें स्वरूपचि जाहलें जया| नाहीं शरीरादिकीं तया| कर्मी बंधु ||४५३|| जे कर्ता जीव विंदाणीं| काढूनि पांचही खाणी| घडित आहे करणीं| आउतीं दाहें ||४५४|| तेथ न्यावो आणि अन्यावो| हा द्विविधु साधूनि आवो| उभविता न लवी खेंवो| कर्मभुवनें ||४५५|| या थोराडा कीर कामा| विरजा नोहे आत्मा| परी म्हणसी हन उपक्रमा| हातु लावी ||४५६|| तो साक्षी चिद्रूपु| कर्मप्रवृत्तीचा संकल्पु| उठी तो कां निरोपु| आपणचि दे ? ||४५७|| तरी कर्मप्रवृत्तीहीलागीं| तया आयासु नाहीं आंगीं| जे प्रवृत्तीचेही उळिगीं| लोकुचि आथी ||४५८|| म्हणौनि आत्मयाचें केवळ| जो रूपचि जाहला निखिळ| तया नाहीं बंदिशाळ| कर्माचि हे ||४५९|| परी अज्ञानाच्या पटीं| अन्यथा ज्ञानाचें चित्र उठी| तेथ चितारणी हे त्रिपुटी| प्रसिद्ध जे कां ||४६०|| ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना | करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ||१८|| जें ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय| हें जगाचें बीज त्रय| ते कर्माची निःसंदेह| प्रवृत्ति जाण ||४६१|| आतां ययाचि गा त्रया| व्यक्ति वेगळालिया| आइकें धनंजया| करूं रूप ||४६२|| तरी जीवसूर्यबिंबाचे| रश्मी श्रोत्रादिकें पांचें| धांवोनि विषयपद्माचे| फोडिती मढ ||४६३|| कीं जीवनृपाचे वारु उपलाणें| घेऊनि इंद्रियांचीं केकाणें| विषयदेशींचें नागवणें| आणीत जे ||४६४|| हें असो इहीं इंद्रियीं राहाटे| जें सुखदुःखेंसीं जीवा भेटे| तें सुषुप्तिकालीं वोहटे| जेथ ज्ञान ||४६५|| तया जीवा नांव ज्ञाता| आणि जें हें सांगितलें आतां| तेंचि एथ पंडुसुता| ज्ञान जाण ||४६६|| जें अविद्येचिये पोटीं| उपजतखेंवो किरीटी| आपणयातें वांटी| तिहीं ठायीं ||४६७|| आपुलिये धांवे पुढां| घालूनि ज्ञेयाचा गुंडा| उभारी मागिलीकडां| ज्ञातृत्वातें ||४६८|| मग ज्ञातया ज्ञेया दोघां| तो नांदणुकेचा बगा| माजीं जालेनि पैं गा| वाहे जेणें ||४६९|| ठाकूनि ज्ञेयाची शिंव| पुरे जयाची धांव| सकळ पदार्थां नांव| सूतसे जें ||४७०|| तें गा सामान्य ज्ञान| या बोअला नाहीं आन| ज्ञेयाचेंही चिन्ह| आइक आतां ||४७१|| तरी शब्दु स्पर्शु| रूप गंध रसु| हा पंचविध आभासु| ज्ञेयाचा तो ||४७२|| जैसें एकेचि चूतफळें| इंद्रियां वेगवेगळे| रसें वर्णें परीमळें| भेटिजे स्पर्शें ||४७३|| तैसें ज्ञेय तरी एकसरें| परी ज्ञान इंद्रियद्वारें| घे म्हणौनि प्रकारें| पांचें जालें ||४७४|| आणि समुद्रीं वोघाचें जाणें| सरे लाणीपासीं धावणें| कां फळीं सरे वाढणें| सस्याचें जेवीं ||४७५|| तैसें इंद्रियांच्या वाहवटीं| धांवतया ज्ञाना जेथ ठी| होय तें गा किरीटी| विषय ज्ञेय ||४७६|| एवं ज्ञातया ज्ञाना ज्ञेया| तिहीं रूप केलें धनंजया| हे त्रिविध सर्व क्रिया- | प्रवृत्ति जाण ||४७७|| जे शब्दादि विषय| हें पंचविध जें ज्ञेय| तेंचि प्रिय कां अप्रिय| एकेपरीचें ||४७८|| ज्ञान मोटकें ज्ञातया| दावी ना जंव धनंजया| तंव स्वीकारा कीं त्यजावया| प्रवर्तेचि तो ||४७९|| परी मीनातें देखोनि बकु| जैसा निधानातें रंकु| कां स्त्री देखोनि कामुकु| प्रवृत्ति धरी ||४८०|| जैसें खालारां धांवे पाणी| भ्रमर पुष्पाचिये घाणीं| नाना सुटला सांजवणीं| वत्सुचि पां ||४८१|| अगा स्वर्गींची उर्वशी | ऐकोनि जेंवी माणुसीं| वराता लावीजती आकाशीं| यागांचिया ||४८२|| पैं पारिवा जैसा किरीटी| चढला नभाचिये पोटीं| पारवी देखोनि लोटी| आंगचि सगळें ||४८३|| हें ना घनगर्जनासरिसा| मयूर वोवांडे आकाशा| ज्ञाता ज्ञेय देखोनि तैसा| धांवचि घे ||४८४|| म्हणौनि ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता| हे त्रिविध गा पंडुसुता| होयचि कर्मा समस्तां| प्रवृत्ति येथ ||४८५|| परी तेंचि ज्ञेय विपायें| जरी ज्ञातयातें प्रिय होये| तरी भोगावया न साहे| क्षणही विलंबु ||४८६|| नातरी अवचटें| तेंचि विरुद्ध होऊनि भेटे| तरी युगांत वाटे| सांडावया ||४८७|| व्याळा कां हारा| वरपडा जालेया नरा| हरिखु आणि दरारा| सरिसाचि उठी ||४८८|| तैसें ज्ञेय प्रियाप्रियें| देखिलेनि ज्ञातया होये| मग त्याग स्वीकारीं वाहे| व्यापारातें ||४८९|| तेथ रागी प्रतिमल्लाचा| गोसांवी सर्वदळाचा| रथु सांडूनि पायांचा| होय जैसा ||४९०|| तैसें ज्ञातेपणें जें असे | तें ये कर्ता ऐसिये दशे| जेवितें बैसलें जैसें| रंधन करूं ||४९१|| कां भंवरेंचि केला मळा| वरकलुचि जाला अंकसाळा| नाना देवो रिगाला देऊळा- | चिया कामा ||४९२|| तैसा ज्ञेयाचिया हांवा| ज्ञाता इंद्रियांचा मेळावा| राहाटवी तेथ पांडवा| कर्ता होय ||४९३|| आणि आपण होउनी कर्ता| ज्ञाना आणी करणता| तेथें ज्ञेयचि स्वभावतां| कार्य होय ||४९४|| ऐसा ज्ञानाचिये निजगति| पालटु पडे गा सुमति| डोळ्याची शोभा रातीं| पालटे जैसी ||४९५|| कां अदृष्ट जालिया उदासु| पालटे श्रीमंताचा विलासु| पुनिवेपाठीं शीतांशु| पालटे जैसा ||४९६|| तैसा चाळितां करणें| ज्ञाता वेष्टिजे कर्तेपणें| तेथींचीं तियें लक्षणें| ऐक आतां ||४९७|| तरी बुद्धि आणि मन| चित्त अहंकार हन| हें चतुर्विध चिन्ह| अंतःकरणाचें ||४९८|| बाह्य त्वचा श्रवण| चक्षु रसना घ्राण| हें पंचविध जाण| इंद्रियें गा ||४९९|| तेथ आंतुले तंव करणें| कर्ता कर्तव्या घे उमाणें| मग तैं जरी जाणें| सुखा येतें ||५००|| तरी बाहेरीलें तियेंही| चक्षुरादिकें दाहाही| उठौनि लवलाहीं| व्यापारा सूये ||५०१|| मग तो इंद्रियकदंंबु| करविजे तंव राबु| जंव कर्तव्याचा लाभु| हातासि ये ||५०२|| ना तें कर्तव्य जरी दुःखें| फळेल ऐसें देखे| तो लावी त्यागमुखें| तियें दाहाही ||५०३|| मग फिटे दुःखाचा ठावो| तंव राहाटवी रात्रिदिवो| विकणवातें कां रावो| जयापरी ||५०४|| तैसेनि त्याग स्वीकारीं| वाहातां इंद्रियांची धुरी| ज्ञातयातें अवधारीं| कर्ता म्हणिपे ||५०५|| आणि कर्तयाच्या सर्व कर्मीं| आउतांचिया परी क्षमी| म्हणौनि इंद्रियांतें आम्ही| करणें म्हणों ||५०६|| आणि हेचि करणेंवरी| कर्ता क्रिया ज्या उभारी| तिया व्यापे तें अवधारीं| कर्म एथ ||५०७|| सोनाराचिया बुद्धि लेणें| व्यापे चंद्रकरीं चांदणें| कां व्यापे वेल्हाळपणें| वेली जैसी ||५०८|| नाना प्रभा व्यापे प्रकाशु| गोडिया इक्षुरसु| हें असो अवकाशु| आकाशीं जैसा ||५०९|| तैसें कर्तयाचिया क्रिया| व्यापलें जें धनंजया| तें कर्म गा बोलावया| आन नाहीं ||५१०|| एवं कर्म कर्ता करण | या तिहींचेंही लक्षण| सांगितलें तुज विचक्षण- | शिरोमणी ||५११|| एथ ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय| हें कर्माचें प्रवृत्तित्रय| तैसेंचि कर्ता करण कार्य| हा कर्मसंचयो ||५१२|| वन्हीं ठेविला असे धूमु| आथी बीजीं जेवीं द्रुमु| कां मनीं जोडे कामु| सदा जैसा ||५१३|| तैसा कर्ता क्रिया करणीं| कर्माचें आहे जिंतवणीं| सोनें जैसें खाणी| सुवर्णाचिये ||५१४|| म्हणौनि हें कार्य मी कर्ता| ऐसें आथि जेथ पंडुसुता| तेथ आत्मा दूरी समस्ता| क्रियांपासीं ||५१५|| यालागीं पुढतपुढती| आत्मा वेगळाचि सुमती| आतां असो हे किती| जाणतासि तूं ||५१६|| ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः | प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ||१९|| परी सांगितलें जें ज्ञान| कर्म कर्ता हन| ते तिन्ही तिहीं ठायीं भिन्न| गुणीं आहाती ||५१७|| म्हणौनि ज्ञाना कर्मा कर्तया| पातेजों नये धनंजया| जे दोनी बांधती सोडावया| एकचि प्रौढ ||५१८|| तें सात्विक ठाऊवें होये| तो गुणभेदु सांगों पाहे| जो सांख्यशास्त्रीं आहे| उवाइला ||५१९|| जें विचारक्षीरसमुद्र| स्वबोधकुमुदिनीचंद्र| ज्ञानडोळसां नरेंद्र| शास्त्रांचा जें ||५२०|| कीं प्रकृतिपुरुष दोनी| मिसळलीं दिवोरजनीं| तियें निवडितां त्रिभुवनीं| मार्तंडु जें ||५२१|| जेथ अपारा मोहराशी| तत्वाच्या मापीं चोविसीं| उगाणा घेऊनि परेशीं| सुरवाडिजे ||५२२|| अर्जुना तें सांख्यशास्त्र| पढे जयाचें स्तोत्र| तें गुणभेदचरित्र| ऐसें आहे ||५२३|| जे आपुलेनि आंगिकें| त्रिविधपणाचेनि अंकें| दृश्यजात तितुकें| अंकित केलें ||५२४|| एवं सत्वरजतमा| तिहींची एवढी असे महिमा| जें त्रैविध्य आदी ब्रह्मा| अंतीं कृमी ||५२५|| परी विश्वींची आघवी मांदी| जेणें भेदलेनि गुणभेदीं| पडिली तें तंव आदी| ज्ञान सांगो ||५२६|| जे दिठी जरी चोख कीजे| तरी भलतेंही चोख सुजे| तैसें ज्ञानें शुद्धें लाहिजे| सर्वही शुद्ध ||५२७|| म्हणौनि तें सात्विक ज्ञान| आतां सांगों दे अवधान| कैवल्यगुणनिधान| श्रीकृष्ण म्हणे ||५२८|| सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते | अविभक्तं विभक्तेषु तज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ||२०|| तरी अर्जुना गा तें फुडें| सात्विक ज्ञान चोखडें| जयाच्या उदयीं ज्ञेय बुडे| ज्ञातेनिसीं ||५२९|| जैसा सूर्य न देखे अंधारें| सरिता नेणिजती सागरें| कां कवळिलिया न धरे| आत्मछाया ||५३०|| तयापरी जया ज्ञाना| शिवादि तृणावसाना| इया भूतव्यक्ति भिन्ना| नाडळती ||५३१|| जैसें हातें चित्र पाहातां| होय पाणियें मीठ धुतां| कां चेवोनि स्वप्ना येतां| जैसें होय ||५३२|| तैसें ज्ञानें जेणें| करितां ज्ञातव्यातें पाहाणें| जाणता ना जाणणें| जाणावें उरे ||५३३|| पैं सोनें आटूनि लेणीं| न काढिती आपुलिया आयणी| कां तरंग न घेपती पाणी| गाळूनि जैसें ||५३४|| तैसी जया ज्ञानाचिया हाता| न लगेचि दृश्यपथा| तें ज्ञान जाण सर्वथा| सात्विक गा ||५३५|| आरिसा पाहों जातां कोडें| जैसें पाहातेंचि कां रिगे पुढें| तैसें ज्ञेय लोटोनि पडे| ज्ञाताचि जें ||५३६|| पुढती तेंचि सात्विक ज्ञान| जें मोक्षलक्ष्मीचें भुवन| हें असो ऐक चिन्ह| राजसाचें ||५३७|| पृथक्त्वेन तु यज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् | वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ञानं विद्धि राजसम् ||२१|| तरी पार्था परीयेस| तें ज्ञान गा राजस| जें भेदाची कांस| धरूनि चाले ||५३८|| विचित्रता भूतांचिया| आपण आंतोनि ठिकरिया| बहु चकै ज्ञातया| आणिली जेणें ||५३९|| जैसें साचा रूपाआड| घालूनि विसराचें कवाड| मग स्वप्नाचें काबाड| ओपी निद्रा ||५४०|| तैसें स्वज्ञानाचिये पौळी| बाहेरि मिथ्या महीं खळीं| तिहीं अवस्थांचिया वह्याळी| दावी जें जीवा ||५४१|| अलंकारपणें झांकलें| बाळा सोनें कां वायां गेलें| तैसें नामीं रूपीं दुरावलें| अद्वैत जया ||५४२|| अवतरली गाडग्यां घडां| पृथ्वी अनोळख जाली मूढां| वन्हि जाला कानडा| दीपत्वासाठीं ||५४३|| कां वस्त्रपणाचेनि आरोपें| मूर्खाप्रति तंतु हारपे| नाना मुग्धा पटु लोपे| दाऊनि चित्र ||५४४|| तैशी जया ज्ञाना| जाणोनि भूतव्यक्ती भिन्ना| ऐक्यबोधाची भावना| निमोनि गेली ||५४५|| मग इंधनीं भेदला अनळु| फुलांवरी परीमळु| कां जळभेदें शकलु| चंद्रु जैसा ||५४६|| तैसें पदार्थभेद बहुवस| जाणोनि लहानथोर वेष| आंतलें तें राजस| ज्ञान येथ ||५४७|| आतां तामसाचेंही लिंग| सांगेन तें वोळख चांग| डावलावया मातंग- | सदन जैसें ||५४८|| यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् | अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ||२२|| तरी किरीटी जें ज्ञान| हिंडे विधीचेनि वस्त्रेंहीन| श्रुति पाठमोरी नग्न| म्हणौनि तया ||५४९|| येरींही शास्त्र बटिकरीं| जें निंदेचे विटाळवरी| बोळविलेंसे डोंगरीं| म्लेंच्छधर्माच्या ||५५०|| जें गा ज्ञान ऐसें| गुणग्रहें तामसें| घेतलें भवें पिसें| होऊनियां ||५५१|| जें सोयरिकें बाधु नेणें| पदार्थीं निषेधु न म्हणे| निरोविलें जैसें सुणें | शून्यग्रामीं ||५५२|| तया तोंडीं जें नाडळे| कां खातां जेणें पोळे| तेंचि येक वाळे| येर घेणेचि ||५५३|| पैं सोनें चोरितां उंदिरु| न म्हणे थरुविथरु| नेणे मांसखाइरु| काळें गोरें ||५५४|| नाना वनामाजीं बोहरी| कडसणी जेवीं न करी| कां जीत मेलें न विचारी| बैसतां माशी ||५५५|| अगा वांता कां वाढिलेया| साजुक कां सडलिया| विवेकु कावळिया| नाहीं जैसा ||५५६|| तैसें निषिद्ध सांडूनि द्यावें| कां विहित आदरें घ्यावें| हें विषयांचेनि नांवें. नेणेंचि जें ||५५७|| जेतुलें आड पडे दिठी| तेतुलें घेचि विषयासाठीं| मग तें स्त्री- द्रव्य वाटी | शिश्नोदरां ||५५८|| तीर्थातीर्थ हे भाख| उदकीं नाहीं सनोळख| तृषा वोळे तेंचि सुख| वांचूनियां ||५५९|| तयाचिपरी खाद्याखाद्य| न म्हणे निंद्यानिंद्य| तोंडा आवडे तें मेध्य| ऐसाचि बोधु ||५६०|| आणि स्त्रीजात तितुकें| त्वचेंद्रियेंचि वोळखे| तियेविषयीं सोयरिकें| एकचि बोधु ||५६१|| पैं स्वार्थीं जें उपकरे| तयाचि नाम सोयिरें| देहसंबंधु न सरे| जिये ज्ञानीं ||५६२|| मृत्यूचें आघवेंचि अन्न| आघवेंचि आगी इंधन| तैसें जगचि आपलें धन| तामसज्ञाना ||५६३|| ऐसेनि विश्व सकळ| जेणें विषयोचि मानिलें केवळ| तया एक जाण फळ| देहभरण ||५६४|| आकाशपतिता नीरा| जैसा सिंधुचि येक थारा| तैसें कृत्यजात उदरा- | लागिंचि बुझे ||५६५|| वांचूनि स्वर्गु नरकु आथी| तया हेतु प्रवृत्ति निवृत्ती| इये आघवियेचि राती| जाणिवेची जें ||५६६|| जें देहखंडा नाम आत्मा| ईश्वर पाषाणप्रतिमा| ययापरौती प्रमा| ढळों नेणें ||५६७|| म्हणे पडिलेनि शरीरें| केलेनिसीं आत्मा सरे| मा भोगावया उरे| कोण वेषें ||५६८|| ना ईश्वरु पाहातां आहे| तो भोगवी हें जरी होये| तरी देवचि खाये| विकूनियां ||५६९|| गांवींचें देवळेश्वर| नियामकचि होती साचार| तरी देशींचे डोंगर| उगे कां असती ? ||५७०|| ऐसा विपायें देवो मानिजे| तरी पाषाणमात्रचि जाणिजे| आणि आत्मा तंव म्हणिजे| देहातेंचि ||५७१|| येरें पापपुण्यादिकें| तें आघवेंचि करोनि लटिकें| हित मानी अग्निमुखे| चरणें जें कां ||५७२|| जें चामाचे डोळे दाविती| जें इंद्रियें गोडी लाविती| तेंचि साच हे प्रतीती| फुडी जया ||५७३|| किंबहुना ऐसी प्रथा| वाढती देखसी पार्था| धूमाची वेली वृथा| आकाशीं जैसी ||५७४|| कोरडा ना वोला| उपेगा आथी गेला| तो वाढोनि मोडला| भेंडु जैसा ||५७५|| नाना उंसांचीं कणसें| कां नपुंसकें माणुसें| वन लागलें जैसें| साबरीचें ||५७६|| नातरी बाळकाचें मन| कां चोराघरींचें धन| अथवा गळास्तन| शेळियेचे ||५७७|| तैसें जें वायाणें| वोसाळ दिसे जाणणें| तयातें मी म्हणें| तामस ज्ञान ||५७८|| तेंही ज्ञान इया भाषा| बोलिजे तो भावो ऐसा| जात्यंधाचा कां जैसा| डोळा वाडु ||५७९|| कां बधिराचे नीट कान| अपेया नाम पान| तैसें आडनांव ज्ञान| तामसा तया ||५८०|| हें असो किती बोलावें| तरी ऐसें जें देखावें| तें ज्ञान नोहे जाणावें| डोळस तम ||५८१|| एवं तिहीं गुणीं| भेदलें यथालक्षणीं| ज्ञान श्रोतेशिरोमणी| दाविलें तुज ||५८२|| आतां याचि त्रिप्रकारा| ज्ञानाचेनि धनुर्धरा| प्रकाशें होती गोचरा| कर्तयांच्या क्रिया ||५८३|| म्हणौनि कर्म पैं गा| अनुसरे तिहीं भागां| मोहरे जालिया वोघा| तोय जैसे ||५८४|| तेंचि ज्ञानत्रयवशें| त्रिविध कर्म जें असे | तेथ सात्विक तंव ऐसें| परीसे आधीं ||५८५|| नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् | अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ||२३|| तरी स्वाधिकाराचेनि मार्गेंं| आलें जें मानिलें आंगें| पतिव्रतेचेनि परीष्वंगें| प्रियातें जैसें ||५८६|| सांवळ्या आंगा चंदन| प्रमदालोचनीं अंजन| तैसें अधिकारासी मंडण| नित्यपणें जें ||५८७|| तें नित्य कर्म भलें| होय नैमित्तिकीं सावाइलें| सोनयासि जोडलें| सौरभ्य जैसें ||५८८|| आणि आंगा जीवाची संपत्ती| वेंचूनि बाळाची करी पाळती| परी जीवें उबगणें हें स्थिती| न पाहे माय ||५८९|| तैसें सर्वस्वें कर्म अनुष्ठी| परी फळ न सूये दिठी| उखिती क्रिया पैठी| ब्रह्मींचि करी ||५९०|| आणि प्रिय आलिया स्वभावें| शंबळ उरे वेंचे ठाउवें | नव्हे तैसें सत्प्रसंगें करावें| पारुषे जरी ||५९१|| तरी अकरणाचेनि खेदें| द्वेषातें जीवीं न बांधे| जालियाचेनि आनंदें| फुंजों नेणें ||५९२|| ऐसाइसिया हातवटिया| कर्म निफजे जें धनंजया| जाण सात्विक हें तया| गुणनाम गा ||५९३|| ययावरी राजसाचें| लक्षण सांगिजेल साचें| न करीं अवधानाचें| वाणेंपण ||५९४|| यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः | क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ||२४||

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