ज्ञानेश्वरी अध्याय ७
ग्रंथ - पोथी > भावार्थदीपिका ज्ञानेश्वरी Posted at 2018-12-06 15:55:09
||ज्ञानेश्वरी भावार्थदीपिका अध्याय ७ ||
||ॐ श्री परमात्मने नमः ||
अध्याय सातवा |
ज्ञानविज्ञानयोगः |
श्रीभगवानुवाच |
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः |
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ||१||
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः |
यज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ञातव्यमवशिष्यते ||२||
आइका मग तो श्रीअनंतु| पार्थातें असे म्हणतु| पैं गा तूं योगयुक्तु| जालासि आतां ||१||
मज समग्रातें जाणसी ऐसें| आपुलिया तळहातींचें रत्न जैसें| तुज ज्ञान सांगेन तैसें| विज्ञानेंसीं ||२||
एथ विज्ञानें काय करावें| ऐसें घेसी जरी मनोभावें| तरी पैं आधीं जाणावें| तेंचि लागे ||३||
मग ज्ञानाचिये वेळे| झांकती जाणिवेचे डोळे| जैसी तीरीं नाव न ढळे| टेकलीसांती ||४||
तैसी जाणीव जेथ न रिघे| विचार मागुता पाउलीं निघे| तर्कु आयणी नेघे| आंगीं जयांच्या ||५||
अर्जुना तया नांव ज्ञान| येर प्रपंचु हें विज्ञान| तेथ सत्यबुद्धि तें अज्ञान| हेंही जाण ||६||
आतां अज्ञान अवघें हरपे| विज्ञान निःशेष करपे| आणि ज्ञान तें स्वरूपें| होऊनि जाइजे ||७||
जेणें सांगतयाचें बोलणें खुंटे| ऐकतयाचें व्यसन तुटे| हें जाणणें सानें मोठें| उरों नेदी ||८||
ऐसें वर्म जें गूढ| तें किजेल वाक्यारूढ| जेणें थोडेन पुरे कोड| बहुत मनींचें ||९||
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||३||
पैं गा मनुष्यांचिया सहस्तशां- | माजीं विपाइले याचि धिंवसा| तैसें या धिंवसेकरां बहुवसां| माजीं विरळा जाणे ||१०||
जैसा भरलेया त्रिभुवना- | आंतु एकएकु चांगु अर्जुना| निवडूनि कीजे सेना| लक्षवरी ||११||
कीं तयाही पाठीं| जे वेळीं लोह मांसातें घांटी| ते वेळीं विजयश्रियेच्या पाटीं| एकुची बैसे ||१२||
तैसें आस्थेच्या महापुरीं| रिघताती कोटिवरी| परी प्राप्तीच्या पैलतीरीं| विपाइला निगे ||१३||
म्हणौनि सामान्य गा नोहे| हें सांगतां वडिल गोठी आहे| परी तें बोलों येईल पाहें| आता प्रस्तुत ऐकें ||१४||
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ||४||
तरी अवधारीं गा धनंजया| हे महदादिक माझी माया| जैसी प्रतिबिंबे छाया| निजांगाची ||१५||
आणि इयेतें प्रकृति म्हणिजे| जे अष्टधा भिन्न जाणिजे| लोकत्रय निपजे| इयेस्तव ||१६||
हे अष्टधा भिन्न कैसी| ऐसा ध्वनि धरिसी जरी मानसीं| तरी तेचि गा आतां परियेसीं| विवंचना ||१७||
आप तेज गगन| मही मारुत मन| बुद्धि अहंकारु हे भिन्न| आठै भाग ||१८||
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ||५||
या आठांची जे साम्यावस्था| ते माझी परम प्रकृति पार्था| तिये नाम व्यवस्था| जीवु ऐसी ||१९||
जे जडातें जीववी| चेतनेतें चेतवी| मना करवीं मानवी| शोक मोहो ||२०||
पैं बुद्धीच्या अंगीं जाणणें| तें जिये जवळिकेचें करणें| जिया अहंकाराचेनि विंदाणें| जगचि धरिजे ||२१||
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||६||
ते सूक्ष्म प्रकृति कोडें| जैं स्थूळाचिया आंगा घडे| तैं भूतसृष्टीची पडे| टांकसाळ ||२२||
चतुर्विध ठसा| उमटों लागे आपैसा| मोला तरी सरसा| परी थरचि आनान ||२३||
होती चौऱ्यांशीं लक्ष थरा| येरा मिती नेणिजे भांडारा| भरे आदिशून्याचा गाभारा| नाणेयांसी ||२४||
ऐसें एकतुके पांचभौतिक| पडती बहुवस टांक| मग तिये समृद्धीचे लेख| प्रकृतीचि धरी ||२५||
जे आखूनि नाणें विस्तारी| पाठी तयाची आटणी करी| माजीं कर्माकर्माचिया व्यवहारीं| प्रवर्तु दावी ||२६||
हें रूपक परी असो| सांगों उघड जैसें परियेसों| तरी नामरूपाचा अतिसो| प्रकृतीच कीजे ||२७||
आणि प्रकृति तंव माझ्या ठायीं| बिंबे येथें आन नाहीं| म्हणौनि आदि मध्य अवसान पाहीं| जगासि मी ||२८||
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||७||
हें रोहिणीचें जळ| तयाचें पाहतां येइजे मूळ| तैं रश्मि नव्हती केवळ| होय तें भानु ||२९||
तयाचिपरी किरीटी| इया प्रकृती जालिये सृष्टी| जैं उपसंहरूनि कीजेल ठी| तैं मीचि आहें ||३०||
ऐसें होय दिसे न दिसे| हें मजचि माजीं असे| मियां विश्व धरिजे जैसें| सूत्रें मणि ||३१||
सुवर्णाचे मणी केले| ते सोनियाचे सुतीं वोविले| तैसें म्यां जग धरिलें| सबाह्याभ्यंतरीं ||३२||
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः |
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ||८||
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ||९||
म्हणौनि उदकीं रसु| कां पवनीं जो स्पर्शु| शशिसूर्यीं जो प्रकाशु| तो मीचि जाण ||३३||
तैसाचि नैसर्गिकु शुद्धु| मी पृथ्वीच्या ठायीं गंधु| गगनीं मी शब्दु| वेदीं प्रणवु ||३४||
नराच्या ठायीं नरत्व| जें अहंभाविये सत्त्व| तें पौरुष मी हें तत्त्व| बोलिजत असे ||३५||
अग्नि ऐसें आहाच| तेज नामाचें आहे कवच| तें परतें केलिया साच| निजतेज तें मी ||३६||
आणि नानाविध योनी| जन्मोनि भूतें त्रिभुवनीं| वर्तत आहाति जीवनीं| आपुलाल्या ||३७||
एकें पवनेंचि पिती| एकें तृणास्तव जिती| एकें अन्नाधारें राहती| जळें एकें ||३८||
ऐसें भूतांप्रति आनान| जें प्रकृतिवशें दिसे जीवन| तें आघवाठायीं अभिन्न| मीचि एक ||३९||
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् |
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ||१०||
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् |
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ||११||
पैं आदिचेनि अवसरें| विरूढे गगनाचेनि अंकुरें| जे अंतीं गिळी अक्षरें| प्रणवपीठींचीं ||४०||
जंव हा विश्वाकारु असे| तंव जें विश्वाचिसारिखें दिसे| मग महाप्रळयदशे| कैसेंही नव्हे ||४१||
ऐसें अनादि जें सहज| तें मी गा विश्वबीज| हें हातातळीं तुज| देइजत असे ||४२||
मग उघड करूनि पांडवा| जैं हे आणिसील सांख्याचिया गांवा| तैं ययाचा उपेगु बरवा| देखशील ||४३||
परी हे अप्रासंगिक आलाप| आतां असतु न बोलों संक्षेप| जाण तपियांच्या ठायीं तप| तें रूप माझें ||४४||
बळियांमाजीं बळ| तें मी जाणें अढळ| बुद्धिमंतीं केवळ| बुद्धि तें मी ||४५||
भूतांच्या ठायीं कामु| तो मी म्हणे आत्मारामु| जेणें अर्थास्तव धर्मु| थोरु होय ||४६||
एऱ्हवीं विकाराचेनि पैसे| करी कीर इंद्रियांचि ऐसें| परी धर्मासि वेखासें| जावों नेदी ||४७||
जो अप्रवृत्तीचा अव्हांटा| सांडूनि विधीचिया निघे वाटा| तेवींचि नियमाचा दिवटा| सवें चाले ||४८||
कामु ऐसिया वोजा प्रवर्ते| म्हणौनि धर्मासि होय पुरतें| मोक्षतीर्थींचे मुक्तें| संसार भोगी ||४९||
जो श्रुतिगौरवाच्या मांडवीं| काम सृष्टीचा वेलु वाढवी| जंव कर्मफळेंसि पालवी| अपवर्गीं टेंके ||५०||
ऐसा नियुत कां कंदर्पु| जो भूतां या बीजरूपु| तो मी म्हणे बापु| योगियांचा ||५१||
हें एकेक किती सांगावें| आतां वस्तुजातचि आघवें| मजपासूनि जाणावें| विकारलें असे ||५२||
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये |
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ||१२||
जे सात्त्विक हन भाव| कां रजतमादि सर्व| तें ममरूपसंभव| वोळखें तूं ||५३||
हे जाले तरी माझ्या ठायीं| परी तयामाजीं मी नाहीं| जैसी स्वप्नींच्या डोहीं| जागृति न बुडे ||५४||
जैसी रसाचीच सुघट| बीजकणिका घनवट| परी तियेस्तव होय काष्ठ| अंकुरद्वारें ||५५||
मग तया काष्ठाच्या ठायीं| सांग पां बीजपण असे काई ? | तैसा मी विकारीं नाहीं| जरी विकारला दिसे ||५६||
पैं गगनीं उपजे आभाळ| परी तेथ गगन नाहीं केवळ| अथवा आभाळीं होय सलिल| तेथ अभ्र नाहीं ||५७||
मग त्या उदकाचेनि आवेशें| प्रगटलें तेज जें लखलखीत दिसे| तिये विजूमाजीं असे| सलिल कायी ? ||५८||
सांगें अग्नीस्तव धूम होये| तिये धूमीं काय अग्नि आहे ? | तैसा विकारु हा मी नोहें| जरी विकारला असे ||५९||
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् |
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ||१३||
परी उदकीं जाली बाबुळी| ते उदकातें जैसी झांकोळी| कां वायांचि आभाळीं| आकाश लोपे ||६०||
हां गा स्वप्न लटिकें म्हणों ये| परि निद्रावशें बाणलें होये| तंव आठवु काय देत आहे| आपणपेयां ? ||६१||
हें असो डोळ्यांचें| डोळांचि पडळ रचे| तेणें देखणेंपण डोळ्यांचे| न गिळजे कायी ? ||६२||
तैसी हे माझीच बिंबली| त्रिगुणात्मक साउली| कीं मजचि आड वोडवली| जवनिका जैसी ||६३||
म्हणौनि भूतें मातें नेणती| माझींच परी मी नव्हती| जैसी जळींचि जळीं न विरती| मुक्ताफळें ||६४||
पैं पृथ्वीयेचा घटु कीजे| सवेंचि पृथ्वीसि मिळे तरी मेळविजे| एऱ्हवीं तोचि अग्निसंगें सिजे| तरी वेगळा होय ||६५||
तैसें भूतजात सर्व| हे माझेचि कीर अवयव| परि मायायोगें जीव- | दशे आले ||६६||
म्हणौनि माझेचि मी नव्हती| माझेचि मज नोळखती| अहंममताभ्रांती| विषयांध जाले ||६७||
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||१४||
आतां महदादि हे माझी माया| उतरोनियां धनंजया| मी होईजे हें आया| कैसेनि ये ? ||६८||
जिये ब्रह्माचळाचा आधाडा| पहिलिया संकल्पजळाचा उभडा| सवेंचि महाभूतांचा बुडबुडा| साना आला ||६९||
जे सृष्टिविस्ताराचेनि वोघें| चढत काळकळनेचेनि वेगें| प्रवृत्तिनिवृत्तीचीं तुंगें| तटें सांडी ||७०||
जे गुणघनाचेनि वृष्टिभरें| भरली मोहाचेनि महापूरें| घेऊनि जात नगरें| यमनियमांचीं ||७१||
जे द्वेषाच्या आवर्तीं दाटत| मत्सराचे वळसे पडत| माजीं प्रमादादि तळपत| महामीन ||७२||
जेथ प्रपंचाचीं वळणें| कर्माकर्मांचीं वोभाणें| वरी तरताती वोसाणें| सुखदुःखांचीं ||७३||
रतीचिया बेटा| आदळती कामाचिया लाटा| जेथ जीवफेन संघटा| सैंघ दिसे ||७४||
अहंकाराचिया चळिया| वरि मदत्रयाचिया उकळिया| जेथ विषयोर्मीच्या आकळिया| उल्लाळ घेती ||७५||
उदयास्ताचे लोंढे| पाडीत जन्ममरणाचे चोंढे| जेथ पांचभौतिक बुडबुडे| होती जाती ||७६||
सम्मोह विभ्रम मासे| गिळिताती धैर्याचीं आविसें| तेथ देव्हडे भोंवत वळसे| अज्ञानाचे ||७७||
भ्रांतीचेनि खडुळें| रेवले आस्थेचे अवगाळें| रजोगुणाचेनि खळाळें| स्वर्गु गाजे ||७८||
तमाचे धारसे वाड| सत्त्वाचें स्थिरपण जाड| किंबहुना हे दुवाड| मायानदी ||७९||
पैं पुनरावृत्तीचेनि उभडें| झळंबती सत्यलोकींचे हुडे| घायें गडबडती धोंडे| ब्रह्मगोळकाचे ||८०||
तया पाणियाचेनि वहिलेपणें| अझुनी न धरिती वोभाणें| ऐसा मायापूर हा कवणें| तरिजेल गा ? ||८१||
येथ एक नवलावो| जो जो कीजे तरणोपावो| तो तो अपावो| होय तें एक ||८२||
एक स्वयंबुद्धीच्या बाहीं| रिगाले तयांची शुद्धीचि नाहीं| एक जाणिवेचे डोहीं| गर्वेंचि गिळिले ||८३||
एकीं वेदत्रयाचिया सांगडी| घेतल्या अहंभावाचिया धोंडी| ते मदमीनाच्या तोंडीं| सगळेचि गेले ||८४||
एकीं वयसेचें जाड बांधले| मग मन्मथाचिये कांसे लागले| ते विषयमगरीं सांडिले| चघळूनियां ||८५||
आतां वार्धक्याच्या तरंगा- | माजीं मतिभ्रंशाचा जरंगा| तेणें कवळिजताती पैं गा| चहूंकडे ||८६||
आणि शोकाचा कडा उपडत| क्रोधाच्या आवर्तीं दाटत| आपदागिधीं चुंबिजत| उधवला ठायीं ||८७||
मग दुःखाचेनि बरबटें बोंबले| पाठीं मरणाचिये रेवे रेवले| ऐसे कामाचे कांसे लागले| ते गेले वायां ||८८||
एकीं यजनक्रियेची पेटी| बांधोनि घातली पोटीं| ते स्वर्गसुखाच्या कपाटीं| शिरकोनि ठेले ||८९||
एकीं मोक्षीं लागावयाचिया आशा| केला कर्मबाह्यांचा भरंवसा| परी ते पडिले वळसां| विधिनिषेधांच्या ||९०||
जेथ वैराग्याची नाव न रिगे| विवेकाचा तागा न लगे| वरि कांहीं तरों ये योगें| तरी विपाय तो ||९१||
ऐसें तरी जीवाचिये आंगवणें| इये मायानदीचें तरणें| हें कासयासारिखें बोलणें| म्हणावें पां ||९२||
जरी अपथ्यशीळा व्याधी| कळे साधूसी दुर्जनाची बुद्धी| कीं रागी सांडी रिद्धी| आली सांती ||९३||
जरी चोरां सभा दाटे| अथवा मीनां गळु घोटे| ना तरी भेडा उलटे| विवसी जरी ||९४||
पाडस वागुर करांडी| कां मुंगी मेरु वोलांडी| तरी मायेची पैलथडी| देखती जीव ||९५||
म्हणौनि गा पंडुसुता| जैसी सकामा न जिणवेचि वनिता| तेवीं मायामय हे सरिता| न तरवें जीवां ||९६||
येथ एकचि लीला तरले| जे सर्वभावें मज भजले| तयां ऐलीच थडी सरलें| मायाजळ ||९७||
जयां सद्गुरुतारूं फुडें| जे अनुभवाचे कांसे गाढे| जयां आत्मनिवेदन तरांडे| आकळलें ||९८||
जे अहंभावाचें वोझें सांडुनी| विकल्पाचिया झुळका चुकाउनी| अनुरागाचा निरुता होउनि| पाणिढाळु ||९९||
जया ऐक्याचिया उतारा| बोधाचा जोडला तारा| मग निवृत्तीचिया पैल तीरा| झेंपावले जे ||१००||
ते उपरतीच्या वांवीं सेलत| सोऽहंभावाचेनि थावें पेलत| मग निघाले अनकळित| निवृत्तितटीं ||१०१||
येणें उपायें मज भजले| ते हे माझी माया तरले| परि ऐसे भक्त विपाइले| बहुवस नाहीं ||१०२||
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||१५||
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||१६||
जे बहुतां एकां अव्हांतरु| अहंकाराचा भूतसंचारु| जाहला म्हणौनि विसरु| आत्मबोधाचा ||१०३||
ते वेळीं नियमाचें वस्त्र नाठवे| पुढील अधोगतीची लाज नेणवे| आणि करिताति जें न करावें| वेदु म्हणे ||१०४||
पाहें पां शरीराचिया गांवा| जयालागीं आले पांडवा| तो कार्यार्थु आघवा| सांडूनियां ||१०५||
इंद्रियग्रामींचे राजबिदीं| अहंममतेचिया जल्पवादीं| विकारांतरांचि मांदीं| मेळवूनियां ||१०६||
दुःखशोकांच्या घाईं| मारिलियाची सेचि नाहीं| हे सांगावया कारण काई| जे ग्रासिले माया ||१०७||
म्हणौनि ते मातें चुकले| ऐका चतुर्विध मज भजले| जिहीं आत्महित केलें| वाढतें गा ||१०८||
तो पहिला आर्तु म्हणिजे| दुसरा जिज्ञासु बोलिजे| तिजा अर्थार्थी जाणिजे| ज्ञानिया चौथा ||१०९||
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ||१७||
तेथ आर्तु तो आर्तीचेनि व्याजें| जिज्ञासु तो जाणावयालागीं भजे| तिजेनि तेणें इच्छिजे| अर्थसिद्धि ||११०||
मग चौथियाच्या ठायीं| कांहींचि करणें नाहीं| म्हणौनि भक्तु एकु पाहीं| ज्ञानिया जो ||१११||
जे तया ज्ञानाचेनि प्रकाशें| फिटलें भेदाभेदांचें कडवसें| मग मीचि जाहला समरसें| आणि भक्तुही तेवींचि ||११२||
परि आणिकांचिये दिठी नावेक| जैसा स्फटिकुचि आभासे उदक| तैसा ज्ञानी नव्हे कौतुक| सांगतां तो ||११३||
जैसा वारा कां गगनीं विरे| मग वारेपण वेगळें नुरे| तेवीं भक्त हे पैज न सरे| जरी ऐक्या आला ||११४||
जरी पवनु हालवूनि पाहिजे| तरी गगनावेगळा देखिजे| एऱ्हवीं गगन तो सहजें| असे जैसें ||११५||
तैसें शरीरीं हन कर्में| तो भक्तु ऐसा गमे| परी अंतरप्रतीतिधर्मे| मीचि जाहला ||११६||
आणि ज्ञानाचेनि उजिडलेपणें| मी आत्मा ऐसें तो जाणें| म्हणौनि मीही तैसेंचि म्हणें| उचंबळला सांता ||११७||
हां गा जीवापैलीकडिलीये खुणे| जो पावोनि वावरों जाणें| तो देहाचेनि वेगळेपणें| काय वेगळा होय ? ||११८||
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् |
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ||१८||
म्हणौनि आपुलाल्या हिताचेनि लोभें| मज आवडे तोहि भक्त झोंबे| परी मीचि करी वालभें| ऐसा ज्ञानिया एकु ||११९||
पाहें पां दुभतयाचिया आशा| जगचि धेनूसि करीतसे फांसा| परि दोरेंवीण कैसा| वत्साचा बळी ||१२०||
कां जे तनुमनुप्राणें| तें आणिक कांहींचि नेणें| देखे तयातें म्हणे| हे माय माझी ||२१||
तें येणें मानें अनन्यगती| म्हणौनि धेनुही तैसीचि प्रीति| यालागीं लक्ष्मीपती| बोलिले साचें ||१२२||
हें असो मग म्हणितलें| जे कां तुज सांगितलें| तेही भक्त भले| पढियंते आम्हां ||१२३||
परि जाणोनियां मातें| जे पाहों विसरले मागौतें| जैसें सागरा येऊनि सरितें| मुरडावें ठेलें ||१२४||
तैसी अंतःकरणकुहरीं जन्मली| जयाची प्रतीतिगंगा मज मीनली| तो मी हे काय बोली| फार करूं ? ||१२५||
एऱ्हवीं ज्ञानिया जो म्हणिजे| तो चैतन्यचि केवळ माझें| हें न म्हणावें परि काय कीजे| न बोलणें बोलों ||१२६||
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||१९||
जे तो विषयांची दाट झाडी- | माजीं कामक्रोधांचीं सांकडीं| चुकावूनि आला पाडीं| सद्वासनेचिया ||१२७||
मग साधुसंगें सुभटा| उजू सत्कर्माचिया वाटा| अप्रवृत्तीचा अव्हांटा| डावलूनि ||१२८||
आणि जन्मशतांचा वाहतवणा| तेविंची आशेचिया न लेचि वाहणा| तेथ फलहेतूचा उगाणा| कवणु चाळी ||१२९||
ऐसा शरीरसंयोगाचिये राती- | माजीं धांवतां सडिया आयती| तंव कर्मक्षयाची पाहाती| पाहांट जाली ||१३०||
तैसीच गुरुकृपा उखा उजळली| ज्ञानाची वोतपली पडली| तेथ साम्याची ऋद्धि उघडली| तयाचिये दिठी ||१३१||
ते वेळीं जयाकडे वास पाहे | तेउता मीचि तया एकु आहे| अथवा निवांत जरी राहे| तऱ्ही मीचि तया ||१३२||
हें असो आणिक कांहीं| तया सर्वत्र मीवांचूनि नाहीं| जैसें सबाह्य जळ डोहीं| बुडालिया घटा ||१३३||
तैसा तो मजभीतरीं| मी तया आंतुबाहेरी| हें सांगिजेल बोलवरी| तैसें नव्हे ||१३४||
म्हणौनि असो हें इयापरी| तो देखे ज्ञानाची वाखारी| तेणें संसरलेनि करी| आपु विश्व ||१३५||
हें समस्तही श्रीवासुदेवो| ऐसा प्रतीतिरसाचा वोतला भावो| म्हणौनि भक्तांमाजीं रावो| आणि ज्ञानिया तोचि ||१३६||
जयाचिये प्रतीतीचा वाखारां| पवाडु होय चराचरा| तो महात्मा धनुर्धरा| दुर्लभु आथी ||१३७||
येर बहुत जोडती किरीटी| जयांचीं भजनें भोगासाठीं| जे आशातिमिरें दृष्टी| विषयांध जाले ||१३८||
कामैस्तैस्तैर्हृज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः |
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||२०||
आणि फळाचिया हांवा| हृदयीं कामा जाला रिगावा| कीं तयाचिये घसणी दिवा| ज्ञानाचा गेला ||१३९||
ऐसे उभयतां आंधारीं पडले| म्हणौनि पासींचि मातें चुकले| मग सर्वभावें अनुसरले| देवतांतरां ||१४०||
आधींच प्रकृतीचे पाइक| वरी भोगालागीं तंव रंक| मग तेणें लोलुपत्वें कौतुक| कैसेनि भजती ||१४१||
कवणीं तिया नियमबुद्धि| कैसिया हन उपचारसमृद्धि| कां अर्पण यथाविधि| विहित करणें ||१४२||
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति |
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ||२१||
पैं जो जिये देवतांतरीं| भजावयाची चाड करी| तयाची ते चाड पुरी| पुरविता मी ||१४३||
देवोदेवीं मीचि पाहीं| हाही निश्चयो त्यासि नाहीं| भावो ते ते ठायीं| वेगळा धरिती ||१४४||
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते |
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ||२२||
मग तिया श्रद्धायुक्त| तेथिंचें आराधन जें उचित| तें सिद्धिवरी समस्त| वर्तो लागे ||१४५||
ऐसें जेणें जें भाविजे| तें फळ तेणें पाविजे| परी तेंही सकळ निपजे| मजचिस्तव ||१४६||
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भ्वत्यल्पमेधसाम् |
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ||२३||
परी ते भक्त मातें नेणती| जे कल्पनेबाहेरी न निघती| म्हणौनि कल्पित फळ पावती| अंतवंत ||१४७||
किंबहुना ऐसें जें भजन| तें संसाराचेंचि साधन| येर फळभोग तो स्वप्न| नावभरी दिसे ||१४८||
हें असो परौंते| मग हो कां आवडे तें| परी यजी जो देवतांतें| तो देवत्वासीचि ये ||१४९||
येर तनुमनुप्राणी| जे अनुसरले माझेयाचि वाहणीं| ते देहाच्या निर्वाणीं| मीचि होती ||१५०||
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः |
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ||२४||
परी तैसें न करिती प्राणिये| वायां आपुलिया हितीं वाणिये| जें पोहताती पाणियें| तळहातींचेनि ||१५१||
नाना अमृताच्या सागरीं बुडिजे| मग तोंडा कां वज्रमिठी पाडिजे ? | आणि मनीं तरी आठविजे| थिल्लरोदकातें ? ||१५२||
हें ऐसें कासया करावें| जे अमृतींही रिगोनि मरावें| तें सुखें अमृत होऊनि कां नसावें| अमृतामाजीं ? ||१५३||
तैसा फळहेतूचा पांजरा| सांडूनियां धनुर्धरा| कां प्रतीतिपाखीं चिदंबरा| गोसाविया नोहावें ? ||१५४||
जेथ उंचावलेनि पवाडें| सुखाचा पैसारु जोडे| आपुलेनि सुरवाडें| उडों ये ऐसा ||१५५||
तया उमपा माप कां सुवावें| मज अव्यक्ता व्यक्त कां मानावें| सिद्ध असतां कां निमावें| साधनवरी ? ||१५६||
परी हा बोल आघवा| जरी विचारीजतसे पांडवा| तरी विशेषें या जीवां| न चोजवे गा ||१५७||
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||२५||
कां जे योगमायापडळें| हे जाले आहाति आंधळे| म्हणौनि प्रकाशाचेनि देहबळें| न देखती मातें ||१५८||
एऱ्हवीं मी नसें ऐसें| काय वस्तुजात असे ? | पाहें पां कणव जळ रसें- | रहित आहे ? ||१५९||
पवनु कवणातें न शिवेचि| आकाश कें न समायेचि| हें असो एकु मीचि| विश्वीं आहें ||१६०||
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ||२६||
येथें भूतें जियें अतीतलीं| तियें मीचि होऊनि ठेलीं| आणि वर्तत आहाति जेतुलीं| तींही मीचि ||१६१||
कां भविष्यमाणें जियें हीं| तींहीं मजवेगळीं नाहीं| हा बोलचि एऱ्हवीं कांहीं| होय ना जाय ||१६२||
दोराचिया सापासी| डोंबा बडिया ना गव्हाळा ऐसी| संख्या न करवे कोण्हासी| तेवीं भूतांसि मिथ्यत्वें ||१६३||
मी ऐसा पंडुसुता| अनुस्यूतु सदा असतां| या संसार जो भूतां| तो आनें बोलें ||१६४||
तरी तेचि आतां थोडीसी| गोठी सांगिजेल परियेसीं| जै अहंकारा तनूंसीं| वालभ पडिलें ||१६५||
इच्छाद्वेषसत्मुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत |
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ||२७||
तेथ इच्छा हे कुमारी जाली| मग ते कामाचिया तारुण्या आली| तेथ द्वेषेंसीं मांडिली| वऱ्हाडिक ||१६६||
तया दोघांस्तव जन्मला| ऐसा द्वंद्वमोहो जाला| मग तो आजेयानें वाढविला| अहंकारें ||१६७||
जो धृतीसी सदां प्रतिकूळु| नियमाही नागवे सळु| आशारसें दोंदिलु| जाला सांता ||१६८||
असंतुष्टीचिया मदिरा| मत्त होऊनि धनुर्धरा| विषयांचे वोवरां| विकृतीशीं ||१६९||
तेणें भावशुद्धीचिये वाटे| विखुरले विकल्पाचे कांटे| मग चिरिलें आव्हांटे| अप्रवृत्तीचे ||१७०||
तेणें भूतें भांबावलीं| म्हणौनि संसाराचिया आडवामाजीं पडिलीं| मग महादुःखाच्या घेतलीं| दांडे वरी ||१७१||
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् |
ते द्वंद्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढवरताः ||२८||
ऐसे विकल्पाचे वांयाणे| कांटे देखोनि सणाणे| जे मतिभ्रमाचे पासवणें| घेतीचिना ||१७२||
उजू एकनिष्ठेच्या पाउलीं| रगडूनि विकल्पाचिया भालीं| महापातकाची सांडिली| अटवीं जिहीं ||१७३||
मग पुण्याचे धांवा घेतले| आणि माझी जवळीक पातले| किंबहुना चुकले| वाटवधेयां ||१७४||
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये |
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ||२९||
एऱ्हवीं तरी पार्था| जन्ममरणाची निमे कथा| ऐसिया प्रयत्नातें आस्था| विये जयांची ||१७५||
तयां तो प्रयत्नुचि एके वेळे| मग समग्र परब्रह्में फळे| जया पिकलेया रसु गळे| पूर्णतेचा ||१७६||
ते वेळीं कृतकृत्यता जग भरे| तेथ अध्यात्माचें नवलपण पुरे| कर्माचें काम सरे| विरमे मन ||१७७||
ऐसा अध्यात्मलाभु तया| होय गा धनंजया| भांडवल जया| उद्यमीं मी ||१७८||
तयातें साम्याचिये वाढी| ऐक्याची सांदे कुळवाडी| तेथ भेदाचिया दुबळवाडी| नेणिजे तया ||१७९||
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः |
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ||३०||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ||७अ ||
जिहीं साधिभूता मातें| प्रतीतीचेनि हातें| धरूनि अधिदैवातें| शिवतले गा ||१८०||
जया जाणिवेचेनि वेगें| मी अधियज्ञुही दृष्टी रिगें| ते तनूचेनि वियोगें| विऱ्हये नव्हती ||१८१||
एऱ्हवीं आयुष्याचें सूत्र विघडतां| भूतांची उमटे खडाडता| काय न मरतयाचियाहि चित्ता| युगांतु नोहे ? ||१८२||
परी नेणों कैसे पैं गा| जे जडोनि गेले माझिया आंगा| ते प्रयाणींचिया लगबगा| न सांडितीच मातें ||१८३||
एऱ्हवी तरीं जाण| ऐसे जे निपुण| तेचि अंतःकरण- | युक्त योगी ||१८४||
तंव इये शब्दकुपिकेतळीं| नोडवेचि अवधानाची अंजुळी| जे नावेक अर्जुन तये वेळीं| मागांचि होता ||१८५||
जेथ तद्ब्रह्मवाक्यफळें| जिये नानार्थरसें रसाळें| बहकताती परिमळें| भावाचेनि ||१८६||
सहज कृपामंदानिळें| कृष्णद्रुमाची वचनफळें| अर्जुन श्रवणाचिये खोळे| अवचित पडिलीं ||१८७||
तियें प्रमेयाची हो कां वळलीं| कीं ब्रह्मरसाच्या सागरीं चुबुकळिलीं| मग तैसीचि कां घोळिलीं| परमानंदें ||१८८||
तेणें बरवेपणें निर्मळें| अर्जुना उन्मेषाचे डोहळे| घेताति गळाळे| विस्मयामृताचे ||१८९||
तिया सुखसंपत्ती जोडलिया| मग स्वर्गा वाती वांकुलिया| हृदयाच्या जीवीं गुतकुलिया| होत आहाती ||१९०||
ऐसें वरचिलीचि बरवा| सुख जावों लागलें फावा| तंव रसस्वादाचिया हांवा| लाहो केला ||१९१||
झडकरी अनुमानाचेनि करतळें| घेऊनि तियें वाक्यफळें| प्रतीतिमुखीं एके वेळे| घालूं पाहे ||१९२||
तंव विचाराचिया रसना न दाटती| परी हेतूच्या दशनीं न फुटती| ऐसें जाणौनि सुभद्रापती| चुंबिचिना ||१९३||
मग चमत्कारला म्हणे| इयें जळींचीं मा तारांगणें| कैसा झकविलों असलगपणें| अक्षरांचेनि ||१९४||
इयें पदें नव्हती फुडिया| गगनाचिया घडिया| येथ आमुची मति बुडालिया| थावो न निघे ||१९५||
वांचूनि जाणावयाची कें गोठी| ऐसें जीवीं कल्पूनि किरीटी| तिया पुनरपि केली दृष्टी| यादवेंद्रा ||१९६||
मग विनविलें सुभटें| हां हो जी ये एकवाटे| सातही पदें अनुच्छिष्टें| नवलें आहाती ||१९७||
एऱ्हवीं अवधानाचेनि वहिलेपणें| नाना प्रमेयांचें उगाणें| काय श्रवणाचेनि आंगवणें| बोंलों लाहाती ? ||१९८||
परी तैसें हें नोहेचि देवा| देखिला अक्षरांचा मेळावा| आणि विस्मयाचिया जीवा| विस्मयो जाला ||१९९||
कानाचेनि गवाक्षद्वारें| बोलाचे रश्मी अभ्यंतरें| पाहेना तंव चमत्कारें| अवधान ठकलें ||२००||
तेवींचि अर्थाची चाड मज आहे| तें सांगतांही वेळु न साहे| म्हणौनि निरूपण लवलाहें| कीजो देवा ||२०१||
ऐसा मागील पडताळा घेउनी| पुढां अभिप्राय दृष्टी सूनी| तेवींचि माजीं शिरौनी| आर्ती आपुली ||२०२||
कैसी पुसती पाहें पां जाणिव| भिडेचि तरी लंघों नेदीं शिंव| एऱ्हवीं श्रीकृष्ण हृदयासि खेंव| देवों सरला ||२०३||
अहो श्रीगुरूतें जैं पुसावें| तैं येणें मानें सावध होआवें| हें एकचि जाणें आघवें| सव्यसाची ||२०४||
आतां तयाचें तें प्रश्न करणें| वरी सर्वज्ञ श्रीहरीचें बोलणें| संजयो आवडलेपणें| सांगैल कैसें ||२०५||
तिये अवधान द्यावें गोठी| बोलिजेल नीट मऱ्हाटी| जैसी कानाचे आधीं दिठी| उपेगा जाये ||२०६||
बुद्धीचिया जिभा| बोलाचा न चाखतां गाभा| अक्षरांचिया भांबा| इंद्रियें जिती ||२०७||
पहा पां मालतीचे कळे| घ्राणासि कीर वाटले परिमळें| परि वरचिला बरवा काइ डोळे| सुखिये नव्हती ? ||२०८||
तैसें देशियेचिया हवावा| इंद्रियें करिती राणिवा| मग प्रमेयाचिया गांवा| लेसां जाइजे ||२०९||
ऐसेनि नागरपणें| बोलु निमे तें बोलणें| ऐका ज्ञानदेवो म्हणे| निवृत्तीचा ||२१०||
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां सप्तमोध्यायः ||
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