श्रीकृष्ण चालीसा

श्रीकृष्णप्रेम चालीसा

  रे मन, क्‍यों भटकत पिरे भज श्रीनंदकुमार । नारायण अजहूँ समुझ ! भयो न कछू बिगार ।। लखी न छबि जिन श्‍याम की किया न पलभर ध्‍यान । नारायण ते जगत में प्रगटे निपट पषान ।। जो रसकन उर नित बसै निगमागम के सार । नारायण तिन चरण की बार बार बलिहार ।। नारायण अति कठिन है हरि मिलिबे की बाट। या मारग जो पग धरे प्रथम सीस दै काट ।। नारायण प्रीतम निकट सोई पहुँचनहार । गैंद बनावे सीस की खलै बीच बजार ।। चौसर बिछी सनेह की लगे सीस के दाव । नारायण आशिक बिना को खेलै चितचाव ।। नारायण घाटी कठिन जहाँ नेह को धाम । विकल पूरछा सिसकबो, ये मग के बिसराम ।। नारायण या डगर मं कोउ चलत हैं वीर । पग-पग में बरछी लगे श्‍वास-श्‍वास में तीर ।। नारायण मन में वी लोक लाज कुल कान । आशिक होना श्‍याम पर हंसी खेल ना जान ।। नेह डगर में पग धरे फेर बिचारे लाज । नारायण नेही नहीं बातन को सिरताज ।। नारायण जाके हिये उपजत प्रेम प्रधान । प्रथमहि वाकी हरत है लोक लाज कुल कान ।। नारायण या प्रेम को नद उमगत जा ठौर । नल में सब मरजाद के तट काटत है दौर ।। बरणाश्रम उरझे कोऊ विधि निषेध व्रत नेम । नारायण बिरले लखैं जिन मिल उपजै प्रेम।। लगन-लगन सबकी कहैं लगन कहाबै सोय । नारायण जा लगन में तन-मन डारै खोय ।। नारायण जग जोग जप सबसों प्रेम प्रवीन । प्रेम हरी को करत है प्रेमी के आधीन ।। नारायण जग प्रेम रस मुखसों कह्यो न जाय । ज्‍यों गूंगा गुड़ खाय है सैनन स्‍वाद लखाय ।। प्रेम खले सबसों कठिन खेलत कोउ सुजान । नारायण बिन प्रेम के कहाँ प्रेम पहचान ।। प्रेम पियाला जिन पिया झूमत तिन के नैन । नारायण वा रुप मद छके रहें दिन-रैन ।। नेम धरम धीरज समझ सोच विचार अनेक । नारायण प्रेमी निकट इनमें रहै न एक । रुप छके झूमत रहें तनकों तनक न ग्‍यान । नारायण दृग जल भरे यही प्रेम पहचान ।। मन में लागी चटपटी क‍ब निरखूं घनश्‍याम । नारायण भूल्‍या सभी खान, पान, बिसराम ।। सुनत न काहूकी कही कहै न अपनी बात । नारायण वा रुप में मगन रहे दिन-रात ।। देह-गेह की सुधि नहीं टूट गई जग-प्रीत । नारायण गावत पिरै प्रेम भरे रस-गीत ।। धरत कहूँ पग परत कहुं सुरत नहीं इक ठौर ।। नारायण प्रीतम बिना दीखत नहीं कछु और । भयो बाबरो प्रेम में डोलत गलियन माहिं । नारायण हरि-लगन में यह कछु अचरज नाहिं ।। लतन तरे ठाढ़ो कबहुं गहिूं यमुना तीर । नारायण नैनन बसी मूरति श्‍याम शरीर ।। प्रेमसहित गदगद गिरा करत न मुखसों बात । नारायण इक श्‍याम बिन और न कछू सुहात ।। कहो चहै कछु कहत कछु नैनन नीर सुरंग । नारायण बौरो भयों लग्‍यों प्रेम को रंग ।। कबहुं हंसै रोवे कबहुं नाचत कर गुणगान । नारायण तन सुधि नहीं लग्‍यों प्रेम को बान ।। जाके मन यह छबि बसी सोवतहूँ बतरात । नारायण कुण्‍डल निकट अद्युत अलक सुहात ।। ब्रह्मादिक के भोग-सुख विष सम लागत ताहि । नारायण ब्रजचंद की लगन लगी है जाहि ।। जाके मन में बस रही मोहन की मुसुकान । नारायण ताके हिये और न लागत ग्‍यान ।। जो घायल हरि दृगन के परे प्रेम के खेत। नारायण सुन श्‍यामगुन एक संग रो देत ।। नारायण जाको हियो बिंध्‍या श्‍याम दृग-बान । जग भावे है जीवतो ह्वै गयो मृतक समान ।। सुख-संपति धन धामकी ताहि न मन में आस । नारायण जाके हिये निसिदिन प्रेम प्रकास ।। नारायण जिनके हृदय प्रीति लगी घनश्‍याम । जाति-पांति कुल सों गयो, रहे न काहू काम ।। नारायण तब जानिये लगन लगी या काल । जित तित ही दृष्टि पड़ै दीखत मोहनलाल ।। नारायण ब्रजचंद के रुप पयोनिधि माहिं । डूबत बहु पै एक जन उछरत कबहूँ नाहि ।। नारायण जाके दृगन सुन्‍दर स्याम समाय । फूल, पात, फल, डार में ताको वहीं दिखाय ।। पराभक्ति वाको कहें जित तित स्याम दिखात । नारायण सो ग्‍यान है पूरन ब्रह्मा लखात ।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!