श्रीगुरुस्तुति

||श्रीगुरुस्तुति ||

जो सत्य आहे परिपूर्ण आत्मा | जो नित्य राहे उदितप्रभात्मा |
ज्ञाने जयाच्या नर हो कृतार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||१||

अखंड-आत्मा-अविनाशि दत्त | तया पदी लाविती जे स्वचित्त |
वित्तभ्रमा सोडिती ते कृतार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||२||

जो जागृति-स्वप्न-सुषुप्ति-साक्षी | जो निर्विकारे सकला निरीक्षी |
वीक्षी परी ज्यासि नसे निजार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||३||

जळीं-स्थळीं सर्वहि वस्तुमाजी | व्यापोनि राहेचि तयासि राजी |
जो ठेवि भावे नर हो कृतार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||४||

जे दृश्य ते रूप नसे जयाचे | दृश्यात राहे अविकारि ज्याचे |
स्वरूप तोचि अविनाशि अर्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||५||

दृश्यासि घेता नच घेववे जे | स्वरूप तत्स्थ प्रभुचे स्वतेजे |
स्वये प्रकाशे जगि जो परार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||६||

असोनि सर्वत्र गुरुप्रसादा | विना न लाभे करतांहि खेदां |
भेदाचि वार्ता करि जो अपार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||७||

अनन्यभावे भजता अनन्य | लभ्य प्रभू जो नच होई अन्य |
संन्यस्त-सर्वेषणतारणार्थ | तो पूर्ण आनंद गुरु समर्थ ||८||

मागे तुकाराम तयासि दत्त | दे वासुदेवां करुनी निमित्त |
हे स्तोत्र चिन्मात्रपदा समर्थ | द्याया हराया सकलाध्यनर्थ ||९||

गाणगापुरि अठराशे सत्तावीस शकामधि|
उदेले स्तोत्र हे आधिव्याधिहारी हरी कुधी||१०||

|| इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीवासुदेवानंदसरस्वतिविरचिता गुरुस्तुति: संपूर्णा ||

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