ज्ञानेश्वरी अध्याय ४

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 16:09:57
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ४ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय चवथा | ज्ञानकर्मसंन्यासयोगः | आजि श्रवणेंद्रियां पाहलें| जें येणें गीतानिधान देखिलें| आतां स्वप्नचि हें तुकलें| साचासरिसें ||१|| आधींचि विवेकाची गोठी| वरी प्रतिपादी श्रीकृष्ण जगजेठी| आणि भक्तराजु किरीटी| परिसत असे ||२|| जैसा पंचमालापु सुगंधु| कीं परिमळु आणि सुस्वादु| तैसा भला जाहला विनोदु| कथेचा इये ||३|| कैसी आगळिक दैवाची| जे गंगा जोडली अमृताची| हो कां जपतपें श्रोतयांचीं| फळा आलीं ||४|| आतां इंद्रियजात आघवें| तिहीं श्रवणाचें घर रिघावें| मग संवादसुख भोगावें| गीताख्य हें ||५|| हा अतिसो अतिप्रसंगें| सांडूनि कथाचि ते सांगें| जे कृष्णार्जुन दोघे| बोलत होते ||६|| ते वेळीं संजयो रायातें म्हणे| अर्जुनु अधिष्ठिला दैवगुणें| जे अतिप्रीति श्रीनारायणें| बोलतु असे ||७|| जें न संगेचि पितया वसुदेवासी| जें न संगेचि माते देवकीसी| जें न संगेचि बंधु बळिभद्रासी | तें गुह्य अर्जुनेंशीं बोलत ||८|| देवी लक्ष्मीयेवढी जवळिक| परी तेही न देखे या प्रेमाचें सुख| आजि कृष्णस्नेहाचें बिक| यातेंचि आथी ||९|| सनकादिकांचिया आशा| वाढीनल्या होतिया कीर बहुवसा| परी त्याही येणें मानें यशा| येतीचिना ||१०|| या जगदीश्वराचें प्रेम| एथ दिसतसें निरुपम| कैसें पार्थें येणें सर्वोत्तम| पुण्य केलें ||११|| हो कां जयाचिया प्रीती| अमूर्त हा आला व्यक्ती| मज एकवंकी याची स्थिती| आवडतु असे ||१२|| एऱ्हवीं हा योगियां नाडळे| वेदार्थासी नाकळे| जेथ ध्यानाचेही डोळे| पावतीना ||१३|| तो हा निजस्वरूप| अनादि निष्कंप| परी कवणें मानें सकृप| जाहला आहे ||१४|| हा त्रैलोक्यपटाची घडी| आकारची पैलथडी| कैसा याचिये आवडी| आवरला असे ||१५|| श्रीभगवानुवाच | इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् | विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||१|| मग देव म्हणे अगा पंडुसुता| हाचि योगु आम्हीं विवस्वता| कथिला परी ते वार्ता| बहुतां दिवसांची ||१६|| मग तेणें विवस्वतें रवी| हे योगस्थिति आघवी| निरूपिली बरवी| मनूप्रती ||१७|| मनूनें आपण अनुष्ठिली| मग इक्ष्वाकुवा उपदेशिली| ऐसी परंपरा विस्तारिली| आद्य हे गा ||१८|| एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः | स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ||२|| मग आणिकही या योगातें| राजर्षि जाहले जाणते| परी तेथोनि आतां सांप्रतें| नेणिजे कोण्ही ||१९|| जे प्राणियां कामीं भरु| देहाचिवरी आदरु| म्हणौनि पडिला विसरु| आत्मबोधाचा ||२०|| अव्हांटलिया आस्थाबुद्धि| विषयसुखची परमावधि| जीवु तैसा उपाधि| आवडे लोकां ||२१|| एरव्हीं तरी खवणेयांच्या गांवीं| पाटाउवें काय करावीं| सांगें जात्यंधा रवी| काय आथी ? ||२२|| कां बहिरयांच्या आस्थानीं| कवण गीतातें मानीं| कीं कोल्हेया चांदणीं| आवडी उपजें ? ||२३|| पैं चंद्रोदया आरौतें| जयांचे डोळे फुटती असते| ते काउळे केवीं चंद्रातें| वोळखती ? ||२४|| तैसी वैराग्याची शिंव न देखती| जे विवेकाची भाष नेणती ? | ते मूर्ख केंवीं पावती| मज ईश्वरातें ? ||२५|| कैसा नेणों मोहो वाढीनला| तेणें बहुतेक काळु व्यर्थ गेला| म्हणौनि योगु हा लोपला| लोकीं इये ||२६|| स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः | भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ||३|| तोचि हा आजि आतां| तुजप्रती कुंतीसुता| सांगितला आम्हीं तत्त्वतां| भ्रांति न करीं ||२७|| हें जीवींचें निज गुज| परी केवीं राखों तुज| जे पढियेसी तूं मज| म्हणौनियां ||२८|| तूं प्रेमाचा पुतळा| भक्तीचा जिव्हाळा| मैत्रियेचि चित्कळा| धनुर्धरा ||२९|| तूं अनुसंगाचा ठावो| आतां तुज काय वंचूं जावों ? | जऱ्ही संग्रामारूढ आहों| जाहलों आम्ही ||३०|| तरी नावेक हें सहावें| गाजाबज्यही न धरावें| परी तुझें अज्ञानत्व हरावें| लागे आधीं ||३१|| अर्जुन उवाच | अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः | कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ||४|| तंव अर्जुन म्हणे श्रीहरी| माय आपुलेयाचा स्नेहो करी| एथ विस्मयो काय अवधारीं| कृपानिधी ||३२|| तूं संसारश्रांतांची साउली| अनाथ जीवांची माउली| आमुतें कीर प्रसवली| तुझीच कृपा ||३३|| देवा पांगुळ एकादें विजे| तरी जन्मौनि जोजारु साहिजे| हें बोलों काय तुझें| तुजचि पुढां ||३४|| आतां पुसेन जें मी कांहीं| तेथ निकें चित्त देईं| तेवींचि देवें कोपावें ना कांहीं| बोला एका ||३५|| तरी मागील जे वार्ता| तुवां सांगितली होती अनंता| ते नावेक मज चित्ता| मानेचिना ||३६|| जे तो विवस्वतु म्हणजे कायी| ऐसें हें वडिलां ठाउवें नाहीं| तरी तुवांचि केवीं पाहीं| उपदेशिला ? ||३७|| तो तरी आइकिजे बहुतां काळांचा| आणि तूं तंव श्रीकृष्ण सांपेचा| म्हणौनि गा इये मातुचा| विसंवादु ||३८|| तेवींचि देवा चरित्र तुझें| आपण कांहींचि नेणिजे| हें लटिकें केवीं म्हणिजे| एकिहेळां ? ||३९|| परि हेचि मातु आघवी| मी परियेसें ऐशी सांगावी| जे तुवांचि रवी केवीं| पाही उपदेशु केला ||४०|| श्रीभगवानुवाच | बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ||५|| तंव श्रीकृष्ण म्हणे पंडुसुता| तो विवस्वतु जैं होता| तैं आम्हीं नसों ऐसी चित्ता| भ्रांति जरी तुज ||४१|| तरी तूं गा हें नेणसी| पैं जन्में आम्हां तुम्हासी| बहुतें गेलीं परी तियें न स्मरसी| आपुलीं तूं ||४२|| मी जेणें जेणें अवसरें| जें जें होऊनि अवतरें| तें समस्तही स्मरें| धनुर्धरा ||४३|| अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीष्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ||६|| म्हणौनि हें आघवें| मागील मज आठवें| मी अजुही परि संभवें| प्रकृतियोगें ||४४|| माझें अव्ययत्व तरी न नसे| परी होणें जाणें एक दिसे| तें प्रतिबिंबें मायावशें| माझ्याचि ठायीं ||४५|| माझी स्वतंत्रता तरी न मोडे| परी कर्माधीनु ऐसा आवडे| तेही भ्रांतिबुद्धि तरी घडे| एऱ्हवीं नाहीं ||४६|| कीं एकचि दिसे दुसरें| तें दर्पणाचेनि आधारें| एऱ्हवीं काय वस्तुविचारें| दुजें आहे ? ||४७|| तैसा अमूर्तचि मी किरीटी| परी प्रकृति जैं अधिष्ठीं| तैं साकारपणें नट नटीं| कार्यालागीं ||४८|| यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||७|| जें धर्मजात आघवें| युगायुगीं म्यां रक्षावें| ऐसा ओघु हा स्वभावें| आद्यु असे ||४९|| म्हणौनि अजत्व परतें ठेवीं| मी अव्यक्तपणही नाठवीं| जे वेळीं धर्मातें अभिभवी| अधर्मु हा ||५०|| परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ||८|| ते वेळीं आपुल्याचेनि कैवारें| मी साकारु होऊनि अवतरें| मग अज्ञानाचें आंधारें| गिळूनि घालीं ||५१|| अधर्माची अवधी तोडीं| दोषांचीं लिहिलीं फाडीं| सज्जनांकरवीं गुढी| सुखाची उभवीं ||५२|| दैत्यांचीं कुळें नाशीं| साधूंचा मानु गिंवशीं| धर्मासीं नीतीशीं| शेंस भरीं ||५३|| मी अविवेकाची काजळी| फेडूनि विवेकदीप उजळीं| तैं योगियां पाहे दिवाळी| निरंतर ||५४|| सत्सुखें विश्व कोंदे| धर्मुचि जगीं नांदें| भक्तां निघती दोंदे| सात्त्विकाचीं ||५५|| तै पापांचा अचळु फिटे| पुण्याची पहांट फुटे| जैं मूर्ति माझी प्रगटे| पंडुकुमरा ||५६|| ऐसेया काजालागीं| अवतरें मी युगीं युगीं| परि हेंचि वोळखें जो जगीं| तो विवेकिया ||५७|| जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||९|| माझें अजत्वें जन्मणें| अक्रियताचि कर्म करणें| हें अविकार जो जाणे| तो परममुक्त ||५८|| तो चालिला संगें न चळे| देहींचा देहा नाकळे| मग पंचत्वीं तंव मिळे| माझ्याचि रूपीं ||५९|| वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः | बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भवमागताः ||१०|| एऱ्हवीं परापर न शोचिती| जे कामनाशून्य होती| वाटा कें वेळीं न वचती| क्रोधाचिया ||६०|| सदा मियांचि आथिले| माझिया सेवा जियाले| कीं आत्मबोधें तोषले| वीतराग जे ||६१|| जे तपोतेजाचिया राशी| कीं एकायतन ज्ञानासी| जे पवित्रता तीर्थांसी| तीर्थरूप ||६२|| ते मद्भावा सहजें आले| मी तेचि ते होऊनि ठेले| जे मज तयां उरले| पदर नाहीं ||६३|| सांगैं पितळेची गंधिकाळिक| जैं फिटली होय निःशेख| तैं सुवर्ण काई आणिक| जोडूं जाइजे ? ||६४|| तैसे यमनियमीं कडसले| जे तपोज्ञानें चोखाळले| मी तेचि ते जाहले| एथ संशयो कायसा ? ||६५|| ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||११|| एऱ्हवीं तरी पाहीं| जे जैसे माझ्या ठायीं| भजती तयां मीही| तैसाचि भजें ||६६|| देखैं मनुष्यजात सकळ| हें स्वभावता भजनशीळ| जाहलें असे केवळ| माझ्याचि ठायीं ||६७|| परी ज्ञानेंवीण नाशिले| जे बुद्धिभेदासी आले| तेणेंचि त्या कल्पिलें| अनेकत्व ||६८|| म्हणौनि अभेदीं भेदु देखती| यया अनाम्या नामें ठेविती| देवी देवो म्हणती| अचर्चातें ||६९|| जे सर्वत्र सदा सम| तेथ विभाग अधमोत्तम| मतिवशें संभ्रम| विवंचिती ||७०|| काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त हि देवताः | क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ||१२|| मग नानाहेतुप्रकारें| यथोचितें उपचारें| मानिलीं देवतांतरें| उपासिती ||७१|| तेथ जें जें अपेक्षित| तें तैसेंचि पावती समस्त| परी तें कर्मफळ निश्चित| वोळख तूं ||७२|| वांचून देतें घेतें आणिक| निभ्रांत नाहीं सम्यक| एथ कर्मचि फळसूचक| मनुष्यलोकीं ||७३|| जैसें क्षेत्रीं जें पेरिजे| तें वांचूनि आन न निपजे| कां पाहिजे तेंचि देखिजे| दर्पणाधारें ||७४|| नातरी कडेयातळवटीं| जैसा आपुलाचि बोलू किरीटी| पडिसादु होऊनि उठी| निमित्तयोगें ||७५|| तैसा समस्तां यां भजना| मी साक्षिभूतु पैं अर्जुना| एथ प्रतिफळे भावना| आपुलाली ||७६|| चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||१३|| आतां याचिपरी जाण| चाऱ्ही हे वर्ण| सृजिलें म्यां गुण- | कर्मविभागें ||७७|| जे प्रकृतीचेनि आधारें| गुणाचेनि व्यभिचारें| कर्में तदनुसारें| विवंचिली ||७८|| एथ एकचि हे धनुष्यपाणी| परी जाहले गा चहूं वर्णीं| ऐसी गुणकर्मकडसणी| केली सहजें ||७९|| म्हणौनि आइकें पार्था| हे वर्णभेदसंस्था| मीं कर्ता नव्हें सर्वथा| याचिलागीं ||८०|| न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा | इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ||१४|| हें मजचिस्तव जाहलें| परी म्यां नाहीं केलें| ऐसें जेणें जाणितलें| तो सुटला गा ||८१|| एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः | कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ||१५|| मागील मुमुक्षु जे होते| तिहीं ऐशिया जाणोनि मातें| कर्में केलीं समस्तें| धनुर्धरा ||८२|| परि तें बीजें जैसीं दग्धलीं| नुगवतींचि पेरिलीं| तैशीं कर्मेंचि परि तयां जाहलीं| मोक्षहेतु ||८३|| एथ आणिकही एक अर्जुना| हे कर्माकर्मविवंचना| आपुलिये चाडें सज्ञाना| योग्यु नोहे ||८४|| किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः | तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ||१६|| कर्म म्हणिपे तें कवण| अथवा अकर्मा काय लक्षण| ऐसें विचारितां विचक्षण| गुंफोनि ठेले ||८५|| जैसें कां कुडें नाणें| खऱ्याचेनि सारखेपणें| डोळ्यांचेंहि देखणें| संशयीं घाली ||८६|| तैसें नैष्कर्म्यतेचेनि भ्रमें| गिंवसिजत आहाती कर्में| जे दुजी सृष्टी मनोधर्में| करूं सकती ||८७|| वांचूनि मूर्खाची गोठी कायसी| एथ मोहले गा क्रांतदर्शी| म्हणौनि आतां तेंचि परियेसीं| सांगेन तुज ||८८|| कर्मण्यो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः | अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ||१७|| तरी कर्म म्हणजे स्वभावें| जेणें विश्वाकारु संभवे| तें सम्यक् आधीं जाणावें| लागे एथ ||८९|| मग वर्णाश्रमासि उचित| जें विशेष कर्म विहित| तेंही वोळखावें निश्चित| उपयोगेंसी ||९०|| पाठीं जें निषिद्ध म्हणिपे| तेंही बुझावें स्वरूपें| येतुलेनि कांहीं न गुंफे| आपैसेंचि ||९१|| एऱ्हवीं जग हें कर्माधीन| ऐसी याची व्याप्ती गहन| परी तें असो आइकें चिन्ह| प्राप्तांचें गा ||९२|| कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः | स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ||१८|| जो सकळकर्मीं वर्ततां| देखैं आपुली नैष्कर्म्यता| कर्मसंगें निराशता| फळाचिया ||९३|| आणि कर्तव्यतेलागीं| जया दुसरें नाहीं जगीं| ऐसिया नैष्कर्म्यता तरी चांगीं| बोधला असे ||९४|| तरी क्रियाकलापु आघवा| आचरतु दिसे बरवा| तोचि तो ये चिन्हीं जाणावा| ज्ञानिया गा ||९५|| जैसा कां जळापाशीं उभा ठाके| तो जरी आपणपें जळामाजिं देखे| तरी तो निभ्रांत वोळखे| म्हणे मी वेगळा आहें ||९६|| अथवा नावें हन जो रिगे| तो थडियेचें रुख जातां देखे वेगें| तेचि साचोकारें जों पाहों लागे| तंव रुख म्हण अचळ ||९७|| तैसें सर्व कर्मीं असणें| ते फुडें मानूनि वायाणें| मग आपणया जो जाणे| नैष्कर्म्यु ऐसा ||९८|| आणि उदोअस्तुचेनि प्रमाणें| जैसें न चालतां सूर्याचें चालणें| तैसें नैष्कर्म्यत्व जाणें| कर्मींचि असतां ||९९|| तो मनुष्यासारिखा तरी आवडे| परी मनुष्यत्व तया न घडे| जैसें जळामाजीं न बुडे| भानुबिंब ||१००|| तेणें न पाहतां विश्व देखिलें| न करितां सर्व केलें| न भोगितां भोगिलें| भोग्यजात ||१०१|| एकेचि ठायीं बैसला| परि सर्वत्र तोचि गेला| हें असो विश्व जाहला| आंगेंचि तो ||१०२|| यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः | ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ||१९|| जया पुरुषाच्या ठायीं| कर्माचा तरी खेदु नाहीं| परी फलापेक्षा कहीं| संचरेना ||१०३|| आणि हें कर्म मी करीन| अथवा आदरिलें सिद्धी नेईन| येणें संकल्पेंहीं जयाचें मन| विटाळेना ||१०४|| ज्ञानाग्नीचेनि मुखें| जेणें जाळिलीं कर्में अशेखें| तो परब्रह्मचि मनुष्यवेखें| वोळख तूं ||१०५|| त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः | कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ||२०|| जो शरीरीं उदासु| फळभोगीं निरासु| नित्यता उल्हासु| होऊनि असे ||१०६|| जो संतोषाचा गाभारा| आत्मबोधाचिये वोगरां| पुरे न म्हणेचि धनुर्धरा| आरोगितां ||१०७|| निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः | शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||२१|| यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||२२|| कैसी अधिकाधिक आवडी| घेत महासुखाची गोडी| सांडोनियां आशा कुरोंडी| अहंभावेंसीं ||१०८|| म्हणौनि अवसरें जें जें पावे| कीं तेणेंचि तो सुखावे| जया आपुलें आणि परावें| दोन्ही नाहीं ||१०९|| तो दिठीं जें पाहे| तें आपणचि होऊनि जाये| आईके तें आहे| तोचि जाहला ||११०|| चरणीं हन चाले| मुखें जें जें बोले| ऐसें चेष्टाजात तेतुलें| आपणचि जो ||१११|| हें असो विश्व पाहीं| जयासि आपणपेंवांचूनि नाहीं| आतां कवण तें कर्म कायी| बाधी तयातें ||११२|| हा मत्सरु जेथ उपजे| तेतुलें नुरेचि जया दुजें| तो निर्मत्सरु काइ म्हणिजे| बोलवरी ? ||११३|| म्हणौनि सर्वांपरी मुक्तु| तो सकर्मुचि कर्मरहितु| सगुण परि गुणातीतु| एथ भ्रांति नाहीं ||११४|| गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः | यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ||२३|| तो देहसंगें तरी असे| परी चैतन्यासारिखा दिसे| पाहतां परब्रह्माचेनि कसें| चोखाळु भला ||११५|| ऐसाहि परी कौतुकें| जरी कर्में करी यज्ञादिकें| तरी तियें लया जाती निःशेखें| तयाच्याचि ठायीं ||११६|| अकाळींचीं अभ्रें जैशीं| उर्मीवीण आकाशीं| हारपती आपैशीं| उदयलीं सांती ||११७|| तैशीं विधिविधानें विहितें| जरी आचरे तो समस्तें| तरी तियें ऐक्यभावें ऐक्यातें| पावतीचि गा ||११८|| ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नो ब्रह्मणा हुतम् | ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||२४|| हें हवन मी होता| कां इयें यज्ञीं हा भोक्ता| ऐसिया बुद्धीसि नाहीं भिन्नता| म्हणौनियां ||११९|| जे इष्टयज्ञ यजावे| तें हविर्मंत्रादि आघवें| तो देखतसे अविनाशभावें| आत्मबुद्धि ||१२०|| म्हणौनि ब्रह्म तेंचि कर्म| ऐसें बोधा आलें जया सम| तया कर्तव्य तें नैष्कर्म्य| धनुर्धरा ||१२१|| आतां अविवेकु कुमारत्वा मुकले| जयां विरक्तीचें पाणिग्रहण जाहलें| मग उपासन जिहीं आणिलें| योगाग्नीचें ||१२२|| दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते | ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ||२५|| जे यजनशील अहर्निशीं| जिहीं अविद्या हविली मनेंसीं| गुरुवाक्य हुताशीं| हवन केलें ||१२३|| तिहीं योगाग्निकीं यजिजे| तो दैवयज्ञु म्हणिजे| जेणें आत्मसुख कामिजे| पंडुकुमरा ||१२४|| आतां अवधारी सांगैन आणिक| जे ब्रह्माग्नी साग्निक| तयांतें यज्ञचि यज्ञु देख| उपासिजे ||१२५|| श्रोत्रादिनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति | शब्दादीन्विषयानन्ये इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ||२६|| एक संयमाग्निहोत्री| ते युक्तित्रयाच्या मंत्रीं| यजन करिती पवित्रीं| इंद्रियद्रव्यीं ||१२६|| एकां वैराग्य रवि विवळे| तंव संयती विहार केले| तेथ अपावृत जाहले| इंद्रियानळ ||१२७|| तिहीं विरक्तीची ज्वाळा घेतली| तंव विकारांचीं इंधनें पळिपली| तेथ आशाधूमें सांडिलीं| पांचही कुंडें ||१२८|| मग वाक्यविधीचिया निरवडी| विषय आहुती उदंडीं| हवन केलें कुंडीं| इन्द्रियाग्नीच्या ||१२९|| सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे | आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ||२७|| एकीं ययापरी पार्था| दोषु क्षाळिले सर्वथा| आणिकीं हृदयारणीं मंथा| विवेकु केला ||१३०|| तो उपशमें निहटिला| धैर्येंवरी दाटिला| गुरुवाक्यें काढिला| बळकटपणें ||१३१|| ऐसें समरसें मंथन केलें| तेथ झडकरी काजा आलें| जें उज्जीवन जाहलें| ज्ञानाग्नीचें ||१३२|| पहिला ऋद्धिसिद्धींचा संभ्रमु| तो निवर्तोनि गेला धूमु| मग प्रगटला सूक्ष्मु| विस्फुलिंगु ||१३३|| तया मनाचें मोकळें| तेंचि पेटवण घातले| जें यमनियमीं हळुवारलें| आइतें होतें ||१३४|| तेणें सादुकुपणे ज्वाळा समृद्धा| मग वासनांतराचिया समिधा| स्नेहेंसीं नानाविधा| जाळिलिया ||१३५|| तेथ सोहंमंत्रें दीक्षितीं| इंद्रियकर्मांच्या आहुती| तियें ज्ञानानळीं प्रदीप्तीं| दिधलिया ||१३६|| पाठीं प्राणक्रियेचिये स्रुवेनिशीं| पूर्णाहुती पडली हुताशीं| तेथ अवभृत समरसीं| सहजें जहालें ||१३७|| मग आत्मबोधींचें सुख| जें संयमाग्नीचें हुतशेष| तोचि पुरोडाशु देख| घेतला तिहीं ||१३८|| एक ऐशिया इहीं यजनीं| मुक्त ते जाहले त्रिभुवनीं| या यज्ञक्रिया तरी आनानीं| परि प्राप्य तें एक ||१३९|| द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे | स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ||२८|| एक द्रव्युयज्ञु म्हणिपती| एक तपसामग्रीया निपजविती| एक योगयागुही आहाती| जे सांगितलें ||१४०|| एकीं शब्दीं शब्दु यजिजे| तो वाग्यज्ञु म्हणिजे| ज्ञानें ज्ञेय गमिजे| तो ज्ञानयज्ञु ||१४१|| हें अर्जुना सकळ कुवाडें| जे अनुष्ठितां अतिसांकडें| परी जितेंद्रियासीचि घडे| योग्यतावशें ||१४२|| ते प्रवीण तेथ भले| आणि योगसमृद्धि आथिले| म्हणौनि आपणपां तिहीं केलें| आत्महवन ||१४३|| अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||२९|| मग अपानाग्नीचेनि मुखीं| प्राणद्रव्यें देखीं| हवन केलें एकीं| अभ्यासयोगें ||१४४|| एक अपानु प्राणीं अर्पिती| एक दोहींतेंही निरुंधिती| ते प्राणायामी म्हणिपती| पंडुकुमरा ||१४५|| अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति | सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ||३०|| एक वज्रयोगक्रमें| सर्वाहारसंयमें| प्राणीं प्राणु संभ्रमें| हवन करिती ||१४६|| ऐसें मोक्षकाम सकळ| समस्त हे यजनशीळ| जिहीं यज्ञद्वारां मनोमळ| क्षाळण केले ||१४७|| जया अविद्याजात जाळितां| जें उरलें निजस्वभावता| जेथ अग्नि आणि होता| उरेचिना ||१४८|| जेथ यजितयाचा कामु पुरे| यज्ञींचें विधान सरे| मागुतें जेथूनि वोसरें| क्रियाजात ||१४९|| विचार जेथ न रिगे| हेतु जेथ न निगे| जें द्वैतदोषसंगें| सिंपेचिना ||१५०|| यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् | नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ||३१|| ऐसें अनादिसिद्ध चोखट| जें ज्ञान यज्ञावशिष्ट| तें सेविती ब्रह्मनिष्ठ| ब्रह्माहंमंत्रें ||१५१|| ऐसें शेषामृतें धाले| कीं अमर्त्यभावा आले| म्हणौनि ब्रह्म ते जहाले| अनायासें ||१५२|| येरां विरक्ति माळ न घालीचि| जयां संयमाग्नीची सेवा न घडेचि| जे योगयागु न करितीचि| जन्मले सांते ||१५३|| जयांचें ऐहिक धड नाहीं| तयांचे परत्र पुससी काई| म्हणौनि असो हे गोठी पाहीं| पंडुकुमरा ||१५४|| एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे | कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ||३२|| ऐसें बहुतीं परी अनेग| जे सांगितलें तुज कां याग| ते विस्तारूनि वेदेंचि चांग| म्हणितले आहाती ||१५५|| परी तेणें विस्तारें काय करावें| हेंचि कर्मसिद्ध जाणावें| येतुलेनि कर्मबंधु स्वभावें| पावेल ना ||१५६|| श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ञानयज्ञः परंतप | सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ||३३|| अर्जुना वेदु जयांचें मूळ| जे क्रियाविशेषें स्थूळ| जया नव्हाळियेचें फळ| स्वर्गसुख ||१५७|| ते द्रव्यादियागु कीर होती| परी ज्ञानयज्ञाची सरी न पवती| जैशी तारातेजसंपत्ती| दिनकरापाशीं ||१५८|| देखैं परमात्मसुखनिधान| साधावया योगीजन| जे न विसंबिती अंजन| उन्मेषनेत्री ||१५९|| जें धांवतया कर्माची लाणी| नैष्कर्म्यबोधाची खाणी| जें भुकेलिया धणी| साधनाची ||१६०|| जेथ प्रवृत्ति पांगुळ जाहली| तर्काची दिठी गेली| जेणें इंद्रियें विसरलीं| विषयसंगु ||१६१|| मनाचें मनपण गेलें| जेथ बोलाचें बोलकेंपण ठेलें| जयामाजी सांपडलें| ज्ञेय दिसे ||१६२|| जेथ वैराग्याचा पांगु फिटे| विवेकाचाही सोसु तुटे| जेथ न पाहतां सहज भेटे| आपणपें ||१६३|| तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया | उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ||३४|| तें ज्ञान पैं गा बरवे| जरी मनीं आथि आणावें| तरी संतां यां भजावें| सर्वस्वेसीं ||१६४|| जे ज्ञानाचा कुरुठा| तेथ सेवा हा दारवंठा| तो स्वाधीन करी सुभटा| वोळगोनी ||१६५|| तरी तनुमनुजीवें| चरणांसीं लागावें| आणि अगर्वता करावें| दास्य सकळ ||१६६|| मग अपेक्षित जें आपुलें| तेंही सांगती पुसिलें| जेणें अंतःकरण बोधलें| संकल्पा नये ||१६७|| यज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव | येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ||३५|| जयाचेनि वाक्य उजिवडें| जाहलें चित्त निधडें| ब्रह्माचेनि पाडें| निःशंकु होय ||१६८|| तें वेळीं आपणपेयां सहितें| इयें अशेषेंही भूतें| माझ्या स्वरूपीं अखंडितें| देखसी तूं ||१६९|| ऐसें ज्ञानप्रकाशें पाहेल| तैं मोहांधकारु जाईल| जैं गुरुकृपा होईल| पार्था गा ||१७०|| अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः | सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ||३६|| जरी कल्मषाचा आगरु| तूं भ्रांतीचा सागरु| व्यामोहाचा डोंगरु| होउनी अससी ||१७१|| तऱ्ही ज्ञानशक्तिचेनि पाडें| हें आघवेंचि गा थोकडें| ऐसें सामर्थ्य असे चोखडें| ज्ञानीं इये ||१७२|| देखैं विश्वभ्रमाऐसा| जो अमूर्ताचा कडवसा| तो जयाचिया प्रकाशा| पुरेचिना ||१७३|| तया कायसे हे मनोमळु| हें बोलतांचि अति किडाळु| नाहीं येणें पाडें ढिसाळु| दुजें जगीं ||१७४|| यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मासात्कुरुतेऽर्जुन | ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||३७|| सांगै भुवनत्रयाची काजळी| जे गगनामाजि उधवली| तिये प्रळयींचे वाहटुळी| काय अभ्र पुरे ? ||१७५|| कीं पवनाचेनि कोपें| पाणियेंचि जो पळिपे| तो प्रळयानळु दडपे| तृणें काष्ठें काई ? ||१७६|| न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते | तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ||३८|| म्हणौनि असो हें न घडे| तें विचारितांचि असंगडें| पुढती ज्ञानाचेनि पाडें| पवित्र न दिसे ||१७७|| एथ ज्ञान हें उत्तम होये| आणिकही एक तैसें कें आहे| जैसें चैतन्य कां नोहे| दुसरें गा ||१७८|| या महातेजाचेनि कसें| जरी चोखाळु प्रतिबिंब दिसे| कां गिंवसिलें गिंवसे| आकाश हें ||१७९|| नातरी पृथ्वीचेनि पाडें| कांटाळें जरी जोडे| तरी उपमा ज्ञानीं घडे| पंडुकुमरा ||१८०|| म्हणौनि बहुतीं परी पाहतां| पुढतपुढती निर्धारितां| हें ज्ञानाची पवित्रता| ज्ञानींची आथि ||१८१|| जैसी अमृताची चवी निवडिजे| तरी अमृताचिसारिखी म्हणिजे| तैसें ज्ञान हें उपमिजे| ज्ञानेंसींचि ||१८२|| आतां यावरी जें बोलणें| तें वायांची वेळु फेडणें| तंव साचचि हें पार्थ म्हणे| जें बोलत असां ||१८३|| परी तेंचि ज्ञान केवीं जाणावें| ऐसें अर्जुनें जंव पुसावें| तंव तें मनोगत देवें| जाणितलें ||१८४|| मग म्हणतसे किरीटी| आतां चित्त देईं इये गोठी| सांगेन ज्ञानाचिये भेटी| उपावो तुज ||१८५|| श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः | ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ||३९|| तरी आत्मसुखाचिया गोडिया| विटे जो कां सकळ विषयां| जयाच्या ठायीं इंद्रियां| मानु नाहीं ||१८६|| जो मनासीं चाड न सांगे| जो प्रकृतीचें केलें नेघे| जो श्रद्धेचेनि संभोगें| सुखिया जाहला ||१८७|| तयातेंचि गिंवसित| तें ज्ञान पावे निश्चित| जयामाजि अचुंबित| शांति असे ||१८८|| तें ज्ञान हृदयीं प्रतिष्ठे| आणि शांतीचा अंकुर फुटे| मग विस्तार बहु प्रगटे| आत्मबोधाचा ||१८९|| मग जेउती वास पाहिजे| तेउती शांतीची देखिजे| तेथ आपपरु नेणिजे| निर्धारितां ||१९०|| ऐसा हा उत्तरोत्तरु| ज्ञानबीजाचा विस्तारु| सांगतां असे अपारु| परि असो आतां ||१९१|| अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||४०|| ऐकें जया प्राणियाच्या ठायीं| इया ज्ञानाची आवडी नाहीं| तयाचें जियालें म्हणों काई| वरी मरण चांग ||१९२|| शून्य जैसें कां गृह| कां चैतन्येंवीण देह| तैसें जीवित तें संमोह| ज्ञानहीन ||१९३|| अथवा ज्ञान कीर आपु नोहे| परि ते चाड एकी जरी वाहे| तरी तेथ जिव्हाळा कांहीं आहे| प्राप्तीचा पैं ||१९४|| वांचूनि ज्ञानाची गोठी कायसी| परि ते आस्थाही न धरीं मानसीं| तरी तो संशयरूप हुताशीं| पडिला जाण ||१९५|| जे अमृतही परि नावडे| ऐसें सावियाचीं आरोचकु जैं पडे| तैं मरण आलें असें फुडें| जाणों येकीं ||१९६|| तैसा विषयसुखें रंजे| जो ज्ञानेसींचि माजे| तो संशयें अंगिकारिजे| एथ भ्रांति नाहीं ||१९७|| मग संशयीं जरी पडिला| तरी निभ्रांत जाणें नासला| तो ऐहिकपरत्रा मुकला| सुखासि गा ||१९८|| जया काळज्वरु आंगीं बाणे| तो शीतोष्णें जैशीं नेणे| आगी आणि चांदिणें| सरिसेंचि मानीं ||१९९|| तैसें साच आणि लटिकें| विरुद्ध आणि निकें| संशयीं तो नोळखे| हिताहित ||२००|| हा रात्रिदिवसु पाहीं| जैसा जात्यंधा ठाउवा नाहीं| तैसें संशयीं असतां कांहीं| मना नये ||२०१|| योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् | आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ||४१|| म्हणौनि संशयाहूनि थोर| आणिक नाहीं पाप घोर| हा विनाशाची वागुर| प्राणियांसि ||२०२|| येणें कारणें तुवां त्यजावा| आधीं हाचि एकु जिणावा| जो ज्ञानाचिया अभावा- | माजि असे ||२०३|| जैं अज्ञानाचें गडद पडे| तैं हा बहुवस मनीं वाढे| म्हणौनि सर्वथा मार्गु मोडे| विश्वासाचा ||२०४|| हृदयीं हाचि न समाये| बुद्धीतें गिंवसूनि ठाये| तेथ संशयात्मक होये| लोकत्रय ||२०५|| तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः | छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ||४२|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ||४अ || ऐसा जरी थोरावें| तरी उपायें एकें आंगवे| जरी हातीं होय बरवें| ज्ञानखड्ग ||२०६|| तरी तेणें ज्ञानशस्त्रें तिखटें| निखळु हा निवटे| मग निःशेष खता फिटे| मानसींचा ||२०७|| याकारणें पार्था| उठीं वेगीं वरौता| नाशु करोनि हृदयस्था| संशयासी ||२०८|| ऐसें सर्वज्ञाचा बापु| जो श्रीकृष्णु ज्ञानदीपु| तो म्हणतसे सकृपु| ऐकें राया ||२०९|| तंव या पूर्वापर बोलाचा| विचारूनि कुमरु पंडूचा| कैसा प्रश्नु अवसरींचा| करिता होईल ||२१०|| ते कथेची संगति| भावाची संपत्ति| रसाची उन्नति| म्हणिपेल पुढा ||२११|| जयाचिया बरवेपणीं| कीजे आठां रसांची वोवाळणी| जो सज्जनाचिये आयणी| विसांवा जगीं ||२१२|| तो शांतुचि अभिनवेल| ते परियसा मऱ्हाटे बोल| जे समुद्राहूनि सखोल| अर्थभरित ||२१३|| जैसें बिंब तरी बचकें एवढें| परि प्रकाशा त्रैलोक्य थोकडें| शब्दाची व्याप्ति तेणें पाडें| अनुभवावी ||२१४|| नातरी कामितयाचिया इच्छा| फळे कल्पवृक्षु जैसा| बोलु व्यापकु होय तैसा| तरी अवधान द्यावें ||२१५|| हें असो काय म्हणावें| सर्वज्ञु जाणती स्वभावें| तरी निकें चित्त द्यावें| हे विनंती माझी ||२१६|| जेथ साहित्य आणि शांति| हे रेखा दिसे बोलती| जैसी लावण्यगुणकुळवती| आणि पतिव्रता ||२१७|| आधींच साखर आवडे| तेचि जरी ओखदां जोडे| तरी सेवावी ना कां कोडें| नावानावा ? ||२१८|| सहजें मलयानिळु मंदु सुगंधु| तया अमृताचा होय स्वादु| आणि तेथेंचि जोडे नादु| जरी दैवगत्या ||२१९|| तरी स्पर्शें सर्वांग निववी| स्वादें जिव्हेतें नाचवी| तेवींचि कानांकरवीं| म्हणवीं बापु माझा ||२२०|| तैसें कथेचें इये ऐकणें| एक श्रवणासी होय पारणें| आणि संसारदुःख मूळवणें| विकृतीविणें ||२२१|| जरी मंत्रेंचि वैरी मरे| तरी वायां कां बांधावीं कटारें ? | रोग जाय दूधसाखरें| तरी निंब कां पियावा ? ||२२२|| तैसा मनाचा मारु न करितां| आणि इंद्रियां दुःख न देतां| एथ मोक्षु असे आयता| श्रवणाचिमाजि ||२२३|| म्हणौनि आथिलिया आराणुका| गीतार्थु हा निका| ज्ञानदेवो म्हणे आइका| निवृत्तिदासु ||२२४|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां चतुर्थोऽध्यायः ||

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