सप्तशती चरित्रआरती

सप्तशतीचरित्रआरती
चाल:- हेरंब शिवकुल भूषणा..
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हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
सुरथमिषाने मार्कण्डेये।
तुझ्या चरित्रा गायिले।।
सप्तशृंगी बैसुनि माये।
तृप्त मने तू ऐकिले।।
त्रैलोक्यातिल सकल जीव हे।
मधुकैटभे गांजिले।।
ब्रह्मस्तुतीने नारायणी तुज।
योग निद्रेतुनि उठवीले।।
सहस्त्रवरुषे युध्द करोनि।
दैत्य द्वया तू मारिले।।
आश्वासुनि मग देवऋषिंना।
जगताला या रक्षिले।।१।।
हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
(सप्तशती अध्याय१,प्रथम चरित्र)
शक्तिहीन करोनि देवा। महिषासुर जगी मातला।।
दिव्य तेज तव एकवटोनि।
ससैन्य त्या विध्वंसिला।।
इंद्रादि देवांनी स्तविले।
तुझ्या गुणांसी गायिले।।
युध्दाग्निने शुंभ-निशुंभा।
जाळिन हे आश्वासिले।।२।।
हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
(सप्तशती अध्याय२-३-४, मध्यम चरित्र)
गंगातटि सुरवर नर किन्नर।
जमुनि तुजला प्रार्थिती।।
पूर्वचरित्री आश्वासन जे।
दिधले ते प्रतिपादिती।।
निशुंभदूते ‘श्री’ सौंदर्यः।
असुरभूपा सांगीतले।।
त्वरित येऊनि असुरेश्वैर्यः।
तुजलागी प्रतिपादिले।।
परत धाडिले दूतां।
असुरा,युध्दासी आमंत्रिले।।
धूम्रविलोचन चंड-मुंड ही।
युध्दकुंडी तू जाळिले ।।३।।
हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
(सप्तशती अध्याय५-६-७, उत्तम चरित्र)
देवतेज ते शक्तिरुपाने।
समरांगणी तू प्रकटविले।।
रक्तबीजही निरक्त करुनि।
असुरकुला विध्वंसिले।।
निशुंभादिक बहुवेगाने।
युध्दालागी पातले।।
पतंगापरी तेजामध्ये।
जळुनि भस्मचि पै झाले।।४।।
हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
(सप्तशती अध्याय८-९, उत्तम चरित्र)
शुंभासुर मग अतिक्रोधाने।
दुर्गे तुजसी बोलिला।।
अन्यांच्या त्या बलाश्रिताने।
युध्दखेळ तू खेळियला।।
तूच एक वा मीच एकला।
कोण जिंकितो आजला।।
सशक्ततेने असुर एकटा।
कपटयुध्दही खेळला।।
दिव्यविभूति एक शरिर हे।
असुरालागी दाविले।।
शुंभासुर अन् अंबा यांचे।
युध्द अंबरी रंगले।।
अंबरातही सुरनर किन्नर।
विस्मय करते जाहले।।
दुर्गेने मग असुराला त्या।
भिर-भिर-भिर भिरकावले।।
गरगर करीत वर तो गेला।
निरहंकारी जाहला।।
जयजय अंबे मनांत म्हणुनी।
“श्री”चरणी विश्रामला।।५।।
हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
(सप्तशती अध्याय१०, उत्तम चरित्र)
गंधर्वादि भूमंडळही।
हर्षोल्हासे नाचले।।
ऋषीमुनींच्या स्तवन रवाने।
तुझे ह्रदय विद्रावले।।
पुन्हा यशोदा कुशित जन्मुनि।
तारिन हे संबोधिले।।
दानव बाधा होईल तेव्हा।
रक्षिन हे आश्वासिले।।
“समाधिवैश्या” सुराज्य देऊनि।
“सुरथा” मन्वंतर दिधले।।
“बाळकृष्णसुत” चरणी ठेवी।
हीच विनंती तुज विमले।।६।।
हे अंब रिपुकुल नाशिनी।
तुजआरती कुलस्वामिनी।।धृ।।
(सप्तशतीअध्याय११-१२-१३, उत्तम चरित्र)
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रचना –
प्रदीप बाळकृष्ण(बालाजी) जोशी, गुरुजी.
डोंबिवली ईस्ट
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