श्रीगुरुचरित्र अध्याय १४ वा

ग्रंथ - पोथी  > इतर ग्रंथ पोथी Posted at 2018-11-25 13:23:13
श्रीगुरुचरित्र अध्याय १४ वा श्री गणेशाय नमः| श्री सरस्वतै नमः| श्री गुरुभ्यो नमः| नामधारक शिष्या देखा | विनवी सिद्धासि कवतुका | प्रश्न करी अती विशेखा| एक चित्ते परियेसा |१| जयजया योगिश्वरा | सिद्धमूर्ती ज्ञानसागरा | पुढील कथा विस्तारा | ज्ञान होय आम्हासी ||२|| उदरव्यथेच्या ब्राह्मणासी | प्रश्न झाले परियेसी | पुढे कथा वर्तली कैसी विस्तारावे आम्हाप्रती ||३|| ऐकोनी शिष्याचे वचन | संतोषे सिद्ध आपण | गुरुचरित्र कामधेनू जाण | सांगता झाला विस्तारे ||४|| ऐक शिष्या शिखामणी | भिक्षा केली ज्याचे भुवनी | तयावरी संतोषोनी प्रसन्न झाले परियेसा ||५|| गुरुभक्तीचा प्रकारु | पूर्ण जाणे तो द्विजारु| पूजा केली विचित्रु | म्हणोनी आनंद परियेसा ||६|| तया सायंदेव द्विजासी | श्रीगुरु बोलती संतोषी | भक्त हो रे वंशोवंशी | माझी प्रिती तुजवरी ||७|| ऐकोनी श्रीगुरुचे वचन | सायंदेव करी नमन | माथा ठेवोनी चरणी | नमिता झाला पुन्हा पुन्हा ||८|| जय जय जगद्गुरु | त्रयीमुर्तीचा अवतारु | अविद्यामाया दिससे नरू | वेदा अगोचर तुझा महिमा ||९|| विश्वव्यापक तुची होशी | ब्रम्हाविष्णुव्योमकेशी | धरिले स्वरूप तू मानुषी | भक्तजन तारावया ||१०|| तव महिमा वर्णावयासी | शक्ती कैची आम्हासी | मागेन एक तुम्हासी | कृपा करणे गुरुमुर्ती ||११|| माझे वंशपरंपरी | भक्ती द्यावी निर्धारी | ईह सौख्य पुत्रपौत्री | उपरी द्यावी सद्गती ||१२|| ऐसी विनंती करोनी | पुनरपी विनवी करुणावचनी | सेवा करतो द्वारी यवनी | महाक्रुर असे तो ||१३|| प्रती संवत्सरी ब्राह्मणासी | घात करतो जिवेसी | याची कारणे आम्हासी | बोलवित असे आज ||१४|| जाता तयाजवळी आपण | निश्चये घेईल माझा प्राण | भेटी झाले तुमचे चरण | मरण कैचे आपणासी ||१५|| संतोषोनी श्रीगुरुमुर्ती | अभय देती तयाप्रती || विप्रा मस्तके हस्त ठेवती | चिंता न करी म्हणोनिया ||१६|| भय सांडोनी तुवा जावे | क्रूर यवनासी भेटावे | संतोषोनी प्रियभावे | पुनरपी पाठवील आम्हापासी ||१७|| जो वरी परतोनी तू येसी | असो आम्ही भरवसी | तुवा आलीया संतोषी | जावू मग येथोनिया ||१८|| निजभक्त आमुचा तुची होशी | पारंपार वंशोवंशी | अखिलाभिष्टा तू पावसी | वाढेल संतती तुझी बहुत ||१९|| तुझे वंश परंपरी | सुखे नांदती पुत्रपौत्री | अखंड लक्ष्मी तयाघरी | निरोगी होती शतायुषी ||२०|| ऐसा वर लाधोन | निघे तो सायंदेव ब्राह्मण | जिथे होता तो यवन | गेला त्वरीत तयाजवळी ||२१|| कालांतक यम जैसा | यवन दुष्टा परियेसा | ब्राह्मणाते पाहता कैसा | ज्वालारूप होता जाहला ||२२|| विमुख होवेनी गृहात | गेला यवन कापत | विप्र जाहला भयचकीत | मनी श्रीगुरु ध्यातसे ||२३|| कोप आलिया ओळंबियासी | केवी स्पर्षी अग्निसी | श्रीगुरु कृपा होय ज्यासी| काय करील क्रूर दुष्ट||२४|| गरुडाचिया पिल्लांसी | सर्प तो कवणेपरी ग्रासी | तैसे तया ब्राह्मणासी | कृपा असे श्रीगुरुंची ||२५|| का एखादे सिंहासी | ऐरावत केवी ग्रासी | श्रीगुरुकृपा होय ज्यासी | कळीकाळाचे भय नाही ||२६|| ज्याचे हृदयी श्रीगुरुस्मरण | त्यासी कैसे भय दारूण | कालमृत्यु न बधे जाण | अपमृत्यु काय करी ||२७|| ज्यासी नाही मृत्युचे भय | त्यासी यवन असे तो काय | श्रीगुरुकृपा ज्यासी होय | यमाचे मुख्य भय नाही ||२८|| ऐसेपरी तो यवन | अंतःपुरात जावुन | सुषुप्ती केली भ्रमित होवुन | शरीरस्मरण त्यासी नाही ||२९|| हृदय ज्वाळा होय त्यासी | जागृत होवोनी परियेसी | प्राणांतक व्यथेसी | कष्टत असे तये वेळी ||३०|| स्मरण असे नसे काही | म्हणे शस्त्रे मरितो घाई | छेदन करतो अवेव पाही | विप्र एक आपणासी ||३१|| स्मरण जाहले तये वेळी | धावत गेला ब्राह्मणाजवळी | लोळत असे चरणकमळी | म्हणे स्वामी तुची माझा ||३२|| येथे पाचारिले कवणी | जावे त्वरीत परतोनी | वस्त्रे भुषणे देवोनी | निरोप देई तो तये वेळी ||३३|| संतोषोनी द्विजवर | आला ग्रामा सत्वर | गंगातिरी असे वासर | श्रीगुरुंचे चरणदर्शन ||३४|| देखोनिया श्रीगुरुंसी | नमन करी तो भावेंसी | स्तोत्र करी बहुंवसी | सांगे वृत्तांत आद्यत ||३५|| संतोषोनी श्रीगुरुमुर्ती | तया द्विजा आश्वासती | दक्षिण देशा जावू म्हणती | स्थानास्थान तिर्थयात्री ||३६|| ऐकोनी श्रीगुरुंचे वचन | विनवितसे कर जोडून | ना विसंबे आता तुमचे चरण | आपण येई समागमे ||३७|| तुमचे चरणाविने देखा | राहू न शके क्षण एका | संसारसागरतारका | तुची देखा कृपासिंधु ||३८|| उद्धारावया सगरांसी | गंगा आणली भुमीसी | तैसे स्वामी आम्हांसी | दर्शन दिधले आपुले ||३९|| भक्तवत्सल तुझी ख्याती | आम्हा सोडणे काय निती | स्वये येवू निश्चिती | म्हणोनी चरणी लागला ||४०|| येणेपरी श्रीगुरुंसी | विनवी विप्र भावेसी | संतोषोनी विनयेसी | श्रीगुरु म्हणती तयेवेळी ||४१|| कारण असे आम्हा जाणे | तिर्थे असती दक्षिणे | पुनरपि तुवा दर्शन देणे | संवत्सरी पंचदशी ||४२|| आम्ही तुमचे गावासमिपत | वास करु हे निश्चित | कलत्रपुत्रैष्टभ्रात मिळोनी भेटा तुम्ही आम्हा ||४३|| न करा चिंता असाल सुखे | सकळ अरिष्टे गेली दु:खे | म्हणोनी हस्त ठेविती मस्तके | भाक देती तये वेळी ||४४|| ऐसेपरी संतोषोनी | श्रीगुरु निघाले तेथोनी | जेथे असे आरोग्यभवानी | वैजनाथ महाक्षेत्रे ||४५|| समस्त शिष्यासमवेत|| श्रीगुरु आले तिर्थे पहात | प्रख्यात असे वैजनाथ | तेथे राहिले गुप्तरुपे ||४६|| नामधारक विनवी सिद्धासी | काय कारण गुप्त व्हावयासी | होते शिष्य बहुंवसी | त्यांसी कोठे ठेविले ||४७|| गंगाधराचा नंदनु | सांगे श्रीगुरुचरित्र कामधेनु | सिद्धमुनी विस्तारुनी | सांगे नामधारकासी ||४८|| पुढील कथेचा विस्तारु | सांगता विचित्र आपरु | मन करोनी एकाग्रु | ऐका श्रोते सकळीक हो ||४९|| इति श्रीगुरुचरित्रामृते परमकथाकल्पतरौ श्रीनृसिंहसरस्वतुपाख्याने सिद्धनामधारकसंवादे क्रुरयवनशासनम् सायंदेव-वरप्रदानम् नमः चतुर्दशोध्यायः | श्रीगुरुदेव दत्तात्रयार्पणमस्तु|

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