चंद्र आरती

चंद्र आरती

जयदेव जयदेव जय चिन्मय चंद्रा ॥
निजतेजें ओवाळूं सच्चित्सुखभद्रा ॥ध्रु०॥

उदयास्तुविणें शोभसि अखंड चिद्नगनीं ॥
भक्तचकोरां जिवविशि परमामृतपानीं ॥
अक्षय निजनिष्कलंक निरसुनि तमरजनीं ॥
तापत्रय दुर करिसी लावुनि निजभजनीं ॥१॥

तव करुणारसपियुषें जन वन वनस्पती ॥
स्थिरचर सफलित पल्लवपुष्पेंसह होती ॥
शुकादि पव्क फळें ते सेवुनियां निवती ॥
पूर्णापूर्ण कळातित तेजोमयमूर्ति ॥२॥

निज बिज धान्यें विरुढत तव करुणापियुषें ॥
सेवुनि मुनिजन वर्तति नर्तति संतोषें ॥
आरति उजळुनि निजतेजप्रकाशें ॥
रंगीं रंगुनि गर्जति निगमागम घोषें ॥३॥

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