ज्ञानेश्वरी अध्याय २

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 16:16:26
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय २ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय दुसरा | साङ्ख्ययोगः | संजय उवाच | तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् | विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ||१|| मग संजयो म्हणे रायातें| आईके तो पार्थु तेथें| शोकाकुल रुदनातें| करितु असे ||१|| तें कुळ देखोनि समस्त| स्नेह उपनलें अद्भुत| तेणें द्रवलें असे चित्त| कवणेपरी ||२|| जैसें लवण जळें झळंबलें| ना तरी अभ्र वातें हाले| तैसें सधीर परी विरमलें| हृदय तयाचें ||३|| म्हणौनि कृपा आकळिला| दिसतसे अति कोमाइला| जैसा कर्दमीं रुपला| राजहंस ||४|| तयापरी तो पांडुकुमरु| महामोहें अति जर्जरु| देखोनि श्रीशारङ्गधरु| काय बोले ||५|| श्रीभगवानुवाच | कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ||२|| म्हणे अर्जुना आदि पाहीं| हें उचित काय इये ठायीं| तूं कवण हें कायी| करीत आहासी ||६|| तुज सांगे काय जाहलें| कवण उणें आलें| करितां काय ठेलें| खेदु कायिसा ||७|| तूं अनुचिता चित्त नेदिसी| धीरु कहीं न संडिसी| तुझेनि नामें अपयशी| दिशा लंघिजे ||८|| तूं शूरवृत्तीचा ठावो| क्षत्रियांमाजीं रावो| तुझिया लाठेपणाचा आवो| तिहीं लोकीं ||९|| तुवां संग्रामीं हरु जिंकिला| निवातकवचांचा ठावो फेडिला| पवाडा तुवां केला| गंधर्वांसीं ||१०|| पाहतां तुझेनि पाडें| दिसे त्रैलोक्यही थोकडें| ऐसें पुरुषत्व चोखडें| पार्था तुझें ||११|| तो तूं कीं आजि एथें| सांडूनियां वीरवृत्तीतें| अधोमुख रुदनातें| करितु आहासी ||१२|| विचारी तूं अर्जुनु| कीं कारुण्यें किजसी दीनु| सांग पां अंधकारें भानु| ग्रासिला आथी ? ||१३|| ना तरी पवनु मेघासी बिहे ? | कीं अमृतासी मरण आहे ? | पाहें पां इंधनचि गिळोनि जाये| पावकातें ? ||१४|| कीं लवणेंचि जळ विरे ? | संसर्गें काळकूट मरे ? | सांग पां महाफणी दर्दुरें| गिळिजे कायी ? ||१५|| सिंहासी झोंबे कोल्हा| ऐसा अपाडु आथि कें जाहला ? | परी तो त्वां साच केला| आजि एथ ||१६|| म्हणौनि अझुनी अर्जुना| झणें चित्त देसी या हीना| वेगीं धीर करूनियां मना| सावधु होई ||१७|| सांडीं हें मूर्खपण| उठीं घे धनुष्यबाण| संग्रामीं हें कवण| कारुण्य तुझें ? ||१८|| हां गा तूं जाणता| तरी न विचारिसी कां आतां| सांगें झुंजावेळे सदयता| उचित कायी ? ||१९|| हे असतीये कीर्तीसी नाशु| आणि पारत्रिकासी अपभ्रंशु| म्हणे जगन्निवासु| अर्जुनातें ||२०|| क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते | क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ||३|| म्हणौनि शोकु न करी| तूं पुरता धीरु धरीं| हें शोच्यता अव्हेरीं| पंडुकुमरा ||२१|| तुज नव्हे हें उचित| येणें नासेल जोडलें बहुत| तूं अझुनी वरी हित| विचारीं पां ||२२|| येणें संग्रामाचेनि अवसरें| एथ कृपाळूपण नुपकरे| हे आतांचि काय सोयरे| जाहले तुज ? ||२३|| तूं आधींचि काय नेणसी ? | कीं हे गोत्रज नोळखसी ? | वायांचि काय करिसी| अतिशो आतां ? ||२४|| आजिचें हें झुंज| काय जन्मा नवल तुज ? | हें परस्परें तुम्हां व्याज| सदांचि आथी ||२५|| तरी आतां काय जाहलें| कायि स्नेह उपनलें| हें नेणिजे परी कुडें केलें| अर्जुना तुवां ||२६|| मोहो धरिलीया ऐसें होईल| जे असती प्रतिष्ठा जाईल| आणि परलोकही अंतरेल| ऐहिकेंसी ||२७|| हृदयाचें ढिलेपण| एथ निकयासी नव्हे कारण| हें संग्रामीं पतन जाण| क्षत्रियांसीं ||२८|| ऐसेनि तो कृपावंतु| नानापरी असे शिकवितु| हें ऐकोनि पंडुसुतु| काय बोले ||२९|| अर्जुन उवाच | कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन | इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ||४|| देवा हें येतुलेवरी| बोलावें नलगे अवधारीं| आधीं तूंचि विचारीं| संग्रामु हा ||३०|| हें झुंज नव्हे प्रमादु| एथ प्रवर्तलिया दिसतसे बाधु| हा उघड लिंगभेदु| वोढवला आम्हां ||३१|| देखें मातापितरें अर्चिजती| सर्वस्वें तोषु पावविजती| तिये पाठीं केवीं वधिजती| आपुलिया हातीं ||३२|| देवा संतवृंद नमस्कारिजे| कां घडे तरी पूजिजे| हें वांचूनि केवीं निंदिजे| स्वयें वाचा ? ||३३|| तैसे गोत्रगुरु आमुचे| हे पूजनीय आम्हां नियमाचे| मज बहुत भीष्मद्रोणांचें| वर्ततसे ||३४|| जयांलागीं मनें विरूं| आम्ही स्वप्नींही न शकों धरूं| तयां प्रत्यक्ष केवीं करूं| घातु देवा ? ||३५|| वरी जळो हें जियालें| एथ आघवेयांसि हेंचि काय जाहले| जे यांच्या वधीं अभ्यासिले| मिरविजे आम्हीं ||३६|| मी पार्थु द्रोणाचा केला| येणें धनुर्वेदु मज दिधला| तेणें उपकारें काय आभारैला| वधी तयातें ? ||३७|| जेथींचिया कृपा लाहिजे वरु| तेथेंचि मनें व्यभिचारु| तरी काय मी भस्मासुरु| अर्जुन म्हणे ||३८|| गुरुनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके | हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ||५|| देवा समुद्र गंभीर आइकिजे| वरि तोहि आहाच देखिजे| परी क्षोभु मनीं नेणिजे| द्रोणाचिये ||३९|| हें अपार जें गगन| वरी तयाही होईल मान| परि अगाध भलें गहन| हृदय याचें ||४०|| वरी अमृतही विटे| कीं काळवशें वज्रही फुटे| परी मनोधर्मु न लोटे| विकरविलाही ||४१|| स्नेहालागीं माये| म्हणिपे तें कीरु होये| परी कृपा ते मूर्त आहे| द्रोणीं इये ||४२|| हा कारुण्याची आदि| सकल गुणांचा निधि| विद्यासिंधु निरवधि| अर्जुन म्हणे ||४३|| हा येणें मानें महंतु| वरी आम्हांलागीं कृपावंतु| आतां सांग पां येथ घातु| चिंतूं येईल ||४४|| ऐसे हे रणीं वधावे| मग आपण राज्यसुख भोगावें| तें मना न ये आघवें| जीवितेसीं ||४५|| हें येणें मानें दुर्धर| जे याहीहुनी भोग सधर| ते असतु येथवर| भिक्षा मागतां भली ||४६|| ना तरी देशत्यागें जाइजे| कां गिरिकंदर सेविजे| परी शस्त्र आतां न धरिजे| इयांवरी ||४७|| देवा नवनिशतीं शरीं| वावरोनी यांच्या जिव्हारीं| भोग गिंवसावे रुधिरीं| बुडाले जे ||४८|| ते काढूनि काय किजती ? | लिप्त केवी सेविजती ? | मज नये हे उपपत्ती| याचिलागीं ||४९|| ऐसें अर्जुन तिये अवसरी| म्हणे श्रीकृष्णा अवधारीं| परी तें मना नयेचि मुरारी| आइकोनियां ||५०|| हें जाणोनि पार्थु बिहाला| मग पुनरपि बोलों लागला| म्हणे देवो कां चित्त या बोला| देतीचिना ||५१|| न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः | यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ||६|| येऱ्हवीं माझ्या चित्तीं जें होतें| तें मी विचारूनि बोलिलों एथें| परी निकें काय यापरौतें| तें तुम्हीं जाणा ||५२|| पैं वीरु जयांसी ऐकिजे| आणि या बोलींचि प्राणु सांडिजे| ते एथ संग्रामव्याजें| उभे आहाती ||५३|| आतां ऐसियांतें वधावें| कीं अव्हेरूनियां निघावें| या दोहींमाजीं बरवें| तें नेणों आम्ही ||५४|| कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||७|| आम्हां काय उचित| तें पाहतां न स्फुरे एथ| जें मोहें येणें चित्त| व्याकुळ माझें ||५५|| तिमिरावरुद्ध जैसें| दृष्टीचें तेज भ्रंशे| मग पासींच असतां न दिसे| वस्तुजात ||५६|| देवा तैसें मज जाहलें| जें मन हें भ्रांती ग्रासिलें| आतां काय हित आपुलें| तेंही नेणें ||५७|| तरी श्रीकृष्णा तुवां जाणावें| निकें तें आम्हां सांगावें| जे सखा सर्वस्व आघवें| आम्हांसि तूं ||५८|| तूं गुरु बंधु पिता| तूं आमुची इष्ट देवता| तूंचि सदा रक्षिता| आपदीं आमुतें ||५९|| जैसा शिष्यांतें गुरु| सर्वथा नेणें अव्हेरु| कीं सरितांतें सागरु| त्यजीं केवी ||६०|| नातरी अपत्यांतें माये| सांडूनि जरी जाये| तरी तें कैसेंनि जिये| ऐकें कृष्णा ||६१|| तैसा सर्वांपरी आम्हांसी| देवा तूंचि एक आहासी| आणि बोलिलें जरी न मानिसी| मागील माझें ||६२|| तरी उचित काय आम्हां| जें व्यभिचरेना धर्मा| तें झडकरी पुरुषोत्तमा| सांगें आतां ||६३|| न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् | अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ||८|| हें सकळ कुळ देखोनि| जो शोकु उपनलासे मनीं| तो तुझिया वाक्यावांचुनी| न जाय आणिकें ||६४|| एथ पृथ्वीतळ आपु होईल| हें महेंद्रपदही पाविजेल| परी मोह हा न फिटेल| मानसींचा ||६५|| जैसीं बीजें सर्वथा आहाळलीं| तीं सुक्षेत्रीं जऱ्ही पेरिलीं| तरी न विरूढती सिंचिलीं| आवडे तैसीं ||६६|| ना तरी आयुष्य पुरलें आहे| तरी औषधें कांहीं नोहे| एथ एकचि उपेगा जाये| परमामृत ||६७|| तैसे राज्यभोगसमृद्धि| उज्जीवन नोहे जीव बुद्धि| एथ जिव्हाळा कृपानिधि| कारुण्य तुझें ||६८|| ऐसें अर्जुन तेथ बोलिला| जंव क्षण एक भ्रांति सांडिला| मग पुनरपि व्यापिला| उर्मी तेणें ||६९|| कीं मज पाहतां उर्मी नोहे| हें अनारिसें गमत आहे| तो ग्रासिला महामोहें| काळसर्पें ||७०|| सवर्म हृदयकल्हारीं| तेथ कारुण्यवेळेच्या भरीं| लागला म्हणोनि लहरी| भांजेचिना ? ||७१|| हें जाणोनि ऐसी प्रौढी| जो दृष्टीसवेंचि विष फेडी| तो धांवया श्रीहरी गारुडी| पातला कीं ||७२|| तैसिया पंडुकुमरा व्याकुळा| मिरवतसे श्रीकृष्ण जवळा| तो कृपावशें अवलीळा| रक्षील आतां ||७३|| म्हणोनि तो पार्थु| मोहफणिग्रस्तु| म्यां म्हणितला हा हेतु| जाणोनियां ||७४|| मग देखा तेथ फाल्गुनु| घेतला असे भ्रांती कवळूनु| जैसा घनपटळीं भानु| आच्छादिजे ||७५|| तयापरी तो धनुर्धरु| जाहलासे दुःखें जर्जरु| जैसा ग्रीष्मकाळीं गिरिवरु| वणवला कां ||७६|| म्हणोनि सहजें सुनीळु| कृपामृतें सजळु| तो वोळलासे श्रीगोपाळु| महामेघु ||७७|| तेथ सुदशनांची द्युति| तेचि विद्युल्लता झळकती| गंभीर वाचा ते आयती| गर्जनेची ||७८|| आतां तो उदार कैसा वर्षेल| तेणें अर्जुनाचळु निवेल| मग नवी विरूढी फुटेल| उन्मेषाची ||७९|| ते कथा आइका| मनाचिया आराणुका| ज्ञानदेवो म्हणे देखा| निवृत्तिदासु ||८०|| संजय उवाच | एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप | न योत्स्य इति गोविंमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ||९|| ऐसें संजयो असे सांगतु| म्हणे राया तो पार्थु| पुनरपि शोकाकुळितु| काय बोले ||८१|| आइके सखेदु बोले श्रीकृष्णातें| आतां नाळवावें तुम्हीं मातें| मी सर्वथा न झुंजें एथें| भरंवसेनी ||८२|| ऐसें येकि हेळां बोलिला| मग मौन धरूनि ठेला| तेथ श्रीकृष्णा विस्मो पातला| देखोनि तयातें ||८३|| तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत | सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||१०|| मग आपुलां चित्तीं म्हणे| एथ हें कायी आदरिलें येणें| अर्जुन सर्वथा कांहीं नेणें| काय कीजे ||८४|| हा उमजे आतां कवणेपरी| कैसेनि धीरू स्वीकारी| जैसा ग्रहातें पंचाक्षरी| अनुमानी कां ||८५|| ना तरी असाध्य देखोनि व्याधि| अमृतासम दिव्य औषधि| वैद्य सूचि निरवधि| निदानीची ||८६|| तैसे विवरीतु असे श्रीअनंतु| तया दोन्ही सैन्याआंतु| जयापरी पार्थु| भ्रांती सांडी ||८७|| तें कारण मनीं धरिलें| मग सरोष बोलों आदरिलें| जैसे मातेच्या कोपीं थोकुलें| स्नेह आथी ||८८|| कीं औषधाचिया कडुवटपणीं| जैसी अमृताची पुरवणीं| ते आहाच न दिसे परी गुणीं| प्रकट होय ||८९|| तैसीं वरिवरी पाहतां उदासें| आंत तरी अतिसुरसें| तियें वाक्यें हृषीकेशें| बोलों आदरिलीं ||९०|| श्रीभगवानुवाच | अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे | गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||११|| मग अर्जुनातें म्हणितलें| आम्हीं आजि हें नवल देखिलें| जें तुवां एथ आदरिलें| माझारींचि ||९१|| तूं जाणता तरी म्हणविसी| परी नेणिवेतें न संडिसी| आणि शिकवूं म्हणों तरी बोलसी| बहुसाल नीति ||९२|| जात्यंधा लागे पिसें| मग तें सैरा धांवे जैसें| तुझे शहाणपण तैसें| दिसतसे ||९३|| तूं आपणपें तरी नेणसी| परी या कौरवांतें शोचूं पहासी| हा बहु विस्मय आम्हांसी| पुढतपुढती ||९४|| तरी सांग पां अर्जुना| तुजपासूनि स्थिति या त्रिभुवना ? | हे अनादि विश्वरचना| तें लटके कायी ? ||९५|| एथ समर्थु एक आथी| तयापासूनि भूतें होती| तरी हें वायांचि काय बोलती| जगामाजीं ? ||९६|| हो कां सांप्रत ऐसें जाहलें| जे हे जन्ममृत्यु तुवां सृजिलें| आणि नाशु पावे नाशिलें| तुझेनि कायी ||९७|| तूं भ्रमलेपणें अहंकृती| यांसि घातु न धरिसी चित्तीं| तरी सांगें कायि हे होती| चिरंतन ||९८|| कीं तूं एक वधिता| आणि सकळ लोकु हा मरता| ऐसी भ्रांति झणें चित्ता| येवों देसी ||९९|| अनादिसिद्ध हें आघवें| होत जात स्वभावें| तरी तुवां कां शोचावें| सांगें मज ||१००|| परी मूर्खपणें नेणसी| न चिंतावें तें चिंतीसी| आणि तूंचि नीति सांगसी| आम्हांप्रति ||१०१|| देखैं विवेकी जे होती| ते दोहीतेंहीं न शोचिती| जे होय जाय हे भ्रांती| म्हणौनियां ||१०२|| न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः | न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||१२|| अर्जुना सांगेन आइक| एथ आम्ही तुम्ही देख| आणि हे भूपति अशेख| आदिकरुनी ||१०३|| नित्यता ऐसेचि असोनी| ना तरी निश्चित क्षया जाउनी| हे भ्रांति वेगळी करुनी| दोन्ही नाहीं ||१०४|| हे उपजे आणि नाशे| तें मायावशें दिसे| एऱ्हवीं तत्त्वता वस्तु जें असे| तें अविनाशचि ||१०५|| जैसें पवनें तोय हालविलें| आणि तरंगाकार जाहलें| तरी कवण कें जन्मलें| म्हणों ये तेथ ? ||१०६|| तेंचि वायूचें स्फुरण ठेलें| आणि उदक सहज सपाट जाहलें| तरी आतां काय निमालें| विचारीं पां ||१०७|| देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा | तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||१३|| आइकें शरीर तरी एक| परी वयसा भेद अनेक| हें प्रत्यक्षचि देख| प्रमाण तूं ||१०८|| एथ कौमारत्व दिसे| मग तारुण्यीं तें भ्रंशे| परी देहचि हा न नाशे| एकेकासवें ||१०९|| तैसीं चैतन्याच्या ठायीं| इयें शरीरांतरें होती जाती पाहीं| ऐसें जाणे तया नाहीं| व्यामोहदुःख ||११०|| मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा | आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||१४||%Sh एथ कौमारत्व दिसे| मग तारुण्यीं तें भ्रंशे| परी देहचि हा न नाशे| एकेकासवें ||१०९|| तैसीं चैतन्याच्या ठायीं| इयें शरीरांतरें होती जाती पाहीं| ऐसें जाणे तया नाहीं| व्यामोहदुःख ||११०|| एथ नेणावया हेंचि कारण| जें इंद्रियां आधीनपण| तिहीं आकळिजे अंतःकरण| म्हणऊनि भ्रमे ||१११|| इंद्रियें विषय सेविती| तेथ हर्ष शोक उपजती| ते अंतर आप्लविती| संगें येणें ||११२|| जयां विषयांच्या ठायीं| एकनिष्ठता कहीं नाहीं| तेथ दुःख आणि कांहीं| सुखही दिसे ||११३|| देखें शब्दाचि व्याप्ति| निंदा आणि स्तुति| तेथ द्वेषाद्वेष उपजती| श्रवणद्वारें ||११४|| मृदु आणि कठीण| हे स्पर्शाचे दोन्ही गुण| जे वपूचेनि संगें कारण| संतोषखेदां ||११५|| भ्यासुर आणि सुरेख| हें रूपाचें स्वरूप देख| जें उपजवी सुखदुःख| नेत्रद्वारें ||११६|| सुगंधु आणि दुर्गंधु| हा परिमळाचा भेदु| जो घ्राणसंगें विषादु| तोषु देता ||११७|| तैसाचि द्विविध रसु| उपजवी प्रीति त्रासु| म्हणौनि हा अपभ्रंशु| विषयसंगु ||११८|| देखें इंद्रियां आधीन होईजे| तैं शीतोष्णांतें पाविजे| आणि सुखदुःखीं आकळिजे| आपणपें ||११९|| या विषयांवांचूनि कांहीं| आणीक सर्वथा रम्य नाहीं| ऐसा स्वभावोचि पाहीं| इंद्रियांचा ||१२०|| हे विषय तरी कैसे| रोहिणीचें जळ जैसें| कां स्वप्नींचा आभासे| भद्रजाति ||१२१|| देखैं अनित्य तियापरी| म्हणौनि तूं अव्हेरीं| हा सर्वथा संगु न धरीं| धनुर्धरा ||१२२|| यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ | समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||१५||%Sh हे विषय जयातें नाकळिती| तया सुखदुःखें दोनी न पवती| आणि गर्भवासुसंगती| नाहीं तया ||१२३|| तो नित्यरूप पार्था| वोळखावा सर्वथा| जो या इंद्रियार्था| नागवेचि ||१२४|| नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः | उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||१६||%Sh आतां अर्जुना कांहीं एक| सांगेन मी आईक| जे विचारपर लोक| वोळखिती ||१२५|| या उपाधिमाजीं गुप्त| चैतन्य असे सर्वगत| तें तत्त्वज्ञ संत| स्वीकारिती ||१२६|| सलिलीं पय जैसें| एक होऊनि मीनलें असे| परी निवडूनि राजहंसें| वेगळें कीजे ||१२७|| कीं अग्निमुखें किडाळ| तोडोनियां चोखाळ| निवडिती केवळ| बुद्धिमंत ||१२८|| ना तरी जाणिवेच्या आयणी| करितां दधिकडसणी| मग नवनीत निर्वाणीं| दिसे जैसें ||१२९|| कीं भूस बीज एकवट| उपणितां राहे घनवट| तेथ उडे तें फलकट| जाणों आलें ||१३०|| तैसें विचारितां निरसलें| तें प्रपंचु सहजें सांडवलें| मग तत्त्वता तत्त्व उरलें| ज्ञानियांसि ||१३१|| म्हणौनि अनित्याच्या ठायीं| तयां आस्तिक्यबुद्धि नाहीं| निष्कर्षु दोहींही| देखिला असे ||१३२|| अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् | विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||१७|| देखें सारासार विचारितां| भ्रांति ते पाहीं असारता| तरी सार तें स्वभावता| नित्य जाणें ||१३३|| हा लोकत्रयाकारु| तो जयाचा विस्तारु| तेथ नाम वर्ण आकारु| चिन्ह नाहीं ||१३४|| जो सर्वदा सर्वगतु| जन्मक्षयातीतु| तया केलियाहि घातु| कदा नोहे ||१३५|| अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः | अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||१८|| आणि शरीरजात आघवें| हें नाशिवंत स्वभावें| म्हणौनि तुवां झुंजावें| पंडुकुमरा ||१३६|| य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् | उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||१९|| तूं धरूनि देहाभिमानातें| दिठी सूनि शरीरातें| मी मारिता हे मरते| म्हणतु आहासी ||१३७|| तरी अर्जुना तूं हें नेणसी| जरी तत्त्वता विचारिसी| तरी वधिता तूं नव्हेसी| हे वध्य नव्हती ||१३८|| न जायते म्र्यिते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||२०|| वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् | कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||२१|| जैसें स्वप्नामाजीं देखिजे| तें स्वप्नींचि साच आपजे| मग चेऊनियां पाहिजे| तंव कांहीं नाहीं ||१३९|| तैसी हे जाण माया| तूं भ्रमतु आहासी वायां| शस्त्रें हाणितलिया छाया| जैसी आंगीं न रुपे ||१४०|| कां पूर्ण कुंभ उलंडला| तेथ बिंबाकारु दिसे भ्रंशला| परी भानु नाहीं नासला| तयासवें ||१४१|| ना तरी मठीं आकाश जैसें| मठाकृती अवतरलें असे| तो भंगलिया आपैसें| स्वरूपचि ||१४२|| तैसें शरीराच्या लोपीं| सर्वथा नाशु नाहीं स्वरूपीं| म्हणौनि तू हें नारोपी| भ्रांति बापा ||१४३|| वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२२|| जैसें जीर्ण वस्त्र सांडिजे| मग नूतन वेढिजे| तैसें देहांतरातें स्वीकारिजे| चैतन्यनाथें ||१४४|| नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||२३|| अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च | नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ||२४|| हा अनादि नित्यसिद्धु| निरुपाधि विशुद्धु| म्हणौनि शस्त्रादिकीं छेदु| न घडे यया ||१४५|| हा प्रळयोदकें नाप्लवे| अग्निदाहो न संभवे| एथ महाशोषु न प्रभवे| मारुताचा ||१४६|| अर्जुना हा नित्यु| अचळु हा शाश्वतु| सर्वत्र सदोदितु| परिपूर्णु हा ||१४७|| अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते | तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||२५||%Sh हा तर्काचिये दिठी| गोचर नोहे किरीटी| ध्यान याचिये भेटी| उत्कंठा वाहे ||१४८|| हा सदा दुर्लभु मना| आपु नोहे साधना| निःसीमु हा अर्जुना| पुरुषोत्तमु ||१४९|| हा गुणत्रयरहितु| अनादि अविकृतु| व्यक्तीसी अतीतु| सर्वरूप ||१५०|| अर्जुना ऐसा हा जाणावा| सकळात्मकु देखावा| मग सहजें शोकु आघवा| हरेल तुझा ||१५१|| अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् | तथापि त्वं महाबाहो नैवं शौचितुमर्हसि ||२६||%Sh अथवा ऐसा नेणसी| तूं अंतवंतचि मानिसी| तऱ्ही शोचूं न पवसी| पंडुकुमरा ||१५२|| जो आदि स्थिति अंतु| हा निरंतर असे नित्यु| जैसा प्रवाहो अनुस्यूतु| गंगाजळाचा ||१५३|| तें आदि नाहीं खंडलें| समुद्रीं तरी असे मीनलें| आणि जातचि मध्यें उरलें| दिसे जैसें ||१५४|| इयें तिन्ही तयापरी| सरसींच सदा अवधारीं| भूतांसी कवणीं अवसरीं| ठाकती ना ||१५५|| म्हणौनि हें आघवें| एथ तुज नलगे शोचावें| जे स्थितीचि हे स्वभावें| अनादि ऐसी ||१५६|| ना तरी हें अर्जुना| नयेचि तुझिया मना| जे देखोनि लोकु अधीना| जन्मक्षया ||१५७|| तरी एथ कांहीं| तुज शोकासि कारण नाहीं| हे जन्ममृत्यु पाहीं| अपरिहर ||१५८|| जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च | तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||२७||%Sh उपजे तें नाशे| नाशलें पुनरपि दिसे| हें घटिकायंत्र जैसें| परिभ्रमे गा ||१५९|| ना तरी उदो अस्तु आपैसें| अखंडित होत जात जैसें| हें जन्ममरण तैसें| अनिवार जगीं ||१६०|| महाप्रळयावसरें| हें त्रैलोक्यहि संहरे| म्हणौनि हा न परिहरे| आदि अंतु ||१६१|| तूं जरी हें ऐसें मानिसी| तरी खेदु कां करिसी ? | काय जाणतुचि नेणसी| धनुर्धरा ||१६२|| एथ आणीकही एक पार्था| तुज बहुतीं परी पहातां| दुःख करावया सर्वथा| विषो नाहीं ||१६३|| अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत | अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ||२८||%Sh जियें समस्तें इयें भूतें| जन्माआदि अमूर्तें| मग पातली व्यक्तीतें| जन्मलेया ||१६४|| तियें क्षयासि जेथ जाती| तेथ निभ्रांत आनें नव्हती| देखें पूर्वस्थितीच येती| आपुलिये ||१६५|| येर मध्यें जें प्रतिभासे| तें निद्रिता स्वप्न जैसें| तैसा आकारु हा मायवशें| तत्स्वरूपीं ||१६६|| ना तरी पवनें स्पर्शिलें नीर| पढियासे तरंगाकार| कां परापेक्षां अळंकार| व्यक्ती कनकीं ||१६७|| तैसे सकळ हें मूर्त| जाण पां मायाकारित| जैसें आकाशीं बिंबत| अभ्रपटल ||१६८|| तैसें आदीचि जें नाहीं| तयालागीं तूं रुदसी कायी| तूं अवीट तें पाहीं| चैतन्य एक ||१६९|| जयाचि आर्तीचि भोगित| विषयीं त्यजिले संत| जयालागीं विरक्त| वनवासिये ||१७०|| दिठी सूनि जयातें| ब्रह्मचर्यादि व्रतें| मुनीश्वर तपातें| आचरताती ||१७१|| आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः | आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रुणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||२९||%Sh एक अंतरीं निश्चळ| जें निहाळितां केवळ| विसरले सकळ| संसारजात ||१७२|| एकां गुणानुवादु करितां| उपरति होऊन चित्ता| निरवधि तल्लीनता| निरंतर ||१७३|| एक ऐकतांचि निवाले| ते देहभावी सांडिले| एक अनुभवें पातले| तद्रूपता ||१७४|| जैसे सरिता ओघ समस्त| समुद्रामाजीं मिळत| परी माघौते न समात| परतले नाहीं ||१७५|| तैसिया योगीश्वरांचिया मती| मिळवणीसवें एकवटती| परी जे विचारूनि पुनरावृत्ति| भजतीचिना ||१७६|| देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत | तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ||३०||%Sh जें सर्वत्र सर्वही देहीं| जया करितांही घातु नाहीं| तें विश्वात्मक तूं पाहीं| चैतन्य एक ||१७७|| जयाचेनि स्वभावें| हें होत जात आघवें| तरी सांग काय शोचावें| एथ तुवां ||१७८|| एऱ्हवीं तरी पार्था| तुज कां नेणों न मनें चित्ता| परी किडाळ हें शोचितां| बहुतीं परीं ||१७९|| स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि | धर्माद्धि युद्धाच्छेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ||३१|| तूं अझुनी कां न विचारिसी| काय हें चिंतितु आहासी| स्वधर्मु तो विसरलासी| तरावें जेणें ||१८०|| या कौरवां भलतें जाहलें| अथवा तुजचि कांहीं पातलें| कीं युगचि हें बुडालें| जऱ्ही एथ ||१८१|| तरी स्वधर्मु एकु आहे| तो सर्वथा त्याज्य नोहे| मग तरिजेल काय पाहें| कृपाळूपणें ||१८२|| अर्जुना तुझें चित्त| जऱ्ही जाहलें द्रवीभूत| तऱ्ही हें अनुचित| संग्रामसमयीं ||१८३|| अगा गोक्षीर जरी जाहलें| तरी पथ्यासि नाहीं म्हणितलें| ऐसेनिहि विष होय सुदलें| नवज्वरीं देतां ||१८४|| तैसें आनी आन करितां| नाशु होईल हिता| म्हणौनि तूं आतां| सावध होई ||१८५|| वायांचि व्याकुळ कायी| आपुला निजधर्मु पाहीं| जो आचरितां बाधु नाहीं| कवणें काळीं ||१८६|| जैसें मार्गेंचि चालतां| अपावो न पवे सर्वथा| कां दीपाधारें वर्ततां| नाडळिजे ||१८७|| तयापरी पार्था| स्वधर्में राहाटतां| सकळ कामपूर्णता| सहजें होय ||१८८|| म्हणौनि यालागीं पाहीं| तुम्हां क्षत्रियां आणीक कांहीं| संग्रामावांचूनि नाहीं| उचित जाणें ||१८९|| निष्कपटा होआवें| उसिणा घाई झुंजावें| हें असो काय सांगावें| प्रत्यक्षावरी ||१९०|| यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् | सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ||३२|| अर्जुना झुंज देखें आतांचें| हें हो कां जें दैव तुमचें| कीं निधान सकळ धर्माचें| प्रगटलें असे ||१९१|| हा संग्रामु काय म्हणिपे| कीं स्वर्गुचि येणें रूपें| मूर्त कां प्रतापें| उदो केला ||१९२|| ना तरी गुणाचेनि पतिकरें| आर्तीचेनि पडिभरें| हें कीर्तीचि स्वयंवरें| आली तुज ||१९३|| क्षत्रियें बहुत पुण्य कीजे| तैं झुंज ऐसें लाहिजे| जैसें मार्गें जातां आडळिजे| चिंतामणि ||१९४|| ना तरी जांभया पसरे मुख| तेथ अवचटें पडे पीयूख| तैसा संग्रामु हा देख| पातला असे ||१९५|| अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि | ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ||३३|| आतां हा ऐसा अव्हेरिजे| मग नाथिलें शोचूं बैसिजे| तरी आपण आहाणा होईजे| आपणपेयां ||१९६|| पूर्वजांचें जोडलें| आपणचि होय धाडिलें| जरी आजि शस्त्र सांडिलें| रणीं इये ||१९७|| असती कीर्ति जाईल| जगचि अभिशापु देईल| आणि गिंवसित पावतील| महादोष ||१९८|| जैसीं भातारेंहीन वनिता| उपहती पावे सर्वथा| तैशी दशा जीविता| स्वधर्मेंवीण ||१९९|| ना तरी रणीं शव सांडिजे| तें चौमेरी गिधीं विदारिजे| तैसें स्वधर्महीना अभिभविजे| महादोषीं ||२००|| अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् | संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ||३४|| म्हणौनि स्वधर्मु हा सांडसील| पापा वरपडा होसील| आणि अपेश तें न वचेल| कल्पांतवरी ||२०१|| जाणतेनि तंवचि जियावें| जंव अपकीर्ति आंगा न पवे| आणि सांग पां केवीं निगावें| एथोनियां ? ||२०२|| तू निर्मत्सर सदयता| येथूनि निघसील कीर माघौता| परी ते गती समस्तां| न मनेल ययां ||२०३|| हे चहूंकडूनि वेढितील| बाणवरी घेतील| तेथ पार्था न सुटिजेल| कृपाळुपणें ||२०४|| ऐसेनिहि प्राणसंकटें| जरी विपायें पां निघणें घटे| तरी तें जियालेंही वोखटें| मरणाहुनी ||२०५|| भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः | येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ||३५|| तूं आणिकही एक न विचारिसी| एथ संभ्रमें झुंजों आलासी| आणि सकणवपणें निघालासी| मागुता जरी ||२०६|| तरी तुझें तें अर्जुना| या वैरियां दुर्जनां| कां प्रत्यया येईल मना| सांगैं मज ||२०७|| अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः | निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ||३६|| हे म्हणती गेला रे गेला| अर्जुन आम्हां बिहाला| हा सांगैं बोलु उरला| निका कायी ? ||२०८|| लोक सायासें करूनि बहुतें| कां वेंचिती आपुलीं जीवितें| परी वाढविती कीर्तीतें| धनुर्धरा ||२०९|| ते तुज अनायासें| अनकळित जोडिली असे| हें अद्वितीय जैसें| गगन आहे ||२१०|| तैसी कीर्ती निःसीम| तुझ्या ठायीं निरुपम| तुझे गुण उत्तम| तिहीं लोकीं ||२११|| दिगंतीचे भूपति| भाट होऊनि वाखाणिती| जे ऐकिलिया दचकती| कृतांतादिक ||२१२|| ऐसी महिमा घनवट| गंगा जैसी चोखट| जया देखीं जगीं सुभट| वाट जाहली ||२१३|| तें पौरुष तुझें अद्भुत| आइकोनियां हे समस्त| जाहले आथि विरक्त| जीवितेंसी ||२१४|| जैसा सिंहाचिया हाकां| युगांतु होय मदमुखा| तैसा कौरवां अशेखां| धाकु तुझा ||२१५|| जैसे पर्वत वज्रातें| ना तरी सर्प गरुडातें| तैसे अर्जुना हे तूतें| मानिती सदा ||२१६|| तें अगाधपण जाईल| मग हीणावो अंगा येईल| जरी मागुता निघसील| न झुंजतुचि ||२१७|| आणि हे पळतां पळों नेदिती| धरूनिं अवकळा करिती| न गणित कुटी बोलती| आइकतां तुज ||२१८|| मग ते वेळीं हियें फुटावें| आतां लाठेपणें कां न झुजावें ? | हे जिंतलें तरी भोगावें| महीतळ ||२१९|| हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् | तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ||३७|| ना तरी रणीं एथ| झुंजतां वेंचलें जीवित| तरी स्वर्गसुख अनकळित| पावसील ||२२०|| म्हणौनि ये गोठी| विचारु न करी किरीटी| आतां धनुष्य घेऊनि उठीं| झुंजैं वेगीं ||२१|| ना तरी रणीं एथ| झुंजतां वेंचलें जीवित| तरी स्वर्गसुख अनकळित| पावसील ||२२०|| म्हणौनि ये गोठी| विचारु न करी किरीटी| आतां धनुष्य घेऊनि उठीं| झुंजैं वेगीं ||२२१|| देखैं स्वधर्मु हा आचरतां| दोषु नाशे असता| तुज भ्रांति हे कवण चित्ता| पातकाची ||२२२|| सांगैं प्लवेंचि काय बुडिजे| कां मार्गीं जातां आडळिजे| परी विपायें चालों नेणिजे| तरी तेंही घडे ||२२३|| अमृतें तरीच मरिजे| जरी विखेंसि सेविजे| तैसा स्वधर्मीं दोषु पाविजे| हेतुकपणें ||२२४|| म्हणौनियां पार्था| हेतू सांडोनि सर्वथा| तुज क्षात्रवृत्ति झुंजतां| पाप नाहीं ||२२५|| सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ | ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||३८|| सुखीं संतोषां न यावें| दुःखीं विषादा न भजावें| आणि लाभालाभ न धरावे| मनामाजीं ||२२६|| एथ विजयपण होईल| कीं सर्वथा देह जाईल| हें आधींचि कांही पुढील| चिंतावेना ||२२७|| आपणयां उचिता| स्वधर्में राहाटतां| जें पावे तें निवांता| साहोनि जावें ||२२८|| ऐसियां मनें होआवें| तरी दोषु न घडे स्वभावें| म्हणौनि आतां झुंजावें| निभ्रांत तुवां ||२२९|| एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु | बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ||३९|| हे सांख्यस्थिति मुकुळित| सांगितली तुज येथ| आतां बुद्धियोगु निश्चित| अवधारीं पां ||२३०|| जया बुद्धियुक्ता| जाहलिया पार्था| कर्मबंधु सर्वथा| बाधूं न पवे ||२३१|| जैसें वज्रकवच लेइजे| मग शस्त्रांचा वर्षावो साहिजे| परी जैतेसीं उरिजे| अचुंबित ||२३२|| नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||४०||%Sh तैसें ऐहिक तरी न नशे| आणि मोक्षु तो उरला असे| जेथ पूर्वानुक्रमु दिसे| चोखाळत ||२३३|| कर्माधारें राहाटिजे| परी कर्मफळ न निरीक्षिजे| जैसा मंत्रज्ञु न बंधिजे| भूतबाधा ||२३४|| तियापरी जे सुबुद्धि| आपुलालिया निरवधि| हा असतांचि उपाधि| आकळूं न सके ||२३५|| जेथ न संचरे पुण्यपाप| जें सूक्ष्म अति निष्कंप| गुणत्रयादि लेप| न लगती जेथ ||२३६|| अर्जुना तें पुण्यवशें| जरी अल्पचि हृदयीं बुद्धि प्रकाशे| तरी अशेषही नाशे| संसारभय ||२३७|| व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन | बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ||४१||%Sh जैसी दीपकळिका धाकुटी| परी बहु तेजातें प्रकटी| तैसी सद्बुद्धी हे थेकुटी| म्हणों नये ||२३८|| पार्था बहुतीं परी| हे अपेक्षिजे विचारशूरीं| जे दुर्लभ चराचरीं| सद्वासना ||२३९|| आणिकासारिखा बहुवसु| जैसा न जोडे परिसु| कां अमृताचा लेशु| दैवगुणें ||२४०|| तैसी दुर्लभ जे सद्बुद्धि| जिये परमात्माचि अवधि| जैसा गंगेसी उदधि| निरंतर ||२४१|| तैसें ईश्वरावाचुंनी कांहीं| जिये आणीक लाणी नाहीं| ते एकचि बुद्धि पाहीं| अर्जुना जगीं ||२४२|| येर ते दुर्मति| जे बहुधा असे विकरति| तेथ निरंतर रमती| अविवेकिये ||२४३|| म्हणौनि तयां पार्था| स्वर्ग संसार नरकावस्था| आत्मसुख सर्वथा| दृष्ट नाहीं ||२४४|| यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः | वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ||४२|| कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् | क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ||४३|| भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||४४|| वेदाधारें बोलती| केवळ कर्म प्रतिष्ठिती| परी कर्मफळीं आसक्ती| धरूनियां ||२४५|| म्हणती संसारीं जन्मिजे| यज्ञादिक कर्म कीजे| मग स्वर्गसुख भोगिजे| मनोहर ||२४६|| येथ हें वांचूनि कांहीं| आणिक सर्वथा सुखचि नाहीं| ऐसें अर्जुना बोलती पाहीं| दुर्बुद्धि ते ||२४७|| देखैं कामना अभिभूत| होऊनि कर्में आचरत| ते केवळ भोगीं चित्त| देऊनियां ||२४८|| क्रियाविशेषें बहुतें| न लोपिती विधीतें| निपुण होऊन धर्मातें| अनुष्ठिती ||२४९|| परी एकचि कुडें करितीं| जे स्वर्गकामु मनीं धरिती| यज्ञपुरुषा चुकती| भोक्ता जो ||२५०|| जैसा कर्पूराचा राशी कीजे| मग अग्नि लाऊन दीजे| कां मिष्टान्नीं संचरविजे| काळकूट ||२५१|| दैवें अमृतकुंभ जोडला| तो पायें हाणोनि उलंडिला| तैसा नासिती धर्मु निपजला| हेतुकपणें ||२५२|| सायासें पुण्य अर्जिजे| मग संसारु कां अपेक्षिजे ? | परी नेणती ते काय कीजे| अप्राप्य देखें ||२५३|| जैसी रांधवणी रससोय निकी| करूनियां मोलें विकी| तैसा भोगासाठीं अविवेकी| धाडिती धर्मु ||२५४|| म्हणोनि हे पार्था| दुर्बुद्धि देख सर्वथा| तया वेदवादरतां| मनीं वसे ||२५५|| त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वंद्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||४५||%Sh तिन्हीं गुणीं आवृत| हे वेद जाणैं निभ्रांत| म्हणौनि उपनिषदादि समस्त| सात्विक तें ||२५६|| येर रजतमात्मक| जेथ निरूपिजे कर्मादिक| जे केवळ स्वर्गसूचक| धनुर्धरा ||२५७|| म्हणौनि तूं जाण| हे सुखदुःखांसीच कारण| एथ झणें अंतःकरण| रिगों देसी ||२५८|| तूं गुणत्रयातें अव्हेरीं| मी माझें हें न करीं| एक आत्मसुख अंतरीं| विसंब झणीं ||२५९|| यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके | तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ||४६||%Sh जरी वेदें बहुत बोलिलें| विविध भेद सूचिले| तऱ्ही आपण हित आपुलें| तेंचि घेपें ||२६०|| जैसा प्रगटलिया गभस्ती| अशेषही मार्ग दिसती| तरी तेतुलेहि काय चालिजती| सांगैं मज ||२६१|| कां उदकमय सकळ| जऱ्ही जाहले असें महीतळ| तरी आपण घेपें केवळ| आर्तीचिजोगें ||२६२|| तैसें ज्ञानीये जे होती| ते वेदार्थातें विवरिती| मग अपेक्षित तें स्वीकारिती| शाश्वत जें ||२६३|| कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन | मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||४७||%Sh म्हणोनि आइकें पार्था| याचिपरी पाहतां| तुज उचित होय आतां| स्वकर्म हें ||२६४|| आम्हीं समस्तही विचारिलें| तंव ऐसेचि हें मना आलें| जें न सांडिजे तुवां आपुलें| विहित कर्म ||२६५|| परी कर्मफळीं आस न करावी| आणि कुकर्मीं संगति न व्हावी| हे सत्क्रियाचि आचरावी| हेतूविण ||२६६|| योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गंत्यक्त्वा धनंजय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||४८||%Sh तूं योगयुक्त होऊनी| फळाचा संगु टाकुनी| मग अर्जुना चित्त देउनी| करीं कर्में ||२६७|| परी आदरिलें कर्म दैवें| जरी समाप्तीतें पावे| तरी विशेषें तेथ तोषावें| हेंही नको ||२६८|| कीं निमित्तें कोणें एकें| तें सिद्धी न वचतां ठाके| तरी तेथिंचेनि अपरितोखें| क्षोभावें ना ||२६९|| आचरतां सिद्धी गेलें| तरी काजाची कीर आलें| परी ठेलियाही सगुण जहालें| ऐसेंचि मानीं ||२७०|| देखैं जेतुलालें कर्म निपजे| तेतुलें आदिपुरुषीं अर्पिजे| तरी परिपूर्ण सहजें| जहालें जाणैं ||२७१|| देखैं संतासंतकर्मीं| हें जें सरिसेंपण मनोधर्मीं| तेचि योगस्थिति उत्तमीं| प्रशंसिजे ||२७२|| दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय | बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||४९||%Sh बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते | तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||५०||%Sh अर्जुना समत्व चित्ताचें| तेंचि सार जाणैं योगाचें| जेथ मन आणि बुद्धीचें| ऐक्य आथी ||२७३|| तो बुद्धियोग विवरितां| बहुतें पाडें पार्था| दिसे हा अरुता| कर्मभागु ||२७४|| परी तेंचि कर्म आचरिजे| तरीच हा योगु पाविजे| जें कर्मशेष सहजें| योगस्थिति ||२७५|| म्हणौनि बुद्धियोगु सधरु| तेथ अर्जुना होई स्थिरु| मनें करीं अव्हेरु| फलहेतूचा ||२७६|| जे बुद्धियोगा योजिले| तेचि पारंगत जाहले| इहीं उभयबंधीं सांडिले| पापपुण्यीं ||२७७|| कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः | जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||५१||%Sh ते कर्मीं तरी वर्तती| परी कर्मफळा नातळती| आणि यातायाति न लोपती| अर्जुना तयां ||२७८|| मग निरामयभरित| पावती पद अच्युत| ते बुद्धियोगयुक्त| धनुर्धरा ||२७९|| यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति | तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||५२||%Sh तूं ऐसा तैं होसी| जैं मोहातें यया सांडिसी| आणि वैराग्य मानसीं| संचरैल ||२८०|| मग निष्कळंक गहन| उपजेल आत्मज्ञान| तेणें निचाडें होईल मन| अपैसें तुझें ||२८१|| तेथ आणिक कांहीं जाणावें| कां मागिलातें स्मरावें| हें अर्जुना आघवें| पारुषेल ||२८२|| श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला | समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||५३||%Sh इंद्रियांचिया संगति| जिये पसरु होतसे मति| ते स्थिर होईल मागुती| आत्मस्वरूपीं ||२८३|| समाधिसुखीं केवळ| जैं बुद्धि होईल निश्चळ| तैं पावसी तूं सकळ| योगस्थिति ||२८४|| अर्जुन उवाच | स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव | स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ||५४|| तेथ अर्जुन म्हणे देवा| हाचि अभिप्रावो आघवा| मी पुसेन आतां सांगावा| कृपानिधी ||२८५|| मग अच्युत म्हणे सुखें| जें किरीटी तुज निकें| तें पूस पां उन्मेखें| मनाचेनि ||२८६|| या बोला पार्थें| म्हणितलें सांग पां श्रीकृष्णातें| काय म्हणिपें स्थितप्रज्ञातें| वोळखों केवीं ||२८७|| आणि स्थिरबुद्धि जो म्हणिजे| तो कैसिया चिन्हीं जाणिजे| जो समाधिसुख भुंजे| अखंडित ||२८८|| तो कवणें स्थिती असे| कैसेनि रूपीं विलसे| देवा सांगावें हें ऐसें| लक्ष्मीपती ||२८९|| तंव परब्रह्म अवतरणु| जो षडगुणाधिकरणु| तो काय तेथ नारायणु| बोलतु असे ||२९०|| श्रीभगवानुवाच | प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् | आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||५५|| म्हणे अर्जुना परियेसीं| जो हा अभिलाषु प्रौढ मानसीं| तो अंतराय स्वसुखेंसीं| करीतु असे ||२९१|| जो सर्वदा नित्यतृप्तु| अंतःकरण भरितु| परी विषयामाजीं पतितु| जेणें संगें कीजे ||२९२|| तो कामु सर्वथा जाये| जयाचें आत्मतोषीं मन राहे| तोचि स्थितप्रज्ञु होये| पुरुष जाणैं ||२९३|| दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः | वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ||५६||%Sh नाना दुःखीं प्राप्तीं| जयासी उद्वेगु नाहीं चित्तीं| आणि सुखाचिया आर्ती| अडपैजेना ||२९४|| अर्जुना तयाच्या ठायीं| कामक्रोधु सहजें नाहीं| आणि भयातें नेणें कहीं| परिपूर्णु तो ||२९५|| ऐसा जो निरवधि| तो जाण पां स्थिरबुद्धि| जो निरसूनि उपाधि| भेदरहितु ||२९६|| यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् | नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||५७||%Sh जो सर्वत्र सदा सरिसा| परिपूर्णु चंद्रु कां जैसा| अधमोत्तम प्रकाशा- | माजीं न म्हणे ||२९७|| ऐसी अनवच्छिन्न समता| भूतमात्रीं सदयता| आणि पालटु नाहीं चित्ता| कवणें वेळे ||२९८|| गोमटें कांहीं पावे| तरी संतोषें तेणें नाभिभवे| जो वोखटेनि नागवे| विषादासी ||२९९|| ऐसा हरिखशोकरहितु| जो आत्मबोधभरितु| तो जाण पां प्रज्ञायुक्तु| धनुर्धरा ||३००|| यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः | इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||५८||%Sh कां कूर्म जियापरी| उवाइला अवेव पसरी| ना तरी इच्छावशें आवरी| आपुले आपण ||३०१|| तैसीं इंद्रियें आपैतीं होती| जयाचें म्हणितलें करिती| तयाची प्रज्ञा जाण स्थिति| पातली असे ||३०२|| विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः | रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||५९||%Sh अर्जुना आणिकही एक| सांगेन ऐकें कवतिक| या विषयांतें साधक| त्यजिती नियमें ||३०३|| श्रेत्रादि इंद्रियें आवरिती| परि रसने नियमु न करिती| ते सहस्त्रधा कवळिजती| विषयीं इहीं ||३०४|| जैसी वरिवरि पालवी खुडिजे| आणि मुळीं उदक घालिजे| तरी कैसेनि नाशु निपजे| तया वृक्षा ||३०५|| तो उदकाचेनि बळें अधिकें| जैसा आडवेनि आंगें फांके| तैसा मानसीं विषो पोखे| रसनाद्वारें ||३०६|| येरां इंद्रियां विषय तुटे| तैसा नियमूं न ये रस हटें| जे जीवन हें न घटे| येणेंविण ||३०७|| मग अर्जुना स्वभावें| ऐसियाही नियमातें पावे| जैं परब्रह्म अनुभवें| होऊनि जाइजे ||३०८|| तैं शरीरभाव नासती| इंद्रियें विषय विसरती| जैं सोहंभाव प्रतीति| प्रगट होय ||३०९|| यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः | इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ||६०||%Sh येऱ्हवीं तरी अर्जुना| हें आया नये साधना| जे राहटताती जतना| निरंतर ||३१०|| जयातें अभ्यासाची घरटी| यमनियमांची ताटी| जे मनातें सदा मुठी| धरूनि आहाती ||३११|| तेही किजती कासाविसी| या इंद्रियांची प्रौढी ऐसी| जैसी मंत्रज्ञातें विवसी| भुलवी कां ||३१२|| देखैं विषय हे तैसे| पावती ऋद्धिसिद्धिचेनि मिषें| मग आकळिती स्पर्शें| इंद्रियांचेनि ||३१३|| तिये संधीं मन जाये| मग अभ्यासीं ठोठावलें ठाये| ऐसें बळकटपण आहे| इंद्रियांचें ||३१४|| तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः | वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||६१||%Sh म्हणौनि आइकें पार्था| यांतें निर्दळी जो सर्वथा| सर्व विषयीं आस्था| सांडूनियां ||३१५|| तोचि तूं जाण| योगनिष्ठेसी कारण| जयाचे विषयसुखें अंतःकरण| झकवेना ||३१६|| जो आत्मबोधयुक्तु| होऊनि असे सततु| जो मातें हृदयाआंतु| विसंबेना ||३१७|| येऱ्हवीं बाह्य विषय तरी नाहीं| परी मानसीं होईल जरी कांहीं| तरी साद्यंतुचि पाहीं| संसारु असे ||३१८|| जैसा कां विषाचा लेशु| घेतलियां होय बहुवसु| मग निभ्रांत करी नाशु| जीवितासी ||३१९|| तैसी विषयाची शंका| मनीं वसती देखा| घातु करी अशेखा| विवेकजाता ||३२०|| ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते | सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||६२|| क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः | स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||६३|| जरी हृदयीं विषय स्मरती| तरी निसंगाही आपजे संगती| संगें प्रगटे मूर्ति| अभिलाषाची ||३२१|| जेथ कामु उपजला| तेथ क्रोधु आधींचि आला| क्रोधीं असे ठेविला| संमोह जाणें ||३२२|| संमोहा जालिया व्यक्ति| तरी नाशु पावे स्मृति| चडवातें ज्योति| आहत जैसी ||३२३|| कां अस्तमानीं निशी| जैसी सूर्य तेजातें ग्रासी| तैसी दशा स्मृतिभ्रंशीं| प्राणियांसी ||३२४|| मग अज्ञानांध केवळ| तेणें आप्लविजे सकळ| तेथ बुद्धि होय व्याकुळ| हृदयामाजीं ||३२५|| जैसें जात्यंधा पळणीं पावे| मग ते काकुळती सैरा धांवे| तैसें बुद्धीसि होती भंवे| धनुर्धरा ||३२६|| ऐसा स्मृतिभ्रंशु घडे| मग सर्वथा बुद्धि अवघडे| तेथ समूळ हें उपडे| ज्ञानजात ||३२७|| चैतन्याच्या भ्रंशीं| शरीरा दशा जैशी| तैसें पुरुषा बुद्धिनाशीं| होय देखैं ||३२८|| म्हणौनि आइकें अर्जुना| जैसा विस्फुलिंग लागे इंधना| मग तो प्रौढ जालिया त्रिभुवना| पुरों शके ||३२९|| तैसें विषयांचें ध्यान| जरी विपायें वाहे मन| तरी येसणें हें पतन| गिंवसित पावे ||३३०|| रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् | आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ||६४||%Sh म्हणौनि विषय हे आघवे| सर्वथा मनौनि सांडावे| मग रागद्वेष स्वभावें| नाशतील ||३३१|| पार्था आणिकही एक| जरी नाशले रागद्वेष| तरी इंद्रियां विषयीं बाधक| रमतां नाहीं ||३३२|| जैसा सूर्य आकाशगतु| रश्मिकरें जगातें स्पर्शतु| तरी संगदोषें काय लिंपतु| तेथिचेनि ||३३३|| तैसा इंद्रियार्थीं उदासीन| आत्मरसेंचि निर्भिन्न| जो कामक्रोधविहीन| होऊनि असे ||३३४|| तरी विषयां तयां कांहीं| आपणपेंवांचूनि नाहीं| मग विषय कवण कायी| बाधितील कवणा ||३३५|| जरी उदकीं उदक बुडिजे| कां अग्नि आगी पोळिजे| तरी विषयसंगे आप्लविजे| परिपूर्णु तो ||३३६|| ऐसा आपणचि केवळु| होऊनि असे निखळु| तयाचि प्रज्ञा अचळु| निभ्रांत मानीं ||३३७|| प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते | प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ||६५||%Sh देखैं अखंडित प्रसन्नता| आथी जेथ चित्ता| तेथ रिगणें नाहीं समस्तां| संसारदुःखां ||३३८|| जैसा अमृताचा निर्झरु| प्रसवे जयाचा जठरु| तया क्षुधेतृषेचा अडदरु| कहींचि नाहीं ||३३९|| तैसें हृदय प्रसन्न होये| तरी दुःख कैचें कें आहे ? | तेथ आपैसी बुद्धि राहे| परमात्मरूपीं ||३४०|| जैसा निर्वातीचा दीपु| सर्वथा नेणें कंपु| तैसा स्थिरबुद्धि स्वस्वरूपु| योगयुक्तु ||३४१|| नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना | न चाभावयतः शांतिरशान्तस्य कुतः सुखम् ||६६||%Sh ये युक्तीची कडसणी| नाहीं जयाच्या अंतःकरणीं| तो आकळिला जाण गुणीं| विषयादिकीं ||३४२|| तया स्थिरबुद्धि पार्था| कहीं नाहीं सर्वथा| आणि स्थैर्याची आस्था| तेही नुपजे ||३४३|| निश्चळत्वाची भावना| जरी नव्हेचि देखैं मना| तरी शांति केवीं अर्जुना| आपु होय ||३४४|| जेथ शांतीचा जिव्हाळा नाहीं| तेथ सुख विसरोनि न रिगे कहीं| जैसा पापियाच्या ठायीं| मोक्षु न वसे ||३४५|| देखैं अग्निमाजीं घापती| तियें बीजें जरी विरूढती| तरी अशांता सुखप्राप्ती| घडों शके ||३४६|| म्हणौनि अयुक्तपण मनाचें| तेंचि सर्वस्व दुःखाचें| या कारणें इंद्रियांचें| दमन निकें ||३४७|| इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते | तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ||६७|| इंद्रियें जें जें म्हणती| तें तेंचि जे पुरुष करिती| ते तरलेचि न तरती| विषयसिंधु ||३४८|| जैसी नाव थडिये ठाकितां| जरी वरपडी होय दुर्वाता| तरी चुकलाही मागौता| अपावो पावे ||३४९|| तैसीं प्राप्तेंही पुरुषें| इंद्रियें लाळिलीं जरी कौतुकें| तरी आक्रमिला जाण दुःखें| संसारिकें ||३५०|| तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः | इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||६८|| म्हणौनि आपुलीं आपणपेया| जरी इंद्रियें येती आया| तरी अधिक कांहीं धनंजया| सार्थक असे ? ||३५१|| देखैं कूर्म जियापरी| उवाइला अवेव पसरी| ना तरी इच्छावशें आवरी| आपणपेंचि ||३५२|| तैसीं इंद्रियें आपैतीं होती| जयाचें म्हणितलें करिती| तयाची प्रज्ञा जाण स्थिती| पातली असे ||३५३|| आतां आणिक एक गहन| पूर्णाचें चिन्ह| अर्जुना तुज सांगैन| परिस पां ||३५४|| या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी | यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ||६९||%Sh देखैं भूतजात निदेलें| तेथेंचि जया पाहलें| आणि जीव जेथ चेइलें| तेथ निद्रितु जो ||३५५|| तोचि तो निरुपाधि| अर्जुना तो स्थिरबुद्धि| तोचि जाणें निरवधि| मुनीश्वर ||३५६|| आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् | तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शांतिमाप्नोति न कामकामी ||७०||%Sh पार्था आणीकही परी| तो जाणों येईल अवधारीं| जैसी अक्षोभता सागरीं| अखंडित ||३५७|| जऱ्ही सरितावोघ समस्त| परिपूर्ण होऊनि मिळत| तऱ्ही अधिक नोहे ईषत्| मर्यादा न संडी ||३५८|| ना तरी ग्रीष्मकाळीं सरिता| शोषूनि जाती समस्ता| परी न्यून नव्हे पार्था| समुद्रु जैसा ||३५९|| तैसा प्राप्तीं ऋद्धिसिद्धीं| तयासि क्षोभु नाहीं बुद्धी| आणि न पवतां न बाधी| अधृति तयातें ||३६०|| सांगैं सूर्याच्या घरीं| प्रकाशु काय वातीवेरी| कां न लविजे तरी अंधारीं| कोंडेल तो ||३६१|| देखैं ऋद्धिसिद्धि तयापरी| आली गेली से न करी| तो विगुंतला असे अंतरीं| महासुखीं ||३६२|| जो आपुलेनि नागरपणें| इंद्रभुवनातें पाबळें म्हणे| तो केवीं रंजे पालिवणें| भिल्लांचेनि ? ||३६३|| जो अमृतासी ठी ठेवी| तो जैसा कांजी न सेवी| तैसा स्वसुखानुभवी| न भोगी ऋद्धि ||३६४|| पार्था नवल हें पाहीं| जेथ स्वर्गसुख लेखनीय नाहीं| तेथ ऋद्धिसिद्धी कायी| प्राकृता होती ||३६५|| विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः | निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ||७१||%Sh ऐसा आत्मबोधें तोषला| जो परमानंदें पोखला| तोचि स्थिरप्रज्ञु भला| वोळख तूं ||३६६|| तो अहंकारातें दंडुनी| सकळ कामु सांडोनी| विचरे विश्व होऊनी| विश्वामाजीं ||३६७|| एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति | स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||७२|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनाम द्वितीयोऽध्यायः ||२अ || हे ब्रह्मस्थिति निःसीम| जे अनुभवितां निष्काम| ते पावले परब्रह्म| अनायासें ||३६८|| जे चिद्रूपीं मिळतां| देहांतीचि व्याकुळता| आड ठाकों न सके चित्ता| प्राज्ञा जया ||३६९|| तेचि हे स्थिति| स्वमुखें श्रीपति| सांगत अर्जुनाप्रति| संजयो म्हणे ||३७०|| ऐसें कृष्णवाक्य ऐकिलें| तेथ अर्जुनें मनीं म्हणितलें| आतां आमुचियाचि काजा कीर आलें| उपपत्ति इया ||३७१|| जें कर्मजात आघवें| एथ निराकारिलें देवें| तरी पारुषलें म्यां झुंजावें| म्हणौनियां ||३७२|| ऐसा श्रीअच्युताचिया बोला| चित्तीं धनुर्धरु उवाइला| आतां प्रश्नु करील भला| आशंकोनी ||३७३|| तो प्रसंगु असे नागरु| जो सकळ धर्मासी आगरु| कीं विवेकामृतसागरु| प्रांतहीनु ||३७४|| जो आपण सर्वज्ञनाथु| निरूपिता होईल श्रीअनंतु| ज्ञानदेवो सांगेल मातु| निवृत्तिदासु ||३७५|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां द्वितीयोऽध्यायः ||

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