ज्ञानेश्वरी अध्याय ६

ग्रंथ - पोथी  > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 16:01:34
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ६ || ||ॐ श्री परमात्मने नमः || अध्याय सहावा | आत्मसंयमयोगः | मग रायातें म्हणे संजयो| तोचि अभिप्रावो अवधारिजो| कृष्ण सांगती आतां जो| योगरूप ||१|| सहजें ब्रह्मरसाचें पारणें| केलें अर्जुनालागीं नारायणें| कीं तेचि अवसरीं पाहुणे| पातलों आम्ही ||२|| कैसी दैवाची आगळिक नेणिजे| जैसें तान्हेलिया तोय सेविजे| कीं तेंचि चवी करूनि पाहिजे| तंव अमृत आहे ||३|| तैसें आम्हां तुम्हां जाहलें| जे आडमुठीं तत्त्व फावलें| तंव धृतराष्ट्रें म्हणितलें| हें न पुसों तूतें ||४|| तया संजया येणें बोलें| रायाचें हृदय चोजवलें| जें अवसरीं आहे घेतलें| कुमारांचिया ||५|| हें जाणोनि मनीं हांसिला| म्हणे म्हातारा मोहें नाशिला| एऱ्हवीं बोलु तरी भला जाहला| अवसरीं इये ||६|| परि तें तैसें कैसेनि होईल| जात्यंधु कैसें पाहेल| तेवींचि ये रुसें घेईल| म्हणौनि बिहे ||७|| परि आपण चित्तीं आपुला| निकियापरी संतोषला| जे तो संवादु फावला| कृष्णार्जुनांचा ||८|| तेणें आनंदाचेनि धालेपणें| साभिप्राय अंतःकरणें| आतां आदरेंसीं बोलणें| घडेल तया ||९|| तो गीतेमाजी षष्ठींचा| प्रसंगु असे आयणीचा| जैसा क्षीरार्णवीं अमृताचा| निवाडु जाहला ||१०|| तैसें गीतार्थाचें सार| जें विवेकसिंधूचें पार| नाना योगविभवभांडार| उघडलें कां ||११|| जें आदिप्रकृतीचें विसवणें| जें शब्दब्रह्मासि न बोलणें| जेथूनि गीतावल्लीचें ठाणें| प्ररोहो पावे ||१२|| तो अध्यावो सहावा| वरि साहित्याचिया बरवा| सांगिजैल म्हणौनि परिसावा| चित्त देउनी ||१३|| माझा मराठाचि बोलु कौतुकें| परि अमृतातेंही पैजां जिंके| ऐसीं अक्षरें रसिकें| मेळवीन ||१४|| जिये कोंवळिकेचेनि पाडें| दिसती नादींचें रंग थोडे| वेधें परिमळाचें बीक मोडे| जयाचेनि ||१५|| ऐका रसाळपणाचिया लोभा| कीं श्रवणींचि होति जिभा| बोले इंद्रियां लागे कळंभा| एकमेकां ||१६|| सहजें शब्दु तरी विषो श्रवणाचा| परि रसना म्हणे हा रसु आमुचा| घ्राणासि भावो जाय परिमळाचा | हा तोचि होईल ||१७|| नवल बोलतीये रेखेची वाहणी| देखतां डोळयांही पुरों लागे धणी| ते म्हणती उघडली खाणी| रूपाची हे ||१८|| जेथ संपूर्ण पद उभारे| तेथ मनचि धांवे बाहिरें| बोलु भुजाही आविष्करें| आलिंगावया ||१९|| ऐशीं इंद्रियें आपुलालिया भावीं| झोंबती परि तो सरिसेपणेंचि बुझावी| जैसा एकला जग चेववी| सहस्त्रकरु ||२०|| तैसें शब्दाचें व्यापकपण| देखिजे असाधारण| पाहातयां भावज्ञां फावती गुण| चिंतामणीचे ||२१|| हें असोतु या बोलांचीं ताटें भलीं| वरी कैवल्यरसें वोगरिलीं| ही प्रतिपत्ति मियां केली| निष्कामासी ||२२|| आतां आत्मप्रभा नीच नवी| तेचि करूनि ठाणदिवी| जो इंद्रियांतें चोरूनि जेवी| तयासीचि फावे ||२३|| येथ श्रवणाचेनि पांगें- | वीण श्रोतयां होआवें लागे| हे मनाचेनि निजांगें| भोगिजे गा ||२४|| आहाच बोलाची वालीफ फेडिजे| आणि ब्रह्माचियाचि आंगा घडिजे| मग सुखेंसी सुरवाडिजे| सुखाचि माजीं ||२५|| ऐसें हळुवारपण जरी येईल| तरीच हें उपेगा जाईल| एऱ्हवीं आघवी गोठी होईल| मुकिया बहिरयाची ||२६|| परी तें असो आतां आघवें| नलगे श्रोतयांतें कडसावें| जे अधिकारिये एथ स्वभावें| निष्कामकामु ||२७|| जिहीं आत्मबोधाचिया आवडी| केली स्वर्गसंसाराची कुरोंडी| तेवांचूनि एथींची गोडी| नेणती आणिक ||२८|| जैसा वायसीं चंद्र नोळखिजे| तैसा प्राकृतीं हा ग्रंथु नेणिजे| आणि तो हिमांशुचि जेविं खाजें| चकोराचें ||२९|| तैसा सज्ञानासी तरी हा ठावो| आणि अज्ञानासी आन गांवो| म्हणौनि बोलावया विषय पहा हो| विशेषु नाहीं ||३०|| परी अनुवादलों मी प्रसंगें| तें सज्जनीं उपसाहावें लागे| आतां सांगेन काय श्रीरंगें| निरोपिलें जें ||३१|| तें बुद्धीही आकळितां सांकडें| म्हणौनि बोलीं विपायें सांपडे| परी श्रीनिवृत्तिकृपादीप उजियेडें| देखैन मी ||३२|| जें दिठीही न पविजे| तें दिठीविण देखिजे| जरी अतींद्रिय लाहिजे| ज्ञानबळ ||३३|| ना तरी जें धातुवादाही न जोडे| तें लोहींचि पंधरें सांपडे| जरी दैवयोगें चढे| परिसु हातां ||३४|| तैसी गुरुकृपा होये| तरी करितां काय आपु नोहे| म्हणौनि तें अपार मातें आहे| ज्ञानदेवो म्हणे ||३५|| तेणें कारणें मी बोलेन| बोलीं अरूपाचें रूप दावीन| अतींद्रिय परी भोगवीन| इंद्रियांकरवीं ||३६|| आइका यश श्री औदार्य| ज्ञान वैराग्य ऐश्वर्य| हे साही गुणवर्य| वसती जेथ ||३७|| म्हणौनि तो भगवंतु| जो निःसंगाचा सांगातु| तो म्हणे पार्था दत्तचित्तु| होईं आतां ||३८|| श्रीभगवानुवाच | अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ||१|| आइकें योगी आणि संन्यासी जनीं| हे एकचि सिनानें झणीं मानीं| एऱ्हवीं विचारिजती जंव दोन्ही| तंव एकचि ते ||३९|| सांडिजे दुजया नामाचा आभासु| तरी योगु तोचि संन्यासु| पाहतां ब्रह्मीं नाहीं अवकाशु| दोहींमाजीं ||४०|| जैसें नामाचेनि अनारिसेपणें| एका पुरुषातें बोलावणें| कां दोहींमार्गीं जाणें| एकाचि ठाया ||४१|| नातरी एकचि उदक सहजें| परि सिनाना घटीं भरिजे| तैसें भिन्नत्व जाणिजे| योगसंन्यासांचें ||४२|| आइकें सकळ संमतें जगीं| अर्जुना गा तोचि योगी| जो कर्में करूनि रागी| नोहेचि फळीं ||४३|| जैसी मही हे उद्भिजें| जनी अहंबुद्धीवीण सहजें| आणि तेथिंचीं तियें बीजें| अपेक्षीना ||४४|| तैसा अन्वयाचेनि आधारें| जातीचेनि अनुकारें| जें जेणें अवसरें| करणें पावे ||४५|| तें तैसेंचि उचित करी| परी साटोपु नोहे शरीरीं| आणि बुद्धीही करोनि फळवेरी| जायेचिना ||४६|| ऐसा तोचि संन्यासी| पार्था गा परियेसीं| तोचि भरंवसेनिसीं| योगीश्वरु ||४७|| वांचूनि उचित कर्म प्रासंगिक| तयातें म्हणे हे सांडावें बद्धक| तरी टांकोटांकीं आणिक| मांडीचि तो ||४८|| जैसा क्षाळूनियां लेपु एकु| सवेंचि लाविजे आणिकु| तैसेनि आग्रहाचा पाइकु| विचंबे वायां ||४९|| गृहस्थाश्रमाचें वोझें| कपाळीं आधींचि आहे सहजें| कीं तेंचि संन्याससवा ठेविजे| सरिसें पुढती ||५०|| म्हणौनि अग्निसेवा न सांडितां| कर्माची रेखा नोलांडितां| आहे योगसुख स्वभावता| आपणपांचि ||५१|| यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव | न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ||२|| ऐकें संन्यासी तोचि योगी| ऐसी एकवाक्यतेची जगीं| गुढी उभविली अनेगीं| शास्त्रांतरीं ||५२|| जेथ संन्यासिला संकल्पु तुटे| तेथचि योगाचें सार भेटे| ऐसें हें अनुभवाचेनि धटें| साचें जया ||५३|| आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते | योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ||३|| आतां योगाचळाचा निमथा| जरी ठाकावा आथि पार्था| तरी सोपाना या कर्मपथा| चुका झणी ||५४|| येणें यमनियमांचेनि तळवटें| रिगे आसनाचिये पाउलवाटें| येई प्राणायामाचेनि आडकंठें| वरौता गा ||५५|| मग प्रत्याहाराचा अधाडा| जो बुद्धीचियाही पायां निसरडा| जेथ हटिये सांडिती होडा| कडेलग ||५६|| तरी अभ्यासाचेनि बळें| प्रत्याहारीं निराळें| नखीं लागेल ढाळें ढाळें| वैराग्याची ||५७|| ऐसा पवनाचेनि पाठारें| येतां धारणेचेनि पैसारें| क्रमी ध्यानाचें चवरें| सांपडे तंव ||५८|| मग तया मार्गाची धांव| पुरेल प्रवृत्तीची हांव| जेथ साध्यसाधना खेंव| समरसें होय ||५९|| जेथ पुढील पैसु पारुखे| मागील स्मरावें तें ठाके| ऐसिये सरिसीये भूमिके| समाधि राहे ||६०|| येणें उपायें योगारूढु| जो निरवधि जाहला प्रौढु| तयाचिया चिन्हांचा निवाडु| सांगैन आइकें ||६१|| यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते | सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ||४|| तरी जयाचिया इंद्रियांचिया घरा| नाहीं विषयांचिया येरझारा| जो आत्मबोधाचिया वोवरां| पहुडला असे ||६२|| जयाचें सुखदुःखाचेनि आंगें| झगटलें मानस चेवो नेघे| विषय पासींही आलियां से न रिगे| हें काय म्हणौनि ||६३|| इंद्रियें कर्माच्या ठायीं| वाढीनलीं परि कहीं| फळहेतूची चाड नाहीं| अंतःकरणीं ||६४|| असतेनि देहें एतुला| जो चेतुचि दिसे निदेला| तोचि योगारूढु भला| वोळखें तूं ||६५|| तेथ अर्जुन म्हणे अनंता| हें मज विस्मो बहु आइकतां| सांगे तया ऐसी योग्यता| कवणें दीजे ||६६|| उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||५|| तंव हांसोनि श्रीकृष्ण म्हणे| तुझें नवल ना हें बोलणें| कवणासि काय दिजेल कवणें| अद्वैतीं इये ||६७|| पैं व्यामोहाचिये शेजे| बळिया अविद्या निद्रितु होइजे| ते वेळी दुःस्वप्न हा भोगिजे| जन्ममृत्यूंचा ||६८|| पाठीं अवसांत ये चेवो| तैं तें अवघेंचि होय वावो| ऐसा उपजे नित्य सद्भावो| तोहि आपणपांचि ||६९|| म्हणौनि आपणचि आपणयां| घातु कीजतु असे धनंजया| चित्त देऊनि नाथिलिया| देहाभिमाना ||७०|| बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः | अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||६|| हा विचारूनि अहंकारु सांडिजे| मग असतीचि वस्तु होईजे| तरी आपली स्वस्ति सहजें| आपण केली ||७१|| एऱ्हवीं कोशकीटकाचिया परी| तो आपणया आपण वैरी| जो आत्मबुद्धि शरीरीं| चारुस्थळीं ||७२|| कैसे प्राप्तीचिये वेळे| निदैवा अंधळेपणाचे डोहळे| कीं असते आपुले डोळे| आपण झांकी ||७३|| कां कवण एकु भ्रमलेपणें| मी तो नव्हे गा चोरलों म्हणे| ऐसा नाथिला छंदु अंतःकरणें| घेऊनि ठाके ||७४|| एऱ्हवीं होय तें तोचि आहे| परि काई कीजे बुद्धि तैशी नोहे| देखा स्वप्नींचेनि घायें| कीं मरे साचें ||७५|| जैशी ते शुकाचेनि आंगभारें| नळिका भोविन्नली एरी मोहरें| तेणें उडावें परी न पुरे| मनशंका ||७६|| वायांचि मान पिळी| अटुवें हियें आंवळी| टिटांतु नळी| धरूनि ठाके ||७७|| म्हणे बांधला मी फुडा| ऐसिया भावनेचिया पडे खोडां| कीं मोकळिया पायांचा चवडा| गोंवी अधिकें ||७८|| ऐसा काजेंवीण आंतुडला| तो सांग पां काय आणिकें बांधिला| मग न सोडीच जऱ्ही नेला| तोडूनि अर्धा ||७९|| म्हणौनि आपणयां आपणचि रिपु| जेणें वाढविला हा संकल्पु| येर स्वयंबुद्धी म्हणे बापु| जो नाथिलें नेघे ||८०|| जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः | शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ||७|| तया स्वांतःकरणजिता| सकळकामोपशांता| परमात्मा परौता| दुरी नाहीं ||८१|| जैसा किडाळाचा दोषु जाये| तरी पंधरें तेंचि होये| तैसें जीवा ब्रह्मत्व आहे| संकल्पलोपीं ||८२|| हा घटाकारु जैसा| निमालिया तया अवकाशा| नलगे मिळों जाणें आकाशा| आना ठाया ||८३|| तैसा देहाहंकारु नाथिला| हा समूळ जयाचा नाशिला| तोचि परमात्मा संचला| आधींचि आहे ||८४|| आतां शीतोष्णाचिया वाहणी| तेथ सुखदुःखाची कडसणीं| इयें न समाती कांहीं बोलणीं| मानापमानांचीं ||८५|| जे जिये वाटा सूर्यु जाये| तेउतें तेजाचें विश्व होये| तैसें तया पावे तें आहे| तोचि म्हणौनी ||८६|| देखैं मेघौनि सुटती धारा| तिया न रुपती जैसिया सागरा| तैशीं शुभाशुभें योगीश्वरा| नव्हती आनें ||८७|| ज्ञ्यानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः | युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ||८|| जो हा विज्ञानात्मकु भावो| तया विवरितां जाहला वावो| मग लागला जंव पाहों| तंव ज्ञान तें तोचि ||८८|| आतां व्यापकु कीं एकदेशी| हे ऊहापोही जे ऐसी| ते करावी ठेली आपैशी| दुजेनवीण ||८९|| ऐसा शरीरीचि परी कौतुकें| परब्रह्माचेनि पाडें तुकें| जेणें जिंतलीं एकें| इंद्रियें गा ||९०|| तो जितेंद्रियु सहजें| तोचि योगयुक्तु म्हणिजे| जेणे सानें थोर नेणिजे| कवणें काळीं ||९१|| देखैं सोनयाचें निखळ| मेरुयेसणें ढिसाळ| आणि मातियेचें डिखळ| सरिसेंचि मानी ||९२|| पाहतां पृथ्वीचें मोल थोडें| ऐसें अनर्घ्य रत्न चोखडें| देखें दगडाचेनि पाडें| निचाडु ऐसा ||९३|| सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु | साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||९|| तेथ सुहृद आणि शत्रु| कां उदासु आणि मित्रु| हा भावभेदु विचित्रु| कल्पूं कैंचा ||९४|| तया बंधु कोण काह्याचा| द्वेषिया कवणु तयाचा| मीचि विश्व ऐसा जयाचा| बोधु जाहला ||९५|| मग तयाचिये दिठी| अधमोत्तम असे किरीटी ? | काय परिसाचिये कसवटी| वानिया कीजे ? ||९६|| ते जैशी निर्वाण वर्णुचि करी| तैशी जयाची बुद्धी चराचरीं| होय साम्याची उजरी| निरंतर ||९७|| जे ते विश्वालंकाराचें विसुरे| जरी आहाती आनानें आकारें| तरी घडले एकचि भांगारें| परब्रह्में ||९८|| ऐसें जाणणें जें बरवें| तें फावलें तया आघवें| म्हणौनि आहाचवाहाच न झकवे| येणें आकारचित्रें ||९९|| घापे पटामाजि दृष्टी| दिसे तंतूंची सैंघ सृष्टी| परी तो एकवांचूनि गोठी| दुजी नाहीं ||१००|| ऐसेनि प्रतीती हें गवसे| ऐसा अनुभव जयातें असे| तोचि समबुद्धि हे अनारिसें| नव्हे जाणें ||१०१|| जयाचें नांव तीर्थरावो| दर्शनें प्रशस्तीसि ठावो| जयाचेनि संगें ब्रह्मभावो| भ्रांतासही ||१०२|| जयाचेनि बोलें धर्मु जिये| दिठी महासिद्धितें विये| देखैं स्वर्गसुखादि इयें| खेळु जयाचा ||१०३|| विपायें जरी आठवला चित्ता| तरी दे आपुली योग्यता| हें असो तयातें प्रशंसितां| लाभु आथि ||१०४|| योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः | एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ||१०|| पुढती अस्तवेना ऐसें| जया पाहलें अद्वैतदिवसें| मग आपणपांचि आपणु असे| अखंडित ||१०५|| ऐसिया दृष्टी जो विवेकी| पार्था तो एकाकी| सहजें अपरिग्रही जो तिहीं लोकीं| तोचि म्हणौनि ||१०६|| ऐसियें असाधारणें| निष्पन्नाचीं लक्षणें| आपुलेनि बहुवसपणें| श्रीकृष्ण बोले ||१०७|| जो ज्ञानियांचा बापु| देखणेयांचे दिठीचा दीपु| जया दादुलयाचा संकल्पु| विश्व रची ||१०८|| प्रणवाचिये पेठे| जाहलें शब्दब्रह्म माजिठे| तें जयाचिया यशा धाकुटें| वेढूं न पुरे ||१०९|| जयाचेनि आंगिकें तेजें| आवो रविशशीचिये वणिजे| म्हणौनि जग हें वेशजे- | वीण असे तया ||११०|| हां गा नामचि एक जयाचें| पाहतां गगनही दिसे टांचें| गुण एकैक काय तयाचे| आकळशील तूं ||१११|| म्हणौनि असो हें वानणें| सांगों नेणों कवणाचीं लक्षणें| दावावीं मिषें येणें| कां बोलिलों तें ||११२|| ऐकें द्वैताचा ठावोचि फेडी| ते ब्रह्मविद्या कीजेल उघडी| तरी अर्जुना पढिये हे गोडी| नासेल हन ||११३|| म्हणौनि तें तैसे बोलणें| नव्हे सपातळ आड लावणें| केलें मनचि वेगळवाणें| भोगावया ||११४|| जया सोऽहंभाव अटकु| मोक्षसुखालागोनि रंकु| तयाचिये दिठीचा झणें कळंकु| लागेल तुझिया प्रेमा ||११५|| विपाये अहंभावो ययाचा जाईल| मी तेंचि हा जरी होईल| तरी मग काय कीजेल| एकलेया ||११६|| दिठीची पाहतां निविजें| कां तोंड भरोनि बोलिजे| नातरी दाटूनि खेंव दीजे| ऐसें कवण आहे ? ||११७|| आपुलिया मना बरवी| असमाई गोठी जीवीं| ते कवणेंसि चावळावी| जरी ऐक्य जाहलें ||११८|| इया काकुळती जनार्दनें| अन्योपदेशाचेनि हाताशनें| बोलामाजि मन मनें| आलिंगूं सरलें ||११९|| हें परिसतां जरी कानडें| तरी जाण पां पार्थ उघडें| कृष्णसुखाचेंचि रूपडें| वोतलें गा ||१२०|| हें असो वयसेचिये शेवटीं| जैसें एकचि विये वांझोटी| मग ते मोहाची त्रिपुटी| नाचों लागे ||१२१|| तैसें जाहलें श्रीअनंता| ऐसें तरी मी न म्हणतां| जरी तयाचा न देखतां| अतिशयो एथ ||१२२|| पाहा पां नवल कैसें चोज| कें उपदेशु केउतें झुंज| परी पुढें वालभाचें भोज| नाचत असे ||१२३|| आवडी आणि लाजवी| व्यसन आणि शिणवी| पिसें आणि न भुलवी| तरी तेंचि काई ? ||१२४|| म्हणौनि भावार्थु तो ऐसा| अर्जुन मैत्रियेचा कुवासा| कीं सुखें श्रृंगारलिया मानसा| दर्पणु तो ||१२५|| यापरी बाप पुण्यपवित्र| जगीं भक्तिबीजासि सुक्षेत्र| तो श्रीकृष्णकृपे पात्र| याचिलागीं ||१२६|| हो कां आत्मनिवेदनातळींची| जे पीठिका होय सख्याची| पार्थु अधिष्ठात्री तेथिंची| मातृका गा ||१२७|| पासींचि गोसावी न वर्णिजे| मग पाइकाचा गुण घेईजे| ऐसा अर्जुनु तो सहजें| पढिये हरी ||१२८|| पाहां पां अनुरागें भजें| जे प्रियोत्तमें मानिजे| ते पतीहूनि काय न वानिजे| पतिव्रता ? ||१२९|| तैसा अर्जुनचि विशेषें स्तवावा| ऐसें आवडलें मज जीवा| जे तो त्रिभुवनींचिया दैवां| एकायतनु जाहला ||१३०|| जयाचिया आवडीचेनि पांगें| अमूर्तुही मूर्ती आवगें| पूर्णाहि परी लागे| अवस्था जयाची ||१३१|| तंव श्रोते म्हणती दैव| कैसी बोलाची हवाव| काय नादातें हन बरव| जिणोनि आली ||१३२|| हां हो नवल नोहे देशी| मऱ्हाटी बोलिजे तरी ऐशी| वाणें उमटताहे आकाशीं| साहित्य रंगाचे ||१३३|| कैसें उन्मेखचांदिणें तार| आणि भावार्थु पडे गार| हेचि श्लोकार्थ कुमुदिनी फार| साविया होती ||१३४|| चाडचि निचाडां करी| ऐसी मनोरथीं ये थोरी| तेणें विवळले अंतरीं| तेथ डोलु आला ||१३५|| तें निवृत्तिदासें जाणितलें| मग अवधान द्या म्हणितलें| नवल पांडवकुळीं पाहलें| कृष्णदिवसें ||१३६|| देवकीया उदरीं वाहिला| यशोदा सायासें पाळिला| कीं शेखीं उपेगा गेला| पांडवांसी ||१३७|| म्हणौनि बहुदिवस वोळगावा| कां अवसरु पाहोनि विनवावा| हाही सोसु तया सदैवा| पडेचिना ||१३८|| हें असो कथा सांगें वेगीं| मग अर्जुन म्हणे सलगी| देवा इयें संतचिन्हें आंगीं| न ठकती माझ्या ||१३९|| एऱ्हवीं या लक्षणांचिया निजसारा| मी अपाडें कीर अपुरा| परि तुमचेनि बोलें अवधारा| थोरावें जरी ||१४०|| जी तुम्ही चित्त देयाल| तरी ब्रह्म मियां होईजेल| काय जहालें अभ्यासिजेल| सांगाल जें ||१४१|| हां हो नेणों कवणाची काहाणी| आइकोनि श्लाघिजत असों अंतःकरणीं| ऐसी जहालेपणाची शिरयाणी | कायसी देवा ||१४२|| हें आंगें म्यां होईजो का| येतुलें गोसावी आपुलेपणें कीजो कां| तंव हांसोनि श्रीकृष्ण हो कां| करूं म्हणती ||१४३|| देखा संतोषु एक न जोडे| तंवचि सुखाचें सैंघ सांकडें| मग जोडलिया कवणीकडे| अपुरें असे ? ||१४४|| तैसा सर्वेश्वरु बळिया सेवकें| म्हणौनि ब्रह्मही होय तो कौतुकें| परि कैसा भारें आतला पिकें| दैवाचेनि ||१४५|| जो जन्मसहस्रांचियासाठीं| इंद्रादिकांही महागु भेटी| तो आधीनु केतुला किरीटी| जे बोलुही न साहे ||१४६|| मग ऐका जें पांडवें| म्हणितलें म्यां ब्रह्म होआवें| तें अशेषही देवें| अवधारिलें ||१४७|| तेथ ऐसेंचि एक विचारिलें| जे या ब्रह्मत्वाचे डोहळे जाहले| परि उदरा वैराग्य आहे आलें| बुद्धीचिया ||१४८|| एऱ्हवीं दिवस तरी अपुरे| परी वैराग्यवसंताचेनि भरें| जे सोऽहंभाव महुरे| मोडोनि आला ||१४९|| म्हणौनि प्राप्तिफळीं फळतां| यासि वेळु न लगेल आतां| होय विरक्तु ऐसा अनंता| भरंवसा जाहला ||१५०|| म्हणे जें जें हा अधिष्ठील| तें आरंभींच यया फळेल| म्हणौनि सांगितला न वचेल| अभ्यासु वायां ||१५१|| ऐसें विवरोनियां श्रीहरी| म्हणितलें तिये अवसरीं| अर्जुना हा अवधारीं| पंथराजु ||१५२|| तेथ प्रवृत्तितरूच्या बुडीं| दिसती निवृत्तिफळाचिया कोडी| जिये मार्गींचा कापडी| महेशु आझुनी ||१५३|| पैल योगवृंदे वहिलीं| आडवीं आकाशीं निघालीं| कीं तेथ अनुभवाच्या पाउलीं| धोरणु पडिला ||१५४|| तिहीं आत्मबोधाचेनि उजुकारें| धांव घेतली एकसरें| कीं येर सकळ मार्ग निदसुरे| सांडूनियां ||१५५|| पाठीं महर्षी येणें आले| साधकांचे सिद्ध जाहाले| आत्मविद थोरावले| येणेंचि पंथें ||१५६|| हा मार्गु जैं देखिजे| तैं तहान भूक विसरिजे| रात्रिदिवसु नेणिजे| वाटे इये ||१५७|| चालतां पाऊल जेथ पडे| तेथ अपवर्गाची खाणी उघडे| आव्हांटलिया तरी जोडे| स्वर्गसुख ||१५८|| निगिजे पूर्वींलिया मोहरा| कीं येइजे पश्चिमेचिया घरा| निश्चळपणें धनुर्धरा| चालणें एथिंचें ||१५९|| येणें मार्गें जया ठाया जाइजे| तो गांवो आपणचि होईजे| हें सांगों काय सहजें| जाणसी तूं ||१६०|| तेथ पार्थें म्हणितलें देवा| तरी तेंचि मग केव्हां| कां आर्तिसमुद्रौनि न काढावा| बुडतु जी मी ||१६१|| तंव श्रीकृष्ण म्हणती ऐसें| हें उत्सृंखळ बोलणें कायसें| आम्हीं सांगतसों आपैसें| वरि पुशिलें तुवां ||१६२|| शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः | नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ||११|| तरी विशेषें आतां बोलिजेल| परि तें अनुभवें उपेगा जाईल| म्हणौनि तैसें एक लागेल| स्थान पाहावें ||१६३|| जेथ अराणुकेचेनि कोडें| बैसलिया उठों नावडे| वैराग्यासी दुणीव चढे| देखिलिया जें ||१६४|| जो संतीं वसविला ठावो| संतोषासि सावावो| मना होय उत्सावो| धैर्याचा ||१६५|| अभ्यासुचि आपणयातें करी| हृदयातें अनुभवु वरी| ऐसी रम्यपणाची थोरी| अखंड जेथ ||१६६|| जया आड जातां पार्था| तपश्चर्या मनोरथा| पाखांडियाही आस्था| समूळ होय ||१६७|| स्वभावें वाटे येतां| जरी वरपडा जाहला अवचितां| तरी सकामुही परि माघौता| निघों विसरे ||१६८|| ऐसेनि न राहतयातें राहावी| भ्रमतयातें बैसवी| थापटूनि चेववी| विरक्तीतें ||१६९|| हें राज्य वर सांडिजे| मग निवांता एथेंचि असिजे| ऐसें श्रृंगारियांहि उपजे| देखतखेंवो ||१७०|| जें येणें मानें बरवंट| आणि तैसेंचि अतिचोखट| जेथ अधिष्ठान प्रगट| डोळां दिसे ||१७१|| आणिकही एक पहावें| जें साधकीं वसतें होआवें| आणि जनाचेनि पायरवें| रुळेचिना ||१७२|| जेथ अमृताचेनि पाडें| मुळाहीसकट गोडें| जोडती दाटें झाडें| सदा फळतीं ||१७३|| पाउला पाउला उदकें| वर्षाकाळेंही अतिचोखें| निर्झरें का विशेखें| सुलभें जेथ ||१७४|| हा आतपुही आळुमाळु| जाणिजे तरी शीतळु| पवनु अति निश्चळु| मंदु झुळके ||१७५|| बहुत करूनि निःशब्द| दाट न रिगे श्वापद| शुक हन षट्पद| तेउतें नाहीं ||१७६|| पाणिलगें हंसें| दोनी चारी सारसें| कवणे एके वेळे बैसे| तरी कोकिळही हो ||१७७|| निरंतर नाहीं| तरी आलीं गेलीं कांहीं| होतु कां मयूरेंही| आम्ही ना न म्हणों ||१७८|| परि आवश्यक पांडवा| ऐसा ठावो जोडावा| तेथ निगूढ मठ होआवा| कां शिवालय ||१७९|| दोहींमाजीं आवडे तें| जें मानलें होय चित्तें| बहुतकरूनि एकांते| बैसिजे गा ||१८०|| म्हणौनि तैसें तें जाणावें| मन राहतें पाहावें| राहील तेथ रचावें| आसन ऐसें ||१८१|| वरी चोखट मृगसेवडी| माजीं धूतवस्त्राची घडी| तळवटीं अमोडी| कुशांकुर ||१८२|| सकोमळ सरिसे| सुबद्ध राहती आपैसे| एकपाडें तैसें| वोजा घालीं ||१८३|| परि सावियाचि उंच होईल| तरी आंग हन डोलेल| नीच तरी पावेल| भूमिदोषु ||१८४|| म्हणौनि तैसें न करावें| समभावें धरावें| हें बहु असो होआवें| आसन ऐसें ||१८५|| तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः | उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ||१२|| मग तेथ आपण| एकाग्र अंतःकरण| करूनि सद्गुरुस्मरण| अनुभविजे ||१८६|| जेथ स्मरतेनि आदरें| सबाह्य सात्त्विकें भरे| जंव काठिण्य विरे| अहंभावाचें ||१८७|| विषयांचा विसरु पडे| इंद्रियांची कसमस मोडे| मनाची घडी घडे| हृदयामाजीं ||१८८|| ऐसें ऐक्य हें सहजें| फावें तंव राहिजे| मग तेणेंचि बोधें बैसिजे| आसनावरी ||१८९|| आतां आंगातें आंग वरी| पवनातें पवनु धरी| ऐसी अनुभवाची उजरी| होंचि लागे ||१९०|| प्रवृत्ति माघौति मोहरे| समाधि ऐलाडी उतरे| आघवें अभ्यासु सरे| बैसतखेंवो ||१९१|| मुद्रेची प्रौढी ऐशी| तेचि सांगिजेल आतां परियेसीं| तरी उरु या जघनासी| जडोनि घालीं ||१९२|| चरणतळें देव्हडीं| आधारद्रुमाच्या बुडीं| सुघटितें गाढीं| संचरीं पां ||१९३|| सव्य तो तळीं ठेविजे| तेणें सिवणीमध्यें पीडिजे| वरी बैसे तो सहजें| वाम चरणु ||१९४|| गुद मेंढ्राआंतौतीं| चारी अंगुळें निगुतीं| तेथ सार्ध सार्ध प्रांतीं| सांडूनियां ||१९५|| माजी अंगुळ एक निगे| तेथ टांचेचेनि उत्तरभागें| नेहेटिजे वरि आंगें| पेललेनि ||१९६|| उचलिलें कां नेणिजे| तैसें पृष्ठांत उचलिजे| गुल्फद्वय धरिजे| तेणेंचि मानें ||१९७|| मग शरीर संचु पार्था| अशेषही सर्वथा| पार्ष्णीचा माथा| स्वयंभु होय ||१९८|| अर्जुना हें जाण| मूळबंधाचें लक्षण| वज्रासन गौण| नाम यासी ||१९९|| ऐसी आधारीं मुद्रा पडे| आणि आधींचा मार्गु मोडे| तेथ अपानु आंतुलेकडे| वोहोटों लागे ||२००|| समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः | संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ||१३|| तंव करसंपुट आपैसें| वाम चरणीं बैसे| तंव बाहुमूळीं दिसे| थोरीव आली ||२०१|| माजीं उभारलेनि दंडें| शिरकमळ होय गाढें| नेत्रद्वारींचीं कवाडें| लागूं पाहती ||२०२|| वरचिलें पातीं ढळतीं| तळींचीं तळीं पुंजाळती| तेथ अर्धोन्मीलित स्थिती| उपजे तया ||२०३|| दिठी राहोनि आंतुलीकडे| बाहेर पाऊल घाली कोडें| ते ठायीं ठावो पडे| नासाग्रपीठीं ||२०४|| ऐसें आंतुच्या आंतुचि रचे| बाहेरी मागुतें न वचे| म्हणौनि राहणें आधिये दिठीचें| तेथेंचि होय ||२०५|| आतां दिशांची भेटी घ्यावी| कां रूपाची वास पहावी| हे चाड सरे आघवी| आपैसया ||२०६|| मग कंठनाळ आटे| हनुवटी हडौती दाटे| ते गाढी होऊनि नेहटे| वक्षःस्थळीं ||२०७|| माजीं घंटिका लोपे| वरी बंधु जो आरोपे| तो जालंधरु म्हणिपे| पंडुकुमरा ||२०८|| नाभीवरी पोखे| उदर हें थोके| अंतरीं फांके| हृदयकोशु ||२०९|| स्वाधिष्ठानावरिचिले कांठीं| नाभिस्थानातळवटीं| बंधु पडे किरीटी| वोढियाणा तो ||२१०|| प्रशांतात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिवरते स्थितः | मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ||१४|| कुंडलीनी दर्शन. | | | ऐसी शरीराबाहेरलीकडे| अभ्यासाची पांखर पडे| तंव आंतु त्राय मोडे| मनोधर्माची ||२११|| कल्पना निमे| प्रवृत्ती शमे| आंग मन विरमे| सावियाचि ||२१२|| क्षुधा काय जाहाली| निद्रा केउती गेली| हे आठवणही हारपली| न दिसे वेगां ||२१३|| जो मूळबंधें कोंडला| अपानु माघौता मुरडला| तो सवेंचि वरी सांकडला| धरी फुगूं ||२१४|| क्षोभलेपणें माजे| उवाइला ठायीं गाजे| मणिपूरेंसीं झुंजे| राहोनियां ||२१५|| मग थावलिये वाहटुळी| सैंघ घेऊनि घर डहुळी| बाळपणींची कुहीटुळी| बाहेर घाली ||२१६|| भीतरीं वळी न धरे| कोठ्यामाजीं संचरे| कफपित्तांचे थारे| उरों नेदी ||२१७|| धातूंचे समुद्र उलंडी| मेदाचे पर्वत फोडी| आंतली मज्जा काढी| अस्थिगत ||२१८|| नाडीतें सोडवी| गात्रांतें विघडवी| साधकातें भेडसावी| परी बिहावें ना ||२१९|| व्याधीतें दावी| सवेंचि हरवी| आप पृथ्वी कालवी| एकवाट ||२२०|| तंव येरीकडे धनुर्धरा| आसनाचा उबारा| शक्ति करी उजगरा| कुंडलिनीतें ||२२१|| नागिणीचें पिलें| कुंकुमें नाहलें| वळण घेऊनि आलें| सेजे जैसें ||२२२|| तैशी ते कुंडलिनी| मोटकी औट वळणी| अधोमुख सर्पिणी| निदेली असे ||२२३|| विद्युल्लतेची विडी| वन्हिज्वाळांची घडी| पंधरेयाची चोखडी| घोंटीव जैशी ||२२४|| तैशी सुबद्ध आटली| पुटीं होती दाटली| तें वज्रासनें चिमुटली| सावधु होय ||२२५|| तेथ नक्षत्र जैसें उलंडलें| कीं सूर्याचें आसन मोडलें| तेजाचें बीज विरूढलें| अंकुरेंशीं ||२२६|| तैशी वेढियातें सोडिती| कवतिकें आंग मोडिती| कंदावरी शक्ती| उठली दिसे ||२२७|| सहजें बहुतां दिवसांची भूक| वरी चेवविली तें होय मिष| मग आवेशें पसरी मुख| ऊर्ध्वा उजू ||२२८|| तेथ हृदयकोशातळवटीं| जो पवनु भरे किरीटी| तया सगळेयाचि मिठी| देऊनि घाली ||२२९|| मुखींच्या ज्वाळीं| तळीं वरी कवळी| मांसाची वडवाळी| आरोगूं लागे ||२३०|| जे जे ठाय समांस| तेथ आहाच जोडे घाउस| पाठी एकदोनी घांस| हियाही भरी ||२३१|| मग तळवे तळहात शोधी| उर्ध्वींचे खंड भेदी| झाडा घे संधी| प्रत्यंगाचा ||२३२|| अधोभाग तरी न संडी| परि नखींचेंही सत्त्व काढी| त्वचा धुवूनि जडी| पांजरेशीं ||२३३|| अस्थींचे नळे निरपे| शिरांचे हीर वोरपे| तंव बाहेरी विरूढी करपे| रोमबीजांची ||२३४|| मग सप्तधातूंच्या सागरीं| ताहानेली घोंट भरी| आणि सवेंचि उन्हाळा करी| खडखडीत ||२३५|| नासापुटौनि वारा| जो जातसे अंगुळें बारा| तो गच्च धरूनि माघारा| आंतु घाली ||२३६|| तेथ अध वरौतें आकुंचे| ऊर्ध्व तळौतें खांचे| तया खेंवामाजि चक्राचे| पदर उरती ||२३७|| एऱ्हवीं तरी दोन्ही तेव्हांचि मिळती| परी कुंडलिनी नावेक दुश्चित्त होती| ते तयांतें म्हणे परौती | तुम्हीचि कायसी एथें ? ||२३८|| आइकें पार्थिव धातु आघवी| आरोगितां कांहीं नुरवी| आणि आपातें तंव ठेवी| पुसोनियां ||२३९|| ऐसी दोनी भूतें खाये| ते वेळीं संपूर्ण धाये| मग सौम्य होउनि राहे| सुषुम्नेपाशीं ||२४०|| तेथ तृप्तीचेनि संतोषें| गरळ जें वमी मुखें| तेणें तियेचेनि पीयूषें| प्राणु जिये ||२४१|| तो अग्नि आंतूनि निघे| परी सबाह्य निववूंचि लागे| ते वेळीं कसु बांधिती आंगें| सांडिला पुढती ||२४२|| मार्ग मोडिती नाडीचे| नवविधपण वायूचें| जाय म्हणौनि शरीराचे| धर्मु नाहीं ||२४३|| इडा पिंगळा एकवटती| गांठी तिन्ही सुटती| साही पदर फुटती| चक्रांचे हे ||२४४|| मग शशी आणि भानु| ऐसा कल्पिजे जो अनुमानु| तो वातीवरी पवनु| गिंवसितां न दिसे ||२४५|| बुद्धीची पुळिका विरे| परिमळु घ्राणीं उरे| तोही शक्तीसवें संचरे| मध्यमेमाजीं ||२४६|| तंव वरिलेकडोनि ढाळें| चंद्रामृताचें तळें| कानवडोनी मिळे| शक्तिमुखीं ||२४७|| तेणें नाळकें रस भरे| तो सर्वांगामाजीं संचरे| जेथिंचा तेथ मुरे| प्राणपवनु ||२४८|| तातलिये मुसें| मेण निघोनि जाय जैसें| मग कोंदली राहे रसें| वोतलेनी ||२४९|| तैसें पिंडाचेनि आकारें| ते कळाचि कां अवतरे| वरी त्वचेचेनि पदरे| पांघुरली असे ||२५०|| जैशी आभाळाची बुंथी| करूनि राहे गभस्ती| मग फिटलिया दीप्ति| धरूनि ये ||२५१|| तैसा आहाचवरि कोरडा| त्वचेचा असे पातोडा| तो झडोनि जाय कोंडा| जैसा होय ||२५२|| मग काश्मीरीचे स्वयंभ| कां रत्नबीजा निघाले कोंभ| अवयवकांतीची भांब| तैसी दिसे ||२५३|| नातरी संध्यारागींचे रंग| काढूनि वळिलें तें आंग| कीं अंतर्ज्योतीचें लिंग| निर्वाळिलें ||२५४|| कुंकुमाचें भरींव| सिद्धरसाचें वोतींव| मज पाहतां सावेव| शांतिचि ते ||२५५|| तें आनंदचित्रींचें लेप| नातरी महासुखाचें रूप| कीं संतोषतरूचें रोप| थांबलें जैसें ||२५६|| तो कनकचंपकाचा कळा| कीं अमृताचा पुतळा| नाना सासिन्नला मळा| कोंवळिकेचा ||२५७|| हो कां जे शारदियेचेनि वोलें| चंद्रबिंब पाल्हेलें| कां तेजचि मूर्त बैसलें| आसनावरी ||२५८|| तैसें शरीर होये| जे वेळीं कुंडलिनी चंद्र पीये| मग देहाकृति बिहे| कृतांतु गा ||२५९|| वार्धक्य तरी बहुडे| तारुण्याची गांठी विघडे| लोपली उघडे| बाळदशा ||२६०|| वयसा तरी येतुलेवरी| एऱ्हवीं बळाचा बळार्थु करी| धैर्याची थोरी| निरुपमु ||२६१|| कनकद्रुमाच्या पालवीं| रत्नकळिका नित्य नवी| नखें तैसीं बरवीं| नवीं निघती ||२६२|| दांतही आन होती| परि अपाडें सानेजती| जैसी दुबाहीं बैसे पांती| हिरेयांची ||२६३|| माणिकुलियांचिया कणिया| सावियाचि अणुमानिया| तैसिया सर्वांगीं उधवती अणियां| रोमांचियां ||२६४|| करचरणतळें| जैसीं कां रातोत्पलें| पाखाळींव होती डोळे| काय सांगों ||२६५|| निडाराचेनि कोंदाटें| मोतियें नावरती संपुटें| मग शिवणी जैशी उतटे| शुक्तिपल्लवांची ||२६६|| तैशीं पातियांचिये कवळिये न समाये| दिठी जाकळोनि निघों पाहे| आधिलीचि परी होये| गगना कवळिती ||२६७|| आइके देह होय सोनियाचें| परि लाघव ये वायूचें| जे आप आणि पृथ्वीचे| अंशु नाहीं ||२६८|| मग समुद्रापैलीकडील देखे| स्वर्गींचा आलोचु आइके| मनोगत वोळखे| मुंगियेचें ||२६९|| पवनाचा वारिकां वळघे| चाले तरी उदकीं पाऊल न लागे| येणें येणें प्रसंगें| येती बहुता सिद्धि ||२७०|| आइकें प्राणाचा हातु धरूनी| गगनाची पाउटी करूनी| मध्यमेचेनि दादराहुनी| हृदया आली ||२७१|| ते कुंडलिनी जगदंबा| जे चैतन्यचक्रवर्तीची शोभा| जया विश्वबीजाचिया कोंभा| साउली केली ||२७२|| जे शून्यलिंगाची पिंडी| जे परमात्मया शिवाची करंडी| जे प्रणवाची उघडी| जन्मभूमी ||२७३|| हें असो ते कुंडलिनी बाळी| हृदयाआंतु आली| अनुहताची बोली| चावळे ते ||२७४|| शक्तीचिया आंगा लागलें| बुद्धीचें चैतन्य होतें जाहलें| तें तेणें आइकिलें| अळुमाळु ||२७५|| घोषाच्या कुंडीं| नादचित्रांचीं रूपडीं| प्रणवाचिया मोडी| रेखिलीं ऐसीं ||२७६|| हेंचि कल्पावें तरी जाणिजे| परी कल्पितें कैचें आणिजे| तरी नेणों काय गाजे| तिये ठायीं ||२७७|| विसरोनि गेलों अर्जुना| जंव नाशु नाहीं पवना| तंव वाचा आथी गगना| म्हणौनि घुमे ||२७८|| तया अनाहताचेनि मेघें| आकाश दुमदुमों लागे| तंव ब्रह्मस्थानींचें बेगें| सहज फिटे ||२७९|| आइकें कमळगर्भाकारें| जें महदाकाश दुसरें| जेथ चैतन्य आधातुरें| करूनि असिजे ||२८०|| तया हृदयाच्या परिवरीं| कुंडलिनिया परमेश्वरी| तेजाची शिदोरी| विनियोगिली ||२८१|| बुद्धीचेनि शाकें| हातबोनें निकें| द्वैत तेथ न देखे| तैसें केलें ||२८२|| निजकांती हारविली| मग प्राणुचि केवळ जाहाली| ते वेळीं कैसी गमली| म्हणावी पां ? ||२८३|| हो कां जे पवनाची पुतळी| पांघुरली होती सोनसळी| ते फेडूनियां वेगळी| ठेविली तिया ||२८४|| नातरी वायूचेनि आंगें झगटली| दीपाची दिठी निवटली| कां लखलखोनि हारपली| वीजु गगनीं ||२८५|| तैशी हृदयकमळवेऱ्हीं| दिसे जैशी सोनियाची सरी| नातरी प्रकाशजळाची झरी| वाहत आली ||२८६|| मग ते हृदयभूमी पोकळे| जिराली कां एके वेळे| तैसें शक्तीचें रूप मावळे| शक्तीचिमाजीं ||२८७|| तेव्हां तरी शक्तीचि म्हणिजे| एऱ्हवीं तो प्राणु केवळ जाणिजे| आतां नादुबिंदु नेणिजे| कळा ज्योती ||२८८|| मनाचा हन मारु| कां पवनाचा आधारु| ध्यानाचा आदरु| नाहीं परी ||२८९|| हे कल्पना घे सांडी| तें नाहीं इये परवडी| हे महाभूतांची फुडी| आटणी देखां ||२९०|| पिंडें पिंडाचा ग्रासु| तो हा नाथसंकेतींचा दंशु| परि दाऊनि गेला उद्देशु| श्रीमहाविष्णु ||२९१|| तया ध्वनिताचें केणें सोडुनि| यथार्थाची घडी झाडुनी| उपलविली म्यां जाणुनी| ग्राहीक श्रोते ||२९२|| युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः | शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ||१५|| ऐकें शक्तीचें तेज जेव्हां लोपे| तेथ देहाचें रूप हारपे| मग तो डोळ्यांमाजीं लपे| जगाचिया ||२९३|| एऱ्हवीं आधिलाचि ऐसें| सावयव तरी दिसे| परी वायूचें कां जैसें| वळिलें होय ||२९४|| नातरी कर्दळीचा गाभा| बुंथी सांडोनी उभा| कां अवयवचि नभा| उदयला तो ||२९५|| तैसें होय शरीर| तैं तें म्हणिजे खेचर| हें पद होतां चमत्कार| पिंडजनीं ||२९६|| देखें साधकु निघोनि जाये| मागां पाउलांची वोळ राहे| तेथ ठायीं ठायीं होये| अणिमादिक ||२९७|| परि तेणें काय काज आपणयां| अवधारीं ऐसा धनंजया| लोप आथी भूतत्रया| देहींचा देहीं ||२९८|| पृथ्वीतें आप विरवी| आपातें तेज जिरवी| तेजातें पवनु हरवी| हृदयामाजीं ||२९९|| पाठीं आपण एकला उरे| परि शरीराचेनि अनुकारें| मग तोही निगे अंतरें| गगना मिळे ||३००|| ते वेळीं कुंडलिनी हे भाष जाये| मग मारुती ऐसें नाम होये| परि शक्तिपण तें आहे| जंव न मिळे शिवीं ||३०१|| मग जालंधर सांडी| ककारांत फोडी| गगनाचिये पाहाडीं| पैठी होय ||३०२|| ते ॐ काराचिये पाठी| पाय देत उठाउठी| पश्यंतीचिये पाउटी| मागां घाली ||३०३|| पुढां तन्मात्रा अर्धवेरी| आकाशाच्या अंतरीं| भरती गमे सागरीं| सरिता जेवीं ||३०४|| मग ब्रह्मरंध्रीं स्थिरावोनी| सोऽहंभावाच्या बाह्या पसरुनी| परमात्मलिंगा धांवोनी| आंगा घडे ||३०५|| तंव महाभूतांची जवनिका फिटे| मग दोहींसि होय झटें| तेथ गगनासकट आटे| समरसीं तिये ||३०६|| पैं मेघाचेनि मुखीं निवडिला| समुद्र कां वोघीं पडिला| तो मागुता जैसा आला| आपणपयां ||३०७|| तेवीं पिंडाचेनि मिषें| पदीं पद प्रवेशे| तें एकत्व होय तैसें| पंडुकुमरा ||३०८|| आतां दुजें हन होतें| कीं एकचि हें आइतें| ऐशिये विवंचनेपुरतें| उरेचिना ||३०९|| गगनीं गगन लया जाये| ऐसें जें कांहीं आहे| तें अनुभवें जो होये| तो होऊनि ठाके ||३१०|| म्हणौनि तेथिंची मातु| न चढेचि बोलाचा हातु| जेणें संवादाचिया गांवाआंतु| पैठी कीजे ||३११|| अर्जुना एऱ्हवीं तरी| इया अभिप्रायाचा जे गर्व धरी| ते पाहें पां वैखरी| दुरी ठेली ||३१२|| भ्रूलता मागिलीकडे| तेथ मकाराचेंचि आंग न मांडे| सडेया प्राणा सांकडें| गगना येतां ||३१३|| पाठीं तेथेंचि तो भेसळला| तैं शब्दाचा दिवो मावळला| मग तयाहि वरी आटु भविन्नला| आकाशाचा ||३१४|| आतां महाशून्याचिया डोहीं| जेथ गगनसीचि थावो नाहीं| तेथ तागा लागेल काई| बोलाचा इया ? ||३१५|| म्हणौनि आखरामाजीं सांपडे| कीं कानवरी जोडे| हे तैसें नव्हे फुडें| त्रिशुद्धी गा ||३१६|| जें कहीं दैवें| अनुभविलें फावे| तैं आपणचि हें ठाकावें| होऊनियां ||३१७|| पुढती जाणणें तें नाहींचि| म्हणौनि असो किती हेंचि| बोलावें आतां वायांचि| धनुर्धरा ||३१८|| ऐसें शब्दजात माघौतें सरे| तेथ संकल्पाचें आयुष्य पुरे| वाराही जेथ न शिरे| विचाराचा ||३१९|| जें उन्मनियेचें लावण्य| जें तुर्येचें तारुण्य| अनादि जें अगण्य| परमतत्त्व ||३२०|| जें विश्वाचें मूळ| जें योगद्रुमाचें फळ| जें आनंदाचें केवळ| चैतन्य गा ||३२१|| जें आकाराचा प्रांतु| जें मोक्षाचा एकांतु| जेथ आदि आणि अंतु| विरोनी गेले ||३२२|| जें महाभूतांचें बीज| जें महातेजाचें तेज| एवं पार्था जें निज- | स्वरूप माझें ||३२३|| ते हे चतुर्भुज कोंभेली| जयाची शोभा रूपा आली| देखोनि नास्तिकीं नोकिलीं| भक्तवृंदें ||३२४|| तें अनिर्वाच्य महासुख| पैं आपणचि जाहले जे पुरुष| जयांचे कां निष्कर्ष| प्राप्तिवेरीं ||३२५|| आम्हीं साधन हें जें सांगितलें| तेंचि शरीरीं जिहीं केलें| ते आमुचेनि पाडें आले| निर्वाळलेया ||३२६|| परब्रह्माचेनि रसें| देहाकृतीचिये मुसें| वोतींव जाहले तैसे| दिसती आंगें ||३२७|| जरी हे प्रतीति हन अंतरीं फांके| तरी विश्वचि हें अवघें झांके| तंव अर्जुन म्हणे निकें| साचचि जी हें ||३२८|| कां जें आपण आतां देवो| हा बोलिले जो उपावो| तो प्राप्तीचा ठावो| म्हणोनि घडे ||३२९|| इये अभ्यासीं जे दृढ होती| ते भरंवसेनि ब्रह्मत्वा येती| हें सांगतियाची रीती| कळलें मज ||३३०|| देवा गोठीचि हे ऐकतां| बोधु उपजतसे चित्ता| मा अनुभवें तल्लीनता| नोहेल केवीं ? ||३३१|| म्हणौनि एथ कांहीं| अनारिसें नाहीं| परी नावभरी चित्त देईं| बोला एका ||३३२|| आतां कृष्णा तुवां सांगितला योगु| तो मना तरी आला चांगु| परि न शकें करूं पांगु| योग्यतेचा ||३३३|| सहजें आंगिक जेतुलें आहे| तेतुलियाची जरी सिद्धि जाये| तरी हाचि मार्गु सुखोपायें| अभ्यासीन ||३३४|| नातरी देवो जैसें सांगतील| तैसें आपणपें जरी न ठकेल| तरी योग्यतेवीण होईल| तेंचि पुसों ||३३५|| जीवींचिये ऐसी धारण| म्हणोनि पुसावया जाहलें कारण| मग म्हणे तरी आपण| चित्त देइजो ||३३६|| हां हो जी अवधारिलें| जें हें साधन तुम्हीं निरूपिलें| तें आवडतयाहि अभ्यासिलें| फावों शके ? ||३३७|| कीं योग्यतेवीण नाहीं| ऐसें हन आहे कांहीं| तेथ श्रीकृष्ण म्हणती काई| धनुर्धरा ||३३८|| हें काज कीर निर्वाण| परि आणिकही जें कांहीं साधारण| तेंही अधिकाराचे वोडवेविण| काय सिद्धि जाय ? ||३३९|| पैं योग्यता जे म्हणिजे| ते प्राप्तीची अधीन जाणिजे| कां जे योग्य होऊनि कीजे| तें आरंभिलें फळें ||३४०|| तरी तैसी एथ कांहीं| सावियाचि केणी नाहीं| आणि योग्यतेची काई| खाणी असे ? ||३४१|| नावेक विरक्तु| जाहला देहधर्मीं नियतु| तरि तोचि नव्हे व्यवस्थितु| अधिकारिया ? ||३४२|| येतुलालिये आयणीमाजिवडें| योग्यपण तूतेंही जोडे| ऐसें प्रसंगें सांकडें| फेडिलें तयाचें ||३४३|| मग म्हणे पार्था| ते हे ऐसी व्यवस्था| अनियतासि सर्वथा| योग्यता नाहीं ||३४४|| नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः | न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ||१६|| जो रसनेंद्रियाचा अंकिला| कां निद्रेसी जीवें विकला| तो नाहींच एथ म्हणितला| अधिकारिया ||३४५|| अथवा आग्रहाचिये बांदोडी| क्षुधा तृषा कोंडी| आहारातें तोडी| मारूनियां ||३४६|| निद्रेचिया वाटा नवचे| ऐसा दृढिवेचेनि अवतरणें नाचे| तें शरीरचि नव्हे तयाचें| मा योगु कवणाचा ? ||३४७|| म्हणौनि अतिशयें विषयो सेवावा| तैसा विरोधु नोहावा| कां सर्वथा निरोधावा| हेंही नको ||३४८|| युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु | युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||१७|| आहार तरी सेविजे| परी युक्तीचेनि मापें मविजे| क्रियाजात आचरिजे| तयाचि स्थिती ||३४९|| मितला बोलीं बोलिजे| मितलिया पाउलीं चालिजे| निद्रेही मानु दीजे| अवसरें एकें ||३५०|| जागणें जरी जाहलें| तरी होआवें तें मितलें| येतुलेनि धातुसाम्य संचलें| असेल सहजें ||३५१|| ऐसें युक्तीचेनि हातें| जें इंद्रियां वोपिजे भातें| तैं संतोषासी वाढतें| मनचि करी ||३५२|| यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते | निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ||१८|| बाहेर युक्तीची मुद्रा पडे| तव आंत आंत सुख वाढे| तेथें सहजेंचि योगु घडे| नाभ्यासितां ||३५३|| जैसें भाग्याचिया भडसें| उद्यमाचेनि मिसें| मग समृद्धिजात आपैसें| घर रिघे ||३५४|| तैसा युक्तिमंतु कौतुकें| अभ्यासाचिया मोहरा ठाके| आणि आत्मसिद्धीचि पिके| अनुभवु तयाचा ||३५५|| म्हणोनि युक्ति हे पांडवा| घडे जया सदैवा| तो अपवर्गीचिये राणिवा| अळंकारिजे ||३५६|| यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता | योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ||१९|| युक्ति योगाचें आंग पावे| ऐसें प्रयाग जेथ होय बरवें| तेथ क्षेत्रसंन्यासें स्थिरावें| मानस जयाचें ||३५७|| तयातें योगयुक्त तूं म्हण| हेंही प्रसंगें जाण| तें दीपाचे उपलक्षण| निर्वातींचिया ||३५८|| आतां तुझें मनोगत जाणोनी| कांहीं एक आम्ही म्हणौनि| तें निकें चित्त देउनी| परिसावें गा ||३५९|| तूं प्राप्तीची चाड वाहसी| परी अभ्यासीं दक्षु नव्हसी| तें सांग पां काय बिहसी| दुवाडपणा ? ||३६०|| तरी पार्था हें झणें| सायास घेशीं हो मनें| वायां बागूल इये दुर्जनें| इंद्रियें करिती ||३६१|| पाहें पां आयुष्यातें अढळ करी| जें सरतें जीवित वारी| तया औषधातें वैरी| काय जिव्हा न म्हणे ? ||३६२|| ऐसें हितासि जें जें निकें| तें सदाचि या इंद्रियां दुःखें| एऱ्हवीं सोपें योगासारिखें| कांहीं आहे ? ||३६३|| यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया | यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ||२०|| सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् | वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ||२१|| म्हणौनि आसनाचिया गाढिका| जो आम्हीं अभ्यासु सांगितला निका| तेणें होईल तरी हो कां| निरोधु यया ||३६४|| एऱ्हवीं तरी येणें योगें| जैं इंद्रियां विंदाण लागे| तैं चित्त भेटों रिगे| आपणपेयां ||३६५|| परतोनि पाठिमोरें ठाके| आणि आपणियांतें आपण देखे| देखतखेवों वोळखे| म्हणे तत्त्व हें मी ||३६६|| तिये ओळखीचिसरिसें| सुखाचिया साम्राज्यीं बैसे| मग आपणपां समरसें| विरोनि जाय ||३६७|| जयापरतें आणिक नाहीं| जयातें इंद्रियें नेणती कहीं| तें आपणचि आपुलिया ठायीं| होऊनि ठाके ||३६८|| यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः | यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||२२|| मग मेरूपासूनि थोरें| देह दुःखाचेनि डोंगरें| दाटिजो पां पडिभरें| चित्त न दटे ||३६९|| कां शस्त्रें वरी तोडिलिया| देह अग्निमाजीं पडलिया| चित्त महासुखीं पहुडलिया| चेवोचि नये ||३७०|| ऐसें आपणपां रिगोनि ठाये| मग देहाची वासु न पाहे| आणिकचि सुख होऊनि जाये| म्हणूनि विसरे ||३७१|| तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् | स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ||२३|| जया सुखाचिया गोडी| मग आर्तीची सेचि सोडी| संसाराचिया तोंडीं| गुंतलें जें ||३७२|| जें योगाची बरव| संतोषाची राणिव| ज्ञानाची जाणीव| जयालागीं ||३७३|| तें अभ्यासिलेनि योगें| सावयव देखावें लागे| देखिलें तरी आंगें| होईजेल गा ||३७४|| संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः | मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ||२४|| तरि तोचि योगु बापा| एके परी आहे सोपा| जरी पुत्रशोकु संकल्पा| दाखविजे ||३७५|| हां विषयातें निमालिया आइके| इंद्रियें नेमाचिया धारणीं देखे| तरी हियें घालूनि मुके| जीवित्वासी ||३७६|| ऐसें वैराग्य हें करी| तरी संकल्पाची सरे वारी| सुखें धृतीचिया धवळारीं| बुद्धि नांदे ||३७७|| शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया | आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न कींचिदपि चिन्तयेत् ||२५|| यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||२६|| बुद्धी धैर्या होय वसौटा| मनातें अनुभवाचिया वाटा| हळु हळु करी प्रतिष्ठा| आत्मभुवनीं ||३७८|| याही एके परी| प्राप्ती आहे विचारीं| हें न ठके तरी सोपारी| आणिक ऐकें ||३७९|| आतां नियमुचि हा एकला| जीवें करावा आपुला| जैसा कृतनिश्चयाचिया बोला- | बाहेरा नोहे ||३८०|| जरी येतुलेनि चित्त स्थिरावें| तरी काजा आलें स्वभावें| नाहीं तरी घालावें| मोकलुनी ||३८१|| मग मोकलिलें जेथ जाईल| तेथूनि नियमूचि घेउनि येईल| ऐसेनि स्थैर्यचि होईल| सावियाचि कीं ||३८२|| प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् | उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ||२७|| पाठीं केतुलेनि एके वेळे| तया स्थैर्याचेनि मेळें| आत्मस्वरूपाजवळें| येईल सहजें ||३८३|| तयातें देखोनि आंगा घडेल| तेथ अद्वैतीं द्वैत बुडेल| आणि ऐक्यतेजें उघडेल| त्रैलोक्य हें ||३८४|| आकाशीं दिसे दुसरें| तें अभ्र जैं विरे| तैं गगनचि कां भरे| विश्व जैसें ||३८५|| तैसें चित्त लया जाये| आणि चैतन्यचि आघवें होये| ऐसी प्राप्ति सुखोपायें| आहे येणें ||३८६|| युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः | सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ||२८|| या सोपिया योगस्थिती| उकलु देखिला गा बहुतीं| संकल्पाचिया संपत्ती| रुसोनियां ||३८७|| तें सुखाचेनि सांगातें| आलें परब्रह्मा आंतौतें| तेथ लवण जैसें जळातें| सांडूं नेणें ||३८८|| तैसें होय तिये मेळीं| मग सामरस्याचिया राउळीं| महासुखाची दिवाळी| जगेंसि दिसे ||३८९|| ऐसें आपुले पायवरी| चालिजे आपुले पाठीवरी| हें पार्था नागवे तरी| आन ऐकें ||३९०|| सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि | ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ||२९|| यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||३०|| तरी मी तंव सकळ देहीं| असे एथ विचारु नाहीं| आणि तैसेंचि माझ्या ठायीं| सकळ असे ||३९१|| हें ऐसेंचि संचलें| परस्परें मिसळलें| बुद्धी घेपे एतुलें| होआवें गा ||३९२|| एऱ्हवीं तरी अर्जुना| जो एकवटलिया भावना| सर्वभूतीं अभिन्ना| मातें भजे ||३९३|| भूतांचेनि अनेकपणें| अनेक नोहे अंतःकरणें| केवळ एकत्वचि माझें जाणें| सर्वत्र जो ||३९४|| मग तो एक हा मियां| बोलता दिसतसे वायां| एऱ्हवीं न बोलिजे तरी धनंजया| तो मीचि आहें ||३९५|| दीपा आणि प्रकाशा| एकवंकीचा पाडु जैसा| तो माझ्या ठायीं तैसा| मी तयामाजीं ||३९६|| जैसा उदकाचेनि आयुष्यें रसु| कां गगनाचेनि मानें अवकाशु| तैसा माझेनि रूपें रूपसु| पुरुषु तो गा ||३९७|| सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः | सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ||३१|| जेणें ऐक्याचिये दिठी| सर्वत्र मातेंचि किरीटी| देखिला जैसा पटीं| तंतु एकु ||३९८|| कां स्वरूपें तरी बहुतें आहाती| परी तैसीं सोनीं बहुवें न होती| ऐसी ऐक्याचळाची स्थिती| केली जेणें ||३९९|| नातरी वृक्षांचीं पानें जेतुलीं| तेतुलीं रोपें नाहीं लाविलीं| ऐसी अद्वैतदिवसें पाहली| रात्री जया ||४००|| तो पंचात्मकीं सांपडे| तरी मग सांग पां कैसेनि अडे ? | जो प्रतीतीचेनि पाडें| मजसीं तुके ||४०१|| माझें व्यापकपण आघवें| गवसलें तयाचेनि अनुभवें| तरी न म्हणतां स्वभावें| व्यापकु जाहला ||४०२|| आतां शरीरीं तरी आहे| परी शरीराचा तो नोहे| ऐसें बोलवरी होये| तें करूं ये काई ||४०३|| आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन | सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ||३२|| म्हणौनि असो तें विशेषें| आपणपेयांसारिखें| जो चराचर देखे| अखंडित ||४०४|| सुखदुःखादि वर्में| कां शुभाशुभें कर्में| दोनी ऐसीं मनोधर्में| नेणेचि जो ||४०५|| हें सम विषम भाव| आणिकही विचित्र जें सर्व| तें मानी जैसे अवयव| आपुले होती ||४०६|| हें एकैक काय सांगावें| जया त्रैलोक्यचि आघवें| मी ऐसें स्वभावें| बोधा आलें ||४०७|| तयाही देह एकु कीर आथी| लौकिकीं सुखदुःखी तयातें म्हणती| परी आम्हांतें ऐसी प्रतीती| परब्रह्मचि हा ||४०८|| म्हणौनि आपणपां विश्व देखिजे| आणि आपण विश्व होईजे| ऐसें साम्यचि एक उपासिजे| पांडवा गा ||४०९|| हें तूतें बहुतीं प्रसंगीं| आम्ही म्हणों याचिलागीं| जे साम्यापरौती जगीं| प्राप्ति नाहीं ||४१०|| अर्जुन उवाच | योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन | एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ||३३|| चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् | तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||३४|| तंव अर्जुन म्हणे देवा| तुम्ही सांगा कीर आमुचिया कणवा| परी न पुरों जी स्वभावा| मनाचिया ||४११|| हें मन कैसें केवढें| ऐसें पाहों म्हणों तरी न सांपडें| एऱ्हवीं राहाटावया थोडें| त्रैलोक्य यया ||४१२|| म्हणौनि ऐसें कैसें घडेल| जे मर्कट समाधी येईल| कां राहा म्हणतलिया राहेल| महावातु ? ||४१३|| जें बुद्धीतें सळी| निश्चयातें टाळी| धैर्येसीं हातफळी| मिळऊनि जाय ||४१४|| जें विवेकातें भुलवी| संतोषासी चाड लावी| बैसिजे तरी हिंडवी| दाही दिशा ||४१५|| जें निरोधलें घे उवावो| जया संयमुचि होय सावावो| तें मन आपुला स्वभावो| सांडील काई ? ||४१६|| म्हणौनि मन एक निश्चळ राहेल| मग आम्हांसि साम्य होईल| हें विशेषेंही न घडेल| याचिलागीं ||४१७|| श्रीभगवानुवाच | असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ||३५|| तंव कृष्ण म्हणती साचचि| बोलत आहासि तें तैसेंचि| यया मनाचा कीर चपळचि| स्वभावो गा ||४१८|| परि वैराग्याचेनि आधारें| जरी लाविलें अभ्यासाचिये मोहरें| तरी केतुलेनि एके अवसरें| स्थिरावेल ||४१९|| कां जें यया मनाचें एक निकें| जें देखिलें गोडीचिया ठाया सोके| म्हणौनि अनुभवसुखचि कवतिकें| दावीत जाइजे ||४२० || असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः | वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ||३६|| एऱ्हवीं विरक्ति जयांसि नाहीं| जे अभ्यासीं न रिघती कहीं| तयां नाकळे हें आम्हीही| न मनूं कायी ||४२१|| परि यमनियमांचिया वाटा न वचिजे| कहीं वैराग्याची से न करिजे| केवळ विषयजळीं ठाकिजे| बुडी देउनी ||४२२|| यया जालिया मानसा कहीं| युक्तीची कांबी लागली नाहीं| तरी निश्चळ होईल काई| कैसेनि सांगें ? ||४२३|| म्हणौनि मनाचा निग्रहो होये| ऐसा उपाय जो आहे| तो आरंभीं मग नोहे| कैसा पाहों ||४२४|| तरी योगसाधन जितुकें| कें अवघेंचि काय लटिकें ? | परि आपणयां अभ्यासूं न ठाके| हेंचि म्हण ||४२५|| आंगीं योगाचें होय बळ| तरी मन केतुलें चपळ ? | काय महदादि हें सकळ| आपु नोहे ? ||४२६|| तेथ अर्जुन म्हणे निकें| देवो बोलती तें न चुके| साचचि योगबळेंसीं न तुके| मनोबळ ||४२७|| तरी तोचि योगु कैसा केवीं जाणों| आम्ही येतुले दिवस याची मातुही नेणों| म्हणौनि मनातें जी म्हणों| अनावर ||४२८|| हा आतां अघवेया जन्मा| तुझेनि प्रसादें पुरुषोत्तमा| योगपरिचयो आम्हां| जाहला आजी ||४२९|| अर्जुन उवाच | अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः | अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गतिं कृष्ण गच्छति ||३७|| कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति | अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ||३८|| एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः | त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ||३९|| परि आणिक एक गोसांविया| मज संशयो असे साविया| तो तूं वांचूनि फेडावया| समर्थु नाहीं ||४३०|| म्हणौनि सांगें गोविंदा| कवण एकु मोक्षपदा| झोंबत होता श्रद्धा| उपायेंविण ||४३१|| इंद्रियग्रामोनि निघाला| आस्थेचिया वाटे लागला| आत्मसिद्धिचिया पुढिला| नगरा यावया ||४३२|| तंव आत्मसिद्धि न ठकेचि| आणि मागुतें न येववेचि| ऐसा अस्तु गेला माझारींचि| आयुष्यभानु ||४३३|| जैसें अकाळीं आभाळ| अळुमाळु सपातळ| विपायें आलें केवळ| वसे ना वर्षे ||४३४ || तैसीं दोन्ही दुरावलीं| जे प्राप्ती तंव अलग ठेली| आणि अप्राप्तीही सांडवली| श्रद्धा तया ||४३५|| ऐसा दोंला अंतरला कां जी| जो श्रद्धेच्या समाजीं| बुडाला तया हो जी| कवण गति ? ||४३६|| श्रीभगवानुवाच | पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते | न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ||४०|| तंव कृष्ण म्हणती पार्था| जया मोक्षसुखीं आस्था| तया मोक्षावांचूनि अन्यथा| गती आहे गा ? ||४३७|| परि एतुलें हेंचि एक घडे| जें माझारीं विसवावें पडे| तेंही परी ऐसेनि सुरवाडें| जो देवां नाहीं ||४३८|| एऱ्हवीं अभ्यासाचा उचलता| पाउलीं जरी चालता| तरी दिवसाआधीं ठाकिता| सोऽहंसिद्धीतें ||४३९|| परि तेतुला वेगु नव्हेचि| म्हणौनि विसांवा तरी निकाचि| पाठीं मोक्षु तंव तैसाचि| ठेविला असे ||४४०|| प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः | शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ||४१|| ऐकें कवतिक हें कैसें| जें शतमखा लोक सायासें| तें तो पावे अनायासें| कैवल्यकामु ||४४१|| मग तेथिंचे जे अमोघ| अलौकिक भोग| भोगितांही सांग| कांटाळे मन ||४४२|| हा अंतरायो अवचितां| कां वोढवला भगवंता ? | ऐसा दिविभोग भोगितां| अनुतापी नित्य ||४४३|| पाठीं जन्में संसारीं| परि सकळ धर्माचिया माहेरीं| लांबा उगवे आगरीं| विभवश्रियेचा ||४४४|| जयातें नीतिपंथें चालिजे| सत्यधूत बोलिजे| देखावें तें देखिजे| शास्त्रदृष्टीं ||४४५|| वेद तो जागेश्वरु| जया व्यवसाय निजाचारु| सारासार विचारु| मंत्री जया ||४४६|| जयाच्या कुळीं चिंता| जाली ईश्वराची पतिव्रता| जयातें गृहदेवता| आदि ऋद्धि ||४४७|| ऐसी निजपुण्याची जोडी| वाढिन्नली सर्वसुखाची कुळवाडी| तिये जन्मे तो सुरवाडी| योगच्युतु ||४४८|| अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् | एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ||४२|| तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् | यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ||४३|| अथवा ज्ञानाग्निहोत्री| जे परब्रह्मण्यश्रोत्री| महासुखक्षेत्रीं| आदिवंत ||४४९|| जे सिद्धांताचिया सिंहासनीं| राज्य करिती त्रिभुवनीं| जे कूजती कोकिल वनीं| संतोषाच्या ||४५०|| जे विवेकद्रुमाचे मुळीं| बैसले आहाति नित्य फळीं| तया योगियांचिया कुळीं| जन्म पावे ||४५१|| मोटकी देहाकृति उमटे| आणि निजज्ञानाची पाहांट फुटे| सूर्यापुढें प्रगटे| प्रकाशु जैसा ||४५२|| तैसी दशेची वाट न पाहतां| वयसेचिया गांवा न येतां| बाळपणींच सर्वज्ञता| वरी तयातें ||४५३|| तिये सिद्धप्रज्ञेचेनि लाभें| मनचि सारस्वतें दुभे| मग सकळ शास्त्रे स्वयंभें| निघती मुखें ||४५४|| ऐसें जे जन्म| जयालागीं देव सकाम| स्वर्गीं ठेले जप होम| करिती सदा ||४५५|| अमरीं भाट होईजे| मग मृत्युलोकातें वानिजे| ऐसें जन्म पार्था गा जे| तें तो पावे ||४५६|| पूर्वाभ्यासेन तेनैव ऱ्हियते ह्यवशोऽपि सः | जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ||४४|| आणि मागील जे सद्बुद्धि| जेथ जीवित्वा जाहाली होती अवधि| मग तेचि पुढती निरवधि| नवी लाहे ||४५७|| तेथ सदैवा आणि पायाळा| वरी दिव्यांजन होय डोळां| मग देखे जैसी अवलीळा| पाताळधनें ||४५८|| तैसें दुर्भेद जे अभिप्राय| कां गुरुगम्य हन ठाय| तेथ सौरसेंवीण जाय| बुद्धि तयाची ||४५९|| बळियें इंद्रियें येती मना| मन एकवटे पवना| पवन सहजें गगना| मिळोंचि लागे ||४६०|| ऐसें नेणों काय अपैसें| तयातेंचि कीजे अभ्यासें| समाधि घर पुसे| मानसाचें ||४६१|| जाणिजे योगपीठीचा भैरवु| काय हा आरंभरंभेचा गौरवु| कीं वैराग्यसिद्धीचा अनुभवु| रूपा आला ||४६२|| हा संसारु उमाणितें माप| कां अष्टांगसामग्रीचें द्वीप| जैसें परिमळेंचि धरिजे रूप| चंदनाचें ||४६३|| तैसा संतोषाचा काय घडिला| कीं सिद्धिभांडारींहूनि काढिला| दिसे तेणें मानें रूढला| साधकदशे ||४६४|| प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः | अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ||४५|| जे वर्षशतांचिया कोडी| जन्मसहस्रांचिया आडी| लंघितां पातला थडी| आत्मसिद्धीची ||४६५|| म्हणौनि साधनजात आघवें| अनुसरे तया स्वभावें| मग आयतिये बैसे राणिवे| विवेकाचिये ||४६६|| पाठीं विचारितया वेगां| तो विवेकुही ठाके मागां| मग अविचारणीय तें आंगा| घडोनि जाय ||४६७|| तेथ मनाचें मेहुडें विरे| पवनाचें पवनपण सरे| आपणपां आपण मुरे| आकाशही ||४६८|| प्रणवाचा माथा बुडे| येतुलेनि अनिर्वाच्य सुख जोडे| म्हणौनि आधींचि बोलु बहुडे| तयालागीं ||४६९|| ऐसी ब्रह्मींची स्थिती| जे सकळां गतींसी गती| तया अमूर्ताची मूर्ति| होऊनि ठाके ||४७०|| तेणें बहुतीं जन्मीं मागिलीं| विक्षेपांचीं पाणिवळें झाडिलीं| म्हणौनि उपजतखेंवो बुडाली| लग्नघटिका ||४७१|| आणि तद्रूपतेसीं लग्न| लागोनि ठेलें अभिन्न| जैसे लोपलें अभ्र गगन| होऊनि ठाके ||४७२|| तैसें विश्व जेथ होये| मागौतें जेथ लया जाये| तें विद्यमानेंचि देहें| जाहला तो गा ||४७३|| तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः | कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ||४६|| जया लाभाचिया आशा| करूनि धैर्यबाहूंचा भरंवसा| घालीत षट्कर्मांचा धारसां| कर्मनिष्ठ ||४७४|| कां जिये एक वस्तूलांगीं| बाणोनि ज्ञानाची वज्रांगी| झुंजत प्रपंचेंशीं समरंगीं| ज्ञानिये गा ||४७५|| अथवा निलागें निसरडा| तपोदुर्गाचा आडकडा| झोंबती तपिये चाडा| जयाचिया ||४७६|| जें भजतियां भज्य| याज्ञिकांचें याज्य| एवं जें पूज्य| सकळां सदा ||४७७|| तेंचि तो आपण| स्वयें जाहला निर्वाण| जें साधकांचें कारण| सिद्ध तत्त्व ||४७८|| म्हणौनि कर्मनिष्ठा वंद्यु| तो ज्ञानियांसि वेद्यु| तापसांचा आद्यु| तपोनाथु ||४७९|| पैं जीवपरमात्मसंगमा| जयाचें येणें जाहलें मनोधर्मा| तो शरीरीचि परी महिमा| ऐशी पावे ||४८०|| म्हणौनि याकारणें| तूंतें मी सदा म्हणें| योगी होईं अंतःकरणें| पंडुकुमरा ||४८१|| योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना | श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ||४७|| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोध्यायः ||६अ || अगा योगी जो म्हणिजे| तो देवांचा देवो जाणिजे| आणि सुख सर्वस्व माझें| चैतन्य तो ||४८२|| तेथ भजता भजन भजावें| हें भक्तिसाधन जें आघवें| तो मीचि जाहलों अनुभवें| अखंडित ||४८३|| मग तया आम्हां प्रीतीचें| स्वरूप बोलीं निर्वचे| ऐसें नव्हे गा तो साचें| सुभद्रापती ||४८४|| तया एकवटलिया प्रेमा| जरी पाडें पाहिजे उपमा| तरी मी देह तो आत्मा| हेंचि होय ||४८५|| ऐसे भक्तचकोरचंद्रें| त्रिभुवनैकनरेंद्रें| बोलिलें गुणसमुद्रें| संजयो म्हणे ||४८६|| तेथ आदिलापासूनि पार्था| ऐकिजे ऐसीचि आस्था| दुणावली हें यदुनाथा| भावों सरलें ||४८७|| कीं सावियाचि मनीं संतोषला| जे बोला आरिसा जोडला| तेणें हरिखें आतां उपलवला| निरूपील ||४८८|| तो प्रसंगु आहे पुढां| जेथ शांतु दिसेल उघडा| तो पालविजेल मुडा| प्रमेयबीजाचा ||४८९|| जें सात्त्विकाचेनि वडपें| गेलें आध्यात्मिक खरपें| सहजें निडारले वाफे| चतुरचित्ताचे ||४९०|| वरी अवधानाचा वाफसा| लाधला सोनया ऐसा| म्हणौनि पेरावया धिंवसा| श्रीनिवृत्तीसी ||४९१|| ज्ञानदेव म्हणे मी चाडें| सद्गुरूंनीं केलें कोडें| माथां हात ठेविला तें फुडें| बीजचि वाइलें ||४९२|| म्हणौनि येणें मुखें जें जें निगे| तें संतांच्या हृदयीं साचचि लागे| हें असो सांगों श्रीरंगें| बोलिलें जें ||४९३|| परी तें मनाच्या कानीं ऐकावें| बोल बुद्धीच्या डोळां देखावें| हे सांटोवाटीं घ्यावें| चित्ताचिया ||४९४|| अवधानाचेनि हातें| नेयावें हृदयांआतौतें| हे रिझवितील आयणीतें| सज्जनांचिये ||४९५|| हे स्वहितातें निवविती| परिणामातें जीवविती| सुखाची वाहविती| लाखोली जीवां ||४९६|| आतां अर्जुनेंसीं श्रीमुकुंदें| नागर बोलिजेल विनोदें| तें वोंवियेचेनि प्रबंधें| सांगेन मी ||४९७|| इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां षष्ठोऽध्यायः ||

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